शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

संगठन द्वारा दिनांक ०९/११/२००८ को मुंबई के मालाड तालुका कमिटी द्वारा रखे गये मुफ्त आरोग्य शिविर का उद्धाटन

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

जरूरी है सूचना के अधिकारों का इस्तेमाल

सरकारी कार्यालयों में अक्सर लोगों का काम अटकाने का मामला सामने आता रहता है आम आदमी को इस समस्या से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से भारत सरकार नें वर्ष २००५ में राइट्स टू इन्फार्मेशन एक्ट ( आर. टी. आई ) कानून बनाया । जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर यह कानून देश के सभी हिस्सों में लागू है । देश का कोई भी नागरिक इस अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है । इस कानून के जरिये अपने काम से सम्बंधित जानकारी पा सकता है इस विषय में कुछ खास जानकारियां इस प्रकार है ।
आरटीआई कानून का मकसद :- इस कानून का मकसद सार्वजनिक विभागों के कामों की जवाबदेही तय करना और पारदर्शिता लाना ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके । इसके लिए सरकार नें केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों का गठन भी किया है ।
आरटीआई कानून के दायरे में आने वाले विभाग :- सरकारी दफ्तर, पीएसयू, अदालतें, संसद व विधानमंडल, स्थानीय संस्थाए, सरकारी बैंक, सरकारी अस्पताल, बीमा कम्पनियाँ, चुनाव आयोग, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, और राष्ट्रपति कार्यालय आदि आरटीआई कानून के दायरे में आते है । इनके आलावा वैसे एनजीओ जो सरकार से फंडिंग प्राप्त करते हों, पुलिस, सीबीआई व सेना के तीनों अंगों की सामान्य जानकारी भी इस कानून के तहत ली जा सकती है ।
इनपर आरटीआई कानून नहीं लागू होता :- किसी भी खुफिया एजेंसी की वैसी जानकारियां जिनके सार्वजनिक होने से देश की सुरक्षा व अखंडता को खतरा हो, को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है । लेकिन मानवाधिकार उल्लंघन होने व इन संस्थाओं में भ्रष्टाचार के मामलों की जानकारी ली जा सकती है । अन्य देशों के साथ भारत के सम्बन्ध से जुड़े मामलों की जानकारी को भी इस कानून से अलग रखा गया है साथ ही साथ निजी संस्थाओं को भी इस दायरे से बाहर रखा गया है । लेकिन इन संस्थाओं की सरकार के पास उपलब्ध जानकारी को सम्बंधित विभाग के माध्यम से हासिल किया जा सकता है ।
क्या है थर्ड पार्टी :- आरटीआई कानून में थर्ड पार्टी का जिक्र है । इसके तहत वैसी प्राइवेट कंपनियां आती है, जो सरकार से मदद नहीं लेती है और जो सूचना के अधिकार कानून के दायरे में नहीं आती । इन कंपनियों के बारे में जानकारी सिर्फ़ सरकारी विभागों के माध्यम से मांगी जा सकती है, लेकिन वे कंपनिया सीधे जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं है ।
कहां करे अप्लाई :- सम्बंधित विभागों में पब्लिक इन्फारमेंशन आफिसर को एक ऍप्लिकेशन देकर इच्छित जानकारी मांगी जा सकती है . इसके लिए सरकार नें सभी विभागों में एक पब्लिक इन्फार्मेशन आफिसर यानी पीआईओ की नियुक्ति की है . उसकी सहायता के लिए एपीआईओ भी होता है .
कैसे करें अप्लाई :- सादे कागज पर हाँथ से लिखी हुई या टाईप की गई अप्लिकेशन के जरिये से जानकारी मांगी जा सकती है । वैसे कुछ राज्यों को छोड़ कर सभी राज्यों में इसके फार्म मुफ्त में मिलते है । आरटीआई अप्लिकेशन के साथ १० रूपये की फीस भी जमा करानी होती है ।
अप्लिकेशन में क्या लिखें :- क्या सूचना चाहिए, कितनी अवधि की सूचना चाहिए, अपना नाम, पता, फ़ोन या मोबाईल नम्बर, ताकि सूचना देने वाला विभाग आपसे संपर्क कर सके । इसके अलावा फीस का विवरण भी देना होता है । अगर सूचना मांगने वाला गरीबी रेखा के नीचे आता है तो उसे कोई फीस नहीं देनी पड़ती, लेकिन ऍप्लिकेशन के साथ बीपीएल कार्ड की कॉपी अटैच करनी पड़ती है ।
कैसे जमा कराएँ फीस :- केन्द्र व दिल्ली से संबंधित सूचना आरटीआई के तहत लेने की फीस है १० रूपये । वैसे ज्यादातर राज्यों में भी १० रूपये ही है, पर कुछ राज्य ज्यादा भी चार्ज कर रहे है । फीस कैश, बैंक ड्राफ्ट, या पोस्टल ऑडर के रूप में दी जा सकती है ।
इन भाषाओँ का इस्तेमाल करें :- हिन्दी, अंग्रेजीया किसी भी स्थानीय भाषा में ऍप्लिकेशन दी जा सकती है ।
सूचना मिलने में देरी होने पर क्या करें :- आमतौर पर सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी तीस दिन में मिल जानी चाहिए । थर्ड पार्टी यानी प्राइवेट कंपनी के मामले में ४५ दिन और जीवन और सुरक्षा से संबंधित मामलों में ४८ घंटों में सूचना मिलनी ही चाहिए । ऐसा न होने पर संबंधित विभाग के संबंधित अधिकारी पर एक केस के लिए २५० रूपये प्रतिदिन के हिसाब से २५ हजार रूपये तक का जुर्माना हो सकता है ।
इसके अंतर्गत कौन आते है :- यह अधिनियम ज़म्मू-कश्मीर राज़्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू है (एस। 12)।
सुचना का क्या मतलब होता है :- सूचना का मतलब है- रिकार्डों, दस्तावेज़ों, ज्ञापनों, ई-मेल, विचार, सलाह, प्रेस विज्ञप्तियाँ, परिपत्र, आदेश, लॉग पुस्तिकाएँ, ठेके, टिप्पणियाँ, पत्र, उदाहरण, नमूने, डाटा सामग्री सहित कोई भी सामग्री, जो किसी भी रूप में उपलब्ध हों। साथ ही, वह सूचना जो किसी भी निजी निकाय से संबंधित हो, किसी लोक प्राधिकारी के द्वारा उस समय प्रचलित किसी अन्य कानून के अंतर्गत प्राप्त किया जा सकता है, बसर्ते कि उसमें फाईल नोटिंग शामिल नहीं हो। (एस।-2 (एफ))
इसके अंतर्गत निम्न चीजें आती है :-
(1) कार्यों, दस्तावेज़ों, रिकार्डों का निरीक्षण,
(2) दस्तावेज़ों या रिकार्डों की प्रस्तावना/सारांश, नोट्स व प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करना,
(3) सामग्री का प्रमाणित नमूने लेना,
(4) रिंट आउट, डिस्क, फ्लॉपी, टेपों, वीडियो कैसेटों के रूप में या कोई अन्य ईलेक्ट्रॉनिक रूप में जानकारी प्राप्त करना (एस- 2(ज़े))
लोक अधिकारी के कर्तव्य :-
1. इस कानून के लागू होने के १२० दिन के भीतर निम्न सूचना प्रकाशित कराना अनिवार्य होगा,
2. सरकार द्वारा अपने संगठनों, क्रियाकलापों और कर्त्तव्यों के विवरण
3. अधिकारियों और कर्मचारियों के अधिकार और कर्त्तव्य
4. अपने निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनाई गई विधि, पर्यवेक्षण और ज़िम्मेदारी की प्रक्रिया सहित
5. अपने क्रियाकलापों का निर्वाह करने के लिए इनके द्वारा निर्धारित मापदण्ड
6. अपने क्रियाकलापों का निर्वाह करने के लिए इनके कर्मचारियों द्वारा उपयोग किए गए नियम, विनियम, अनुदेश, मापदण्ड और रिकार्ड
7. इनके द्वारा धारित या इनके नियंत्रण के अंतर्गत दस्तावेज़ों की कोटियों का विवरण
8. इनके द्वारा गठित दो या अधिक व्यक्तियों से युक्त बोर्ड, परिषद्, समिति और अन्य निकायों के विवरण। इसके अतिरिक्त, ऐसे निकायों में होने वाली बैठक की ज़ानकारी आम जनता की पहुँच में है या नहीं
9. इसके अधिकारियों और कर्मचारियों की निर्देशिका
10. इसके प्रत्येक अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा प्राप्त की जाने वाली मासिक वेतन, इसके विनियमों के अंतर्गत दी जाने वाली मुआवज़े की पद्धति सहित
11. इसके द्वारा संपादित सभी योजनाएँ, प्रस्तावित व्यय और प्रतिवेदन सहित सभी का उल्लेख करते हुए प्रत्येक अभिकरण को आवंटित बज़ट विवरण
12. सब्सिडी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की विधि, आवंटित राशि और ऐसे कार्यक्रमों के विवरण और लाभान्वितों की संख्या को मिलाकर
13. इसके द्वारा दी जाने वाली रियायत, अनुमतियों या प्राधिकारियों को प्राप्त करने वालों का विवरण,
14. इनके पास उपलब्ध या इनके द्वारा धारित सूचनाओं का विवरण, जिसे इलेक्ट्रॉनिक रूप में छोटा रूप दिया गया हो
15. सूचना प्राप्त करने के लिए नागरिकों के पास उपलब्ध सुविधाओं का विवरण, जनता के उपयोग के लिए पुस्तकालय या पठन कक्ष की कार्यावधि का विवरण, जिसकी व्यवस्था आम जनता के लिए की गई हो
16। जन सूचना अधिकारियों के नाम, पदनाम और अन्य विवरण (एस. 4 (1)(बी))
लोक अधिकारी का क्या मतलब है :- इसका अर्थ है कोई भी स्थापित या गठित प्राधिकारी या निकाय या स्वशासी संस्थान [एस-२(एच)] जिसका गठन निम्न रीति से हुआ है-
* संविधान द्वारा या उसके अंतर्गत
* संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून द्वारा
* राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी अन्य कानून के द्वारा
उपयुक्त शासन द्वारा जारी अधिसूचना या आदेश द्वारा जिसमें निम्न दो बातें शामिल हों-
1. वह सरकार द्वारा धारित, नियंत्रित या वित्त पोषित हो
2. उक्त सरकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धन ग्रहण करता हो

शनिवार, 27 सितंबर 2008

भारत को डर के कारोबारियों बचाओं

देश जल रहा है , नेता वोट के खातिर देश को गिरवी रखने को आतुर है, देश का आम आदमी सहमा हुआ है पूरे देश में वोट के खातिर दंगे कराए जा रहे है, अराजकता फैलाई जा रही है । इन सब का लाभ उठाते हुए आतंकवादियों द्वारा किए जा रहे देश के चुनिन्दा शहरों में धमाके आम भारतीयों में दहशत का माहौल पैदा कर रहे है ।
उडीसा, मध्यप्रदेश और कर्नाटक में चर्च एवं ईसाई समुदाय पर हमले कराए जा रहे है, नक्सलवादियों द्वारा अपहरण, हत्याए और पुलिस थानों को लूटना आम बात हो गयी है इन सब पर काबू पाना अब पुलिस के बस में नहीं रह गया है क्योंकि भारतीय पुलिस को नेताओं नें कानून व्यवस्था बनाये रखने के कार्य से अलग कर अपनी वोट की राजनीति के एजंडे को आगे बढाने के काम में लगा रखा है । पुलिस की हताशा दिल्ली में हुए बम विस्फोट के बाद दिल्ली पुलिस पुलिस आयुक्त के तरफ़ से आया बयान स्वयं ही बयां करता है ।
एक जुमला है कि "जब रोम जल रहा था तो नीरों वंशी बजा रहा था " यह जुमला हमारे गृहमंत्री माननीय शिवराज पाटील काफी सटीक बैठता है कि जब १३ सितम्बर को दिल्ली में धमाके हो रहे थे उस समय देश के गृहमंत्री दो-दो घंटे के अन्तराल में कपडे बदल कर आकर्षक दिखने की कोशिश कर रहे थे ।
काफी समय से उडीसा, मध्यप्रदेश और कर्नाटक के ईसाई समुदाय को प्रताडित किया जा रहा है उनपर आरोप लगाया जा रहा है कि वे हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन करा रहे है इसे रोकने के लिए जनता उत्तेजित होकर कार्रवाई कर रही है अब सवाल यह है कि कुछ तथाकथित संगठन सरकारों का मुह चिढ़ाते हुए कानून को अपने हाँथ में ले लेते है और सत्ताधारी नेता इसे आम जनता की "स्वाभाविक प्रतिक्रिया" बताने से नहीं चूकते । कानून के राज का तकाजा तो यह था कि इन आरोपों की जाँच होती और यदि अपराध प्रमाणित होता तो अपराधी को सजा दी जाती किंतु ऐसा न करके सरकारें "स्वीकृत हिंसा" को बढावा दे रहीं है अराजक तत्वों की भीड़ कानून को लहुलुहान कर रहा है पुलिस प्रशासन और सरकारें मूकदर्शक बनी तमाशा देख रही है ।
राज ठाकरे द्वारा समय-समय पर कानून को धत्ता बताया जा रहा है इससे क्षुब्ध होकर मुंबई के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ( के.एल. प्रसाद) द्वारा राज ठाकरे और उनकी सेना को घुडकने पर अब तक दो भागों में बंट चुकी ठाकरे परिवार की सेनाएं तत्काल अपने-अपने अंदाज में पुलिस अधिकारी को ललकारा । उक्त अधिकारी का दोष केवल यह था कि वह राज ठाकरे की सेना को कानून हाँथ में न लेने की चेतावनी दी थी पुलिस अधिकारी द्वारा दी गयी चेतावनी कही से भी ग़लत नहीं थी किंतु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जब ठाकरे परिवार की दोनों सेनाओं द्वारा पुलिस अधिकारी को ललकारा जा रहा था तो महाराष्ट्र सरकार उस पुलिस अधिकारी के पीछे नहीं खडी दिखी । इस विषय पर हाल ही में मुंबई उच्च न्यायालय नें तल्ख़ टिप्पणी करते हुए राज ठाकरे के इन कृत्यों को आतंकी की संज्ञा दी तथा मूकदर्शक बने रहने के कारण महाराष्ट्र सरकार को भी आड़े हांथों लिया ।
दिल्ली के धमाकों के आरोपियों को पकड़ने के लिए दिल्ली के जामिया नगर में पुलिस और आतंकियों में मुठभेड़ हुई पुलिस के अनुसार दो आतंकवादी मुठभेड़ में मारे गये इस मुठभेड़ में एक पुलिस अधिकारी की भी मौत हो गयी तथा कुछ आतंकवादी पकडे गये जिसमें दो जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के छात्र बताये जा रहे है । जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर नें उन आतंकवादियों को कानूनी मदद देने का एलान कर दिया है मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह उक्त वाईस चांसलर का समर्थन कर रहे है कानूनी सहायता देना कोई गुनाह नहीं है । देश के किसी भी नागरिक को कानूनी सहायता प्रापर फोरम द्वारा दिया जाना चाहिए इसके लिए देश के प्रत्येक न्यायालयों में कानूनी सहायता विभाग है । अगर वे कानूनी सहायता के पात्र है तो उन्हें सहायता दी जाय । किंतु जामिया मिलिया विश्वविद्यालय द्वारा आतंकियों को कानूनी सहायता दी जाती है तो यह एक गलत परंपरा की शुरूवात होगी और समाज टूटेगा, देश की एकता और अखंडता के लिहाज से खतरनाक होगा, ऐसा करने से आतंक फैलाने वालों का हौसला बढेगा ।
आशय यह है कि आज की सरकारों में इच्छाशक्ती का जबरदस्त अभाव है इस लिए देश की आम जनता डरी हुई है, देश के शहरी इलाकों में आतंकवादीयों का डर है, ग्रामीण क्षेत्रों में नक्सलवादियों का डर है, उद्योगपतियों को अंडरवल्ड का डर है, बेगुनाहों को पुलिस द्वारा झूंठे केश में फसाये जाने का डर है, यथास्थितिवादी इन सभी प्रकार के डर के बीच अपने हितों को साधने में जुटे हुए है उन्हें यथास्थिति बदल जाने का डर है, इन सभी प्रकार के डर के कारोबारी हमारे देश के नेता है और इन नेताओं को अपने वोट बैंक और दलाली के पैसे से मतलब है देश की आम जनता से इन्हे कुछ लेना-देना नहीं है ।
आख़िर देश का सबसे ताक़तवर तबका जिसे आम आदमी कहा जाता है और उसे निरीह बताया जाता है कब जागेगा ? यह तो पता नहीं किंतु अगर यह आम आदमी का तबका जाग गया तो यथास्थितिवादियों, वोट के सौदागरों तथा डर के कारोबारियों की खैर नहीं और ऐसा होगा जरूर ! करना केवल इतना है कि अपने-अपने अहंकार को भूल कर एक जुट हो जाय और इन सभी का सामना करे तभी हमारा देश भारत बच सकेगा ।

रविवार, 22 जून 2008

आम आदमी के साथ की गयी धोखाधडी

वर्षों पहले भारत वासियों ने एक ऐतिहासिक सपथ ली थी-घोर गरीबी और आभाव के बीच मुस्किल से गुजारा कर रही जनता के दुःख दर्द दूर करने की सपथ । लेकिन अफ़सोस, उस पवित्र निश्चय को लगातार भुलाया जा रहा है खुले-आम वादा खिलाफी की जा रही है । हम भारत के लोग...संविधान की प्रस्तावना में जो देशभक्ति पूर्ण संकल्प दर्ज किया गया था, सर्वोच्च राजाज्ञा का वह संकल्प जिसे भारत के संसद की सर्वोच्च सम्मति से भी नहीं बदला जा सकता उसे उलट दिए जाने की त्रासदी हम आज देख रहे है । और संसद ? उसका वजूद ही क्या रह गया है, जब संसद में किसी प्रकार की बहस किए बगैर ही वित्त मंत्रालय में गैट और डब्ल्यू० टी० ओ० का पालन करने की होड़ मची हो- शासन चाहे किसी भी पार्टी का हो, अविश्वास प्रस्ताव ही क्यो न पारित हुआ हो, आम चुनाव ही क्यो न सर पर हो और गिरगीट की तरह रंग बदलने वालों की गठबंधन सरकारें ही क्यो न स्थापित हुई हो । और दोष निवारण के विशेष अधिकारों से लैश दुसरी प्रमुख संवैधानिक संस्था सर्वोच्च न्यायालय की क्या स्थिति है ? कभी तो यह एक बुत की तरह रहस्यमय चुप्पी साधे रहता है और कभी कम महत्व के मुद्दों पर व्यवस्थाए देते हुए राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर राय देने से कतरा जाता है ।

ऐसे में कार्यपालिका वस्तुतः एक जंगली घोडे पर सवार होकर भारतीय जनता को मन मुताविक हांकती जा रही है इस पर लगाम लगाना न तो संसद के बस में है न न्यायपालिका के और न प्रेस के ।
अंकुश संतुलन की व्यवस्था स्थापित करने की बातें महज एक भ्रम साबित हुई है एक अरब से भी अधिक जनता की आवाज जो शिर्फ़ मतदान के समय तथा वह भी अत्यन्त धीमी सुनाई देती है का कोई मायने नहीं रह गया है । सत्ता चंद मंत्रियों से कैबिनेट के हाँथ में है, राष्टपति शीर्ष पर विराजमान है, विधायिका में मछली बाजार जैसा शोर है और राजनैतिक पार्टियाँ सौदेबाजी में मशगुल है इन सबसे त्रस्त आम जनता संदिग्ध प्रशासन की ओर खौफजदा निगाहों से देख रही है ।
बर्लिन की दीवार ढह चुकी है चीन की महान दीवार फांदी जा रही है । हिमालय भी एक चुनौती न रह कर कब्जा जमाने वाले विदेशी निवेशकों को न्योता दे रहा है । चुनाव एक नकली मुखौटा है मताधिकार प्राप्त आबादी का मात्र दस या बीस फीसदी हिस्सा चुनावी गणित के सहारे सत्ता पर कब्जा दिला सकता है और वह बहुमत का शासन कहला सकता है कैबिनेट एक षड्यंत्रकारी दल बन चुका है देश की प्रमुख पार्टीयाँ तुच्छ मतभेदों को लेकर हो हल्ला मचाती है उसमे चाहे कोई भी चुनाव जीत जाए राज्य साम्राज्यवाद के अलंबरदार पैक्स अमेरिकाना का ही होता है । संविधान की प्रस्तावना जैसे आधारभूत दस्तावेजों के उद्देश्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता, बावजूद इसके १९८० के दशक के उत्तरार्ध तक इसका पालन करने में कोताही बरती गई और बेईमानी भी की गई । हमारी आयात-निर्यात नीतियां विदेशी निवेश स्वीकार करने की तैयारी हमारा पूरा वित्तीय ढांचा और विदेश संवंधों में व्यवहारवाद यह सब गाँधी-नेहरू काल के अनुरूप हो रहे है आज तक विभिन्न
पार्टियों और गठबंधनों के मंत्रिमंडल संविधान की बाकायदा सपथ लेते रहे है जिससे ऐसा लगता है कि एक शाब्दिक निरंतरता बनी रही है एक के बाद एक सभी मंत्रियों नें गांधीजी को राष्ट्रपिता और आंबेडकर और नेहरू को आधुनिक भारत के निर्माता ही माना है । मगर अचानक १९९१ में पीछे मुड का आदेश दिया गया । वास्तव में इस दिशा पलट की भूमिका १९८० के दशक के उत्तरार्ध में राजीव गांधी के विचारधारात्मक घोटाले और २१ वी शताब्दी के आगमन के बारे में दुअर्थी बयानबाजी ने तैयार कर दी थी नरसिंह राव नें संसद की राय लिए बिना जनता के बीच बहस-मुबाहिसा कराए बगैर और भारतीय संविधान की आज्ञा की परवाह किए बगैर एकाएक दिशा पलट दी , इस जबरन कार्रवाई के दौरान वैश्वीकरण, उदारीकरण, और निजीकरण, के ऐसे सगूफे छोडे गये कि संवैधानिक जगत में उथल-पुथल मच गयी इधर वैचारिक भ्रम फैलाने और चिकनी-चुपडी बातों से जनता को बरगलाने की कोशिश हुई और उधर हमारे देश के आर्थिक ढांचे पर विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की दुधारी तलवार ने वार किया ।

भारत पर रीगनी अर्थशास्त्र यानि रीगनोमिक्स का पालन करने की शतें थोपी गयी इसी नये नुस्खे को नाम दिया गया मनमोहनोंमिक्स, चिदम्बरोमिक्स के रूप में इसका नया संस्करण तैयार हुआ इसके पश्चात् स्वदेशी के समर्पित कार्यकर्ताओं, गरीबी की नब्ज टटोलने वालों और देश भक्ती के पुजारियों नें जन विरोधी और नस्लवादी दंभ के कड़वे घोल में उसी नुस्खे को मिलाकर एक नई दवा इजाद की - सिन्होमिक्स, अब मनमोहनोंमिक्स और चिदम्बरोमिक्स की जुगल जोड़ी दूसरी पारी डट कर खेल रही है ।

इन सब के निचोड़ के तौर पर देश में जो छुब्ध करने वाली तस्वीर उभर कर सामने आ रही है वह कुछ इस प्रकार है ।

कार्पोरेट कंपनियों के मालिक वर्ग के लिए और उसका पुछल्ला बन चुके मध्य वर्ग के लिए एक स्वर्ग सा निर्मित हुआ है । तमाम दरबारियों, गुटबाजों, शत्रु-सहयोगियों, संश्रयकारियों से बना है यह दस करोड़ से अधिक का मध्यवर्ग आज यह तबका खूब मजे लूट रहा है मजे पश्चिमोन्मुख पांच सितारा किस्म के जीवन के, चहुमुखी व्याप्त वी० आय० पी० मार्का शानों शौकत के, मंत्रियों के लिए ऐशो आराम के असीमित साधनों के, माफियाओं को दी जा रही खुली छुट के, सर्वत्र व्याप्त और सबपर हावी भ्रष्टाचार के, तथा विकृत विकास कार्यों के लिए राज्य द्वारा की गयी फिजूल खर्ची के जिससे एक ओर तो जहां-तहां फ्लाईओवरों, ऊँचें-ऊँचें बांधों, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों, जम्बो साइज क्रीडा स्थलों और पर्यटन के लिए ऐशगाहों का निर्माण हो रहा है तो दुसरी ओर राज्य व्यापार घाटे, कर्ज के भार मूल्यवृद्धि, सरकारी कोषों के दिवालिएपन, और उत्तरोत्तर अपराधों के बढ़ते मकड़जाल में फसता जा रहा है । और दरिद्र भारत का क्या हाल है ? वह भूख से तड़प रहा है, आत्महत्या का खौफनाक रास्ता अपनाने को विवस हो रहा है, बीमारी के कारण कराह रहा है, और इलाज व भोजन के अभाव में मर रहा है, किसानों, जनजातियों, ग्रामीणों, सर्वहाराओं, की एक बहुत बडी तादात खून-पसीना बहा कर हाड़-तोड़ मेहनत कर और आँसू पीकर गुजारा कर रही है । दुनिया में सबसे ज्यादा निरक्षर, कंगाल, एड्स के शिकार, बेघर परिवार, और गंदे, अस्त-व्यस्त, प्रदूषित, कोलाहल युक्त शहर हमारे भारत में ही है । गावों एवं कस्बों में पीने के पानी का भी अभाव है लेकिन स्काच विह्स्की, फास्ट-फ़ूड, पेप्सी, कोका-कोला, और काल-गर्ल संस्कृति को हर सरकार अपने शासन काल में प्रगती का पैमाना मानती रही है ।

ये शर्मनाक अंतर्विरोध भयानक बीमारी के लक्षण है जिसकी गहरी पड़ताल होनी चाहिए, यह काम कठिन नहीं है पर इसका अहसास कठिनाई पैदा करता है । सत्ता के शिखर पर ऐसे रीढ़ विहीन नायक विराजमान है जिनपर विकसित देश दबाव डालते है और जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, और विश्वबैंक की तिकडी के दलालों के रूप में शासन करते है । स्वदेशी मर चुका है, समाजवाद को जानी दुश्मन करार दिया गया है, अधर्मियों का राज है और मसीहाओं को सलीबों पर लटकाया जा चुका है, तथा बचे-खुचों को लटकाने का षड्यंत्र जारी है । विदेशी जीवनशैली की चका-चौंध में दृष्टिहीन हो चुका हमारा मध्यवर्ग देश को दुबारा उपनिवेश बनाने के संविधान विरोधी अभियान को सहयोग और समर्थन दे रहा है । अफसरशाहों और पार्टियों के पदाधिकारियों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चाटुकारिता करने की होड़ मची है । न्यायालय जुआ घर बन गये है, कानून के हांथ बांध दिए गये है और न्यायालयों के शरण में जाने वाले कंगाली के चपेट में आ रहे है । ऐसी स्थिति में किसी से कोई उम्मीद की जा सकती है ।

जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री हुए तो लगा कि वे हमें स्वराज्य की संकल्पना की ओर वापस ले चलेंगे लेकिन यह भोली आशावादिता ही साबित हुई वी० पी० सिंह पहले ही राजनीति के पटल से गायब हो चुके थे । फ़िर छमाही प्रधानमंत्रियों का ताँता लग गया इसके बाद स्वदेशी का दंभ भरने वालों और आज के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री- सब के सब स्वराज्य को ताक पर रख दिया और साम्राज्यवादी देवताओं को साष्टांग दंडवत कर उनकी ओर से आने वाले तमाम प्रस्ताव एक-एक करके स्वीकारते चले जा रहे है ।

बडे व्यवसायीयों और लुटेरों द्वारा संचालित वैश्विकरण के कारण महात्मा गाँधी के सपनों की हत्या ठीक उसी तरह हो रही है जिस तरह उनकी हत्या कर दी गयी । धनपिपासुओं के खातिर किए जा रहे उदारीकरण और निजीकरण के माध्यम से भारत की कृषि एवं उद्योग को विदेशी प्रभुत्व के नए नए अवतारों के हवाले किया जा रहा है ।

भारत के आर्थिक तंत्र पर आख़िर राज किसका है ? प्रचार चाहे कुछ भी किया जा रहा हो पेट्रौल -डीजल तथा रसोई घर के गैस का दाम बढाया जाना जनविरोधी कदम ही था और आयात करों में हेर-फेर राष्ट्रीय उद्योग के लिए हानिकारक ही होगा । सार्वजनिक निगमों को हलाल करना, विदेशी बैंकों और बीमा कंपनियों को प्रवेश की निर्बाध छुट देना, पेटेंट और ट्रिप्स-ट्रिप्स, परमाणु समझौते आदि को लागु करने के प्रति अड़ियल रवैया अपनाना -इन सबसे जाहिर है कि एक साम्राज्य परस्त मानसिकता जोर मार रही है । वित्तमंत्री पी० चिदंबरम ने कहा है कि अभी और सख्त फैसले किए जाने है इसका अर्थ है कि उन भारतीयों की टूटी अर्थ व्यवस्थाएं जिन्हें इन्सान तक नही समझा जाता, बर्फीली हवाओं के चपेट में आने वाली है । आख़िर वे देश के उन गरीबों के हित में सख्त फैसले क्यो नहीं लेते जिनके मतों से सत्ताशीन हुए है ? उनके मतदाता कौन थे ? अमेरिकी कंपनिया या भारत की आम जनता ? गैट-असुर के सामने आत्मसमर्पण करने के सवाल पर विपक्ष की सत्ता पक्ष के साथ एकता है । स्वतंत्रता प्राप्ति के ४० साल बाद तक भारतीय आवाम ने अपने बेहतरी के लिए न कभी भीख मांगी न उधार लिया और न कभी घुटने टेके । देश का संकठ अल्पावधि ऋण लेने के गैर जिम्मेदार फैसलों, विदेश से खर्चीले सामानों की खरीद तथा निवेश और साथ-साथ जनमानस के प्रति उदासीनता के कारण पैदा हुआ है । उधर विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के शूरमाओं नें इस संकठ का लाभ उठाने की कोशिश शुरू की, इधर हमारी सरकार चलाने वाले उसका शिकार बनने के लिए तैयार बैठे थे । क्या कोई वैकल्पिक रास्ता भी था इसपर सायद ही संदेह होगा कि जब विकासशील देश धनी देशों के साथ सीधा संवंध बनाते है तो वे आधुनिक तकनीक पर आधारित नये उद्योग एवं सेवा क्षेत्रों की आवश्यकता महसूस करते है । सवाल उस मान्यता पर उठाया जाना चाहिए जिसके अनुसार इस आधुनिक क्षेत्रों का इतना व्यापक विस्तार किया जा सकता है कि उसके लाभ आम आदमी तक पहुंचनें लगेंगे और यह कि ऐसा जल्दी ही संभव बना दिया जाएगा ।

हमारे वक्तव्य का प्रस्थान बिन्दु या यों कहें कि इस हद तक की गरीबी है । जो दुःख तकलीफ पैदा करती है, मनुष्य को छरित करती है और उसकी छमताओं को कुंद कर देती है हमारा पहला दायित्व यह जानने और समझने का है कि यह गरीबी किस तरह की सीमांए और बाधाएं खडी करती है साथ ही यह भी कि विकास का भौतिकवादी दर्शन हमें शिर्फ़ भौतिक अवसरों का दर्शन कराता है । अन्य कम महत्वपूर्ण लगने वाले कारकों पर कोई प्रकाश नहीं डालता । आशय यह है कि दरसल मानव विकास की शूरूआत वस्तुओं से होती ही नहीं है, उनकी शिक्षा से होती है, उनके संगठन से होती है, एवं उनके अनुशासन से होती है । इन तत्वों के बिना सारे संसाधन महज अन्तर्निहित क्षमता और सुप्त संभावना ही बने रहते है ।

आज की मौजूदा स्थिति यह है कि देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रीगण, सांसदगण, तथा अन्य वी० आय० पी० ख़ुद को जनता से काटते जा रहे है किंतु यह निश्चित है कि यदि वे अपना रास्ता नही बदले तो उनको इसकी किंमत आवश्यक रूप से चुकानी पडेगी । वैश्वीकरण के प्रति जो भय व्याप्त हो रहा है वह एक न एक दिन लावा बनकर अवस्य फूटेगा । उदाहरण के लिए बास्तील का वह किला जिसपर प्रहार के साथ फ्रांसीसी क्रांति की शुरूवात हुई थी आज भी प्रतीक के रूप में खडा है । वस्तुतः फ्रांस की क्रांति के पश्चात मैग्नाकार्टा की उदघोषणा मानव अधिकारों की आवश्यकता को जिस तरह उल्लिखित किया बिलकूल ठीक वही स्थिति आज हमारे भारत देश की है ।

बुधवार, 18 जून 2008

मानव अधिकारों का सामाजिक स्वरूप

वस्तुतः मानव अधिकारों का स्वरूप सामाजिक ही है समाज के बिना अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं, यह एक प्रकार का सामाजिक दावा है जो कि न तो स्वार्थ पूर्ण है और न तो किसी दुसरे व्यक्ति के हितों को नुकसान पहुंचता है । प्रो० लास्की ने कहा है कि " अधिकार सामाजिक जीवन की वह परिस्थिति है जिनके बिना कोई भी मनुष्य अपनी उन्नति पर नहीं पहुंच सकता" मानव अधिकार द्वारा समाज में सभी के हितों की पुष्टि होती है और इसमे समाज तथा कानून की मान्यता निहित रहती है मानव अधिकारों का स्वरूप कल्याणकारी है ए प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से मानव कल्याण से संवंधित है मानव हित से संवंधित होने के कारण ही मानव अधिकार राज्य तथा समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है ।
मानव अधिकारों की सोच व्यक्ति के सामाजिक जीवन की देन है, समाज में रह कर ही मानव अधिकारों का प्रयोग किया जाता है मानव अधिकारों का प्रयोग जब-तक लोकहित में होता रहेगा तब-तक उसके ऊपर किसी का भी नियंत्रण नही हो सकेगा मानव अधिकारों के संरक्षण की जिम्मेदारी राज्य के ऊपर होती है, प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से अधिकारों का प्रयोग करने का अवसर देना कल्याणकारी राज्य का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए, मानव अधिकारों का लक्ष्य सार्वभौमिक है यदि एक व्यक्ति को जीने का अधिकार है तो यह अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए अन्तर्निहित है, मानव अधिकारों की अवधारणा ने कर्तव्य को प्राथमिकता दी है अधिकार हमेसा कर्तव्य से संवंधित रहता है कर्तव्य के अभाव में हम किसी अधिकार की कल्पना नहीं कर सकते यदि लोगों को संपत्ति का अधिकार है तो यह अन्य व्यक्ति का कर्तव्य है कि वे उसके इस अधिकार का उल्लंधन न करे इस विषय में पश्चिमी विचारक हाब हाउस ने कहा है कि "अधिकार और कर्तव्य सामाजिक कल्याण की दो महत्वपूर्ण दशाए है ।
वैसे तो केवल एक लेख में संपूर्ण मानव अधिकारों की व्याख्या करना अत्यन्त कठिन कार्य है, सभ्यता और सामाजिक संगठन के साथ ही अधिकारों की वृद्धि होती गई और अब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई है । भिन्न-भिन्न देशों के नागरिकों को भिन्न-भिन्न अधिकार प्राप्त है स्वतंत्र देश के नागरिक के अधिकार परतंत्र देश के नागरिकों के अधिकारों से भिन्न एवं मुखर होते है, हम यहाँ स्वतंत्र देश के नागरिकों के अधिकारों का अध्यन करें । अधिकारों को हम यहाँ चार श्रेणियों में विभाजित करते है । (१) प्राकृतिक अधिकार (२) नैतिक अधिकार (३) मौलिक अधिकार (४) कानूनी या वैधानिक अधिकार ।
प्राकृतिक अधिकार :- प्राकृतिक अधिकारों की श्रेणी में नैतिक व नैसर्गिक मूल अधिकार आते है यदि प्राकृतिक शब्द का विश्लेषण किया जाय तो पता चलता है कि इस शब्द का प्रयोग विराट, स्वाभाविक, आदर्श, अकृत्रिम और नैतिक के अर्थ में होता है अतः प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक अधिकारों से व्यक्ति के उन अधिकारों का ज्ञान होता है जो उसे प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त हो इसका अर्थ यह हुआ कि आदिम अवस्था में अथवा समाज के निर्माण से पहले व्यक्ति उन अधिकारों का उपयोग करता आया है । इन अधिकारों की जननी प्रकृति थी और जबतक संसार में मनुष्य रहेंगे तब-तक उन अधिकारों से मनुष्य को वंचित नहीं किया जा सकता प्रकृति ने जो सामाजिक भावना की उत्पत्ति की है इन्ही अधिकारों की रक्षा के लिए थी ।
उदाहरण के लिए-जीवन रक्षा और स्वतंत्रता के अधिकार व्यक्ति को है तो समाज का कर्तव्य हो जाता है कि वह इन अधिकारों की रक्षा इस लिए करे क्योकि समाज का निर्माण इन्ही अधिकारों की रक्षा के लिए हुआ है इस विषय में रूसों का मत है कि-"प्राकृतिक अधिकार ही आदर्श अधिकार थे और वे राज्य की उत्पत्ति से पहले विद्यमान थे ।
नैतिक अधिकार :- ऐतिहासिक काल से ही समाज व्यक्ति के इन अधिकारों को स्वीकार करता आया है उदहारण के लिए-बच्चे को यह अधिकार प्राप्त है कि जब-तक वह बडा न हो जाय माता-पिता उसका भरण-पोषण करें, गरीबों को सहायता करना, अंधे को रास्ता बताना आदि ऐसे अधिकार है जिनके विपरीत कार्य करने पर राज्य अथवा समाज दण्डित तो नही कर सकता परन्तु उन्हें हीन दृष्टि से अवश्य देख सकता है । इस आधार पर नैतिक अधिकार को इस तरह परिभाषित किया जा सकता है "जिन अधिकारों के प्रयोग के अभाव में व्यक्ति के आत्मा को कष्ट हो अथवा जिसका संवंध आत्मा से है वे नैतिक अधिकार है जैसे राज्य या समाज का यह कर्तव्य है कि वह नारी (महिलाओं ) का आदर करे । शवों का सम्मान भी नैतिक अधिकार के ही अंतर्गत आते है ।
मौलिक अधिकार :- इन अधिकारों को हम प्राकृतिक तथा वैज्ञानिक दोनों कह सकते है, यही कारण है जिसके उन्हें मूल अधिकार कहा जाता है । इन्ही अधिकारों के कारण व्यक्ति और समाज, राज्य और नागरिक का संवंध स्थिर होता है । कोई भी राज्य अथवा समाज बिना अपने सांस्कृतिक स्वरूप को बदले इन अधिकारों के प्रयोग से नागरिकों को वंचित नहीं कर सकता यही कारण है कि प्रायः सभी सभ्य एवं आधुनिक देशों के विधान में इन अधिकारों का स्पष्ट वर्णन रखा गया है । स्वतंत्रता, समानता, जीवनरक्षा, जीविकोपार्जन तथा देश के संविधान में आस्था इन्ही मौलिक अधिकारों की श्रेणी में आते है ।
इन अधिकारों को प्राकृतिक अथवा मौलिक अधिकार इसलिए कहा जाता है कि इन्ही से व्यक्ति की स्थिति और विकास की आवश्यक दशाओं का निर्माण होता है इन अधिकारों का कोई निश्चित वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं किया जा सकता तथा न ही इसकी कोई सर्वमान्य तालिका ही बनाई जा सकती है ।
कानूनी या वैज्ञानिक अधिकार :- वैज्ञानिक अधिकारों के अंतर्गत सामाजिक तथा राजनैतिक दोनों प्रकार के अधिकार आते है । यह अधिकार व्यक्ति की वह मांग है जिसे समाज स्वीकार करता है तथा राज्य मान्यता देता है । वैज्ञानिक अधिकार वह अधिकार है जिसका उपयोग सभी नागरिक (वयस्क, बालक, विदेशी और व्यापारी ) करते है राज्य का यह कर्तव्य है कि इन अधिकारों के उपयोग के लिए सरल नियम बनाये साथ ही जो व्यक्ति, व्यक्ति अथवा समाज को इन अधिकारों के उपयोग से वंचित करें या इन अधिकारों का हनन अथवा अतिक्रमण करे उन्हें राज्य समुचित दंड दे । कानूनी अधिकारों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है (१) सामाजिक अधिकार (२) राजनैतिक अधिकार ........आगे जारी...................

सोमवार, 16 जून 2008

महिला अधिकारों की विवेचना

जिस तरह हर संपत्ति, साम्राज्य लूट ठगी और अपराध की बुनियाद पर टिका होता है ठीक उसी तरह परिवार का ताना-बाना स्त्री की गुलामी और अस्मिता विहीनता की बुनियाद पर खडा है-चाहे वह मध्य युगीन पितृसत्तात्मक ढांचे वाला सामंती संयुक्त परिवार हो या पूंजीवादी ढंग से संगठित परिवार । परिवार वर्ग निरपेक्ष संस्था नहीं है परिवार का प्यार मूल्य मुक्त प्यार होता ही नही यही कारण है कि पूर्ण समानता और स्वतंत्र अस्मिता की चाहत रखने वाली कोई भी स्त्री भला क्यो चाहेगी कि बचा रहे परिवार ।
मेरे द्वारा इन तथ्यों को उभारने से कृपया मुझे अराजकतावादी अथवा स्वच्छंदतावादी न समझें यह बुर्जुआओं और फिलिसटाईन बुद्धिजीवियों और अतीत की रागात्मकता के लिए विलाप करने वाले अतीतजीवियों का गुण है । इतिहास में पीछे की ओर चलें तो एक विवाह प्रथा की स्थापना के साथ ही एक ओर जहाँ मानव सभ्यता के उच्चतर, अधिक वैज्ञानिक नैतिक मूल्यों का जन्म हुआ, पुरूष द्वारा स्त्री को दास बनाये जाने की शुरुआत भी यहीं से हुई धीरे-धीरे स्त्री एक सजीव पारिवारिक संपत्ति के रूप में रूपांतरित होती चली गई । संपत्ति संचय और कानूनी वारिसों को उसका हस्तांतरण परिवार का मुख्य उद्देश्य बन गया ।

सामंती समाज के पित्रसत्तात्मक पारिवारिक ढांचे में ऊपर से जो रागात्मकता, स्त्री के प्रति उदार संरक्षण भाव, यदा-कदा श्रद्धा भाव और उसके सौंदर्य के प्रति सूक्ष्म जागरूकता दिखाई देती है वह सब उपरी चीज है "खांटी पुरूष दृष्टि" को यह सब बहुत भाता है धुंधली पर्त को भेद कर रहस्य तक पहुंचने पर पता चलता है कि स्त्री सामंती समाज में विलासिता और निजी उपभोग की वस्तु मात्र थी और साथ ही वंश चलाने का जरूरी साधन । अपनी प्रजा, हांथी, घोडे, नौकर आदि के प्रति संरक्षण भाव रखने वाले सामंत स्त्रियों के प्रति भी संरक्षण भाव रखते थे ।
पूजीवाद ने अपनी जरूरतों से स्त्रियों को रसोई घर से उठाकर तथा गुलामी से आंशिक मुक्ति दिलाने के नाम पर दोयम दर्जे की नागरिकता देने के साथ उसे निकृष्टतम कोटी की उजरती गुलाम बनाकर सड़कों पर धकेल दिया पूजीवाद की विकसित अवस्था की उपभोक्ता संस्कृति में सूचना तंत्र, प्रचार तंत्र, और नये मनोरंजन उद्योग के अंतर्गत स्त्री ख़ुद में एक उपभोक्ता सामाग्री बनकर रह गई, पुराने सामंती परिवार के राग अनुराग को तोड़ कर पूंजी ने घटिया उपयोगितावाद को जन्म दिया और पूंजी पर निजी लाभ के आधार पर खडे पूजीवादी परिवार में बेगानापन पोर-पोर में रच-बस गया मध्य युगीन प्यार के स्वप्न लोक में विचरण करती दुखी आत्माओं को लगने लगा कि परिवार टूट रहा है, प्रलय आ रहा है, लेकिन यह परिवार का टूटना नहीं बल्कि उसका पूजीवादी रूपांतरण था ।

आज भारत में जिसे परिवारों का टूटना विखरना कहा जा रहा है वह क्या है ? इसका उत्तर है- औपनिवेशिक भारतीय समाज भूमि संबंधों के "जूकर" टाइप रूपांतरण और उद्योगों के विकास के साथ ही एक अर्ध औद्योगिक कृत समाज में क्रमशः रूपांतरित होता चला गया यहाँ साम्राज्यवाद पर निर्भर एक बौना, बीमार, विकलांग पूजीवाद विकसित हुआ है । अठारहवीं, उन्नीसवी सदी के यूरोपीय पूजीवाद से भिन्न उपनिवेशवाद के गर्भ से जन्मा साम्राज्यवादी विश्व परिवेश में पला यह पूजीवाद जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों मान्यताओं से समझौता किए हुए है, उन्हें "एडाप्ट" किए हुए है और स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों और तर्क परता से रिक्त है इस संक्रमण कालीन भारतीय समाज में स्त्रीयों की पीड़ा दोहरी है । संयुक्त परिवारों के ढांचे टूटने, नाभिक परिवारों के बढ़ते जाने और आंशिक सामाजिक आजादी के बावजूद मुल्क मान्यताओं के धरातल पर वह पित्रसत्तात्मक स्वेछाचारिता को भुगत रही है, और उपभोक्ता संस्कृति के नई नग्न निरंकुशता को भी, पति उसे शिक्षित और आधुनिक देखना चाहता है । अपनी मित्र मंडली को प्रभावित करना और जलाना चाहता है पर यह नहीं चाहता कि वह उसकी इच्छाओं की सीमा-रेखा लांघकर किसी पुरुष से (यहाँ तक कि किसी स्त्री से स्वतंत्र सम्बन्ध बनाये) वह यह तो चाहता है कि घर का बोझ हल्का करने के लिए कमाए पर वह यह नहीं चाहता कि अपने दफ्तर या कारखाने में स्वतंत्र रिश्ते बनाये वह यह जरूर चाहता है कि स्त्री यन्त्र मानव की तरह बस पैसे कमाए, और आज्ञाकारी शुशील पत्नी की तरह वह समय से घर आ जाए । उच्च से लेकर उच्च मध्यवर्ग तक में किटीपार्टियों, लायंस, रोटरी पार्टियों में जाने की आजादी है और पत्नियों की अदला-बदली और स्वच्छंद यौनोपभोग का खुला गुप्त चलन भी बढ़ रहा है । मध्य वर्ग से लेकर कामगार वर्गों तक की काम-काजू स्त्रियों का शारीरिक मानसिक श्रम सबसे सस्ता है । बाहरी काम-काज या नौकरी में पुरूष से अधिक श्रम करने के बावजूद उसे घर का काम-काज और बच्चों का लालन-पालन भी करना है कुछ उदार पति इसमें हाँथ बटाकर उसे उपकृत जरूर करते रहते है । प्यार को बचाने के लिए परिवार को बचाना जरूरी नही है समाज के नैतिक आत्मिक सौन्दर्यात्मक मूल्यों और भौतिक जरूरतों की एक अभिव्यक्ति समाज के इस नाभिक के रूप में हुई जो निजी दैनंदिन जीवन के संगठन का सबसे महत्वपूर्ण रूप थी पर मानवीय सारतत्व और प्यार की अभिव्यक्ति भविष्य के लिए समाज में किसी और संगठन के रूप में होगी यदि उसे परिवार की संज्ञा दी भी जाए तो कम से कम यह जरूरी कहना होगा कि उसका ढांचा मौजूदा पारिवारिक ढांचे से गुणात्मक रूप से भिन्न होगा उत्पादन एवं विनिमय प्रक्रिया के सामाजीकरण के साथ रसोई घर की गुलामी से पूर्णतः मुक्त होगी, स्त्री-पुरूष का प्यार तब पूर्ण समानता और स्वतंत्रता के आधार पर होंगे उसमें बाध्यता और विवशता का कोई तत्व नहीं होगा ।

भारत में जिस तरह पूरे सामाजिक राजनीतिक तंत्र में, ठीक उसी तरह आत्मिक- निजी जीवन में एक पुरानी बुराई का स्थान नई बुराई ने ले लिया है पित्रसत्तात्मक सामंती पारिवारिक ढांचे की स्वेच्छाचारिता, कूपमंडूकिय रागात्मकता स्त्रियों के पाथक्य आदि का स्थान आज बाजार उपनिवेशवाद के दौर में पूजीवादी पारिवारिक ढांचे की निरंकुशता, नग्न यौन उत्पीडन, उपभोक्ता संस्कृति और बेगानापन ने ले लिया है । और यह नया ढांचा अभी से क्षरणशील है, विघटनोंन्मुख है । साथ ही सकारात्मक पहलू यह है कि स्त्री के भीतर अपनी अस्मिता की नई पहचान, और नई मुक्ति चेतना पैदा हुई है । अभी वह हजारों साल पुराने संस्कारों से मुक्त नहीं हो सकी है पर अब वह दिन दूर भी नहीं कि वह सच्ची समानता व स्वतंत्र इच्छा पर आधारित नैतिक प्यार की उद्दातता व गरिमा को हासिल करने के लिए परिवार की मौजूदा संस्था, इसके व्यभिचारी, उत्पीड़क, शोषक, निरंकुश स्वरूप को ध्वस्त कर देगी इसे बचाने की कोशिश बेकार है वर्तमान की दुर्दशा का समाधान अतीत में नहीं बल्कि भविष्य में देखना होगा, सवाल सौन्दर्यात्मक उद्दात्त धरातल पर मानवीय प्रेम की प्राण प्रतिष्ठा का हैं एक ऐसी सामाजिक संरचना के निर्माण का है, जिसमें स्त्री पूर्ण समानता, स्वावलंबन और स्वतंत्र अस्मिता के आधार पर स्वयं अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने में सक्षम हो ।

गुरुवार, 12 जून 2008

धारा ३७७ और मानव अधिकारों का उल्लंघन

दिल्ली उच्च न्यायालय में वयस्कों के बीच सहमति से बनाये गए यौन संवंध को गैर-आपराधिक घोषित करने के लिए नांज फाउंडेशन इंडिया द्वारा दायर याचिका के जबाव में भारत सरकार नें कहा है कि धारा ३७७ भारतीय दंड संहिता को बदला नहीं जा सकता, क्योकि अधिकतर भारतीय समाज समलैंगिकता को अनुचित समझता है । इस स्पष्टीकरण में सरकार यह पहचानने में असफल रही कि बहुसंख्यक जनता की लोकप्रिय भावना जिसका वो दावा करती है का लिहाज किए बिना इस देश के कानून का काम है कि सभी नागरिकों के मानव अधिकारों को सुरक्षित रखना व उन्हें बल देना बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के तौर से बात करना वैसे ही कठिन है खासकर यह ध्यान में रखते हुए कि 'अप्राकृतिक' समझी जाने वाली यौन क्रियाओं में मुख व गुदा मैथुन शामिल है, चाहे ये क्रियाएँ पुरूष-पुरूष, महिला-महिला या महिला पुरूष के बीच ही क्यो न हो रही हो ।
ऐसे मामलों में भी जहाँ राज्य स्वयं प्रत्यक्ष रूप से उत्पीडन नहीं करता, धारा ३७७ कानून का विद्यमान होना ही संविधान के तीसरे भाग द्वारा सुनिश्चित बहुत से मौलिक अधिकारों का अनादर करता है । इसमें शामिल है -जीवन तथा स्वतंत्रता का अधिकार जैसा कि अनुच्छेद २१ में दिया गया है ( इसके अंतर्गत स्वास्थ्य तथा एकांतता का अधिकार भी आता है ) अनुच्छेद १४ के तहत दिया गया समानता का अधिकार और अनुच्छेद १९ के अंतर्गत बोलने, आने-जाने, इकट्ठा होने, व्यवसाय या व्यापर करने तथा रहने का अधिकार शामिल है । जैसा कि इस पूरे दस्तावेज में साक्ष्यों से पता चलता है - जबरदस्ती ठीक करने के लिए अपनाई गई चिकित्सा, नौकरी या घर छीन जाने अथवा स्वतंत्र रूप से बोलने या इकट्ठा होने की असमर्थता की कहानियों के माध्यम से-धारा ३७७ एक ऐसा कानून है जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है । जैसा कि संविधान में कहा गया है ऐसे कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर देना चाहिए ।
धारा ३७७ अन्याय की संस्कृति बनाये रखने में भी योगदान देती है । भेद-भावपूर्ण सामाजिक मनोवृत्तियों को 'कानूनी' करार देकर यह धारा उन सामाजिक नजरिये को मजबूत बनाती है जो चुपचाप, चतुराई से हम सबकों अपनी लपेट में लेती है, धारा ३७७ जिन मूल्यों को बढावा देती है, वे यौनिकता के इर्दगिर्द शर्म, गोपनीयता और अपराधबोध पैदा करना चाहते है ये वे हथियार है जो पित्रसत्ता के लिए बहुत फायदेमंद साबित हुए है क्योकि इनके द्वारा यह सुनिश्चित हुआ है कि महिलाये अपना चुनाव न कर सकें । धारा ३७७ नागरिकों को उन अधिकारों, जिन्हें सकारात्मक रूप से यौनिक अधिकारों के रूप में परिभाषित किया जाता है, का प्रयोग करने की स्वीकृति नहीं देती । किस तरह की यौनिकता को हम 'सहज' 'साधारण' और 'मान्य' मानेगें -यह तय करने के मापदंड गढ़ती है धारा ३७७ लेकिन जहाँ यह कानून सभी यौनिकताओं के लिए मापदंडों का निर्माण करने में सफल रहा है, वही इसने समलैंगिक इच्छा रखने वाले लोगों व समुदायों के लिए खास तरह की परेशानिया खड़ी की है ।
यौनिक अल्पसंख्यकों के मानव अधिकारों का उल्लंघन कैसे किया जाता है, यह देखने के लिए हमे यह जानना जरूरी है कि राज्य के साथ-साथ उल्लंघन करने वालों में शामिल है कई तरह के गैर राजकीय दावेदार जैसे परिवार, मीडिया और चिकित्सक । राज्य द्वारा किए जाने वाले भेदभाव और सामाजिक भेदभाव में स्पष्ट रूप से ऐसा संबंध है जो एक दुसरे के द्वारा किए गए भेदभाव को बढावा देता है । उचित सचेतना ( Due diligence ) का सिद्धांत भारत सरकार द्वारा केवल कथनी में दिखता है, करनी में नहीं । यह मांग करता है कि राज्य गैर-राजकीय दावेदारों के द्वारा किए जा रहे उल्लंघनों की रोकथाम करें, उनकी जांच करें, मुकदमा चलाए और क्षतिपूर्ति करें । लेकिन वास्तविकता यह है कि निजी तौर पर नागरिकों द्वारा किए जाने वाले उल्लंघनों में राज्य की भी भागीदारी रहती है । समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों व समुदायों को मानव अधिकार उल्लंघन से सुरक्षा प्रदान करने में राज्य की अनिच्छा साफ नजर आती है धारा ३७७ जैसे कानून इस गैर-कानूनी और अन्यायपूर्ण व्यवस्था को केवल एक औपचारिक रूप देते है ।
जो विषमलैगिक ढांचे के अनुसार नहीं चलते, उनकी स्थिति का काफी दस्तावेजीकरण हो रहा है, बहुत सी रिपोर्टें, जिसमें पीपल्स यूनियन आफ सिविल लिबर्टीज़, कर्नाटक ( पी यू सी एल के ) द्वारा प्रकाशित रिपोर्टें भी शामिल है यह दिखाती है कि गे, लेस्बियन, हिजडा, ट्रांसजैन्डर्ड और बाईसेक्स्युअल लोगों की मानव प्रतिष्ठा का बार-बार किस प्रकार उल्लंघन किया जाता है । उल्लंघनों का क्षेत्र बहुत ब्यापक है- पुलिसवालों द्वारा हिजडों के बार-बार बलात्कार से लेकर एक समलैगिक छात्र की व्यथा तक जिसके माता-पिता नें उसे बेघर कर दिया और उस व्यक्ति की यंत्रणा तक जिसे समलैंगिकता का 'इलाज' करने के लिए दर्दनाक चिकित्सा पद्धति से गुजरने के लिए मजबूर किया जाता है । पुलिस द्वारा समलैंगिक पुरुषों को लगातार तंग किया जाना और बडी संख्या में उन दोनों महिलाओं द्वारा आत्महत्या जो अपना जीवन साथ-साथ गुजारना चाहती थी - ऐसे किस्से डर, उत्पीडन और हिंसा की एक दुःख भरी तस्वीर पेश करते है । भारत में यौनिक अल्पसंख्यक इसी माहौल में अपना जीवन व्यतीत करते है ।
जिन विशेष उल्लंघनों का सामना गे, लेस्बियन, हिजडा, ट्रांसजैन्डर्ड और बाईसेक्स्युअल लोग करते है, उन्हें मुद्दे के रूप में उठाने की आवश्यकता को अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार समुदाय के अधिवक्ताओं नें पहचाना है । इस महसूस की गई जरूरत को प्रतिज्ञापत्रों और घोषणाओं द्वारा समर्थन मिला है । सन १९९१ में एमनेस्टी इन्टरनेशनल नें उन लोगों के अधिकारों की सहायता के लिए एक नीति बनाई, जिन्हें (एकांत में ) समलैगिक क्रियाओं में भाग लेने के कारण कैद में डाला गया था । 'टूटन बनाम तिस्मानिया राज्य' के मामले में निर्णय के बाद यौनिक अल्पसंख्यक अधिकारों के बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चिंताओं नें जोर पकड़ा इस निर्णय के मुताबिक तिस्मानिया का वह कानून जो गुदा मैथुन को गैर-कानूनी ठहरता है, ( काफी हद तक भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ के समान ) तिस्मानिया द्वारा हस्ताक्षरित अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार समझौते के अंतर्गत समान सुरक्षा और एकांत से जुड़े अधिकारों का उल्लंघन करता है । दक्षिण अफ्रीका में भी हाल ही में संवैधानिक न्यायालय नें गुदा मैथुन विरोधी कानून को असंवैधानिक घोषित किया है क्योकि यह समलैगिक लोगों की गरिमा और एकांत से जुड़े अधिकारों का उल्लंघन करता है । अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तनों में दक्षिण अफ्रीकी संविधान का एक संशोधन शामिल है जो यौनिक अभिरूचि के आधार पर भेद-भाव पर रोक लगता है । इसके अलावा यूरोपियन यूनियन की शर्त भी है जिसके तहत यूरोपियन यूनियन के सभी सदस्य हर उस कानून को हटाए जो गे, लेस्बियन, और बाईसेक्स्युअल लोगों के खिलाफ भेद-भाव करता है ।
नागरिक समाज की ओर नजर घुमाये तो अपने आप को उदार व अति प्रगतिशील कहने वाले लोगों में भी यौनिकता को एक तुच्छ, हल्का या बुर्जुआ मुद्दा कहकर उसपर ध्यान नहीं दिया जाता । ऐसी परिस्थिति में समलैगिकता को कुल मिलाकर इस तरह देखा जाता है जैसे वह कुछ 'असामान्य' हो । ज्यादा से ज्यादा उसे एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मुद्दे के रूप में देखा जाता है, मानव अधिकार के रूप में नहीं । सामान्य यौनिक अन्तर पर आधारित उत्पीडन के मुकाबले गरीबी, वर्ग और जाति से जुड़े उत्पीडन के मुद्दे को अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है । लेकिन यह इस सत्य को अनदेखा कर देता है कि यौनिक का सभी सामाजिक उत्पीड़नों (जैसे कि पित्रसत्ता, पूजीवाद, जातिप्रथा और धार्मिक उन्माद या कट्टरता ) से गहरा जुडाव है । विडंबना यह है कि सभी अधिकार मूल-रूप से एक दुसरे से जुड़े हुए है और उन्हें अलग-थलग नहीं किया जा सकता- इन सिद्धांतों का समर्थन करने वाले मानव अधिकार कार्यकर्ता यौनिक अधिकारों को अलग से अल्पसंख्यक अधिकारों का दर्जा देकर छोटा बना देते है । हमें यह पहचानने में गलती नहीं करनी चाहिए कि यौनिक अधिकारों की मांग कोई अलग मांग नहीं है -और वास्तव में यह आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक न्याय के व्यापक मानव अधिकार संघर्ष का एक अटूट हिस्सा है ।
धारा ३७७ मानव अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र का भी उल्लंघन करता है :
* मानव अधिकारों का विश्वव्यापी घोषणा :- ' कोई भी व्यक्ति यंत्रणा या क्रूर अमानवीय, अपमानजनक व्यवहार या फ़िर दंड का विषय नहीं होना चाहिए ( अनुच्छेद ५)
* संयुक्त राष्ट्र की मानव अधिकार समिति :- नें एक मामले में नोट किया कि आई सी सी पी आर ( इन्टरनेशनल काविनेन्ट आन सिविल एंड पोलिटिकल राइट्स - नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय शपथपत्र ) की गैर भेद-भाव वाली धारा में किए गए यौन के उल्लेख में 'यौनिक अभिरूचि' को भी शामिल किया जाना चाहिए ।
* संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार आयोग ने :- सब राज्यों से अपील की है कि वे न केवल समलैगिकता को आपराधिक मानने वाले कानूनों को रद्द करें, वल्कि अपने संविधानों या अन्य मौलिक कानूनों में यौनिक अभिरूचि पर आधारित भेद-भाव के निषेध को प्रतिष्ठापित करें ।
* बीजिंग पी ऍफ़ ए :- महिलाओं के मानव अधिकारों में उनकी यौनिकता से संवंधी बातो में जिम्मेदारी व स्वतंत्रता से निर्णय लेने और नियंत्रण का अधिकार शामिल है । इसमे बिना जबरदस्ती, बिना भेद-भाव और बिना हिंसा के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य भी शामिल है ।

शुक्रवार, 6 जून 2008

संभाव्य एवं सुदृढ़ विकास बनाम पर्यावरण एक संतुलित अवधारणा

विकास बनाम पर्यावरण की संतुलित अवधारणा या पर्यावरण बनाम विकास की परंपरागत अवधारणा परस्पर विरोधाभाषी है । पहले तात्पर्य यह था कि या तो पर्यावरण अथवा विकास । किंतु आधुनिक समय में उपरोक्त अवधारणा सुसंगत नहीं है इस दुविधात्मक परिस्थिति का हल है "संभाव्य सुदृढ़ विकास" जो पर्यावरण के संवंध में सकारात्मक है "संभाव्य सुदृढ़ विकास" के अंतर्गत ही संपूर्णतया निर्धारित किया जा सकता है कि आथिक ढांचे के सभी विभागों के विकास के लिए क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, कब करना चाहिए, और क्यों करना चाहिए जो उचित और आवश्यक है ।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर "संभाव्य सुदृढ़ विकास" की व्याख्या का सर्वप्रथम उद्भव १९७२ में स्टोक होल्म उदघोषणा में हुआ था इसके पश्चात वर्ष १९८७ में विश्व पर्यावरण और विकास आयोग ( World Commission on Environment and Development) ने अपने रिपोर्ट में "संभाव्य सुदृढ़ विकास" की व्याख्या को प्रमाणित स्वरूप दिया था । तत्पश्चात विश्व पर्यावरण और विकास आयोग को समर्थन देते हुए, "सर्वमान्य और सर्वसामान्य भविष्य" नामक अपने रिपोर्ट में प्रकृति के लिए विश्व निधी ( World Wide Fund for Nature ) नें भी पृथ्वी के लिए देख-भाल ( Caring for the Eardh ) साथ में "संभाव्य सुदृढ़ विकास" ( Sustainable Development ) की अवधारणा को पुष्ट किया ।
जून १९९२ में, रियो-डी-जेनेरो में आयोजित पृथ्वी शिखर समिती नें " संभाव्य सुदृढ़ विकास" पर मोहर लगायी । साथ में समिती नें हस्ताक्षर द्वारा प्रस्ताओं को प्रमाणित करते हुए दो मुख्य लक्ष्य हासिल किए ।
(१) समिती नें जीवसृष्टि की विविधता का विस्तृत रिपोर्ट पेश किया । साथ ही
(२) वातावरण एवं पर्यावरण परिवर्तन पर अपने सघन विचार प्रकट किए ।
तत्पश्चात इन दस्तावेजों पर १५३ राष्ट्रों नें अपने हस्ताक्षर किए । साथ में समिती के प्रतिनिधि मंडल नें तीन महालेख भी सर्वानुमति से प्रकाशित किए (१) वन्य सिद्धांतों का विवरण (२) पर्यावरण नीति एवं विकास की भूमिका संवंधी सिद्धांतों की उदघोषणा (३) एजेंडा २१ इक्कीसवी सदी में पर्यावरण के हेतु क्या करना चाहिए उसके लिए रचनात्मक सूचनाये एवं निर्देश ।
" संभाव्य सुदृढ़ विकास" की व्याख्या का प्रारम्भ १९७२ में स्टोक-होल्म में हुआ था और इस विचारधारा नें अपना वास्तविक स्वरूप १९९२ में रियो-डी-जेनेरो में प्राप्त किया । मौजूदा समय में हम जानते है कि "संभाव्य सुदृढ़ विकास" के अंतर्गत पर्यावरण और विकास की परस्पर मर्यादा निभाते हुए मानव जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु, अज्ञान के कारण पैदा हुई गरीबी का निर्मूलन कैसे किया जाय । और समस्त विश्व के राष्ट्र इस व्याख्या के अंतर्गत अपना विकास करने हेतु निरंतर प्रयासरत है ।
"संभाव्य सुदृढ़ विकास" के माने स्पष्ट है कि (१) पर्यावरण के संतुलन ही "संभाव्य सुदृढ़ विकास" की बुनियाद है । (२) इसलिए विकास के नाम पर पर्यावरण और जीवसृष्टि की प्राथमिक या अंधाधुंध अवहेलना नहीं की जायेगी (३) पर्यावरण का संतुलन या विकास का आयोजन एक ही सिक्के के दो पहलू है । (४) पर्यावरण बनाम विकास या विकास बनाम पर्यावरण, दोनों ही "संभाव्य सुदृढ़ विकास" के परिपक्व अन्वेषण से परस्पर सहायक और पूरक है ।

गुरुवार, 5 जून 2008

पर्यावरण दिवस पर पर्यावरणीय चिंता

प्रकृति और मानव का संवंध चिरकालिक और शाश्वत है । प्रकृति ईश्वर का रूप है जिसे हम देख भी सकते है । प्रकृति की गोंद में खेलते हुए मानव नें उन्नति की है सभ्यता के प्रारम्भ में मानव प्रकृति के बहुत निकट था परन्तु जैसे-जैसे पृथ्वी महाद्वीपों, देशों, और शहरों में विभक्त होने लगी और कंक्रीट के जंगल खड़े होने लगे, धीरे-धीरे मानव प्रकृति से दूर होता गया और उसने प्रकृति की उपेक्षा करनी शुरू कर दी है । हमारे पूर्वज पंचमहाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, और वायु के महत्व को जानते थे क्योकि प्राणीमात्र की संरचना में यही उपदान के कारण है । वैदिक काल से ही प्रकृति को उच्च भाव से देखा गया है प्रकृति व मानव अन्योंन्याश्रित है इसीलिए प्राणिमात्र वन, उपवन, हरे-भरे वृक्षों, लताओं और वनस्पतियों, झरनों व नदियों में कल-कल बहते शुद्ध जल का लाभ उठाता है । किंतु आज यह सारा पर्यावरण दूषित हो गया है और पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय हो गया है । हमारी लापरवाही के कारण मानो प्रकृति हमसे क्षुब्ध हो गई है और बाढ़, सूखा, भूकंप, भूस्खलन, आदि अनेक प्राकृतिक आपदाओं के रूप में अपना रोष प्रकट कर रही है । इसी वजह से मानव घबराया हुआ है और दिन ब दिन पर्यावरण के प्रति सचेत होता जा रहा है । आज इस् दिशा में अनेक नियम और कानून बनाये जा रहे है । और सरकारें करोडों अरबों रूपया खर्च करके पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना चाहती है पर कुछ लोगों के व्यावसायिक स्वार्थ इस दिशा में अवरोध बनकर खड़े है ।
प्रकृति मानव तथा पर्यावरण सृष्टि रूपी त्रिभुज के त्रिकोण है प्रदुषण कई प्रकार से प्रकट होता है जैसे जल, वायु, मृदा, ध्वनि, व रेडियोधर्मी प्रदुषण । जनसंख्या विस्फोट से भी प्रदुषण होता है मानव द्वारा फैलाये जा रहे प्रदुषण से आज प्रकृति की आत्मा कराह उठी है । वृक्षों की अनवरत कटान, भूमि का तेजी से क्षरण, औद्योगीकरण, पश्चिमी जीवन शैली से उपजा प्रदुषण, वनस्पतियों तथा अपार वन संपदा का ह्रास, जीव जंतुओं का विलुप्तिकरण, नदी व भूक्षरण, परमाणु परीक्षणों से उत्पन्न जल, वायु तथा भूमि में प्रदुषण, पालीथीन का प्रचुर मात्रा में बढ़ता उपयोग, शहरों में बढ़ता कूडा-करकट, अस्पतालों से निकला कचरा, नदियों में कूडा-करकट फेकने से उपजा जल प्रदुषण, शहरों में बढ़ता ध्वनि प्रदुषण, पेट्रोल-डीजल के जलने से उपजा वायु प्रदुषण, ओजोन की परत में क्षरण, ग्लोबल वार्मिंग तथा न्युक्लियर फाल आउट आदि के गंभीर परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पडेगा ।
आत्म-संयम और विवेक, प्रकृति प्रेम व उसके प्रति सहभागिता का भाव हमारे लिए सच्चे समाधान जुटा सकता है भौतिकवादी जीवन को मूर्तरूप देने की ललक में मानव प्रकृति व पर्यावरण का क्रूरता पूर्वक शोषण कर रहा है । अनियंत्रित औद्योगीकरण आज पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण है । यद्यपि सरकार नें पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाया हुआ है जिससे अनापत्ति प्रमाण-पत्र लिए बिना किसी उद्योग को चलाने की अनुमति नही दी जाती यह बोर्ड जांच करता है कि कारखाने से निकलने वाले रासायनिक धुआं, कचरा आदि के निस्तारण की इस प्रकार व्यवस्था हो कि प्रदूषण न फैले । किंतु पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण संवंधी विभागों में फैले भरी मात्रा में भ्रष्टाचार ने उद्योगपतियों को प्रदूषण फैलाने की अबाध एवं खुली छुट दे रखी है । इनके कारखानों से निकला विषाक्त कचरा व रसायन पास के नदी-नाले अथवा समुद्र के पानी को लगातार एवं भयावह रूप से प्रदूषित कर रहे है परिणाम स्वरूप जल में पाई जाने वाली मछलियाँ व जीव-जंतु लुप्त होने लगे है जो लोग इस प्रदूषित पानी का उपयोग करते है रोगग्रस्त हो जाते है । आलम यह है कि ऐसे प्रदूषित पानी की मछलियों के खाने से भी बीमारियाँ फ़ैल रही है कोलकाता की एक रिपोर्ट के अनुसार वहां के पानी में आर्सेनिक की मात्रा पाई गई है जिसके लम्बे समय तक प्रयोग से कैंसर जैसी घातक बीमारी हो सकती है । इतना ही नहीं भारत में तमाम औद्योगिक इकईयाँ रासायनिक कचरायुक्त पानी को जमीन के निचे पानी की सतह में लगातार फेंक रहें है जिसके कारण उस औद्योगिक इकाई के आस-पास के कस्बों अथवा गाँवो के नागरिकों द्वारा भूगर्भीय जल का इस्तेमाल करने से वे घातक बीमारियों से ग्रस्त हो रहे है किंतु स्थानीय पर्यावरण नियंत्रण विभाग इन औद्योगिक इकाईयों द्वारा किए जा रहे पर्यावरणीय विनाशक अपराध के प्रति आँखें बंद किए बैठा है ।
पालीथीन का प्रयोग भी आज देश के लिए एक बडी समस्या बन चुका है ये आसानी से नष्ट नहीं होते इसके खाने से अनेक गाये मर चुकी है चूँकि लोग खाने का सामान इसमे रख कर बाहर फेंक देंते है । बहुराष्ट्रीय प्लास्टिक उद्योग भारत में २ मिलियन टन प्लास्टिक बनाता है जो बाद में कचरे में परिवर्तित हो जाता है इसमे से एक मिलियन टन वह कंटेनर है जिसमें भोज्य पदार्थ, दवाएं, कास्मेटिक्स सीमेंट बैग आदि होते है, जो एक बार प्रयोग के बाद बेकार हो जाते है । इन्हे कौन उठाकर फ़िर से रीसायकिल करेगा ? २५००० करोड़ का यह सनराईज उद्योग जो कि १० से १५ प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रहा है पर्यावरण दुष्प्रभाव के नाम से भी चिढ़ता है । इन लोगों को देश के उन छोटे-छोटे कारीगरों, कुम्हारों, डलिया व जूट बनाने वाले श्रमिकों से क्या मतलब जिनकी रोटी इनके कारण छीन सी गई है । इनके लिए तो पर्यावरण की बात करने वाले लोग भी पसंद नही है । स्वीडन, नार्वे व जर्मनी में ऐसे नियम बनाए गए है कि प्लास्टिक कंपनियों द्वारा बनाए गए प्लास्टिक कचरे को एकत्र करके उसे रीसाईकल करने की जिम्मेदारी इन्ही कंपनियों की है । भारत में रंगनाथन कमेटी ने कहा था कि प्लास्टिक उद्योग अपने द्वारा उत्पादित १५००० टन बोतलों के कचरे का १००० केन्द्रों द्वारा एकत्र करके रीसाईकिल करे पर कोई नहीं जनता कि इस दिशा में क्या प्रगति हुई । सरकार ने ३ बार रीसाईकिल उत्पाद नियम के द्वारा २० माईक्रोन से कम के ८ गुणे १२ के छोटे प्लास्टिक लिफाफे बनाने पर प्रतिबन्ध लगाया है चूकि यह इधर-उधर उड़ते है और गंदगी फैलाते है पर क्या मात्र इस प्रतिबन्ध से समस्या हल हो जायेगी ?
अस्पतालों से निकला कचरा जैसे प्लास्टिक की ग्लूकोज की बोतलें, दवाये, प्लास्टिक आफ पेरिस व अन्य विषाक्त वस्तुए समाज के लिए बहुत ही खतरनाक है इन्हे नष्ट करने के लिए इनसिनेटर नामक मशीन आती है इस मशीन की जरूरत आज हर बडे अस्पतालों में है पर हमारी सरकार इस दिशा में कितना कार्य कर पाई है पर्यावरण की सुरक्षा आज हमारी परम आवश्यकता बन चूकी है इसके लिए केवल सरकार पर निर्भर नही रहा जा सकता इस् लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ एवं अनुच्छेद ५१-अ (ग ) के तहत आम नागरिकों को भी पर्यावरण वायु एवं जल प्रदूषण से आने वाली पीढ़ी के लिए पैदा हुए गंभीर खतरे को रोकने हेतु अनिवार्य रूप से कार्य करना होगा अन्यथा पर्यावरण प्रदूषण मानवता के लिए गंभीर खतरे का रूप ले चुका है ।

सोमवार, 2 जून 2008

अपराध कानून और मानवाधिकार

अपराध का प्राकृतिक स्वरूप :
मानवता के आरंभिक चरण में भी मनुष्य अपराधों का निवारण करता था । तथा वह स्वयं शत्रुओं से बदला लेता था इस कार्य में आवश्यकतानुसार उसके बंधू और मित्र भी सहयोग करते थे लेकिन इस अवस्था में प्रत्येक मनुष्य के प्राण हथेली पर रहते थे उस समय प्रत्येक मनुष्य अपने मामले में स्वयं न्यायाधीश होता था और शारीरिक बल ही एकमात्र न्याय का मापदंड था इसलिए उस समय आवश्यक नही था कि अपराध के लिए निश्चित रूप से दंड दिया ही जाएगा अथवा निरपराध को अपनी सफाई में कुछ बोलने के अवसर या अधिकार प्राप्त होंगे ।
उस समय एक अपराध दुसरे अपराध को जन्म देता था और आनुषंगिक अपराध केवल अपराधी तक ही सीमित नही होता था बल्कि उसके साथ उसके परिवार एवं उसके कबीलों को भी प्रतिरोध का शिकार बनना पड़ता था इस तरह समूहों और कबीलों में संघर्ष छिड़ जाता था जो कई व्यक्तियों और उसके संबंधियों को प्रभावित करता था तथा साथ ही कई-कई पीढियों तक चलता रहता था यह संघर्ष व्यापक रूप से कष्टकारी एवं विध्वंसकारी एवं रक्तरंजित होता था सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही इस न्याय के मापदंड में बदलाव आया इन संघर्षों में होने वाली क्षति की क्षतिपूर्ति की व्यवस्था की गई यहाँ तक कि हत्या तक के मामलों में मरने वाले व्यक्ति के संबंधियों को उस व्यक्ति के महत्व के अनुसार रक्त द्रव्य के रूप में धन अदा किया जाने लगा इस प्रकार न्याय प्रशासन ने निश्चित नियमों के तहत एक निश्चित दिशा की तरफ़ कदम बढाया ।
इसके बाद राज्य के उदय होने के साथ ही आपराधिक प्रशासन में भी परिवर्तन आया तथा अपराध नियंत्रण का अधिकार व्यक्ति के हांथों से निकल कर राज्य के हांथों में चला गया उस युग की यह धारणा थी कि अपराध का सम्बन्ध केवल अपराधी और उससे आहत व्यक्ति तक ही सीमित है धूमिल पड़ने लगा और यह भावना कि समाज विरोधी कार्य केवल व्यक्ति के विरुद्ध ही नही वरन राज्य के विरुद्ध अपराध है प्रबल होती गई ।
मनुष्य जब सामाजिक जीवन व्यतीत करना शुरू किया है तभी से समाज में अपराध भी अनेक रूपों से अस्तित्व में आया अन्तर केवल इतना है मानव समाज के विकास के साथ-साथ विकास के अर्थों तथा प्रारूपों में अन्तर होता चला गया दुसरे अन्य व्यवहारों की भांति आपराधिक व्यवहार भी मानव व्यवहार का अंग बन गया इसीलिए मानव व्यवहार का ही एक अंग होने के कारण सामाजिक नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों में परिवर्तन के साथ-साथ यह भी बदलता चला गया अर्थात अपराध की अवधारणा अपराध के कारण, प्रकार व करने के ढंग की सभ्यता के विकास के साथ-साथ परिवर्तित होते चले गए ।
इस तरह यह मानने से इंकार नही किया जा सकता कि अपराध एक वास्तविक सामाजिक समस्या है जिसकी प्रवित्ति को समझना तथा उसके विरोध का उपाय करना प्रत्येक समाज का कर्तव्य है मानव समाज में सायद ही कभी ऐसा समय रहा हो जबकि अपराध का अस्तित्व न रहा हो । भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग भी अपराधों से विषाक्त थे यह कहा जाता है कि उस समय लोग चोरी नही करते थे इस लिए उस समय लोग अपने घरों में ताले नही लगाते थे लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नही कि उस समय लोग चोरी नही करते थे वास्तविकता यह थी कि उस समय कानून बहुत कठोर थे तथा उसका पालन भी शक्ति से किया जाता था लेकिन आज तो अपराध निरंतर अबाध गति से बढ़ते ही जा रहे है साधारण तथा सर्वत्र अपराध की प्रवित्ति भी बढ़ती जा रही है ।
अपराधों को रोकने के लिए रोज नये-नये उपाय किए जाने के बावजूद भी उसमे निरंतर बढोत्तरी ही हो रही है जिसे देखते हुए प्रो टेटन बाम का कथन संभवतः सही प्रतीक होता है कि "अपराध को समाज से अलग नही किया जा सकता" इसी प्रकार के विचार फ्रांसीसी समाज शास्त्री दुर्खिम ने व्यक्त किए है कि "पाप के समान अपराध भी समाज की एक सामान्य घटना है और मनुष्य द्वारा निर्मित कानून और प्रथाये असामान्य" दुर्खिम ने अपराध को समाज के लिए उपयोगी बताते हुए कहा है कि अपराध समाज के लिए आवश्यक है सामाजिक जीवन की आधार भूत दशाओं से संबंधित होने के कारण यह इसके लिए उपयोगी भी है "।
ठीक इसी प्रकार डा परिपूर्णानन्द वर्मा का कथन है कि "अपराध हीन समाज कल्याण से परे की वस्तु है । जब नियम बनेंगें तो उसको तोड़ने वाले भी पैदा होंगे नियम की रचना समाज की रचना के साथ होती है दोनों एक दुसरे के साथ साधन और साध्य के समान मिले हुए है अतः इस संबंध में कुछ भी नई बात या नया निदान खोज निकलने का प्रयत्न करना अनंत यात्रा करना है निष्कलंक मनुष्य अथवा निष्कलंक समाज सायद ही कभी मिले चूँकि हम ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते है इस लिए हमें केवल भगवान ही निष्कलंक तथा पाप-पुण्य से परे नजर आता है जो लोग प्रभु की सत्ता को नहीं मानते उनके लिए तो यह सहारा भी नही है ।
यद्यपि अपराध समाज की एक अमूर्त अवधारणा है लेकिन कोई भी ऐसा समाज नही है जिसमें किसी न किसी रूप में प्रत्येक काल में अपराध विद्यमान न रहा हो इसलिए इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक काल्पनिक एवं मिथ्या समाज को छोड़ कर अपराध को विल्कुल मिटाया नहीं जा सकता ज्यों-ज्यों मानव सभ्यता ने उन्नति की है यह अनुभव किया जाने लगा है कि समाज में कुछ लोग ऐसा व्यवहार करते है जिसके कारण सामाजिक हितों को चोट पहुंचती है । इस प्रकार के कृत्य केवल सामाजिक एकता एवं संगठन को ही नुकसान नहीं पहुँचाते वरन उसके अस्तित्व को ही खतरा पैदा कर देते है ।
अपराध की परिभाषा :
साधारण बोल-चाल की भाषा में "अपराध" शब्द का अभिप्राय उस कार्य से है जिसे समाज अनैतिक व अनुचित मानता है और समझता है तथा जिसको सामाजिक शान्ति का विनाशक मानता है प्रत्येक समाज की निश्चित व्यवस्था होती है इस व्यवस्था के बने रहने में ही अधिकाधिक समाज कल्याण की आशा की जा सकती है तथा समाज भी प्रगति की दिशा की ओर बढ़ सकता है इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कुछ वैधानिक प्रतिमान बना दिए जाते है जिसके पालन पर ही समाज की आन्तरिक संरचना और बाहरी व्यवस्था निर्भर करती है जो व्यक्ति इन नियमों का पालन नहीं करते अथवा दुसरे शब्दों में जो व्यक्ति समाज के नियमों का पालन नहीं करते अथवा दुसरे शब्दों में जो व्यक्ति समाज के नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों के विरुद्ध आचरण करते है और समाज की व्यवस्था को धक्का पहुचाते है तथा सामाजिक संगठन को छिन्न-भिन्न करने का खतरा पैदा करते है उनके इस विशेष व्यवहार को अपराध कहा जाता है ।
लेकिन अगर इसको वास्तविक रूप से समझा जाए तो इसका अर्थ बहुत व्यापक है जिसकी व्याख्या करना बडा कठिन कार्य है वस्तुतः समाज विरोधी व्यवहार ही अपराध है जिन समाजों में कानून की विकसित व्यवस्था होती है वहां उसी आचरण को अपराध कहते है जो कि कानून की दृष्टि में अपराध है, कानून का उल्लंघन है इसी प्रकार जिन समुदायों में आचरण संहिता का बोलबाला होता है उसमे नैतिकता के नियमों का उल्लंघन अपराध कहलाता है इस विषय पर अटेबरी व हंट का कहना है कि "अपराध वह कार्य है जो कि किसी निर्दिष्ट समय में अथवा निर्दिष्ट स्थान पर किसी समूह के पूर्व स्थापित व्यवहारों का विरोध करता है" जब अपराध की व्याख्या समाज विरोधी व्यवहार के रूप में की जाती है । तो इसका आरंभ वास्तव में अनैतिक अथवा अवांछनीय अथवा अपेक्षित व्यवहार के रूप में की जाती है परन्तु क्या सभी नैतिक मूल्यों को प्रभावित करने वाले कृत्य अपराध है ? उदाहरण के तौर पर बच्चे द्वारा माता पिता की आज्ञा का पालन न करना नैतिकता के खिलाफ तो हो सकता है लेकिन क्या इसे अपराध कहा जा सकता है ? संभवतः नहीं ।
आगे जारी..........................

रविवार, 1 जून 2008

परमात्मा की दानशीलता

मैंने भगवान से मांगी शक्ति,
उसने मुझे दी कठिनाइयां,
हिम्मत बढाने के लिए ।

मैंने भगवान से मांगी बुद्धि,
उसने मुझे दी उलझनें,
सुलझाने के लिए ।

मैंने भगवान से मांगी संवृद्धि
उसने मुझे दी समझ,
काम करने के लिए ।

मैंने भगवान से माँगा प्यार,
उसने मुझे दिए दुखी लोग,
मदद करने के लिए ।

मैंने भगवान से मांगी हिम्मत,
उसने मुझे दी परेशानियाँ,
उबर पाने के लिए ।

मैंने भगवान से मांगे वरदान,
उसने मुझे दिए अवसर,
उन्हें पाने के लिए ।

वो मुझे नही मिला जो मैंने माँगा था ,
मुझे वो मिल गया जो मुझे चाहिए था

शुक्रवार, 30 मई 2008

विश्व तम्बाकू रोधी दिवस ( जिन्दगी चुनें तम्बाकू नहीं )

आज ३१ मई २००८ विश्व तम्बाकू रोधी दिवस है भारत सरकार ने अखबारों तथा अन्य प्रसार माध्यमों के मध्यम से बडे-बडे इश्तिहार देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली इन इस्तिहारों में यह कह दिया गया कि "धूम्र पान जानलेवा है" कही-कही यह भी लिख दिया गया कि "तम्बाकू से कैंसर होता है" एक और जुमला फेका गया "तम्बाकू दर्दनाक मृत्यु का कारण है" इसी के साथ कुछ मुह के कैंसर से पीड़ित लोगों फोटो लगा दिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डा अम्बुमणि रामदौस एवं स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री श्रीमती पानाबाका लक्ष्मी का भी अखबारी एड के माध्यम से प्रचार हो गया विश्व तम्बाकू रोधी दिवस पर केवल एड में करोडों रूपये खर्च कर दिए गए सवाल यह है कि कितने लोगों ने इस् एड को देखा या पढा ? क्या एक दिन के एड से अथवा एक दिन विश्व तम्बाकू रोधी दिवस मना लेने भर से इस् बडे खतरे से मानवता निजाद पा लेगी ? मुझे नही लगता कि केवल इतना करने मात्र से हमे कुछ हासिल होगा बल्कि इस समस्या से अगर समाज को बचाना है तो हमारे समाज एवं हमारी सरकारों को तम्बाकू मुक्त समाज आन्दोलन अथवा मुहीम चलानी होगी ठीक उसी तरह जैसे हमारे देश में पोलियो के विरुद्ध अभियान चलाया जा रहा है ।
सरकारी आकडे के अनुसार हमारे देश में तम्बाकू जनित रोगों के कारण प्रतिवर्ष १० लाख लोगों की मौत हो जाती है । स्वास्थ्य मंत्रालय एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ ) और अन्य स्वतंत्र विशेषज्ञों का मानना है कि कैंसर के ५० प्रतिशत से अधिक मामले तम्बाकू के सेवन से होते है । मौजूदा समय में तम्बाकू मानवता का सबसे बडा हत्यारा है । अभी तक हमारी सरकारों ने केवल इस समस्या के बारे में सतही तौर पर खानापूर्ति करती ही दिखती है । इस् विषय पर सरकार की कार्रवाईयों को देख कर लगता है कि तम्बाकू उत्पादों के खतरे का ढिंढोरा पीटने के पीछे केवल एक मकसद होता है इन उत्पादों पर कर बढा देना जिससे सरकारी खजाने में बढोत्तरी हो सके । तम्बाकू का उत्पाद बनाने वाली कंपनिया इन बातों से परिचित है । हमारी सरकार की तरफ़ से अभी तक तम्बाकू का उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के विरुद्ध क्यो कोई सख्त कदम नही उठाया गया ? क्या केवल इन कंपनियों द्वारा अपने उत्पादों पर " तम्बाकू का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है" इतना लिख देने मात्र से उनका अपराध ख़त्म हो जाता है ? ये कंपनिया भ्रामक विज्ञापन, उत्पादों के इस्तेमाल हेतु प्रोत्साहन, एवं प्रचार-प्रसार में लगभग १० अरब सालाना रूपये खर्च करती है ।
"तम्बाकू २६ प्रकार से भी अधिक जानलेवा बीमारियो का जनक है"। तम्बाकू में मौजूद तत्व निकोटीन अधिक नशीला होता है। और आदि बनाने वाला होता है इसलिए इस नशे को त्यागने में लोग अक्सर असफल हो जातें हैं। इन सभी बातों से पता चलता है समस्या की जडें कितनी गहरी है तो क्या सतही तौर पर कार्रवाई से समस्या का समाधान हो सकेगा । अभी हल में ही देश के स्वास्थ्य मंत्री डा अम्बुमणि रामदौस ने अपने एक बयान में कहा है कि "अब बिना विलम्ब आकस्मिक तौर पर ६० करोड़ भारतीयों को, जिनकी उम्र ३० साल से कम है उनकों तम्बाकू, शराब, और फास्ट फ़ूड से बचना है" लेकिन हमारे स्वास्थ्य मंत्री कैसे बचायेगे इन युवाओं को ? क्या कोई ठोस रणनीति है स्वास्थ्य मंत्रालय के पास या फ़िर यह केवल कोरी बयानबाजी है यह तो स्वास्थ्य मंत्री ही जानते होंगे ।
मैं तो केवल आप सभी पाठकों से यही अपील कर सकता हूँ कि "जिन्दगी चुनें तम्बाकू नहीं"

बुधवार, 28 मई 2008

पुलिस की निरंकुशता मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन

अब तो पुलिस और जांच एजेंसियों का शिर्फ़ एक ही मकसद रह गया है कि वे किसी तरह से राजनैतिक नेताओं का विश्वास हासिल कर लें आज निर्धन एवं सम्पन्न लोगों के लिए पुलिस अलग अलग दृष्टिकोण अपनाए हुए है अगर कोई साधन हीन गरीब व्यक्ति थाने जाता है तो उसका (एफ आई आर ) प्रथम सूचना रिपोर्ट तक नही लिखी जाती । उसे डाट कर थाने से भगा दिया जाता है और यदि किसी तरह (एफ आई आर ) लिख भी लिया जाता है तो भी मामले की जांच कार्रवाई नही होती । वही दूसरी तरफ़ यदि कोई साधन सम्पन्न व्यक्ति थाने जाता है तो पुलिस का दृष्टिकोण अचानक बदल जाता है । स्वाधीनता के बासठ वर्ष बीत चुके है लेकिन अब तक न तो पुलिस को मानवीय बनाया गया, और न ही उसे एहसास कराया गया कि उसके लिए सभी नागरिक समान है ।

पुलिस को आम भाषा में "वर्दी वाला गुंडा" तक कहा जाता है, फ़िर भी पुलिस के आचरण में कोई अन्तर नही आ रहा है पुलिस चाहे पंजाब की हो, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, अथवा दिल्ली की पुलिस पुलिस के बारे में आम नागरिकों की राय अच्छी नही है अब भी लोग पुलिस को उसी दृष्टिकोण से देखते है जैसे अंग्रेजों के समय पुलिस को निर्दयी मानते थे । पुलिस अत्याचार की जो कहानियाँ प्रायः प्रकाशित होती रहती है उसके कारण आम लोगों और पुलिस में अब भी उसी तरह की दुरी बनी हुई है पुलिस और जनता के दुरी के कई कारण है उसमे एक पुलिस हिरासत में होने वाली मौतें भी है, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार २००४-२००५ में हिरासतीय मौतों के अकडों में पुलिस हिरासत में १३६ मौतें तथा न्यायिक हिरासत में १३५७ मौतें अर्थात हिरासत में कुल १४९३ मौतों की रिपोर्ट दी है ।

देश की आम जनता के प्रति पुलिस का रवैया कभी भी दोस्ताना नही रहा, कोई भी ऐसा राज्य नही है जहाँ पुलिस पर ऊँगली न उठाई गई हो हालांकि दिल्ली की पुलिस को अपेक्षाकृत अधिक सतर्क और मानवीय माना जाता है लेकिन यहाँ भी पुलिस अत्याचारों, मानवाधिकार हनन की कहानियाँ अक्सर सामने आती रहतीं है । पैसों के लिए लोगों को प्रताडित करना, झूठे केसों में फ़साने की धमकी देकर पैसा ऐठ्ना, शिकायतकर्ता को उल्टे झूठे केस में फसा देना, पैसा लेकर आरोपियों को छोड़ देना पुलिस के लिए आम बात है । पुलिस कितनी निरंकुश एवं कितनी निर्भीक है उसके द्वारा किए जा रहे दमनात्मक कार्रवाईयों से पता चलता है । निचले स्तर के पुलिसकर्मी दूकानदारों तथा फुटपाथ पर धंधा करने वालों से हप्ता वसूली और न देने पर उनके साथ अत्याचार, पैसा लेकर अनैतिक कार्यों को प्रोत्साहन देना, असामाजिक तत्वों का संरक्षण, भोले-भाले आम नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार, किसी भी नागरिक पर बिना वजह डंडे बरसाना एवं थानें में लेजाकर पिटाई करने की धमकी, घिनौनी गालियों से लोगों का स्वागत इनके लिए साधारण बात है । इतना ही नही बल्कि पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी भी अमानवीय अत्याचार और अपराध करने के मामले में पीछे नही है उदाहरण के लिए पंजाब के पुलिस प्रमुख गिल के द्वारा की गई वरिष्ठ महिला अधिकारी के साथ छेड़खानी का हो, दिल्ली पुलिस आयुक्त जसपाल सिंह द्वारा किया गया हत्या का मामला अथवा अभी हाल में मुम्बई के मशहूर भवन निर्माता चतुर्वेदी को फर्जी मामले में फंसाये जाने का मामला लोगों के समक्ष है ।

मैंने एक समाचार पत्र में पुलिस के प्रति एक व्यंग पढा था की किसी देश में दुनिया के हर देशों की पुलिस के उत्कृष्टता हेतु या सर्वोच्च काविलियत के प्रदर्शन हेतु प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, उसमे विभिन्न देशों की पुलिस सामिल हुई । आयोजकों ने बड़े जंगल में एक शेर को छोड़ा और उपस्थित पुलिसवालों से कहा कि जिस देश की पुलिस सबसे पहले शेर को जंगल से पकड़ कर लाएगी उसे ही सर्वोच्च एवं उत्कृष्ट माना जाएगा । अन्य देशों की पुलिस अपने-अपने तरीकों से शेर को ढूढने में लग गई, मगर भारतीय पुलिस शेर को ढूढने जंगल में घुसी तथा जंगल में घुसते ही उसने एक भेडिये को पकड़ लिया और उसकी पिटाई शुरू कर दी कि कबूल कर कि तू भेडिया नही शेर है, विचारा भेडिया पिटाई से बचने के लिए अपने आप को शेर होना कबूल किया और तुरत-फुरत में भेडिये को शेर बनाकर आयोजकों के समक्ष पेश कर दिया भेद खुलने पर भले ही किरकिरी हुई तो ये है हमारी भारतीय पुलिस इसका अर्थ है कि हमारी पुलिस में इतना दम है कि वह जो भी चाहे किसी से कबूल करवा सकती है । यह अंग्रेजों की बनाई पुलिस सायद यह भूल गई किउस समय यदि उसे असीमित अधिकार प्राप्त थे तो नौकरी भी पल में चली जाती थी । देश आजाद हुआ तो पुलिस को चाहिए कि वह लोगों को एहसास भी कराए कि वह अंग्रेजों की नही आजाद भारत की पुलिस है ।

कहा जाता है कि वर्तमान पुलिस की बुनियाद व शैली अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई थी आजादी मिलने के बाद पुलिस व्यवस्था में कोई बदलाव न करते हुए गोरों का स्थान भारतीयों ने ले लिया वर्तमान सत्ता के दलालों या भ्रष्ट राजनीतिबाजों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नही आया अंग्रेजों के जमाने में तो पुलिस का मुख्य काम अंग्रेजों के सत्ता की रक्षा करना व भारतीयों के आन्दोलन को किसी भी प्रकार से कुचलना होता था, परन्तु यदि अन्य अपराधों से निपटने के बारे में आज की पुलिस से तब की कारगुजारियों की तुलना करें तो पायेगें कि उस समय की पुलिस काफी निष्पक्ष, कारगर, समर्थ, व दयालू थी जबकि आज उसकी इन्हीं कार्रवाईयों में भारी गिरावट आई है हालांकि तब छोटे पदों पर अधिकांश भारतीय ही थे यदि हम अंग्रेजों के सत्ता हितों की रक्षा को अलग रक्खे तो पुलिस में केस दर्ज करवाने से जांच तक प्रत्येक स्तर पर कानून का कठोरता से पालन होता था कई बार पक्षपात करने पर भारतीय पुलिस अधिकारियों को अंग्रेज अफसरों द्वारा दण्डित या अपमानित भी किया जाता था । हमारी कानून व्यवस्था इंग्लैंड के कानून प्रणाली पर आधारित है तथा अंग्रेज सामाजिक न्याय के लिए दुनिया भर में ऊँचा स्थान रखतें है, पर हम उनकी नक़ल करते हुए उनकी बुराइयों को तो अपना लिए, और अच्छाइयों को दरकिनार कर दिया ।

अंग्रेजों के समय में पुलिस व न्याय के मामले में आज की तरह राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था, हालांकि तब भी पुलिस को काफी अधिकार प्राप्त थे लेकिन आज जितना भ्रष्टाचार तब भी नहीं था, सायद इसी कारण देख या सुन कर यह सवाल जेहन में पैदा हो जाता है कि क्या हम स्वतंत्र भारत के नागरिक है ? अंग्रेजों ने अपने समय में पुलिस संस्था को इस् ढंग से व्यवस्थित किया था उस समय की पुलिस को काफी अधिकार देने के साथ एक और अच्छी बात यह थी कि भ्रष्ट पुलिस अधिकारी को नौकरी से तुरंत बर्खास्त करने के साथ-साथ उसकी जायजाद भी जप्त कर लेने का प्रावधान भी था, उस समय आज-कल के संविधान की धारा ३२२ नहीं थी अतः नौकरी तत्काल खोनी पड़ सकती थी बात भी सही थी रक्षक को भक्षक बनने का हक़ क्यों मिले ।

आजादी के बाद के पुलिस की छवि गालियाँ देने वाले व यातना देने वाले वहशी की बन चुकी है क्या कभी स्वयं पुलिस वाले या इसमें सबसे ज्यादा दोषी मौजूदा राजनीतिबाजों ने सोचा है ? आज पुलिस का अपराधीकरण होने के साथ-साथ साम्प्रदायीकरण भी हो चुका है जो देश के लिए अत्यन्त खतरनाक है । पिछले ३० वर्षों से हमारा समाज पहले से कही अधिक मानवीय मूल्यों से परे हो गया है देश की चुनावी राजनीति धर्म-जाति मतदाताओं पर बंटी हुई है, जिस क्षेत्र में जिस जाति या धर्म के लोग ज्यादा वोट हो उसी धर्म या जाति के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाता है फ़िर वही नेता विधायक या मंत्री बनकर अपनी ही जाति या धर्म के पुलिस अधिकारियों को उस क्षेत्र में तैनात करवाकर अपने विरोधियों से बदला लेने या अपने लोगों की स्वार्थ पूर्ति कराने हेतु उक्त पुलिस अधिकारियों का उपयोग करते है ।

विश्व के सबसे बडे प्रजातंत्र का संचालन व प्रबंध आज भी ब्रिटिशों द्वारा बनाये ढांचों व कानूनों से किया जा रहा है । समय बदला आवश्यकताए बदली लेकिन हमारा कानून व पुलिस का ढांचा विगड़ता चला गया, अंग्रेजों से विरासत में मिले इस कानून व प्रशासनिक ढांचे का एक दुखद पहलू यह भी है कि पुलिस सत्ताधारी शासकों व पूंजीपतियों की कठपुतली बन कर रह गई है, तथा इसमें क्रूर प्रवित्ति बढ़ती जा रही है अपने असीमित अधिकारों का पुलिस द्वारा भारी दुरूपयोग किया जाने लगा है, इन बातों से पुलिस संस्था को अपने छवि की कोई चिंता नही है, आज की पुलिस एक अत्याचारी संस्था का रूप ले चुकी है । और यही आज बडे पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन करती दिखाई दे रही है । पुलिस संस्था में सुधार या उसे पुरी तरह बदलने के लिए बडे-बडे सुझाव आए, पुलिस में सुधार के लिए धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन भी किया गया लेकिन सायद हमारे राजनीतिक ही नही चाहते कि पुलिस संस्था को सुधार कर उसे जनानुकूल बनाया जाए ।

पुलिस सुधार के लिए कुछ आवश्यक सुझाव :

(१) पुलिस प्रक्रिया पर राजनैतिक हस्तक्षेप से बचाव हो ।

(२) राज्य सुरक्षा आयोग जैसी स्वतंत्र इकाई का गठन किया जाय ।

(३) पुलिस प्रमुख के चयन की प्रक्रिया पारदर्शी हो और उनका सुनिश्चित कार्यकाल हो ।

(४) आन्तरिक अनुशासन के लिए एक विशेष तंत्र की व्यवस्था हो ।

(५) पुलिस द्वारा किए गए ग़लत कार्यों हेतु सुनिश्चित दंड की व्यवस्था हो ।

(६) अनियमित कार्यो को परिभाषित कर सार्वजनिक किया जाय ।

(७) स्पष्ट, निष्पक्ष एवं पारदर्शी अनुशासनात्मक प्रक्रिया का अनुपालन हो ।

(८) पुलिस अपराधों की स्पष्ट व्याख्या हो ।

(९) जनता की शिकायतों के लिए स्वतंत्र इकाई बने जोकि पुलिस प्रभाव से मुक्त हो जो केवल पुलिस के विरुद्ध शिकायतों पर ही ध्यान दे ।

(१०) जनता के शिकायतों के लिए बनी इकाई में जनता के तरफ़ से अपने प्रतिनिधि चुन कर भेजे जाय तथा यह चुनाव प्रक्रिया पारदर्शी हो ।

(११) जिला और राज्य स्तर तक बनी इन इकाईयों तक आम आदमी आसानी से पहुँच सके ।

(१२) इन इकाईयों को अधिकार हो कि एफ आई आर दर्ज और विभागीय कार्यवाही कराने के लिए प्रभावी निर्देश दे सके तथा पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति राशि दिलाने में सक्षम हों ।

(१३) पुलिस के दिन प्रतिदिन के कार्यों कि गुणवत्ता में सुधार हो ।

(१४) पुलिस के कार्यों एवं कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या हो ।

(१५) कानून व्यवस्था बनाये रखने तथा अपराधिक जांच के कार्यों के लिए पृथक पुलिस दल हो ।

रविवार, 25 मई 2008

स्वास्थ्य के अधिकार (रोड दुर्घटना )

विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डब्ल्यू एच ओ ) ने स्वास्थ्य को शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक कल्याण की अवस्था के रूप में मंजूरी दी है । स्वास्थ्य के अधिकार को मानव अधिकार की सार्वभौम घोषणा के अनुबंध २५ के अंतर्गत प्रतिष्ठापित किया गया था जिसमे घोषित किया गया था : "प्रत्येक व्यक्ति को, अपने स्वयं के तथा अपने परिवार के स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए उपयुक्त जीवन स्तर का अधिकार है जिसमे भोजन, वस्त्र, आवास और चिकित्सा देख-रेख तथा बीमारी और अशक्तता की स्थिति में सुरक्षा का अधिकार शामिल है ।" इसके अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकार संबंधी अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा ( आई सी एस सी आर ) में भी अनुबंध १२ के अंतर्गत यह मान्यता दी गई है "प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के उच्चतम प्राप्य स्तर का उपभोग करने का अधिकार है ।"
इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य के अधिकार की उचित देख-भाल यह अनिवार्य रूप से संगत है कि इसे आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक ( ई एस सी आर ) दृष्टिकोण से देखा जाए देश के वर्तमान स्वास्थ्य व्यवस्था में काफी खामियां है । जैसे आपातकालीन चिकित्सा एवं देख-भाल की अत्यन्त असंतोषजनक व्यवस्था, जिसके कारण भारी संख्या में लोगों की मृत्यु हो रही है जो कि गंभीर चिंता का विषय है । इस विषय पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने अप्रैल २००३ में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के पूर्व निदेशक डा पी के दवे की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ ग्रुप का गठन किया गया । उपरोक्त विशेषज्ञ दल ने दिनांक ०७ अप्रैल २००४ को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । अपनी रिपोर्ट में दल ने उल्लेख किया कि भारत में विभिन्न स्थानों पर दुर्घटनाओं में घायल होने के कारण प्रति वर्ष ४,००,००० व्यक्ति अपनी जान गंवाते है, करीब ७५,००,००० व्यक्ति अस्पताल में भर्ती किए जाते है तथा ३,५०,००० व्यक्ति मामूली चोटों में आपातकालीन देख-भाल पाते है । देश में वर्तमान आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था ( ई एम् एस ) कम अनुकूल वातावरण में काम कर रही है तथा इन्हे सुधारने की आवश्यकता है । रिपोर्ट में उन कमियों का खुलासा किया गया जो कमियां वर्तमान आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था में मौजूद है । तथा अल्पावधि के साथ साथ दीर्घावधि योजनाओं में कार्यान्वयन के लिए कई सुझाव दिए गए जो कि निम्नलिखित है ----
अल्पावधि उपाय
(१) राष्ट्रीय दुर्घटना नीति की घोषणा ।
(२) स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था के लिए एक केंद्रीय समन्वयकारी, मददगार, सुविधा, परिविक्षण तथा नियंत्रक समिति की स्थापना ।
(३) मेडिकल कालेजों के संयोजन के लिए ३-४ जिलों की नियुक्ति, जो प्रत्येक राज्य तथा संघ शासित क्षेत्रों में संबंधित केन्द्र के रूप में कार्य करेंगे ।
(४) देश में सभी राज्यों के सभी जिलों एवं संघ राज्य क्षेत्रों में केंद्रीकृत दुर्घटना और आघात सेवाओं की स्थापना का कार्य करेंगे ।
(५) स्वास्थ्य देख-भाल के सभी स्तरों पर नीति की योजना एवं नेटवर्क के परिपेक्ष्य में सहायता के लिए एक कम्प्यूटरीकृत सूचना आधार का विकास किया जाएगा ।
(६) सरकार डाटा संग्रह तथा विश्लेषण के लिए राष्ट्रीय आघात रजिस्ट्री की स्थापना कर सकतीं है ।
(७) आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था स्वास्थ्य देख-रेख उपयोग के लिए सभी विद्यमान सुविधाओं के लिए सूचना प्रसार ।
(८) ई एम् एस के उन्नयन के लिए राज्य प्रस्ताव बनाए ।
(९) ई एम् एस के प्रशिक्षण को मेडिकल कालेजों तथा अन्य प्रादेशिक क्षेत्रों में आयोजित किया जाए ।
दीर्घावधि उपाय
(१) राष्ट्रीय दुर्घटना नीति की प्रस्तावित सिफारिशों का कार्यान्वयन ।
(२) क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर प्रशिक्षित कर्मचारियों सहित सुसज्जित आघात केन्द्र की स्थापना ।
(३) सभी जिला अस्पतालों में विशेषीकृत बहुअनुशासनिक आघात देख-भाल सुविधाये होनी चाहिए ।
(४) आपातकालीन औषधि केन्द्र की स्थापना एक विशेषता के रूप में करना ।
(५) आपात स्थिति में टोल फ्री सूचना नंबर समर्पित करना, जो पूरे राष्ट्र के लिए सार्वजनिक होना चाहिए ।
(६) स्वर्ण चतुर्भुज रोड परियोजना के संबंध में प्रति ३० किलोमीटर पर एक सूचना काल सेंटर के साथ-साथ सुसज्जित और कर्मचारी सहित एक एम्बुलेंश खड़ी करनी चाहिए । अर्ध चिकित्सीय स्टाफ द्वारा कार्य किए जाने वाले आपात देख-भाल केन्द्रों को प्रति ५० किलोमीटर पर स्थापित करना चाहिए । साथ ही सभी राष्ट्रीय राजमार्गों में भी इसी प्रकार की सुविधाए होनी चाहिए ।

शनिवार, 24 मई 2008

अधिकार हों सबके लिए

हम एक ऐसे समाज में रहते है जिसमे एक ही तरह की यौनिकता को मान्यता दी जाती है --शादी के रिश्ते में बंधे हुए औरत और मर्द की । एक मात्र उसी को 'प्राकृतिक' और 'सामान्य' बताया जाता है । इसमे भी मर्द की यौनिकता निर्णायक और प्रधान है । औरत की यौनिकता तो वंश चलाने का एक जरिया भर है । यहाँ तक की औरत और मर्द का क्या मतलब है, दोनों के बीच क्या रिश्ता हो, उनकी भूमिकाएं क्या हों और इनके मुताबिक परिवार का स्वरूप क्या हो--इन सबका सामाजिक ताकतें ऐसा रूप तय करती है जिससे की समाज में गैरबराबरी बनी रहे । इन सामाजिक ताकतों में महत्वपूर्ण है पित्रसत्ता, जिसे बरकरार रखने के लिए विषमलैंगिकता ( यौनिकता का वो रूप जिसमे केवल औरत और मर्द के बीच आकर्षण हो ) और जेंडर की एक संकीर्ण परिभाषा की जरुरत होती है । अगर औरत में औरतों से अपेक्षित गुण न हों, मर्द में मर्दों से जुड़े गुण न हों, और ये शादी में बंध कर अपनी तय भूमिकाएं निभाते हुए परिवार न बनाएँ, तो पित्रसत्ता की व्यवस्था चलेगी कैसे ? वे सभी जो इस 'आदर्श संरचना' के बाहर जीने की हिम्मत रखते है, उन्हें नैतिकता और समाज के लिए खतरा मन जाता है । इस खतरे के कारण सामाजिक व्यवस्था या तो इस 'आदर्श संरचना' से अलग जाने वालों के अस्तित्व को पुरी तरह नकार देती है या उन्हें यह कह कर अस्वीकार कर देती है कि वे पश्चिमी सभ्यता की उपज है । जैसे कहा जाता है कि 'हमारे समाज में लेस्बियन औरतें है ही नही' या 'पश्चिमी रंग में रंगे हुए उच्च वर्ग के मुठ्ठी भर शहरी युवक ही गे है । ' जब उनकी उपस्थिति को अनदेखा करना मुश्किल हो जाता है, तो उन्हें इस तरह दण्डित किया जाता है कि उनके लिए स्वतंत्र व गरिमामय जीवन जीना दूभर हो जाता है ।
पिछले कुछ दशकों में समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों, जिसमें लेस्बियन ( औरत जो औरत के प्रति आकर्षित है ), गे ( मर्द जो मर्द के प्रति आकर्षित है ), बाईसेक्स्युअल ( औरत और मर्द दोनों के प्रति आकर्षित है ), ट्रांसजेंडरर्ड ( औरत और मर्द कि परिभाषा में नहीं बंधे हुए ), हिजडा आदि सामिल है, की ओर से हिंसामुक्त और भयमुक्त, गरिमामय जीवन के संवैधानिक मानव अधिकार की मांग भारत के अलग-अलग कोनों से उठ रही है । यह आन्दोलन ऐसे लोगों के विरुद्ध हो रहे मानव अधिकारों के हनन का विरोध कर रहा है । उनके संघर्षों के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहा है । लोगों की आपबीती के माध्यम से टकराहट और सहयोग दोनों के अनुभवो को सामने ला रहा है । अन्य प्रगतिशील आन्दोलनों के साथ जुडाव बनाने की कोशिश भी जारी है । ताकि संगठित होकर उन सामाजिक ताकतों को चुनौती दी जा सके जो परिभाषित 'आदर्श संरचना' से बाहर रहने वालों को प्रताडित करती है।
इस आलेख का विषय भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ है जो 'प्राकृतिक नियम के विरुद्ध' माने जाने वाले स्वैच्छिक यौन संबंधों को आपराधिक मानती है । और आज यौनिक अधिकारों के आन्दोलन में एक मुख्य बाधा बनी हुई है । बिडम्बना यह है की दावा किया जाता है कि १८६० में पास हुआ औपनिवेशिक कानून आज भी हमारे समाज के लिए उपयुक्त है । यह कानून ऐसे सभी यौनिक व्यवहारों को आपराधिक करार करने के लिए बनाया गया था जो प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े नही है । इस कानून के अंतर्गत, दो वयस्कों के बीच समलैगिक यौनिक गतिविधियाँ या एक विषमलैंगिक शादीशुदा जोड़े के बीच मुख मैथुन से लेकर सभी 'अप्राकृतिक क्रियाएँ' अपराध है । फिर भी हमारे समाज में व्याप्त होमोफोबिया ( समलैगिकता के प्रति भय ) यह सुनिश्चित करता है कि केवल पहली स्थिति ( दो वयस्कों के बीच समलैंगिक व्यवहार) को ही दण्डित किया जाए ।
धारा ३७७ के बारे में हमारी मुख्य चिंताएँ क्या है ? यौनिक और जेंडर की विविधता पर धारा ३७७ एकरूपता थोपना चाहती है । क्या 'प्राकृतिक' है और क्या 'सामान्य है --इन अवधारणाओं को यह मान्यता देती है ताकि पित्रसत्ता और विषमलैगिकता से जुड़ी शादी एवं परिवार जैसी सामाजिक संस्थाएं और उनमे निहित गैर- बराबरी बनी रहे । यह समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों को दण्डित करने की अनुमति देती है । इनके मानव अधिकारों का उल्लंघन राज्य व पुलिस, परिवार, मिडिया और चिकित्सा जैसे विविध राजकीय एवं गैर राजकीय पात्रों द्वारा बार-बार होता है । पुलिस द्वारा यौनिक अत्याचार और शोषण, जबरदस्ती पैसे ऐठ्ना, मानसिक चिकित्सा संस्थाओं में विजली के झटके और तेज दवाये देकर 'मरीज' की यौनिकता को बदलने की कोशिश करना और हर रोज होने वाले सामाजिक लांछन और भेदभाव-- ऐसे मानव अधिकार उल्लंघनों का दस्तावेजीकरण कई तथ्य-जांच की रिपोर्ट और अध्ययन करते है । लेकिन बार-बार घटने वाले इन गंभीर उल्लंघनों को समाज ने अभी तक नही समझा है । व्यक्तिगत जिंदगी के अनुभव भी हमे बताते है कि यह कानून मित्रों, परिवार वालों, सहकर्मियों आदि द्वारा खुले रूप से भिन्न यौनिक प्रवित्तियों को स्वीकार करने में एक मुख्य बाधा है । जो सामाजिक कार्यकर्ता इन उपेक्षित लोगों के बीच, शिक्षा सहयोग और पैरवी करने के लिए प्रतिबद्ध है । उन्हें भी कानूनी रूप से अपराधी ठहराए जाने का खतरा है ।
इसके अलावा धारा ३७७ और बाल यौन उत्पीडन के मामले में इसके उपयोग ने बाल अधिकार कार्यकर्ताओं को हताश किया है । उनका तर्क यह है कि धारा ३७७ बाल यौन उत्पीडन से निपटने के लिए नही बनाया गया था । इसलिए वह बाल यौन उत्पीडन के मामलों की जटिलता और जरूरतों को समझने में पूरी तरह असमर्थ है । डर यह है कि जबतक धारा ३७७ बनी रहेगी, बाल यौन उत्पीडन पर अलग से कोई विशेष उपयुक्त कानून नही बन पाएगा ।
धारा ३७७ के विरुद्ध सबसे पहली याचिका सन १९९४ में एड्स भेदभाव विरोधी आन्दोलन (ए.बी.वी.ए. ) द्वारा दायर की गई थी । सन २००१ में नांज फाउन्डेशन इंडिया ने लायर्स कलेक्टिव के माध्यम से दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पी.आई.एल.) दायर की सन २००३ में सरकार ने न्यायालय को जो जवाब दिया, उससे जाहिर है कि धारा ३७७ को चुनौती देना आसान नही होगा । सरकार का तर्क था कि आम तौर पर भारतीय समाज समलैगिकता को अनुचित मानता है । और इसे अपराध करार देना के लिए यही कारण काफी है । इसके अलावा बाल यौन उत्पीडन के मामलों में कानूनी कार्यवाही करने के लिए और समाज को नैतिक गिरावट से बचाने के लिए सरकार धारा ३७७ को सही करार देती है ।
सितम्बर २००४ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिका रद्द की , यह कहते हुए कि याचिका उस समुदाय द्वारा दर्ज कीजा सकती है, जो इस् कानून से सीधे रूप से प्रभावित है । नाज ने इस फैसले पर पुनः विचार के लिए उच्च न्यायालय में एक रिव्यू पेटिशन दर्ज किया । पेटिशन में नाज ने तर्क दिया कि नांज को धारा ३७७ से प्रभावित समुदाय की ओर से याचिका दर्ज करनी पडी क्योकि धारा ३७७ के रहते अपने पहचान के खुलासे और पुलिस उत्पीडन के डर की वजह से समलैंगिक समाज ख़ुद सीधे अदालत नहीं जा सकता । लेकिन उच्च न्यायालय ने रिव्यू पेटिशन खारिज कर दिया । कई समूहों की राय लेते हुए नाज ने सर्वोच्च न्यायालय से उच्च न्यायालय के याचिका खारिज करने के सीमित बिन्दु पर अपील की । मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह एक सार्वजनिक हित का मामला है और एक ऐसा मसला है जिसपर दुनिया भर में चर्चा चल रही है अदालत ने सरकार को निर्धारित समय के अन्दर इस बात पर जवाब देने के लिए कहा कि जनहित याचिका वैध है है या नहीं ।
धारा ३७७ के मूलभूत संदर्भ में, यह देखना बाकी है कि सरकार सामाजिक मूल्यों के नाम पर अपने नजरिये को लागु करने का अधिकार हथियाएगी ? क्या वो इस अधिकार को समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों की आजादी, सम्मान और अधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण ठहराएगी ?
लेकिन सार्वजनिक नैतिकता का फौजदारी कानून से क्या रिश्ता है ? कौन तय करता है कि 'नैतिक' क्या है और 'प्राकृतिक' क्या है ? अकेले भारत में ही समलैगिक इच्छा रखने वाले लोग, विधवाऐ, ......आगे जारी....................

बुधवार, 21 मई 2008

नंदीग्राम और सिंगुर की जनता ने माकपा को दिया करारा जवाब

पश्चिम बंगाल के पंचायती चुनाव में वहाँ की जनता ने वाम मोर्चे को करारा जवाब दे दिया है । पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ वाममोर्चे के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बने नंदीग्राम और सिंगुर में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के हांथों वाम मोर्चे के उम्मीदवारों को मुह की खानी पडी है ।
सिंगुर की तीन जिला परिषद सीटों पर वाम मोर्चे के उम्मीदवारों को तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों के हाथों हार का मुह देखना पडा है इन चुनाओं में उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की नीति की परीक्षा के तौर पर देखा जा रहा है ।
इस पंचायती चुनावों में पश्चिम बंगाल पुलिस के अनुसार चुनाव के दौरान हिंसा में ८ लोगों की मौत हुई तथा १३ लोग घायल हुए पुलिस का कहना है की पश्चिम बंगाल के सत्तारूढ़ वाम मोर्चे के समर्थकों और कार्यकर्ताओं नें दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर हथियारों से हमले किए ।
दरसल नंदीग्राम और सिगुर में विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस ई जेड़ ) खास करके हुगली जिले के सिंगुर में टाटा मोटर्स की एक लाख रूपये की ड्रीम कार परियोजना हेतु राज्य सरकार ने ९९७ एकड़ जमीन टाटा समूह को सौपने का निर्णय लिया था इसके अलावा हल्दिया और नंदीग्राम में बनने वाले एस ई जेड़ को इण्डोनेशियाई कम्पनी को सौपने की तैयारी चल रही थी, वस्तुतः पश्चिम बंगाल सरकार बडे औद्योगिक घरानों को खुश करने के लिए किसानों से उनकी उपजाऊ जमीन छीन रही थी । जमीन बचाने के लिए आन्दोलन कर रहे नंदीग्राम के किसानों पर १४ मार्च २००७ को पुलिस ने गोलियां चलाई थी जिसमे कम से कम १४ आन्दोलनकारी मारे गए थे ।
यही कारण है कि साल २००३ में हुए पंचायती चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को जिला परिषद में केवल २ सीटें मिली थी किंतु २००८ के अभी तक घोषित ५३ सीटों के परिणाम में ३२ सीटों को वहाँ के लोगों ने तृणमूल की झोली में डाल दिया है । बतादें कि जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी किसानों के हितों के लिए आन्दोलनरत थी ।
आशय यह है कि जन विरोधी नीतियों का खामियाजा तो वाम मोर्चे को भुगतना ही होगा, उम्मीद की जानी चाहिए की वाम मोर्चा इस् चुनाव से सबक लेगी और अपनी गलतियों को सुधारने की कोशिश करेगी ।

मंगलवार, 13 मई 2008

अस्पृश्यता चरम विन्दु है मानव अधिकार हनन का

संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा ने "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा करते समय उसकी उद्देशिका लिखने के बाद उसके अनुच्छेद ४ में लिखा था---किसी भी व्यक्ति को दास या गुलाम बनाकर नही रखा जाएगा, सभी प्रकार की दासता और दास व्यापार निषिद्ध होगा,१ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ऐसा उदघोषित कर मानव जाति में शताब्दियों से चली आ रही एक बडी बुराई के विरुद्ध जंग छेड़ी है । दरसल दास प्रथा में मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण एवं उत्पीडन होता है तथा दास व्यापार में मनुष्य द्वारा मनुष्य पर भारी अत्याचार होता है । उपरोक्त महासभा ने इस् रक्षा उपाय मे यह चेतावनी भी दी थी कि यदि मनुष्य के इन अधिकारों की कानूनों के माध्यम से प्राप्ति नही कराई गई तो इसके भयावह परिणाम हो सकते है ।
महासभा ने इन "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" की उद्देशिका मे लिखा है ---यदि मनुष्य के अत्याचार और उत्पीडन अंतिम अस्त्र के रूप मे विद्रोह का अवलंब लेने के लिए विवस नही किया जाना है तो यह आवश्यक है की मानव अधिकारों का संरक्षण विधि सम्मत शासन द्वारा किया जाना चाहिए २ । इसके साथ ही महासभा ने मानव अधिकार अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा मे अपने संकल्प को अंगीकृत करते हुए तथा उसमे आथिक-सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का उपबंध जोड़ते हुए उसकी उद्देशिका मे इसका तर्क बताया था कि इस् प्रसंविदा के पक्षकार राज्य यह मानकर कि ये अधिकार मानव देह की अन्तरनिहित गरिमा से व्युत्पन्न है ३ । इन अनुच्छेदों का करार करते है । देखा जा सकता है कि "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" के अनुच्छेद ४ के नजदीक भारत के संविधान मूल अधिकार वाले अध्याय के अनुच्छेद २३ (१) में इसी प्रकार का प्रावधान रखा गया है--मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस् उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा ।
हुआ यों था कि तबतक दास प्रथा और दास व्यापार विश्व की समस्या बन चुके थे । विश्व की कई मानव नस्लें और राष्ट्र दास प्रथा के विरोध मे लड़ रहे थे अमेरिका मे इस् प्रथा को समाप्त करने के लिए गृहयुद्ध लड़ा जा चुका था । इस पृष्ठभूमि और उसकी जानकारी के कारण मानव समाज का यह एक खास मुद्दा था । लेकिन भारतीय समाज मे एक इससे भी ज्यादा घिनौनी प्रथा कायम थी, परन्तु उसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नही हो सकी थी । यहाँ जो स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चला रहे थे वह अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए था, उस समय तक विश्व समुदाय को यही पता था कि भारत ब्रिटेन से अपनी आजादी की लडाई लड़ रहा है उस समय के मानव चिंतकों को यह पता नही था कि भारत में ब्रिटेन की गुलामी से स्वतंत्र होने के बाद भी एक और सामाजिक गुलामी बची रह सकती है जो दास प्रथा अथवा दास व्यापर से भी ज्यादा खतरनाक एवं भयावह है ।
तत्कालीन भारतीय हिंदू राजनीतिक और वेदांत के दार्शनिक विद्वान् विदेशी मंचों पर अपनी इस् भयावह बुराई को छिपाया करते थे वे विदेशों में अपनी स्वतंत्रता की लडाई पर क्रांतिकारी एवं गंभीर भाषण दिया करते लेकिन मन में इस बात से डरे रहते थे कि कोई उनसे हिन्दुओं में फैली अस्पृश्यता के बारे में सवाल न पूछ बैठे । इस सवाल के पूछे जाने पर उन्हें बेहद बेचैनी महसूस होती थी क्योंकि इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था एक केवल डा० आम्बेडकर थे जिन्होंने अवसर मिलने पर इस समस्या को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाया था । संयोग से उन्हें १९४२ में इंस्टीट्यूट आफ पैसिफिक रिलेशन के चेयरमैन के तरफ़ से भारत के अछूतों की समस्या पर कनाडा के क्यूबेक के मांट ट्रमबलेंट में होने वाली कांफ्रेंस में एक पेपर पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया था । बाद में उन्होंने अपना यह पेपर "मिस्टर गाँधी एंड द एमोंसिपेशन आफ द अनटचेबल्स" शीर्षक से पुस्तिका के रूप में अलग से छपवाया था । इसमे डा अम्बेडकर ने विश्व समुदाय को बताया था कि भारत में अछूतों की मुसीबतें विश्व में अन्यत्र नीग्रो और यहूदियों की मुसीबतों से कम कठिन नहीं है उन्होंने चाहा था कि साम्राज्यवाद और नस्लवाद से लड़ते समय विश्व के चिन्तक अस्पृश्यता से लड़ना न भूलें ।५ इधर डा अम्बेडकर ने भारत में भी अस्पृश्यता की इस समस्या को पूरे राजनीतिक स्तर पर उठा दिया था उन्होंने एक तरह से अस्पृश्यता के खिलाफ पूरी शक्ति से आवाज उठाई थी । उनकी आवाज दबाने के लिए उस समय के कट्टरपंथी एवं उदारवादी हिन्दुओं के दोनों वर्गों ने पूरी कोशिश की थी लेकिन डा अम्बेडकर ने अपने काम में सफलता हासिल कर ली । उनके इसी दबाव के कारण भारत के संविधान के अनुच्छेद १७ में "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" से अधिक और अलग तथा उसमे एक नया आयाम जोड़ते हुए लिखा गया कि-"अस्पृश्यता" का अंत किया जाता है । आगे जारी.........

शनिवार, 10 मई 2008

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने कहा है कि 'सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ हो'

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह की फाँसी की सज़ा माफ़ करने की वकालत की है । उनका व्यक्तिगत मानना है कि सरबजीत को माफ़ कर दिया जाना चाहिए । उन्होंने राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को सरबजीत मामले की समीक्षा करने को कहा है तथा सुझाव दिया है कि वे सरबजीत की फाँसी की सज़ा पर रोक लगा दें । इससे पहले पाकिस्तान के मानवाधिकार मामले के पूर्व मंत्री अंसार बर्नी ने राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ से कहा था कि उन्हें पाकिस्तान में मौत की सारी सज़ाओं को उम्रक़ैद में तब्दील करने पर विचार करना चाहिए । उनका यह सुझाव भी सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ करने के संदर्भ में था । हालांकि पाकिस्तान सरकार ने भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह की फाँसी पर अगले आदेश तक के लिए रोक पहले ही लगा दी है। लेकिन अभी सज़ा माफ़ नहीं की गई है ।
पाकिस्तान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री ने एक भारतीय टेलीविज़न चैनल सीएनएन-आईबीएन को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि उन्होंने राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को सुझाव दिया है कि सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ कर देनी चाहिए । उन्होंने कहा, "सरबजीत की फाँसी की सज़ा पर गृहमंत्रालय, विदेश मंत्रालय, क़ानून और मानवाधिकार मंत्रालय को भी विचार करना चाहिए । " गिलानी ने यह भी कहा है कि सरबजीत की फाँसी पर पाकिस्तान का विदेश मंत्रालय विचार कर रहा है पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का यह सुझाव भारत की ओर से की गई अपील के बाद आया है जिसमें कहा गया था कि पाकिस्तान को सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ कर देनी चाहिए ।
शुरूआत मे राष्ट्रपति मुशर्रफ ने सरबजीत की फासी ३० दिन के लिए टाल दी थी, ऐसा इसलिए किया गया था ताकि पाकिस्तान की नई सरकार सरबजीत को क्षमादान करने के सम्बन्ध मे भारत सरकार के अपील की समीक्षा कर सके । गिलानी के हस्तक्षेप की वजह से पाकिस्तानी अधिकारियों ने अगले आदेश तक सरबजीत की फांसी स्थगित कर दी थी । सरबजीत को १९९० मे पंजाब प्रांत मे हुए चार बम धमाकों मे कथित तौर पर शामिल रहने को लेकर मौत की सजा सुनाई गई थी ।
सरबजीत के परिजनों ने भी पाकिस्तान सरकार से ऐसी ही अपील की थी । पिछले दिनों सरबजीत के परिजन उनसे मिलने पाकिस्तान गए थे । इसके अलावा दोनों देशों के कई मानवाधिकार संगठन और नेता सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ करने की माँग करते आए हैं ।

मंगलवार, 6 मई 2008

देशमुख के मोहरा है "राज"

दिनांक ३ मई को मुम्बई के शिवाजी मैदान में मनसे के सर्वेसर्वा राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों पर कड़ी ( गाली गलौज के स्तर की) टीका टिप्पणी की दो वर्ष पहले राज अपने चचा बालठाकरे का साथ केवल इसलिए छोड़ा क्योकि उनकी महत्वाकांक्षा वहाँ पूरे होने के आसार नही थे इसलिए वे शिवसेना से निकलकर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना नामक पार्टी बनाई किंतु जब राज अपने आपको राजनैतिक हासिये पर जाता हुआ महसूस करने लगे तो उन्होंने अपनी दिशा बदल दी और वे पिछले कुछ दिनों से नफरत और हिंसा फैलाने का काम शुरू कर दिया वस्तुतः राज के पास कोई मुद्दा नही है जिससे वे महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें । इसीलिए उत्तर भारतीय टैक्सी ड्राइवरों पर हमले और उत्तर भारतीयों के खिलाफ बयानबाजी करना उनकी मजबूरी बन गयी है । राज अपने वजूद को बनाये रखने के लिए इसके अलावा और कुछ कर भी नही सकते ।
कांग्रेस और एनसीपी (अघाड़ी सरकार) के खिलाफ कुछ कह नही सकते क्योकि राज का देशमुख सरकार से तालमेल है तथा अन्य जो भी कांग्रेसी नेता है वे राज से काफी ताक़तवर है अगर उनके खिलाफ राज ने कुछ कहा तो वे राज को धुल चटा सकते है । जहाँ तक एनसीपी का सवाल है तो श्री शरद पवार के रहते राज की इतनी हिम्मत नही कि वे एनसीपी पर कोई कड़ी टिपण्णी कर सकें एनसीपी के अध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री के समकक्ष देश के कद्दावर नेता श्री शरद पवार ने राज की रैली से ठीक पहले राज को निशाना बनाते हुए कहा कि अलगाववादियों को कत्तई वरदास्त नही किया जाएगा, आपको बतादे कि आमतौर पर अलगाववादी शब्द आतंकवादियों के लिए उपयोग मे लाया जाता है । इसके बावजूद भी राज की हिम्मत नही हुई कि पवार के इस् बयान पर कोई टिपण्णी कर सकें । अब बची भाजपा-शिवसेना ये दोनों ही पार्टियाँ राज पर भारी है भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने इसपर महाराष्ट्र सरकार की उदाशीनता के तरफ़ इशारा करते हुए केवल इतना कहा कि समाज मे नफरत फैलाने के काम को रोका जाना चाहिए । ऐसे मी राज के पास केवल एक ही चारा है कि वे उत्तर भारतीयों के खिलाफ टिपण्णी करके अपना एवं अपनी पार्टी मनसे का प्रचार-प्रसार कर सकें ।
पता चला है कि ०६ मई को राज के विरुद्ध किसी तरह की करवाई न किए जाने के मुद्दे को लेकर महाराष्ट्र राज्य के उप मुख्यमंत्री और गृह मंत्री श्री आर आर पाटील को काफी खरी-खोटी सुननी पडी श्री आर आर पाटील को श्री अजित पवार और श्री नारायण राणे ने खरी-खोटी सुनाई इससे नाराज होकर श्री पाटील अपना स्तीफा देने तक की धमकी दे डाली पर मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख के बीच-बचाव करने पर मामला शांत हुआ । इसके पहले भी राज ठाकरे पर करवाई किए जाने पर हुई देरी को लेकर एनसीपी अध्यक्ष श्री शरद पवार ने श्री पाटील को आडे हाथों लिया था ।
वस्तुतः इस नूरा कुस्ती के केन्द्र मे शिवसेना को कमजोर करने की कयावत चल रही है क्योकि शिवसेना ने पिछले दिनों जब राष्ट्रपति के चुनाव की बात आई तो शिवसेना सुप्रीमो श्री बालासाहेब ठाकरे प्रतिभा ताई को मराठी माणूस के नाम पर समर्थन दिया तथा इस् मुद्दे पर एनडीए को ठेंगा दिखा दिया शिवसेना सुप्रिमों प्रतिभा ताई पाटील को समर्थन देते समय अपने आप को मराठी माणूस का सबसे प्रबल पैरोकार बताने की कोशिश की, बाकी अन्य तमाम मुद्दे मसलन महाराष्ट्र के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या, मंहगाई को लेकर शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष एवं राज के चचेरे भाई श्री उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री श्री विलास राव देशमुख को बुरी तरह घेर दिया है इसलिए देशमुख को उद्धव को दबाने के लिए एक मोहरा चाहिए था जोकि राज के रूप मे उनके हाथ लग गया है अब देशमुख लोहा लोहे से काट रहे है इसमे भले ही उत्तर भारतीय अपमानित हों और मारे जाय तथा मराठी माणूस के नाम पर हिन्दी भाषियों के बीच आतंक फैलाया जाय इन बातों से देशमुख को कोई फर्क नही पड़ता देशमुख का मकसद एक मुस्त मराठी वोटर को शिवसेना के तरफ जाने से रोकना है इसके लिए अब उन्हें शिवसेना के मराठी माणूस के प्रबल पैरोकार के काट के रूप मे "राज" नामक तुरुप का पत्ता हाथ लग गया है कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है की उत्तर भारतीयों को इंधन के रूप मे इस्तेमाल कर राजनीति की रोटियां सेकी जा रही है ।
उधर राहुल बाबा उत्तर प्रदेश मे कांग्रेस को स्थापित करने के लिए एडी से चोटी तक का जोर लगा रहे है और इधर विलास राव देशमुख यू पी सहित उत्तर भारतीयों के मन मे जो भी थोडी बहुत कांग्रेस के प्रति राहुल गाँधी द्वारा आस्था पैदा की जा रही थी उसे सफाचट करते जा रहे है यानि बाड़ ही खेत को खा रहा है क्या करेंगे उत्तर भारतीय और क्या करेंगे राहुल बाबा ?

बुधवार, 23 अप्रैल 2008

भारत मे किसानों की स्थिति अमेरिका के रेड इंडियन जैसी

भारत एक कृषि प्रधान देश था लेकिन शायद अब भारत को कृषि प्रधान देश कहने मे किसी को भी हिचकिचाहट होगी ? क्योकि केन्द्र सरकार के कृषि मंत्री श्री शरद पवार ने कुछ समय पहले लोक सभा में बताया था कि देश मे ११,००० किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या करते हैं जिसमें भारी संख्या में कर्ज न अदा करने वाले किसान हैं। फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार देश में कुल ३६ खरबपति हैं जिसमें अकेले महाराष्ट्र राज्य के मुंबई में २६ पाये जाते हैं. लेकिन उसी राज्य में पिछले १० सालों में कर्ज के बोझ तले दबकर ३६,००० से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है. उनका कहना था कि सरकारी प्रयासों का क्या हाल इसे समझने के लिए यह पर्याप्त होगा कि साल २००६ में प्रधानमंत्री के दौरे के बाद विदर्भ क्षेत्र में पांच हजार पांच सौ से अधिक किसानों ने आत्महत्या की. इनमें से अधिकांश किसानों ने अपने सुसाईड नोट में अपनी आत्महत्या के लिए सीधे प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री को जिम्मेदार ठहराया है.
आप ने अभी हाल मे ही सुना या पढा होगा कि देश के किसानों का कर्ज सरकार की तरफ़ से माफ़ कर दिया गया इस् कर्ज माफ़ी के लिए सरकार को कुल ६०.००० करोड़ रूपये का इंतजाम करना पडा इसको लेकर उद्योग जगत मे हाय तौबा मच गई यह कहा जाने लगा कि बैंक कंगाल हो जायेगे, किसानों पर की गई सरकारी दरियादिली के कारण देश की अर्थ व्यवस्था चरमरा जायेगी । आप को बता दें कि इन हाय तौबा मचाने वाले उद्योग जगत के लोगों द्वारा चलाई जा रही कंपनियों के आय पर सरकार ने इतनी छुट दे रक्खी है कि जितना राजस्व वसूल होता है उसका आधा छुट मे निकल जाता है वर्ष २००७-०८ मे केंद्रीय बजट के अनुसार यही उद्योग जगत सरकारी खजाने का २,३५,१९१ करोड़ रुपये डकार गया उसपर तुर्रा यह कि सरकारी नुमाइंदो ने इसे राजस्व की हानि नाम दिया अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी खजाने से किसानों को साठ हजार करोड़ रूपये कर्ज माफ़ी के लिए दिया गया और उद्योग जगत के लोग सरकारी खजाने से दो लाख पैतीस हजार एक सौ इक्यान्बे करोड़ रूपये हजम किए । सरकार ने किसानों को दी गई राहत का जोर शोर से प्रचार किया और उद्योग जगत द्वारा हजम किए गए रकम के बारे मे कही भी चर्चा नही हुई ।
अब आइये हम आप को बताते है की किसानों को सरकार द्वारा दिया गया ६०,००० करोड़ रुपया आखिर जाएगा कहाँ । सरकार का यह किसान प्रेम दरसल वित्तीय संस्थाओं के दबाव मे उठाया गया कदम है बैंकों, कोआपरेटिव सोसाइटियों और अन्य वित्तीय संस्थानों का लगभग ३०,००० करोड़ रूपया ऐसा बकाया है जो एनपीए (नान परफार्मिंग एसेट) की श्रेणी में है। रिजर्व बैंक कहता है कि दो फसल चक्रों के बाद भी अगर खेती के लिए गये लोन का पैसा वापस नहीं मिलता है तो बैंक उस रकम को एनपीए घोषित कर सकते हैं देश के किसानों पर इस समय ३ लाख करोड़ से भी अधिक का कर्ज है। इसमें यह ३०.००० करोड़ की रकम बैंकों का एनपीए है. सरकार ने जो पैकेज घोषित किया है उससे बैंको को वह वसूली हो जाएगी जिसे वे अपना डूबा धन मान चुके थे. किसान की जान छूटेगी. क्योंकि अब उसको वसूली की धमकी नहीं आयेगी. लेकिन क्या किसानों को वसूली की धमकी मिलनी चाहिए जबकि रिजर्व बैंक खुद कहता है कि पैदावार न होने के कारण अगर किसान कर्ज नहीं दे सकता तो उस रकम को एनपीए मान लिया जाए. इसका मतलब यह है कि बैंक भागते भूत की लंगोटी की तर्ज पर जो कुछ रकम वसूल हो जाए उसे वसूल करना चाहते हैं ।
किसानों के प्रति राज्य सरकारों रवैया क्या है आपको उत्तर प्रदेश के बुन्देल खंड के ३०० किसानों के ऊपर इसलिए यू पी सरकार एफ आई आर करवा देती है क्योकि वे भूगर्भ से पानी निकाल कर अपने खेतों की सिंचाई करने का साहस किया हमारे देश की सरकारें पूंजीपतियों को नदियाँ और बडे बडे जलस्रोत सौप देती है और वे उन जल स्रोतों के उस पानी को जो प्रकृति ने मुफ्त मे दिया है उसे १२ रूपये लीटर मिनरल वाटर के नाम से बेच कर भारी मुनाफा कमा रहे है । भारत मे आबादी का सत्तर फीसदी हिस्सा गांव मे रहता है खेती से जुड़ा हुआ है और देश में ७० फीसदी किसानों के पास आधा हेक्टेयर से कम भूमि है। एक हेक्टेयर में सकल कृषि उपज का मूल्य ३०,००० रु। अनुमानित है। अत: लगभग तीन चौथाई किसान परिवार १५,००० रु. वार्षिक आमदनी पर जीवन यापन कर रहे हैं। गरीबी रेखा २१,००० रुपए मानी गई है। यानि स्पष्ट है कि ये तीन चौथाई किसान किसान नही बल्कि कृषि मजदुर है और अब तो इनकी जमीन को भी उद्योग जगत पैसे की ताकत से इनसे छीन लेना चाहता है इस् कयावत मे सरकार भी सामिल है ।
विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) और विशेष कृषि आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना की घोषणा के बाद इस प्रवृति को अधिक बल मिला है। विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना, अवासीय परिसरों के निर्माण, कृषि फार्मों की स्थापना, भूमि बैंकों की स्थापना, आवासीय परिसरों के निर्माण, कृषि फार्मों की स्थापना, भूमि बैंकों की स्थापना, सड़क निर्माण आदि के लिये व्यावसायिक घराने एवं कम्पनियाँ लाखों एकड़ भूमि खरीदने को आतुर हैं। रिलायंस इन्डस्ट्रीज, टाटा समूह, बाबा कलयानी, सहारा, महिन्द्रा ग्रुप, अंसल, इन्फोसिस, इंडिया बुल्स आदि नगरों में या उसके निकट बड़े-बड़े भू-भाग खरीदने को आतुर हैं। टाटा समूह ने भारत में कहीं भी ३ एकड़ से २५००० एकड़ तक भूमि निजी स्वामियों से खरीदने का विज्ञापन दिया है आज हमारी सरकारों द्वारा किसानों के प्रति जो नीति अपनाई जा रही है वो बर्ड फ्लू के समय मुर्गियों के साथ अपनाई गई नीति के समान ही है ।