मंगलवार, 17 नवंबर 2009

भारतीय लोकतंत्र के मायने

भारत में आज लोकतंत्र के मायने क्या हैं कहने को तो यह छह दशक पुराना और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है किन्तु क्या जन सामान्य को इस लोकतंत्र का लाभ मिल रहा है । आखिर भारत के लोकतान्त्रिक सरकारों की दिशा क्या है ? भारत विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र होने के कगार पर खड़ा है किन्तु किसका विकास हुआ क्या यह राष्ट्रीय संपत्ति का विकास है या कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों का या फिर जन सामान्य का यह गहन अध्ययन का विषय है । सरसरी तौर पर देखने से विकास तो अब केवल राजनैतिक घटनाओं तक ही सीमित हो गया लगता है । देश में युवा बेरोजगारों की फेहरिस्त लगातार लंबी होती चली जा रही है । बेरोजगार रोजगार न मिलने के कारण आत्महत्या करने को विवश है । विकास के नाम पर सरकारी पैसे का दुरूपयोग, ठेकेदारों को लाभ पहुचाने एवं कमीशन हेतु अनाप-सनाप परियोजनाओं को मंजूरी देना और आम जनता से वसूले गये टैक्स के पैसे को उन परियोजनाओं में झोकना जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों का मुख्य लक्ष्य हो गया है
आखिर स्पेशल इकोनामिक ज़ोन किसके लिए है ? स्पेशल इकोनामिक ज़ोन अधिनियम २००५ को लागू कर किसका भला किया जा रहा है और किसको बेदखल किया जा रहा है किसी से छुपा नहीं है । इस अधिनियम की आड़ लेकर किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल करने का षड्यंत्र जारी है । इन्ही कारणों से कृषि का संकट और भी गहरा हो रहा है । क्या कृषि को हाशिये पर रख कर उद्योगों को उन्नत बनाया जा सकता है वह भी ऐसे उद्योगों को जिससे गिने-चुने उद्योगपतियों को लाभ हो । स्पेशल इकोनामिक ज़ोन को विकसित करने के नाम पर उद्योगपतियों को भारी पैमाने पर करों में छूट दी जा रही है इतना ही नहीं जनता से वसूले गए टैक्स का हजारों करोड़ रूपये सब्सिडी के नाम पर उद्योगपतियों के हवाले किया जा रहा है साथ ही इन स्पेशल इकोनामिक ज़ोन से श्रम कानूनों को दूर रखने की पुरजोर कोशिशें हो रहीं है जिससे निरंकुश उद्योगपति श्रमिकों का शोषण कर सकें । मनमोहन, चिदंबरम और मोंटेक डेढ़ से दो दशक पहले (ट्रिकल डाउन थ्योरी) के बारे में कहा था कि समाज के शिखरों पर समृद्धी आयेगी तो वह नीचे तक पहुंच जायेगी किन्तु नतीजों की दिशा इन दावों से एकदम उलट दिखती है । अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गालब्रेथ ने "ट्रिकल डाउन थ्योरी" का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि घोड़े को चाहे कुछ भी खिलाओ पीछे से वह लीद ही निकलेगा यानि ट्रिकल डाउन थ्योरी की आड़ में उद्योगपतियों को चाहे जितना भी छूट और मुनाफा कूटने के अवसर दिए जाय तो भी वे श्रमिकों को उतना ही देंगे जिससे वे कारखाने में अपनी हड्डियाँ गला सकें ।
देश के नागरिकों के लिए लोकतंत्र को बड़ी सफाई से "ये जनता का, जनता से, जनता के लिए शासन है" का नारा दिया जाता है यह नारा आमजन को भ्रमित करने के लिए गढ़ा गया लगता है । अभी तक लोकसभा या विधानसभा के चुनावों में ऐसा कहीं भी नज़र नहीं आया कि चुनाव जनता के लिए हो रहे है । नेताओं और उनकी तथाकथित पार्टियों द्वारा सत्ता हथियाने के उद्देश्य से अपनाए जा रहे हथकंडों को देख कर यही लगता है कि चुनाव सत्ता सुख की प्राप्ति के लिए हो रहे है इन चुनावों के पश्चात विजेता अपने कार्यकाल में जनता के हित कम और अपने हित अधिक साधते है । विख्यात गांधीवादी व दर्शनशास्त्री प्रोफ़ेसर रामजी सिंह नें एक व्याख्यानमाला में कहा कि भारत में दलगत राजनीति का दीया बुझ चुका है । दलगत राजनीति व सत्ता पर दलपतियों का कब्जा है और संसदीय प्रणाली महज औपचारिक लोकतंत्र बन गयी है । भारतीय लोकतंत्र पर परिवारवाद हावी है । ध्यान से देखें तो आज आधी संसद ही परिवारवाद का नमूना है । भारतीय राजनीति में परिवारवाद की मौजूदा स्थिती को देखकर सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले ५ से १० वर्षों में भारतीय संसद पर केवल ५०० परिवारों का कब्जा होगा और उन्ही का शासन भी ।
इन सबके बीच आम आदमी की स्थिती क्या है ? अभाव और गरीबी से त्रस्त मंहगाई की मार झेलने को मजबूर, मंहगाई की मार का सीधा असर आम आदमी पर पड़ रहा है । दिन भर मेहनत करके भी मुश्किल से दो जून की रोटी पूरे परिवार को नसीब हो रही है । लगभग ३५ करोड़ लोग भूखा सोने को विवश हैं । राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की जनवरी २००८ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार २००५-०६ में लगभग १९ % आबादी मात्र १२ रूपये प्रतिदिन से कम में गुजारा कर रही थी । इसी तरह २२% शहरी आबादी ५८० रूपये मासिक से भी कम में जीवनयापन करने को मजबूर है । देश की लगभग एक अरब दस करोड़ की आबादी में से शासक वर्ग और उसके नाभिनाल से जुड़े उच्च मध्य वर्ग और मध्यम मध्यवर्ग लगभग १५ से २० करोड़ के बीच है, इसमें पूंजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, शेयर दलालों, कमीशन एजेंटों, कार्पोरेट प्रबंधकों, सरकारी नौकरशाहों, नेताओं, डाक्टरों, इंजीनियरों, उच्च वेतनभोगी प्रोफेसरों, मिडिया प्रबंधकों, अच्छी प्रक्टिस करने वाले वकीलों को गिना जा सकता है । इन्ही के लिए लोकतंत्र के मायने हो सकते हैं बाकी के लगभग ८८ से ९० करोड़ की आबादी के लिए आज भी लोकतंत्र के मायने नहीं हैं । "अमर्त्य सेन के शब्दों में कहें तो मानव एक उदर के साथ दो हांथ और एक मस्तिष्क लेकर पैदा होता है और यह सत्ता और व्यवस्था की सफलता, असफलता होती है कि वह उसका किस तरह प्रयोग कराती है या तो उसके हांथ व मस्तिष्क से मानव समाज के विकास की ओर बढ़ा जा सकता है और व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सकता है अन्यथा वह इसे व्यवस्था परिवर्तन के हथियार के रूप में प्रयोग करेगा जहां उसे सम्पूर्ण रोजगार, सम्पूर्ण सुविधाए, और समानता की उम्मीद होगी"

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

(पसंद की भाषा में) बोलने की आजादी पर हमला

कल महाराष्ट्र विधान सभा में २००९ के नवनिर्वाचित विधायकों के सपथ समारोह में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आज़मी के साथ सदन में हाथापाई और मारपीट की गयी । आज़मी का दोष यह था कि उन्होंने हिंदी में सपथ लेने का साहस किया विधानसभा के अंदर किसी तरह की हाथापाई या अभिव्यक्ति में बाधा पहुंचाना दरअसल सदन की अवमानना एवं बोलने की आजादी पर हमला है।
संविधान के अनुच्छेद १९४ में राज्य के विधानमंडल को अधिकार होता है कि वे अपनी अवमानना के लिए अपने सदस्य या गैर-सदस्य को दंडित कर सकते हैं। अनुच्छेद १९४-३ यह कहता है कि विशेषाधिकार उल्लंघन के लिए राज्य विधानमंडलों के पास दंडित करने का वही अधिकार होगा, जो १९७८ में ४४ वें संविधान संशोधन के लागू होने के ठीक पहले था। सदन की अवमानना के लिए या विशेषाधिकार हनन के लिए सदन को जो तमाम अधिकार दिए गए हैं, उसमें जेल में निरूद्ध करना, बुलाकर फटकार लगाना या अन्य आवश्यक या उचित दंड देने के अधिकार शामिल हैं। इसके अलावा सदन को अपने सदस्यों को उपरोक्त दंडों के अलावा उनको निष्कासित करने या निलंबित करने या अन्य तरह से दंडित करने का अधिकार भी प्राप्त है। महाराष्ट्र विधानसभा में हमलावर विधायकों द्वारा अबू आजमी से हाथापाई या थप्पड़ मारना या कोई भी कार्रवाई करना गैरकानूनी कार्य करना सदन की अवमानना है।
हालाँकि सदन नें हमलावर विधायकों को चार वर्ष के लिए निलंबित कर दिया यह बात आयी गयी हो जायेगी महाराष्ट्र का सदन भी आने वाले दिनों में अपना काम करने लगेगा अबू आसिम आज़मी भी अपने साथ किये गये दुर्व्यवहार को भूलकर अपने काम में व्यस्त हो जायेगे किन्तु इस घटना से अगर किसी की क्षति हुई है तो वह है अपने पसंद की भाषा में बोलने की आजादी क्षति ! इसकी क्षतिपूर्ति न तो हमलावर कर सकते है ( माफी मांगने पर भी), न अबू आसिम आज़मी और न तो वह सदन जिसने प्रस्ताव पास करके हमलावर विधायकों को चार वर्ष कल लिए निलंबित कर दिया ।
कुछ लोग इसे अबू आसिम आज़मी की राजनैतिक हठवादिता की उपमा देंगे तो कुछ लोग उपरोक्त हमलावरों को क्षेत्रीय भाषाई उग्रवाद की उपमा देंगे किन्तु यहाँ पर हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं यह पसंद की भाषा में बोलने की आजादी पर हमला है और अबू आसिम उसके वाहक बनें लेकिन उन्होंने इस मुद्दे के प्रवाह को मोड़ दिया विषय पर बुलाये गये कांफ्रेंस में बाल ठाकरे पर तीखी टिप्पणी की और वे बोलने की आजादी पर हुए हमले को मुद्दा नहीं बना सके । अगर वे इस मुद्दे को लेकर आम जनता में गये होते तो आम जन में नवीन राजनीतिज्ञों एवं व्यवस्थातंत्रों के विरूद्ध एक नई जागरूकता, एवं संघर्ष चेतना का निर्माण होता एवं अभिव्यक्ति के आजादी के वास्तविक लडाई के वाहक बनते ।
लोकतंत्र में अपनी बात अपनी भाषा में कहने की आजादी होनी चाहिए इसे रोकना लोकतंत्र पर कुठाराघात है क्योंकि अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता का मूल मानव अधिकार है । किसी को उसके पसंद की भाषा में बोलने से रोकना उसकी स्वतंत्रता का हनन है, उसके मानव अधिकारों का हनन है १० दिसम्बर १९४८ वह ऐतिहासिक दिन था जब संयूक्त राष्ट्र महासभा नें मानव अधिकार पर सार्वभौमिक घोषणा पत्र यानि युनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स जिसके अनुच्छेद १९ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को विचारों की अभिव्यक्ति और जानकारी हासिल करने का अधिकार है ।
भारत के संविधान के द्वारा प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति का मूल अधिकार दिया गया है जिसमें मनचाही अभिव्यक्ति के साथ भाषाई स्वतंत्रता भी शामिल है । देश के प्रत्येक नागरिक को अपने पसंद की भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करने का अधिकार है अगर इन अधिकारों से कोई किसी को वंचित करता है या रोकता है तो वह मानव अधिकारों के उल्लंधन का दोषी है साथ ही वह राष्ट्र की एकता व अखंडता पर कुठाराघात करने का दोषी भी होगा ।

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

पाकिस्तान में नहीं है सुरक्षित हिन्दू-सिख परिवारों के मानव अधिकार

पाकिस्तान में हिन्दू-सिख परिवारों के मानव अधिकारों को कुचला जा रहा है और पाकिस्तानी सरकार तमाशबीन बनकर तमाशा देख रही है हिन्दू-सिख परिवारों को धर्म परिवर्तन हेतु धमकाया जा रहा है इतना ही नहीं वहां के हिन्दू परिवारों की लड़कियों को ज़बरदस्ती मुसलमान बना लिया जाता है बहुत से कट्टरपंथी मुसलमान इस मुहिम पर बड़ी मुस्तैदी से काम कर रहे हैं कि हिंदुओं को और ख़ासतौर पर उनकी बेटियों को मुसलमान बनाया जाए । पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २००५-६ में लगभग पचास हिंदू लड़कियों ने इस्लाम क़बूल किया था। पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं का कहना है कि " हमने तो जैसे-तैसे वक़्त गुज़ार लिया लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए पाकिस्तान में हालात अच्छे नहीं हैं । हम बहुत डर में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। हमारे बुज़ुर्गों ने पाकिस्तान में रहने का फ़ैसला करके बहुत बड़ा ख़तरा मोल लिया था।”
अगस्त १९४७ में पाकिस्तान बनते समय उम्मीद की गई थी कि वो मुसलमानों के लिए एक आदर्श देश साबित होगा लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि पाकिस्तान एक मुस्लिम देश ज़रूर होगा मगर सभी आस्थाओं वाले लोगों को पूरी धार्मिक आज़ादी होगी। पाकिस्तान के संविधान में ग़ैर मुसलमानों की धार्मिक आज़ादी के बारे में कहा भी गया है, “देश के हर नागरिक को यह आज़ादी होगी कि वह अपने धर्म की अस्थाओं में विश्वास करते हुए उसका पालन और प्रचार कर सके और इसके साथ ही हर धार्मिक आस्था वाले समुदाय को अपनी धार्मिक संस्थाएँ बनाने और उनका रखरखाव और प्रबंधन करने की इजाज़त होगी।” मगर आज के हालात पर ग़ौर करें तो पाकिस्तान में ग़ैर मुसलमानों की परिस्थितियाँ ख़ासी चिंताजनक हैं । उनकी पहचान पाकिस्तानी पहचान में खो सी गई है, बोलचाल और पहनावा भी मुसलमानों की ही तरह होता है, वे अभिवादन के लिए मुसलमानों की ही तरह अस्सलामुअलैकुम और माशाअल्लाह, इंशाअल्लाह जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं । पाकिस्तान में हिंदुओं की ज़्यादातर अबादी सिंध में है । सिंध और पंजाब में रहने वाले हिंदुओं के हालात में भी ख़ासा फ़र्क नज़र आता है सिंध में हिंदू अपने अधिकारों के लिए संघर्ष भी करते नज़र आते हैं लेकिन लाहौर में रहने वाले हिंदू जैसे पूरे तौर पर सरकार पर निर्भर हैं और उन पर सरकार की निगरानी भी है ।
इधर तालिबानियों के निशाने पर आए सिख परिवार पलायन करने को मजबूर है पिछले दिनों औरकज़ई ऐजेंसी इलाक़े में तालिबान चरमपंथियों ने जज़िया (सुरक्षा कर) नहीं चुकाने पर सिख धर्म के लोगों को घरों को तोड़ दिया लंबे समय से सिख समुदाय के लोग इस इलाक़े में रहते आए हैं और औरकज़ई एजेंसी में मोरज़ोई के नज़दीक फ़िरोज़खेल में लगभग ३५ घर सिखों के हैं। तालिबान और सिख समुदाय के बीच जज़िया तय भी हुआ था, लेकिन ऐसा माना जाता है कि रक़म के बहुत अधिक होने के वजह से सिख समुदाय इसे नहीं दे सके. इन इलाक़ों में पाकिस्तान सरकार की पकड़ बहुत ही कमज़ोर होने के कारण मूकदर्शक बनी तमाशा देख रही है, इसलिए तालेबान चरमपंथियों के ख़िलाफ़ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है और किसी कार्रवाई की उम्मीद भी नहीं की जा सकती भारत सरकार ने इस मामले पर केवल चिंता जता कर अपनी जिम्मेदारी पूरी करती दिखाई दी जो कि चिंता का विषय है ।
पिछले चार सालों में पाकिस्तान से करीब ५ हजार हिंदू तालिबान के डर से भागकर भारत आ गए, कभी वापस न जाने के लिए। अपना घर, अपना सबकुछ छोड़कर, यहां तक की अपना परिवार तक छोड़कर, आना आसान नहीं है। लेकिन इन लोगों का कहना है कि उनके पास वहां से भागने के अलावा कोई चारा नहीं था। २००६ में पहली बार भारत-पाकिस्तान के बीच थार एक्सप्रेस की शुरुआत की गई थी। हफ्ते में एक बार चलनी वाली यह ट्रेन कराची से चलती है भारत में बाड़मेर के मुनाबाओ बॉर्डर से दाखिल होकर जोधपुर तक जाती है। पहले साल में ३९२ हिंदू इस ट्रेन के जरिए भारत आए। २००७ में यह आंकड़ा बढ़कर ८८० हो गया। पिछले साल कुल १२४० पाकिस्तानी हिंदू भारत आए जबकि इस साल अगस्त तक एक हजार लोग भारत आए और वापस नहीं गए हैं। वह इस उम्मीद में यहां रह रहे हैं कि शायद उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाए, इसलिए वह लगातार अपने वीजा की अवधि बढ़ा रहे हैं। राना राम पाकिस्तान के पंजाब में स्थित रहीमयार जिले में अपने परिवार के साथ रहता था। अपनी कहानी सुनाते हुए उसने कहा- वह तालिबान के कब्जे में था। उसकी बीवी को तालिबान ने अगवा कर लिया। उसके साथ रेप किया और उसे जबरदस्ती इस्लाम कबूल करवाया। इतना ही नहीं, उसकी दोनों बेटियों को भी इस्लाम कबूल करवाया। यहां तक की जान जाने के डर से उसने भी इस्लाम कबूल कर लिया। इसके बाद उसने वहां से भागना ही बेहतर समझा और वह अपनी दोनों बेटियों के साथ भारत भाग आया। उसकी पत्नी का अभी तक कोई अता पता नहीं है।
विडंबना यह है भारत में शरणार्थियों के लिए कोई नीति नहीं है। पाकिस्तानी हिन्दू शरणार्थियों के लिए काम करने वाले सीमांत लोक संगठन के अध्यक्ष हिंदू सिंह सोढ़ा का मानना है कि- पाकिस्तान के साथ बातचीत में अथवा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत सरकार कभी पाकिस्तान में हिदुंओं के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार व अत्याचार का मुद्दा नहीं उठाती है। उन्होंने कहा- २००४-०५ में १३५ शरणार्थी परिवारों को भारत की नागरिकता दी गई, लेकिन बाकी लोग अभी भी अवैध तरीके से यहां रह रहे हैं। यहां पुलिस इन लोगों पर अत्याचार करती है। उन्होंने कहा- पाकिस्तान के मीरपुर खास शहर में दिसंबर २००८ में करीब २०० हिदुओं को इस्लाम धर्म कबूल करवाया गया। बहुत से लोग ऐसे हैं जो हिंदू धर्म नहीं छोड़ना चाहते लेकिन वहां उनके लिए सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं हैं। पाकिस्तानी सरकार से तो पाकिस्तानी हिन्दुओं-सिखों के मानव अधिकारों की सुरक्षा की उम्मीद करना बेमानी है किन्तु क्या पाकिस्तानी हिन्दुओं-सिखों के मानव अधिकारों की सुरक्षा की उम्मीद भारत सरकार से की जा सकती है ? ।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

हिरासत में मौत गंभीर मामला ! किन्तु आम बात

आज सुबह जब मै अखबार पढ़ रहा था तो अचानक मेरी नजर एक खबर पर पडी शीर्षक था " हिरासत में युवक की मौत से पुलिस संदेह के घेरे में" खबर को आगे पढ़ने पर पता चला कि मुंबई हाई कोर्ट के न्यायाधीश 'द्वय' जस्टिस बिलाल नाचकी एवं जस्टिस ए. आर. जोशी की डिविजन बेंच नें मंगलवार को याचिकाकर्ता मेहरूनिसा जो कि मृतक अल्ताफ की माँ है के याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि पहली नजर में यह हिरासत में हत्या का मामला लगता है क्योंकि पोष्टमार्डम रिपोर्ट में यह बात कही गयी है कि मृतक अल्ताफ के पुरे शरीर पर गंभीर घाव थे पुलिस इस मामले की लीपापोती कर रही है । संभव है कि याचिकाकर्ता के प्रयास एवं मुंबई हाई कोर्ट की सक्रियता से अल्ताफ के हिरासत में मौत का मामला उजागर हो जाय यह भी संभव है कि मामला उजागर होने से पहले दबा दिया जाये और याचिकाकर्ता हाँथ मलते हुए अदालत से बाहर आ जाय क्योंकि न्यायपालिका, विधायिका आदि आज के भारतीय लोकतंत्र की तानाशाही के दिखाने के दाँत हैं, पुलिस, सेना और तरह-तरह के अर्द्धसैनिक बल ही उसके खाने के दाँत हैं। तमाम पुलिसिया दमन-उत्पीड़न के बावजूद सरकार दोषी पुलिसकर्मियों पर न तो कोई कार्रवाई करती है और न ही ब्रिटिशकालीन पुलिस सम्बन्‍धी कानूनों में संशोधन करती है। हिरासत में मौत अब आम बात हो गयी है देश भर में हर रोज पुलिस हिरासत या कानूनी हिरासत में औसतन चार लोगों की मौत हो रही है ।
एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट ( टार्चर इन इंडिया ) खुलासा किया है कि १ अप्रैल २००१ से ३१ मार्च २००९ तक देश भर में कुल ११८४ लोगों की पुलिस हिरासत में मौत होने की सूचना राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को मिली इसमें उन लोगों की भारी संख्या है जिनकी मौत पुलिस हिरासत में की गई हिंसा ( मार-पीट) से हुई अधिकतर मौतें पुलिस हिरासत में लिये जाने के ४८ घण्टों के भीतर हुईं वर्ष २००७ में पुलिस हिरासत में ११८ लोगों की मौत हुई जबकि २००६ में यह संख्या ८९ थी। यानी कि एक साल में ३२.५ प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी के बरक्स रिपोर्ट बताती है कि २००७ में पुलिस हिरासत में हुई मौतों के ११८ मामलों में सिर्फ ६१ मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच के आदेश दिये गये या जाँच की गयी। १२ मामलों में कानूनी जाँच हुई। ५७ मामलों में पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ मामले दर्ज किये गये और ३५ पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ चार्जशीट दाख़िल की गयी। ग़ौरतलब है कि वर्ष २००७ में हिरासत में हुई मौत के मामलों में एक भी पुलिसकर्मी को सज़ा नहीं हुई। ध्‍यान देने वाली बात यह भी है कि ये ऑंकड़े सिर्फ उन मामलों के हैं जिनकी सूचना सम्बन्धित राज्यों की पुलिस ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को दी है। एसीएचआर की रिपोर्ट कई ऐसे मामलों का ज़िक्र करती है जिनमें हिरासत में हुई मौत की सूचना पुलिस ने मानवाधिकार आयोग को नहीं दी। इसके अलावा सेना, अर्द्धसैनिक बलों, सीमा सुरक्षा बल और अन्य सशस्त्र बलों की हिरासत मे होने वाली मौतों का ज़िक्र इस रिपोर्ट में नहीं है, क्योंकि ये बल केन्द्र सरकार के नियन्त्रण में हैं।
इन सब के बीच मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए बनाये गये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्यों में राज्य मानवाधिकार आयोग के पास कोई ख़ास अधिकार ही नहीं होते। ये सिर्फ जवाब-तलब कर सकते हैं और सूचनाएँ इकट्ठा कर सकते हैं। सरकारी अधिकारी बहुत बाध्‍य हो जाने पर ही और काफी टालमटोल के बाद इनकी बात मानते हैं। इन आयोगों की शिकायतें और संस्तुतियाँ कार्रवाई के इन्तज़ार में पड़ी धूल फाँकती रहती हैं। हिरासत में मौत होने के ज्यादातर मामलों में पीड़ित के स्वास्थ्य सम्बन्‍धी रिपोर्टों और मौजूदा साक्ष्यों के बजाय राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य मानवाधिकार आयोग पुलिस के बयान को तरजीह देता है। यही कारण है कि वर्ष २००७ में हिरासत में हुई मौतों के सिलसिले में एक भी पुलिसकर्मी को सज़ा नहीं हो पायी। अन्य सरकारी विभागों की तरह ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी आम जनता को जितनी राहत देता है, उससे कहीं अधिक का भ्रम बनाये रखता है। मानवाधिकारों का खुलेआम और बड़े पैमाने पर हनन के विरोध में मीडिया और सभ्य समाज में किसी सार्थक पहल का पूरी तरह अभाव है। ऐसे में मानव अधिकारों के संरक्षण हेतु कार्य कर रहे देश के तमाम बुद्धिजीवियों एवं मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी निश्चित रूप से बढ़ गयी है ।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

मानव अधिकार विचारधारा की उत्पत्ति एवं विकास में भारतीय योगदान

मानव अधिकार विचारधारा के विकास का क्रम भारत में आज से लगभग ९००० वर्ष (७३२३ ईसा पूर्व) पहले शुरू हुआ माना जाता है भारत के राज्य अयोध्या, प्राचीन काल में इसे कौशल देश कहा जाता था, के राजा रामचंद्र नें रावण और अन्य आततायी राजाओं का संहार कर रामराज्य की स्थापना की एवं द्वारका जोकि भारत के पश्चिम में समुद्र के किनारे पर बसी है, हजारों वर्ष पूर्व श्री कॄष्ण ने इसे बसाया था कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, गोकुल में पले, पर उन्होने द्वारका में ही बैठकर सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। कंस शिशुपाल और दुर्योधन जैसे आततायी अधर्मी राजाओं को नष्ट कर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की एवं नागरिकों के अधिकार उन्हें दिलाया । भगवान महावीर ( ५९९ ईसा पूर्व से २२७ ईसा पूर्व ) एवं भगवान बुद्ध ५६३ ईसा पूर्व के कालखंड में अधिकारों के अवधारणा की रचना की जिसमें सत्य, अहिंसा और समता मुख्य थे ।
इसी तरह यूनान में ( ४६९ से ३९९ ईसा पूर्व ) विख्यात दार्शनिक सुकरात का नाम आता है । सुकरात नें अपने अनुयाइयों को आत्मानुसंधान के बारे में तथा सत्य न्याय एवं इमानदारी का अवलंबन करने के बारे में बताया । हालाँकि तत्कालीन यूनानी शासकों नें सुकरात के उपदेशों पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया पर सफल न होने पर उन्होंने सुकरात को विषपान कर अपनी इहलीला समाप्त करने का आदेश दिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस प्रबल पैरोकार नें विषपान कर अपनी इहलीला तो समाप्त कर ली किन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आंच नहीं पहुचने दी इसके बाद सुकरात का शिष्य प्लेटो (४२८ ईसा पूर्व से ४२७ ईसा पूर्व ) प्लेटो का शिष्य अरस्तु (३८४ ईसा पूर्व से ३२२ ईसा पूर्व ) इन महान यूनानी दार्शनिकों नें तमाम मानवीय अधिकारों की व्याख्या की ।
इधर भारत में आगे चलकर सम्राट अशोक नें भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के (धार्मिक) अवधारणाओं को लेकर उसे राजनीतिक रूप दिया और यह सब सम्राट अशोक नें कलिंग की लडाई के पश्चात् उसमे हुए नरसंहार से दुखी होकर मानव गरिमा को अच्छुण बनाये रखने के प्रयास के तहत किया । सम्राट अशोक का कार्यकाल ईसा पूर्व २७३ से २३२ तक बताया जाता है इसके पश्चात् मानवीय अधिकारों को केंद्रविन्दु मानकर विश्व में तमाम क्रांतियाँ हुई जिसमें १२१५ ईसवी में मैग्नाकार्टा, १७९१ अमेरिकी बिल ऑफ राइट्स, तथा मानव अधिकारों को व्यापक गरिमा फ्रांसीसी क्रांति (१७८९ ) के पश्चात प्राप्त हुई । अमेरिका में जाँ जैक के संविदा सिद्धांत से प्रेरित क्रांति के समय संविधान सभा नें यह घोषणा की थी कि अमेरिकी संविधान निर्मित होने पर सबसे पहले मानव अधिकारों का उल्लेख किया जाएगा यह घोषणा वास्तव में जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में संयुक्त राज्य अमेरिका के स्वतंत्रता की घोषणा ( सन १७७८ ई०) के सिद्धांतों से प्रेरित थी ।
इसमें कोई दो राय नही कि भारत के आजादी की लडाई मानवीय अधिकारों के मूल्यों पर लड़ी गई । महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता के रूप में उभरे वे सत्याग्रह, अत्याचार के प्रतिकार एवं अहिंसा ( उन्होंने ये सभी अवधारणाए महावीर और बुद्ध के (धार्मिक) अवधारणाओं से उठाया ) और इसी का आजादी की लडाई में हथियार के रूप में इस्तेमाल किया तत्कालीन भारतीयों के दिलों-दिमाग पर छा गये सत्याग्रह, अत्याचार के प्रतिकार एवं अहिंसा रूपी हथियार इतनें कारगर साबित हुए कि आज भी समूची दुनिया महात्मा गांधी के इस प्रयोग का लोहा मानती है । देश के आजाद होनें के पश्चात सम्राट अशोक से प्रभावित हमारे तत्कालीन नेतागण भारतीय संविधान में भगवान बुद्ध और भगवान महावीर एवं सम्राट अशोक के अवधारणाओं को मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल किया इतना ही नहीं हमारे देश के तत्कालीन नेतागण दो कदम और आगे जाकर अशोक चक्र को राष्ट्रीय चिन्ह एवं अशोक स्तम्भ को राष्ट्रीय मुद्रा चिन्ह के रूप में स्वीकृत किया ।
जानकारों के मुताबिक तमाम देशों के संविधान में भगवान बुद्ध और भगवान महावीर एवं सम्राट अशोक के अवधारणाओं एवं मूल्यों को शामिल किया गया है । इतना ही नहीं हर विषय पर पश्चिमी देशों की तरफ देखने वालों और तमाम मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को शायद ही यह पता हो कि संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना २४ अक्टूबर १९४५ को हुई थी उसका मूल भगवान बुद्ध और भगवान महावीर एवं सम्राट अशोक की अवधारणाए एवं मूल्य ही है । जब हम मानवीय अधिकारों के अवधारणा के विकास का गहराई से अध्ययन करते है तब हमें मानव अधिकारों के विकास में प्राचीन भारत के राजा रामचंद्र, राजा कृष्ण, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर एवं सम्राट अशोक से लेकर महात्मा गांधी के योगदान की अद्वितीय गाथा का पता चलता है किन्तु शायद इस बात से अनजान या जानते हुए कि पुरी दुनिया भारतीय महापुरुषों द्वारा निर्मित मानवीय अधिकारों के अवधारणाओं एवं मूल्यों को स्वीकार्य एवं अंगीकृत किया है । भारत सरकार नें संयुक्त राष्ट्रसंघ के दबाव में आकर मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम १९९३ तो संसद में किसी तरह पास कर दिया किन्तु सरकार मानव अधिकारों की गरिमा को अच्छुण बनाये रखने के प्रति कितनी उदासीन है, दिखाई देता है ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

मानव अधिकार आयोगों द्वारा किये जा रहे मानव अधिकारों के हनन का कड़वा सच




भारत सरकार नें वर्ष १९९३ में अंतर्राष्ट्रीय एवं संयुक्तराष्ट्र संघ के निर्देशों को ध्यान में रख कर मानव अधिकार सुरक्षा अधिनियम १९९३ पारित किया इस अधिनियम के उद्देश्य कितने मानवीय थे या कितने तकनीकी यह अलग बहस का विषय है । बहरहाल अधिनियम को संसद से पारित करने के पश्चात राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया गया । उस समय भी तमाम वरिष्ठ मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की तरफ से सरकार द्वारा पारित किये गये अधिनियम के नियम व उपनियम तथा आयोगों में नियुक्तियों को लेकर तरह-तरह के सवाल खडे किये गये किन्तु इसके पश्चात भी मानव अधिकार कार्यकताओं को यह लगा कि कम से कम सरकार नें अधिनियम तो पारित किया ! आयोग तो बनाया ! ।
इन आयोगों को मानव अधिकार कार्यकर्ताओं नें मानव अधिकार हनन के शिकायतों के निपटारे के लिए बनाये गये एक फोरम के रूप में देखा और राज्य स्तरीय मानव अधिकार आयोगों के गठन हेतु अपने आंदोलनों को सक्रिय बनाये रखा परिणाम स्वरूप देश के तमाम राज्यों में मानव अधिकार आयोगों का गठन हो गया जिसमें आंध्रप्रदेश, आसाम, हिमांचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, केरल, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उडीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, गुजरात, एवं बिहार आदि का समावेश है ।
खेद जनक बात यह है कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग सहित तमाम राज्य मानव अधिकार आयोग विषय पर कार्यरत मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, सिविल सोसायटियों, संस्थाओं को समय-समय पर पीड़ित प्रताडित करने से बाज नहीं आते इनका मकसद मानव अधिकार हनन के मामलों पर नजर रखने तथा उसे रोकने के बजाय मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, सिविल सोसायटियों, संस्थाओं, को नष्ट करना हो गया है जोकि काफी गंभीर बात है दरअसल जिस दिन इन आयोगों की कमान नौकरशाहों के हाँथ में दी गयी उसी दिन यह तय हो गया कि आने वाले दिनों में ये आयोग ही मानव अधिकार आंदोलनों को कुचलने में अग्रणी भूमिका निभाएंगे इस समय वे स्थितियां बनती नजर आ रहीं है ।
मानव अधिकार आंदोलनों, संगठनों, संस्थाओं, को कुचलने के पीछे सरकारों की मंसा को जानने के लिए हमें यह समझना पडेगा कि इन आंदोलनों से सरकारों एवं सत्ताधारियों के किन हितों पर चोट पहुँचती है ! मसलन सरकारों एवं उसमें बैठे नौकरशाहों की जनविरोधी नीतियों का विरोध एवं उसका खुलासा करने, भ्रष्टाचार के मामले उजागर करने, नौकरशाहों के मनमानियों को रोकने का प्रयत्न करने, हिरासत में मौतों, फर्जी मुठभेडों, एवं पुलिस के अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने, जैसे मामले शामिल है इतना ही नही मानव अधिकार संगठनों की आयोगों के क्रिया कलापों के सम्बन्ध में उंगली उठाने से भी आयोगों में बैठाये गये नौकरशाह एवं पुलिस अधिकारी चिढ़ कर मानव अधिकार आंदोलनों को कुचलने की साजिशें रच रहें है ।
अब जरूरत इस बात की है कि मानव अधिकार एवं तमाम जनआंदोलनों से जुड़े हुए कार्यकर्ता एक मंच पर आयें और मानव अधिकार आयोगों एवं सरकारों द्वारा संगठनों एवं संस्थाओं को कुचलने के कुचक्र का कड़ाई से मुकाबला करें । क्योंकि इन निरंकुश पुलिस अधिकारियों एवं नौकरशाहों को अंकुश संतुलन की परिधि में बनाये रखने की जिम्मेदारी अंततः मानव अधिकार कार्यकर्ताओं पर ही है ।

सोमवार, 31 अगस्त 2009

जरूरी है भोजन के अधिकारों (राइट टू फ़ूड) को कानूनी संरक्षण

डा. मनमोहन सिंह नें शनिवार को पत्रकारों को संबोधित करते हुए बताया कि जन वितरण प्रणाली के लिए देश के पास पर्याप्त खाद्यान भंडार है देश में कोई भूखा पेट न रहे इसकी जिम्मेदारी मौजूदा सरकार के माध्यम से अपने ऊपर ली । सूखे के चलते देश के ऊपर मंडरा रहे अकाल और भूखमरी के खतरे और अपने पार्टी के चुनावी घोषणापत्र को ध्यान में रख कर उन्होंने यह बयान दिया । भूखमरी और कुपोषण गरीबी और अभाव देश के लगभग ३५ करोड़ लोगों को प्रभावित किये हुए है ऐसा नहीं कि हमारे प्रधानमंत्री को इस विषय की जानकारी नहीं है उपरोक्त ३५ करोड़ लोग जोकि भूखमरी और कुपोषण के लिए अभिशप्त है अभी तक इनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही क्यों नहीं तय की गयी । पहले से मौजूद इन आंकडों पर जब हम नजर डालते है कि भारत के करीब २० करोड़ लोग रात को खाली पेट सोने को मजबूर है (संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट) क्या प्रधानमंत्री महोदय नें इनके भोजन की व्यवस्था कर दी है ?
पिछले दिनों राष्ट्रपति ने यह घोषणा की कि भोजन का अधिकार कानून बनाना नयी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता है इसके तत्काल बाद खाद्य व नागरिक आपूर्ति मंत्रालय ने एक प्रस्ताव जारी किया जिसमें इस प्रस्तावित कानून के तहत सरकार की भूमिका महीने में सिर्फ़ २५ किलोग्राम चावल और गेहं तीन रुपये प्रति किलो की दर से आपूर्ति करने तक सीमित रखने की कोशिश की गयी । वह भी आबादी के एक छोटे से तबके के लिए जिन्हें सरकार गरीब मानती हो दबी जुबान यहां तक कहा गया कि इससे सरकारी खजाने पर काफ़ी बोझ पड़ेगा लेकिन इसके कुछ समय पहले यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस संदर्भ में शीघ्र कार्रवाई करने का आग्रह किया था जो कहीं ज्यादा व्यापक तरीके से भूखे लोगों को समुचित भोजन का भरोसा दिलाये उन्होंने कहा था कि इसके मसौदे में ऐसे लोगों का खास तौर पर ध्यान रखा जाये जो गंभीर रूप से भोजन के अभाव से ग्रस्त हैं जैसे कि अकेली महिला, अपंग या वृद्ध व्यक्ति, सड़कों पर पलनेवाले बच्चे, बंधुआ मजदूर, खेतिहर मजदूर और कचरा बीननेवाले लोगों समेत शहरी बेघर लोग ।
उनकी इस पहल पर ब्राजील के राष्ट्रपति लुला द सिल्वा के शब्दों की झलक थी जब उनके देश ने इसी तरह से एक खाद्य गारंटी योजना हंगर जीरो लांच की थी। लुला ने विश्वास जताते हए कहा था- हम अपने देश के लोगों के लिए यह संभव कर देंगे कि उन्हें रोज तीन वक्त खाने को मिले जिसके लिए किसी को हाथ न फ़ैलाना पड़े ब्राजील इस तरह की विषमता के साथ और आगे नहीं जा सकता हमें भूख, गरीबी और सामाजिक विषमता पर काबू पाना होगा । हमारी जंग किसी को मारने के लिए नहीं है यह जिंदगी बचाने के लिए है । ब्राजील की खाद्य सुरक्षा नीति का उपशीर्षक भी उतना ही जबरदस्त है -ऐसे ब्राजीली नागरिक, जिन्हें भोजन नसीब होता है वे उनकी मदद करें जिनके पास भोजन नहीं है । यदि भारत को फ़िर से इतिहास लिखना है तो उसे ऐसी नैतिक और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर ही भोजन का अधिकार कानून बनाना होगा ।
सवाल सिर्फ पेट भरने का ही नहीं है, सवाल समुचित पोषक तत्वों के शरीर में पहुंचने का भी है, ताकि शरीर इतना स्वस्थ बने कि व्यक्ति रोटी कमाने के लायक बन सके। अपेक्षित क़ानून में इस बात की गारंटी होनी चाहिये कि न केवल सबको पर्याप्त भोजन मिलेगा, बल्कि सबको पर्याप्त भोजन अर्जित करने का अवसर भी उपलब्ध कराया जायेगा। इस दृष्टि से देखें तो यह अधिकार व्यापक सन्दर्भों वाला बन जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ बरसों से भूख की समस्या से जूझने का संकल्प दुहराता रहा है और इसे मूल मानवीय अधिकारों का हिस्सा बताता रहा है। आज भी भूख एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा है लेकिन इतना कह देने से बात बनती नहीं। हर देश को अपने स्तर पर इस समस्या से जूझना है। कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में इस आशय की बात कही थी।
देश में कुपोषण और भुखमरी की भयावह स्थिति तथा सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में भ्रष्टाचार एवं लापरवाही को देखते हुए २००१ में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पी.यू.सी.एल.), राजस्थान ने भोजन के अधिकार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित चायिका दायर की। यह याचिका उस समय दायर की गई, जब एक ओर देश के सरकारी गोदामों में अनाज का भरपूर भंडार था, वहीं दूसरी ओर देश के विभिन्न हिस्सों में सूखे की स्थिति एवं भूख से मौत के मामले सामने आ रहे थे। इस केस को भोजन के अधिकार केस के नाम से जाना जाता है। भोजन के अधिकार को न्यायिक अधिकार बनाने के लिए विभिन्न संस्थाएं, संगठन लगातार संघर्ष कर रही है। पी.यू.सी.एल. द्वारा दायर की गयी इस याचिका का आधार संविधान का अनुच्छेद २१ है जो व्यक्ति को जीने का अधिकार देता है। जीने का अर्थ गरिमापूर्ण जीवन से है और यह भूख और कुपोषण से जूझ रहे व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यह एक मौलिक अधिकार है। सरकार का दायित्व है इसकी रक्षा करना। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार जीने के अधिकार को परिभाषित किया है, इसमें इज्जत से जीवन जीने का अधिकार और रोटी के अधिकार आदि शामिल हैं।
जब हम जीने के अधिकार की बात करते हैं, तो प्रकारांतर से वैयक्तिक और सामाजिक सुरक्षा को ही रेखांकित करते हैं। भोजन का अधिकार देने का मतलब सबको सस्ती दरों पर कुछ अनाज मुहैया करा देना ही नहीं, इसका अर्थ बेहतर जिंदगी की गारंटी देना है। सब स्वस्थ हों, शिक्षित हों, जीविका उपार्जन में समर्थ हों, इसके लिए उन स्थितियों का निर्माण ज़रूरी है, जिनमें यह सब संभव हो सकता है। भोजन का अधिकार देना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम होगा। ऐसे क़दम की सार्थकता ब्राजील प्रमाणित कर चुका है। अब देखना यह है कि हमारी सरकार चला रहे नेतागण अपने चुनावी घोषणापत्र में किये गये (राइट टू फ़ूड) भोजन के अधिकार विषय पर वायदे का विधेयक लाने और उसे लोकसभा में पास कराने जैसी नैतिक जिम्मेदारी कितनी जल्दी पूरा करते है ।

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

अदालतों में लंबित मामलों से हो रहा है मानव अधिकारों का हनन

पिछले दिनों प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह नई दिल्ली में राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के एक संयुक्त सम्मेलन संबोधित करते हुए बताया कि कानून और न्याय मंत्रालय न्यायिक सुधारों के बारे में एक रूप रेखा तैयार कर रहा है उन्होंने न्यायपालिका से ३००० खाली पदों को तत्काल भरने को कहा उन्होंने बताया कि भारत दुनिया का ऐसा देश है जहां सबसे अधिक संख्या में मामलों पर निर्णय होना बाकी है। उन्होंने कहा कि अधीनस्थ न्यायालयों में बीस से पच्चीस फीसदी तक न्यायिक पद खाली पड़े हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि न्यायिक अधिकारियों की क्षमता का विकास करने के लिए राज्यों की न्यायिक अकादमियों को सुदृढ़ करने की जरूरत है।बहुत जल्द नई दिल्ली में न्यायवादियों और अन्य संबंधित पक्षों के साथ बातचीत की जाएगी। इससे एक सीमा और पुनर्गठन तैयार हो जाएगा।
भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन ने न्यायिक अधिकारियों की बहुत अधिक कमी पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि इसकी वजह से विचाराधीन मामलों की बढ़ती हुए संख्या से निपटने के प्रयासों में बाधा पहुंच रही है। उन्होंने यह भी कहा कि ढ़ांचागत अड़चनों के कारण कानून के प्रतिभाशाली स्नातक न्यायिक सेवाओं में शामिल नहीं हो पाते और अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायिक अधिकारियों के सत्रह प्रतिशत से अधिक पद खाली पड़े हैं। इस सम्मेलन का लब्बोलुआब यह रहा कि प्रधानमंत्री नें न्यायपालिका को रिक्त न्यायिक पदों को भरने को कह कर गेंद न्यायपालिका के पाले में डाल दिया तो भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन ने ढ़ांचागत अड़चनों का हवाला देते हुए गेंद को पुनः सरकार की तरफ उछाल दिया ।
यह बात भारत सरकार के मुखिया डा. मनमोहन और न्यायपालिका के शीर्ष पुरुष के जी बालाकृष्णन दोनों को पता है कि भारत की अदालतों में लंबित मामलों नें उसकी न्यायिक प्रक्रिया के सही इस्तेमाल को लेकर सवालिया निशान खड़े किए हैं ? देश का एक प्रबुद्ध नागरिक तब अपना माथा ठोक लेता है जब उसे पता चलता है कि भारतीय अदालतों में न्याय की आस लिए करोडों मामले अंतिम फैसले का इंतजार कर रहे है । गौरतलब है कि देश भर के उच्च न्यायालयों में ३१ दिसंबर २००८ तक ३९,१४,६६९ मामले लंबित थे। जबकि ३१ मार्च २००९ तक उच्चतम न्यायालय में ५०१६३ मामले लंबित थे। देश भर की निचली अदालतों में वर्ष २००८ के अंत तक लंबित मामलों की संख्या २,६४,०९०११ थी जिसमें १,८८,६९,१६३ मामले क्रिमिनल, और ७५,३९,८४८ मामले सिविल से संबंधित हैं।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने देश की अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मुकदमों के विषय पर चिंता जाहिर करते हुए जल्द निस्तारण के लिए कानूनों में बदलाव की वकालत की है। महाराष्ट्र न्यायिक अकादमी के उद्घाटन समारोह के मौके पर राष्ट्रपति ने यहां कहा कि न्यायालयों के सामने इस समय सबसे बड़ी समस्या लंबित मुकदमों की है। मुकदमों पर निर्णय आने में काफी वक्त लगता है, तब तक मुकदमे से जुडे लोग सामान्य जीवन नहीं जी पाते। उन्होंने कहा, 'ऐसे लोगों की समस्या का समाधान खोजने की जरूरत है, जो लंबे समय से न्याय पाने का इंतजार कर रहे हैं।
पॉँच वर्ष, दस वर्ष या पंद्रह वर्ष तक एक मुकद्दमें का जारी रहना तो आम बात है कई कई मामले के निपटारे में तो ३५ से ४० वर्ष तक लग जाते है इसलिए भारत की कुछ जेलों में यह हाल है कि वहां तिल धरने की जगह नहीं है मध्य-प्रदेश के कुछ कारावासों में तो बंदी बारी बारी सोते हैं, यानि सबके लेटने तक की जगह नहीं है लंबित मुकद्दमों की अंतिम सुनवाई एवं न्याय की आस लिए मर रहे एवं मानसिक संतुलन खो रहे लोगो की जवाबदेही किस पर है ? सरकार और न्यायपालिका दोनों की तरफ से जजों की कमी का रोना रोया जाता है । मुकद्दमें के निपटारे के देरी के लिए चाहे सरकार जिम्मेदार हो या न्यायपालिका किन्तु यह आम आदमी के ही "मानव अधिकारों का हनन" है ।

शनिवार, 22 अगस्त 2009

फर्जी एनकाउंटर मामले में १४ पुलिसवालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज

मुम्बई : सन् २००६ के विवादास्पद एन्काउंटर मामले में गुरुवार को १७ लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। इनमे १४ पुलिस वाले हैं। इन सबके खिलाफ आईपीसी की धारा ३०२, ३६४ और ३४ के तहत वसोर्वा पुलिस में मामला दर्ज किया गया है।
जिन पुलिस वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई, उनमें एमआईडीसी के सीनियर इंस्पेक्टर प्रदीप सूर्यवंशी, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा, अरविंद सरवडकर, नितिन सरतपे, अंकुश पलांडे, गणेश हरगुडे आदि का नाम प्रमुख है।
एफआईआर दर्ज पुलिस वालों में पांच पीआई, एक एपीआई और दो पीएसआई हैं। इसके अलावा एक हेड कांस्टेबल, एक पुलिस नाईक और पांच कांस्टेबल भी हैं। पुलिस विभाग से अलहदा भी तीन पुलिस वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है।
यहां बताना जरूरी है कि बंबई उच्च न्यायालय ने कथित फर्जी मुठभेड़ में छोटा राजन गिरोह के एक संदिग्ध सदस्य की मौत के मामले की प्राथमिकी दर्ज कराने तथा मामले की जांच पुलिस उपायुक्त के तहत एक विशेष जांच दल से कराने का निर्देश गुरुवार को पुलिस को दिया था।।
जस्टिस बी. एच. मारलापल्ली और रौशन दलवी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने तब कहा था कि पुलिस उपायुक्त के एम एम प्रसन्ना की अध्यक्षता वाला विशेष जांच दल (एसआईटी) जांच करेगी और चार हफ्ते के भीतर अदालत को रिपोर्ट देगी।
छोटा राजन गिरोह का कथित सदस्य रामनारायण नवंबर २००६ में डी एन नगर पुलिस स्टेशन के अधिकारियों के हाथों मारा गया था। उसके भाई एडवोकेट रामप्रसाद गुप्ता ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि रामनारायण को पुलिस ११ नवंबर को घर से उठा ले गई और फर्जी मुठभेड़ में उसे मार डाला गया।
हाई कोर्ट ने पहले एक मैजिस्ट्रेट से जांच कराने का आदेश दिया था जिसने बताया कि रामनारायण की मौत हिरासत में हुई। यह निष्कर्ष पुलिस के इस दावे के विपरीत था कि पुलिस के साथ मुठभेड़ में वह मारा गया। खंडपीठ ने आदेश दिया था कि रामप्रसाद गुप्ता का बयान रिकार्ड किया जाए और उसे प्राथमिकी के रूप में लिया जाए।

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

वयस्कों द्वारा बनाये गये स्वैच्छिक समलैंगिक सम्बन्ध अब संवैधानिक मूल अधिकार

दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा आज २ जुलाई, २००९ को दिए गए ऐतिहासिक निर्णय द्वारा भारत में वयस्कों के बीच स्वैच्छिक समलैंगिक सम्बन्धों को संवैधानिक मूल अधिकारों के अंतर्गत मानते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ को इस हद तक शून्य घोषित कर दिया है। अब सहमति से वयस्क समलैंगिकों के बीच संबंध को इस धारा के अंतर्गत दण्डनीय नहीं माना जाएगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय का यह निर्णय कुल १०५ पृष्ठों, १३५ चरणों और २६३९७ शब्दों का है। इस संपूर्ण निर्णय को किसी ब्लाग की एक पोस्ट पर प्रकाशित कर पाना संभव नहीं है। लेकिन इस निर्णय के चरण संख्या १२९ से १३२ में निर्णय का निष्कर्ष है। यदि आप चाहें तो यह निष्कर्ष तीसरा खंबा के सहयोगी अंग्रेजी ब्लाग LEGALLIB पर जा कर इसे यहाँ पढ़ सकते हैं।

बुधवार, 17 जून 2009

महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग जाँच के दायरे में

महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग के काम-काज की जांच मुंबई हाईकोर्ट करेगा, मानवाधिकार आयोग में मानवाधिकार उल्लंघन के बारे में कोई करवाई न किए जाने को लेकर तथा आयोग के सदस्यों द्वारा नियमित तौर पर की गई अनियमितताओं पर एक जनहित याचिका दायर की गयी थी । इस याचिका के लिए सूचना अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त की गई थी याचिका में कहा गया था कि जून २००८ तक २८,०८३ मामले दायर किए गए थे । परन्तु आयोग नें कारवाई का आदेश केवल ३९ मामलों में दोषी अधिकारियों के खिलाफ दिया है । मानवाधिकार उल्लंघन के मामले शिकायतकर्ताओं नें दायर किए थे ये मामले राज्य के विरुद्ध थे जिसमें सरकारी अधिकारी भी शामिल थे ।
आयोग नें २४०७१ मामले निपटाए तथा जून २००८ तक ४०१२ मामले निपटाने बाकी थे याचिका में कहा गया था कि २४०३२ मामलों को विचारणीय न माना जाना अजीब लगता है । इसका अर्थ यह हुआ कि केवल ०।१६ प्रतिशत मामलों में ही मानवाधिकार उल्लंघन के केस साबित हो पाए क्या बाकी बकवास थे ? यह याचिका व्यवसायी व समाजसेवी पुष्कर दामले नें दायर की थी । जो हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार तथा एस।सी. धर्माधिकारी की खंडपीठ में गुरुवार को सुनवायी हेतु आयी थी । खंडपीठ नें इस याचिका पर राज्य सरकार से ३ सप्ताह के भीतर उत्तर देने को कहा है । याचिका में बताया गया है कि राज्य सरकार नें वर्ष १९९३ के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के वर्ष २००६ के संशोधन के प्रावधानों को लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया इस परिवर्तन से किसी भी उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता तथा ४ सदस्यों वाले आयोग में मात्र एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य रखे जाने थे पर वर्ष २००६ में आयोग केवल एक अध्यक्ष सी।एल। थूल की अध्यक्षता में ६ माह तक काम करता रहा ।
याचिका में आरोप लगाया गया है कि २३.११.२००६ में इसके लागू होने से पूर्व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित कमेटी नें ३ सदस्यों का चयन किया इनकी नियुक्ति राज्यपाल नें वास्तव में १०.११.२००६ में की थी । अब तक जो सदस्य कार्यरत रहे उनमें टी।सिंगार्वेल ( नागपुर के पूर्व पुलिस आयुक्त ) सुभाष लाला ( मुख्यमंत्री के पूर्व निजी सहायक) तथा विजय मुंशी ( उच्च न्यायलय के पूर्व जज ) याचिका में कहा गया है कि परिवर्तित एच.आर. एक्ट अभी तक महाराष्ट्र सरकार नें लागू नहीं किया है । याचिका में कहा गया है कि अपनी नियुक्ति के एक दिन बाद ही एक सदस्य कैंसर सर्जरी के लिए अवकाश पर चला गया । इस सदस्य के इलाज पर राज्य सरकार के ६।२५ लाख रूपये खर्च हुए एक अन्य सदस्य नें निर्देशों का उल्लंघन करके अपनी पत्नी के साथ अत्यधिक यात्रायें की ।

रविवार, 7 जून 2009

अनुकंपा नियुक्ति पाना व्यक्ति का अधिकार नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि अनुकंपा नियुक्ति पाना व्यक्ति का अधिकार नहीं है। अनुकंपा नियुक्ति कमाऊ व्यक्ति की अचानक हुई मौत से परिवार को होने वाले वित्तीय संकट से उबारने के लिए दी जाती है। यह नौकरी में भर्ती का जरिया नहीं हो सकती और न ही इसे कोई उपहार या सरकारी नौकरी पाने का अधिकार माना जा सकता है। यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 18 वर्ष पहले लापता हुए सिपाही के बेटे की अनुकंपा नियुक्ति की मांग खारिज कर दी है। यह फैसला न्यायमूर्ति मुकुंदकम शर्मा व न्यायमूर्ति बी. एस. चौहान की पीठ ने उत्तर प्रदेश के संतोष कुमार दुबे की याचिका खारिज करते हुए सुनाया है। इसके पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट भी संतोष की मांग ठुकरा चुका है।
इस मामले में संतोष के पिता वर्ष 1981 में लापता हो गए थे। वे सिपाही थे। उसकी मां ने लापता होने के सात साल बाद याचिका दाखिल कर पति की नौकरी के लाभ व पैसा दिलाए जाने की मांग की। कोर्ट ने सिपाही को लापता हुए सात वर्ष बीत चुकने के कारण मरा मानते हुए वर्ष 1999 में पत्नी के हक में आदेश पारित कर दिया। संतोष ने भी याचिका दाखिल कर अनुकंपा नियुक्ति की मांग की। राज्य सरकार ने याचिका का पुरजोर विरोध किया और कहा कि निर्धारित नियमों के मुताबिक संतोष को अनुकंपा नियुक्ति नहीं दी जा सकती क्योंकि उसके पिता को बिना बताए गैरहाजिर रहने पर नौकरी से बर्खास्त किया गया था। जबकि संतोष के वकील का कहना था कि जब कोर्ट के आदेश पर उसकी मां को वर्ष 1999 में लाभ दिए गए तो फिर उसकी याचिका को देरी के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सेवा के कर्मचारियों के आश्रितों को अनुकंपा नियुक्ति दिए जाने के नियमों पर विचार किया जिसमें अन्य आधारों के साथ एक आधार यह भी था कि मरने वाले के आश्रित मृत्यु के पांच वर्षो के अंदर अनुकंपा नियुक्ति की अर्जी देंगे। पीठ ने नियमों का विश्लेषण करते हुए कहा कि पांच वर्ष के भीतर अर्जी दी जानी चाहिए थी। संतोष के पिता वर्ष 1981 में लापता हुए। सात वर्ष की अवधि 1988 में पूरी होती है (किसी व्यक्ति के सात वर्ष तक लापता रहने पर कानून में उसे मरा मान लिया जाता है)। इसके बाद 1993 में पांच वर्ष और हो जाते हैं। याचिकाकर्ता को वर्ष 1993 तक अर्जी दे देनी चाहिए थी
कोर्ट ने कहा कि सिपाही के लापता होने के 18 साल बाद तक परिवार का गुजारा चलता रहा और सफलतापूर्वक आर्थिक संकट से उबर गया। इन परिस्थितियों को देखते हुए उन्हें याचिकाकर्ता को अनुकंपा नियुक्ति दिए जाने का निर्देश पारित करने का आधार नहीं लगता और इस मामले में लागू नियम भी उन्हें ऐसा निर्देश जारी करने की अनुमति नहीं देते हैं।
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