रविवार, 22 जून 2008

आम आदमी के साथ की गयी धोखाधडी

वर्षों पहले भारत वासियों ने एक ऐतिहासिक सपथ ली थी-घोर गरीबी और आभाव के बीच मुस्किल से गुजारा कर रही जनता के दुःख दर्द दूर करने की सपथ । लेकिन अफ़सोस, उस पवित्र निश्चय को लगातार भुलाया जा रहा है खुले-आम वादा खिलाफी की जा रही है । हम भारत के लोग...संविधान की प्रस्तावना में जो देशभक्ति पूर्ण संकल्प दर्ज किया गया था, सर्वोच्च राजाज्ञा का वह संकल्प जिसे भारत के संसद की सर्वोच्च सम्मति से भी नहीं बदला जा सकता उसे उलट दिए जाने की त्रासदी हम आज देख रहे है । और संसद ? उसका वजूद ही क्या रह गया है, जब संसद में किसी प्रकार की बहस किए बगैर ही वित्त मंत्रालय में गैट और डब्ल्यू० टी० ओ० का पालन करने की होड़ मची हो- शासन चाहे किसी भी पार्टी का हो, अविश्वास प्रस्ताव ही क्यो न पारित हुआ हो, आम चुनाव ही क्यो न सर पर हो और गिरगीट की तरह रंग बदलने वालों की गठबंधन सरकारें ही क्यो न स्थापित हुई हो । और दोष निवारण के विशेष अधिकारों से लैश दुसरी प्रमुख संवैधानिक संस्था सर्वोच्च न्यायालय की क्या स्थिति है ? कभी तो यह एक बुत की तरह रहस्यमय चुप्पी साधे रहता है और कभी कम महत्व के मुद्दों पर व्यवस्थाए देते हुए राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर राय देने से कतरा जाता है ।

ऐसे में कार्यपालिका वस्तुतः एक जंगली घोडे पर सवार होकर भारतीय जनता को मन मुताविक हांकती जा रही है इस पर लगाम लगाना न तो संसद के बस में है न न्यायपालिका के और न प्रेस के ।
अंकुश संतुलन की व्यवस्था स्थापित करने की बातें महज एक भ्रम साबित हुई है एक अरब से भी अधिक जनता की आवाज जो शिर्फ़ मतदान के समय तथा वह भी अत्यन्त धीमी सुनाई देती है का कोई मायने नहीं रह गया है । सत्ता चंद मंत्रियों से कैबिनेट के हाँथ में है, राष्टपति शीर्ष पर विराजमान है, विधायिका में मछली बाजार जैसा शोर है और राजनैतिक पार्टियाँ सौदेबाजी में मशगुल है इन सबसे त्रस्त आम जनता संदिग्ध प्रशासन की ओर खौफजदा निगाहों से देख रही है ।
बर्लिन की दीवार ढह चुकी है चीन की महान दीवार फांदी जा रही है । हिमालय भी एक चुनौती न रह कर कब्जा जमाने वाले विदेशी निवेशकों को न्योता दे रहा है । चुनाव एक नकली मुखौटा है मताधिकार प्राप्त आबादी का मात्र दस या बीस फीसदी हिस्सा चुनावी गणित के सहारे सत्ता पर कब्जा दिला सकता है और वह बहुमत का शासन कहला सकता है कैबिनेट एक षड्यंत्रकारी दल बन चुका है देश की प्रमुख पार्टीयाँ तुच्छ मतभेदों को लेकर हो हल्ला मचाती है उसमे चाहे कोई भी चुनाव जीत जाए राज्य साम्राज्यवाद के अलंबरदार पैक्स अमेरिकाना का ही होता है । संविधान की प्रस्तावना जैसे आधारभूत दस्तावेजों के उद्देश्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता, बावजूद इसके १९८० के दशक के उत्तरार्ध तक इसका पालन करने में कोताही बरती गई और बेईमानी भी की गई । हमारी आयात-निर्यात नीतियां विदेशी निवेश स्वीकार करने की तैयारी हमारा पूरा वित्तीय ढांचा और विदेश संवंधों में व्यवहारवाद यह सब गाँधी-नेहरू काल के अनुरूप हो रहे है आज तक विभिन्न
पार्टियों और गठबंधनों के मंत्रिमंडल संविधान की बाकायदा सपथ लेते रहे है जिससे ऐसा लगता है कि एक शाब्दिक निरंतरता बनी रही है एक के बाद एक सभी मंत्रियों नें गांधीजी को राष्ट्रपिता और आंबेडकर और नेहरू को आधुनिक भारत के निर्माता ही माना है । मगर अचानक १९९१ में पीछे मुड का आदेश दिया गया । वास्तव में इस दिशा पलट की भूमिका १९८० के दशक के उत्तरार्ध में राजीव गांधी के विचारधारात्मक घोटाले और २१ वी शताब्दी के आगमन के बारे में दुअर्थी बयानबाजी ने तैयार कर दी थी नरसिंह राव नें संसद की राय लिए बिना जनता के बीच बहस-मुबाहिसा कराए बगैर और भारतीय संविधान की आज्ञा की परवाह किए बगैर एकाएक दिशा पलट दी , इस जबरन कार्रवाई के दौरान वैश्वीकरण, उदारीकरण, और निजीकरण, के ऐसे सगूफे छोडे गये कि संवैधानिक जगत में उथल-पुथल मच गयी इधर वैचारिक भ्रम फैलाने और चिकनी-चुपडी बातों से जनता को बरगलाने की कोशिश हुई और उधर हमारे देश के आर्थिक ढांचे पर विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की दुधारी तलवार ने वार किया ।

भारत पर रीगनी अर्थशास्त्र यानि रीगनोमिक्स का पालन करने की शतें थोपी गयी इसी नये नुस्खे को नाम दिया गया मनमोहनोंमिक्स, चिदम्बरोमिक्स के रूप में इसका नया संस्करण तैयार हुआ इसके पश्चात् स्वदेशी के समर्पित कार्यकर्ताओं, गरीबी की नब्ज टटोलने वालों और देश भक्ती के पुजारियों नें जन विरोधी और नस्लवादी दंभ के कड़वे घोल में उसी नुस्खे को मिलाकर एक नई दवा इजाद की - सिन्होमिक्स, अब मनमोहनोंमिक्स और चिदम्बरोमिक्स की जुगल जोड़ी दूसरी पारी डट कर खेल रही है ।

इन सब के निचोड़ के तौर पर देश में जो छुब्ध करने वाली तस्वीर उभर कर सामने आ रही है वह कुछ इस प्रकार है ।

कार्पोरेट कंपनियों के मालिक वर्ग के लिए और उसका पुछल्ला बन चुके मध्य वर्ग के लिए एक स्वर्ग सा निर्मित हुआ है । तमाम दरबारियों, गुटबाजों, शत्रु-सहयोगियों, संश्रयकारियों से बना है यह दस करोड़ से अधिक का मध्यवर्ग आज यह तबका खूब मजे लूट रहा है मजे पश्चिमोन्मुख पांच सितारा किस्म के जीवन के, चहुमुखी व्याप्त वी० आय० पी० मार्का शानों शौकत के, मंत्रियों के लिए ऐशो आराम के असीमित साधनों के, माफियाओं को दी जा रही खुली छुट के, सर्वत्र व्याप्त और सबपर हावी भ्रष्टाचार के, तथा विकृत विकास कार्यों के लिए राज्य द्वारा की गयी फिजूल खर्ची के जिससे एक ओर तो जहां-तहां फ्लाईओवरों, ऊँचें-ऊँचें बांधों, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों, जम्बो साइज क्रीडा स्थलों और पर्यटन के लिए ऐशगाहों का निर्माण हो रहा है तो दुसरी ओर राज्य व्यापार घाटे, कर्ज के भार मूल्यवृद्धि, सरकारी कोषों के दिवालिएपन, और उत्तरोत्तर अपराधों के बढ़ते मकड़जाल में फसता जा रहा है । और दरिद्र भारत का क्या हाल है ? वह भूख से तड़प रहा है, आत्महत्या का खौफनाक रास्ता अपनाने को विवस हो रहा है, बीमारी के कारण कराह रहा है, और इलाज व भोजन के अभाव में मर रहा है, किसानों, जनजातियों, ग्रामीणों, सर्वहाराओं, की एक बहुत बडी तादात खून-पसीना बहा कर हाड़-तोड़ मेहनत कर और आँसू पीकर गुजारा कर रही है । दुनिया में सबसे ज्यादा निरक्षर, कंगाल, एड्स के शिकार, बेघर परिवार, और गंदे, अस्त-व्यस्त, प्रदूषित, कोलाहल युक्त शहर हमारे भारत में ही है । गावों एवं कस्बों में पीने के पानी का भी अभाव है लेकिन स्काच विह्स्की, फास्ट-फ़ूड, पेप्सी, कोका-कोला, और काल-गर्ल संस्कृति को हर सरकार अपने शासन काल में प्रगती का पैमाना मानती रही है ।

ये शर्मनाक अंतर्विरोध भयानक बीमारी के लक्षण है जिसकी गहरी पड़ताल होनी चाहिए, यह काम कठिन नहीं है पर इसका अहसास कठिनाई पैदा करता है । सत्ता के शिखर पर ऐसे रीढ़ विहीन नायक विराजमान है जिनपर विकसित देश दबाव डालते है और जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, और विश्वबैंक की तिकडी के दलालों के रूप में शासन करते है । स्वदेशी मर चुका है, समाजवाद को जानी दुश्मन करार दिया गया है, अधर्मियों का राज है और मसीहाओं को सलीबों पर लटकाया जा चुका है, तथा बचे-खुचों को लटकाने का षड्यंत्र जारी है । विदेशी जीवनशैली की चका-चौंध में दृष्टिहीन हो चुका हमारा मध्यवर्ग देश को दुबारा उपनिवेश बनाने के संविधान विरोधी अभियान को सहयोग और समर्थन दे रहा है । अफसरशाहों और पार्टियों के पदाधिकारियों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चाटुकारिता करने की होड़ मची है । न्यायालय जुआ घर बन गये है, कानून के हांथ बांध दिए गये है और न्यायालयों के शरण में जाने वाले कंगाली के चपेट में आ रहे है । ऐसी स्थिति में किसी से कोई उम्मीद की जा सकती है ।

जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री हुए तो लगा कि वे हमें स्वराज्य की संकल्पना की ओर वापस ले चलेंगे लेकिन यह भोली आशावादिता ही साबित हुई वी० पी० सिंह पहले ही राजनीति के पटल से गायब हो चुके थे । फ़िर छमाही प्रधानमंत्रियों का ताँता लग गया इसके बाद स्वदेशी का दंभ भरने वालों और आज के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री- सब के सब स्वराज्य को ताक पर रख दिया और साम्राज्यवादी देवताओं को साष्टांग दंडवत कर उनकी ओर से आने वाले तमाम प्रस्ताव एक-एक करके स्वीकारते चले जा रहे है ।

बडे व्यवसायीयों और लुटेरों द्वारा संचालित वैश्विकरण के कारण महात्मा गाँधी के सपनों की हत्या ठीक उसी तरह हो रही है जिस तरह उनकी हत्या कर दी गयी । धनपिपासुओं के खातिर किए जा रहे उदारीकरण और निजीकरण के माध्यम से भारत की कृषि एवं उद्योग को विदेशी प्रभुत्व के नए नए अवतारों के हवाले किया जा रहा है ।

भारत के आर्थिक तंत्र पर आख़िर राज किसका है ? प्रचार चाहे कुछ भी किया जा रहा हो पेट्रौल -डीजल तथा रसोई घर के गैस का दाम बढाया जाना जनविरोधी कदम ही था और आयात करों में हेर-फेर राष्ट्रीय उद्योग के लिए हानिकारक ही होगा । सार्वजनिक निगमों को हलाल करना, विदेशी बैंकों और बीमा कंपनियों को प्रवेश की निर्बाध छुट देना, पेटेंट और ट्रिप्स-ट्रिप्स, परमाणु समझौते आदि को लागु करने के प्रति अड़ियल रवैया अपनाना -इन सबसे जाहिर है कि एक साम्राज्य परस्त मानसिकता जोर मार रही है । वित्तमंत्री पी० चिदंबरम ने कहा है कि अभी और सख्त फैसले किए जाने है इसका अर्थ है कि उन भारतीयों की टूटी अर्थ व्यवस्थाएं जिन्हें इन्सान तक नही समझा जाता, बर्फीली हवाओं के चपेट में आने वाली है । आख़िर वे देश के उन गरीबों के हित में सख्त फैसले क्यो नहीं लेते जिनके मतों से सत्ताशीन हुए है ? उनके मतदाता कौन थे ? अमेरिकी कंपनिया या भारत की आम जनता ? गैट-असुर के सामने आत्मसमर्पण करने के सवाल पर विपक्ष की सत्ता पक्ष के साथ एकता है । स्वतंत्रता प्राप्ति के ४० साल बाद तक भारतीय आवाम ने अपने बेहतरी के लिए न कभी भीख मांगी न उधार लिया और न कभी घुटने टेके । देश का संकठ अल्पावधि ऋण लेने के गैर जिम्मेदार फैसलों, विदेश से खर्चीले सामानों की खरीद तथा निवेश और साथ-साथ जनमानस के प्रति उदासीनता के कारण पैदा हुआ है । उधर विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के शूरमाओं नें इस संकठ का लाभ उठाने की कोशिश शुरू की, इधर हमारी सरकार चलाने वाले उसका शिकार बनने के लिए तैयार बैठे थे । क्या कोई वैकल्पिक रास्ता भी था इसपर सायद ही संदेह होगा कि जब विकासशील देश धनी देशों के साथ सीधा संवंध बनाते है तो वे आधुनिक तकनीक पर आधारित नये उद्योग एवं सेवा क्षेत्रों की आवश्यकता महसूस करते है । सवाल उस मान्यता पर उठाया जाना चाहिए जिसके अनुसार इस आधुनिक क्षेत्रों का इतना व्यापक विस्तार किया जा सकता है कि उसके लाभ आम आदमी तक पहुंचनें लगेंगे और यह कि ऐसा जल्दी ही संभव बना दिया जाएगा ।

हमारे वक्तव्य का प्रस्थान बिन्दु या यों कहें कि इस हद तक की गरीबी है । जो दुःख तकलीफ पैदा करती है, मनुष्य को छरित करती है और उसकी छमताओं को कुंद कर देती है हमारा पहला दायित्व यह जानने और समझने का है कि यह गरीबी किस तरह की सीमांए और बाधाएं खडी करती है साथ ही यह भी कि विकास का भौतिकवादी दर्शन हमें शिर्फ़ भौतिक अवसरों का दर्शन कराता है । अन्य कम महत्वपूर्ण लगने वाले कारकों पर कोई प्रकाश नहीं डालता । आशय यह है कि दरसल मानव विकास की शूरूआत वस्तुओं से होती ही नहीं है, उनकी शिक्षा से होती है, उनके संगठन से होती है, एवं उनके अनुशासन से होती है । इन तत्वों के बिना सारे संसाधन महज अन्तर्निहित क्षमता और सुप्त संभावना ही बने रहते है ।

आज की मौजूदा स्थिति यह है कि देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रीगण, सांसदगण, तथा अन्य वी० आय० पी० ख़ुद को जनता से काटते जा रहे है किंतु यह निश्चित है कि यदि वे अपना रास्ता नही बदले तो उनको इसकी किंमत आवश्यक रूप से चुकानी पडेगी । वैश्वीकरण के प्रति जो भय व्याप्त हो रहा है वह एक न एक दिन लावा बनकर अवस्य फूटेगा । उदाहरण के लिए बास्तील का वह किला जिसपर प्रहार के साथ फ्रांसीसी क्रांति की शुरूवात हुई थी आज भी प्रतीक के रूप में खडा है । वस्तुतः फ्रांस की क्रांति के पश्चात मैग्नाकार्टा की उदघोषणा मानव अधिकारों की आवश्यकता को जिस तरह उल्लिखित किया बिलकूल ठीक वही स्थिति आज हमारे भारत देश की है ।