सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

चरम पर चरमराता मनमोहन का पूंजीवाद


दास्तोएव्स्की की डायरी ( द डायरी ऑफ ए राइटर) में उसनें पश्चिमी पूंजीवाद के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “हमारी सदी में एक भयानक क्रांति हुई इसमें बुर्जुआ वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) विजयी हुआ. बुर्जुआ वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) के उदय के साथ-साथ वहां भयानक शहर बनें जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता था. इन शहरों में आलीशान महल थे, अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियां थी, बैंक, बजट, प्रदूषित नदियाँ (नालों के रूप में) रेलवे प्लेटफार्म और कई तरह की संस्थाएं थी और इनके चारों ओर थे कारखानें. लेकिन इस समय लोग एक तीसरे चरण की प्रतीक्षा कर रहे है जिसमें बुर्जुआ वर्ग (पूजीवादी वर्ग) का अंत होगा, आम जनता जागेगी और वह सारी भूमी को कम्यूनों में वितरित करके बाग-बगीचों में रहने लगेगी. बाग-बगीचे ही नई सभ्यता को लायेंगे. जिस प्रकार सामंती युग के किलों की जगह शहरों ने ले ली उसी तरह शहरों की जगह बाग-बगीचे ले लेंगे यही सभ्यता के विकास की दिशा होगी. क्या दास्तोएव्स्की की पूंजीवाद के बारे में की गई टिप्पणी को पूंजीवाद पर गहराता मौजूदा संकट सच की तरफ ले जाता नहीं दिख रहा है?

हम कुछ सिद्धांतों से पूंजीवाद के इतिहास में घटित संकटों को समझाने की कोशिश करते है. इनमें से एक आपदा सिद्धांत है, इस सिद्धांत के तहत मानता है कि जिस समय पूंजीवाद के विरोधाभास अपने उच्चतम बिंदु पर पहुंचेंगें, पूंजीवाद स्वयं ढह जाएगा और स्वर्ग की एक नई सहस्राब्दी के लिए रास्ता बनाएगा. इस सर्वनाशवादी या अति अराजकतावादी विचार ने पूंजीवादी उत्पीड़न और शोषण से सर्वहारा की पीड़ा को समझने की राह में भ्रम तथा गलतफहमियां पैदा की हैं. बहुत से लोग इस तरह के एक गैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्रमित हुए हैं. एक और सिद्धांत है आशावाद, जिसे पूँजीपति वर्ग हमेशा समाज को अपना उपभोक्ता बनाते हुए उसमें फैलाता है. इस सिद्धांत के अनुसार, पूँजीवाद में अपने विरोधाभासों से उबरने के साधन मौजूद हैं और असल अर्थव्यवस्था सट्टेबाज़ी को नष्ट करके ठीक काम करती है. पूंजीवादी प्रतियोगिता की पद्धति की अराजकता पूंजीवादी संकट का एक अन्य कारण है. यह केवल आभासी वक्तव्य नहीं बल्कि चरितार्थ होता दिख रहा है कि पूंजीवाद पतन पर है यह आकस्मिक विनाश की ओर नहीं बल्कि व्यवस्था के एक नए पतन, पूंजीवाद के अंत होते इतिहास की आखिरी मंजिल की ओर बढ़ रहा है. यह केवल और केवल पूंजीवाद की देन है कि रोज़ दुनिया में एक लाख लोग भूख से मरते हैं, हर 5 सेकण्ड में पांच साल का एक बच्चा भूख से मर जाता है. 84 करोड लोग स्थायी कुपोषण के शिकार हैं और विश्व की 600 करोड की आबादी का एक तिहाई हर रोज़ बढ़ती कीमतों के चलते जीने के लिए संघर्ष कर रहा है.

दुनिया के दखते-देखते ३०-४० सालों में पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया. कहते है कि कोई जब अपने अंतिम चरम पर पहुंच जाता है तो उसके सामने ढलान की तरफ धीरे-धीरे आने के आलावा एक रास्ता और बचता है कि बिना किसी सहारे के तेजी से निचे आते हुए अपने आप को ध्वस्त कर ले. क्या पूंजीवाद की स्थिती इससे अलग है? क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि पूंजीवाद मौजूदा समय में गहरे संकट में है. दरअसल पूंजीवाद की इस विफलता की की हकीकत को समझने के लिए हमें पूंजीवाद के दो मुख्य सिद्धांतों को समझना होगा जिसमें पहला “मनुष्य अक्लमंद होते हैं, और बाजार का बर्ताव दोषपूर्ण” दूसरा “बाजार स्वयं अपने दाम निर्धारित करता है” पूंजीवाद के ये दोनों सिद्धांत ही गलत हैं. ओईसीडी के महासचिव खोसे अंखेल गूरिया अभी हाल ही में पूंजीवादी व्यवस्था के फेल हो जाने संबंधी कुछ बातों को स्वीकार करते हुए कहा है कि “मुझे लगता है कि नियामक के तौर पर हम असफल रहे, निरीक्षक के तौर पर असफल रहे और कार्पोरेट व्यवस्थापक के तौर पर असफल रहे, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की भूमिका और जिम्मेदारियां बाटनें में भी हम असफल रहे, हमारी वित्तीय असफलता तुरंत ही असल अर्थ व्यवस्था में फ़ैल गई, वित्तीय संकट से हम सीधे आर्थिक अपंगता और उसके बाद सीधे बेरोज़गारी के संकट तक पहुँच गए हैं.

पूंजीवाद के पैरोंकारों की इस स्वीकारोक्ति से क्या हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को कुछ सीख लेनी चाहिए या फिर वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ की नीतियों का अंधानुकरण ? दरसल देश का आम आदमी वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ द्वारा निर्देशित और बहुप्रचारित मौजूदा मनमोहनोंमिक्स अर्थनीति के पेचीदगियों से नावाकिफ है. उसे न केवल महंगाई, बेकारी, भ्रष्टाचार, आदि से निजाद चाहिए बल्कि उसे चाहिए पर्याप्त भोजन, आवास, चिकित्सा और शिक्षा. उसे मनमोहनोंमिक्स के भौतिक विकास से भी शायद कोई मतलब नहीं है. नब्बे के दशक में इक्कीसवी सदी के आगमन का हवाला देते हुए जिस वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण को अपनाया गया और इसके विषय में देश की आम जनता को चिकनी-चुपड़ी बातों से बरगलाते हुए वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ की नीतियों को जबरन थोपा गया तथा वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण के फायदे गिनाते हुए इसकी शान में जो कसीदे पढे गए. मॉरिशस ट्रीटी के रास्ते आवारा पूंजी के आगमन के साथ देश में विकृत विकास कार्यों की झड़ी लगाई गई. कहा जाने लगा कि मनमोहन के आर्थिक नीतियों के मद्देनजर भारत का कायाकल्प हो रहा है. मॉरिशस तथा अन्य रास्तों से देश में आयी आवारा पूंजी के बल पर फिजूलखर्ची के बड़े-बड़े रिकार्ड कायम करते हुए जहां एक तरफ सुपर एक्सप्रेस हायवे, मीलों लंबे फ्लाईओवर, ऊँचे-ऊँचे बांध, लम्बे टनल, अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे, जम्बो साईज क्रीडा स्थल और पर्यटन के लिए ऐशगाह निर्माण कराया गया वही दुसरी तरफ राज्य टिप्स समझौते, व्यापार घाटे, कर्ज के भार, मूल्यवृद्धि, सरकारी कोषों के दिवालिएपन और भ्रष्टाचार जैसे अपराधों के मकडजाल में फसता गया.

‘कार्पोरेट और मध्यवर्ग भारत’ के लिए इस मनमोहनी अर्थशास्त्र नें एक स्वर्ग सा निर्मित कर दिया था लुटेरों घोटालेबाजों दलालों दरबारियों और गुटबाजों से बना यह कार्पोरेट और मध्यवर्ग खूब मजे लूटा. मजे पश्चिमोन्मुख पांच सितारा किस्म के जीवन के, चहुमुखी व्याप्त वीआयपी मार्का शानों शौकत के मंत्रियों के लिए ऐशों आराम के असीमित साधनों के, माफियाओं को दी जा रही खुली छूट के, सर्वत्र व्याप्त और सब पर हावी भ्रष्टाचार के और ‘दरिद्र भारत’ का क्या हाल रहा? वह भूख से तड़पने, आत्महत्या का खौफनाक रास्ता अपनाने, बीमारी से कराहने, इलाज और भोजन के आभाव में मरने, किसानो ग्रामीणों जनजातियों सर्वहाराओं की ९० करोड से भी अधिक की तादात खून-पसीना बहाकर हाडतोड मेहनत करके भी आंसू पीकर गुजारा करती रही तथा निरक्षरता और कंगाली को ढोने को अभिशप्त रही. ये शर्मनाक अंतर्विरोध देश के लिए क्या भयानक बीमारी के लक्षण नहीं थे? क्या शुरुआती दौर में ही इसकी पडताल नहीं होनी चाहिए थी? लेकिन पूंजीवाद के पैरोकारों नें ऐसा नहीं किया. सत्ता के शिखर पर रीढ़ विहीन नायक विराजमान थे जो आज मौजूद है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक की तिकड़ी के दलाल के रूप में शासन कर रहे हैं. पूंजीवाद के समक्ष घुटने टेककर साष्टांग दंडवत कर प्रार्थनाओं का दौर चल रहा है गांधी के देश में सत्ता पर काबिज लोग जो गांधी को सत्ता का प्रतीक मानते है उनकी नजर में समाजवादी होना वैचारिक जुर्म मान लिया गया है, इतना ही नहीं समाजवाद को विकास के मार्ग में रोडे अटकानेवाला जानी दुश्मन भी करार दिया गया है.

महंगाई, पेट्रोल-डीजल के दाम बढाने और गरीबों, किसानों को दी जा रही सब्सिडी को घटाने के संबंध में अड़ियल रवैया अपनाना-इन सबसे जाहिर होता है कि देश के शासकों के मन में एक साम्राज्यवादी मानसिकता जोर मार रही थी लेकिन अब जब दुनिया मंदी की चपेट में हैं और इस मंदी की मार से ‘मध्यवर्ग भारत’ भी नहीं बच पाया है. ऐसे में वह भी मनमोहन के आर्थिक नीतियों के विरुद्ध खड़ा होता दिखाई दे रहा है. मनमोहन की उदारवादी नीतियों का रास्ता पूंजीपतियों के घर तक तो जाता है लेकिन आम आदमी के घरों को बाईपास करते हुए निकलता है. अब यह कांग्रेस को सोचना है कि अगले चुनावो में सत्ता का स्वाद उन पूंजीपतियों के वजह से चखने को मिलेगा या उस आम आदमी के वजह से जिसे मनमोहन और उनकी मंडली बचकर निकलने के लिए बाईपास का रास्ता अख्तियार कर चुकी है. अगर कांग्रेस यह खुशफहमी पाल बैठी है कि ‘अगले चुनाव तक मतदाता सरकार की जनविरोधी नीतियों को भूल कर उसे ही वोट करेंगे’ तो यह उसकी गलतफहमी है. मनमोहन के पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार के नए-नए कीर्तिमान कायम हो रहे है किन्तु देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए किसी एक पार्टी या नेता को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं होगा. क्योकि इसमें सभी शामिल हैं. यह अलग बात है कि सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार डॉ मनमोहन सिंह और उनकी आर्थिक नीतियाँ हैं जो पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था के लूट के अर्थशास्त्र की पोषक हैं. अब समय आ गया है जब कांग्रेस को यह तय करना है कि देश और आम आदमी का विकास समाजवादी अर्थव्यवस्था जिसे पंडित नेहरु नें अपनाया था, के माध्यम से होगा या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के माध्यम से जो कि पश्चिमी पूंजीवाद के नाम से जाना जाता है और जिसका खेल अब लगभग खत्म होने को है.

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