शुक्रवार, 30 मई 2008

विश्व तम्बाकू रोधी दिवस ( जिन्दगी चुनें तम्बाकू नहीं )

आज ३१ मई २००८ विश्व तम्बाकू रोधी दिवस है भारत सरकार ने अखबारों तथा अन्य प्रसार माध्यमों के मध्यम से बडे-बडे इश्तिहार देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली इन इस्तिहारों में यह कह दिया गया कि "धूम्र पान जानलेवा है" कही-कही यह भी लिख दिया गया कि "तम्बाकू से कैंसर होता है" एक और जुमला फेका गया "तम्बाकू दर्दनाक मृत्यु का कारण है" इसी के साथ कुछ मुह के कैंसर से पीड़ित लोगों फोटो लगा दिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डा अम्बुमणि रामदौस एवं स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री श्रीमती पानाबाका लक्ष्मी का भी अखबारी एड के माध्यम से प्रचार हो गया विश्व तम्बाकू रोधी दिवस पर केवल एड में करोडों रूपये खर्च कर दिए गए सवाल यह है कि कितने लोगों ने इस् एड को देखा या पढा ? क्या एक दिन के एड से अथवा एक दिन विश्व तम्बाकू रोधी दिवस मना लेने भर से इस् बडे खतरे से मानवता निजाद पा लेगी ? मुझे नही लगता कि केवल इतना करने मात्र से हमे कुछ हासिल होगा बल्कि इस समस्या से अगर समाज को बचाना है तो हमारे समाज एवं हमारी सरकारों को तम्बाकू मुक्त समाज आन्दोलन अथवा मुहीम चलानी होगी ठीक उसी तरह जैसे हमारे देश में पोलियो के विरुद्ध अभियान चलाया जा रहा है ।
सरकारी आकडे के अनुसार हमारे देश में तम्बाकू जनित रोगों के कारण प्रतिवर्ष १० लाख लोगों की मौत हो जाती है । स्वास्थ्य मंत्रालय एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ ) और अन्य स्वतंत्र विशेषज्ञों का मानना है कि कैंसर के ५० प्रतिशत से अधिक मामले तम्बाकू के सेवन से होते है । मौजूदा समय में तम्बाकू मानवता का सबसे बडा हत्यारा है । अभी तक हमारी सरकारों ने केवल इस समस्या के बारे में सतही तौर पर खानापूर्ति करती ही दिखती है । इस् विषय पर सरकार की कार्रवाईयों को देख कर लगता है कि तम्बाकू उत्पादों के खतरे का ढिंढोरा पीटने के पीछे केवल एक मकसद होता है इन उत्पादों पर कर बढा देना जिससे सरकारी खजाने में बढोत्तरी हो सके । तम्बाकू का उत्पाद बनाने वाली कंपनिया इन बातों से परिचित है । हमारी सरकार की तरफ़ से अभी तक तम्बाकू का उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के विरुद्ध क्यो कोई सख्त कदम नही उठाया गया ? क्या केवल इन कंपनियों द्वारा अपने उत्पादों पर " तम्बाकू का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है" इतना लिख देने मात्र से उनका अपराध ख़त्म हो जाता है ? ये कंपनिया भ्रामक विज्ञापन, उत्पादों के इस्तेमाल हेतु प्रोत्साहन, एवं प्रचार-प्रसार में लगभग १० अरब सालाना रूपये खर्च करती है ।
"तम्बाकू २६ प्रकार से भी अधिक जानलेवा बीमारियो का जनक है"। तम्बाकू में मौजूद तत्व निकोटीन अधिक नशीला होता है। और आदि बनाने वाला होता है इसलिए इस नशे को त्यागने में लोग अक्सर असफल हो जातें हैं। इन सभी बातों से पता चलता है समस्या की जडें कितनी गहरी है तो क्या सतही तौर पर कार्रवाई से समस्या का समाधान हो सकेगा । अभी हल में ही देश के स्वास्थ्य मंत्री डा अम्बुमणि रामदौस ने अपने एक बयान में कहा है कि "अब बिना विलम्ब आकस्मिक तौर पर ६० करोड़ भारतीयों को, जिनकी उम्र ३० साल से कम है उनकों तम्बाकू, शराब, और फास्ट फ़ूड से बचना है" लेकिन हमारे स्वास्थ्य मंत्री कैसे बचायेगे इन युवाओं को ? क्या कोई ठोस रणनीति है स्वास्थ्य मंत्रालय के पास या फ़िर यह केवल कोरी बयानबाजी है यह तो स्वास्थ्य मंत्री ही जानते होंगे ।
मैं तो केवल आप सभी पाठकों से यही अपील कर सकता हूँ कि "जिन्दगी चुनें तम्बाकू नहीं"

बुधवार, 28 मई 2008

पुलिस की निरंकुशता मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन

अब तो पुलिस और जांच एजेंसियों का शिर्फ़ एक ही मकसद रह गया है कि वे किसी तरह से राजनैतिक नेताओं का विश्वास हासिल कर लें आज निर्धन एवं सम्पन्न लोगों के लिए पुलिस अलग अलग दृष्टिकोण अपनाए हुए है अगर कोई साधन हीन गरीब व्यक्ति थाने जाता है तो उसका (एफ आई आर ) प्रथम सूचना रिपोर्ट तक नही लिखी जाती । उसे डाट कर थाने से भगा दिया जाता है और यदि किसी तरह (एफ आई आर ) लिख भी लिया जाता है तो भी मामले की जांच कार्रवाई नही होती । वही दूसरी तरफ़ यदि कोई साधन सम्पन्न व्यक्ति थाने जाता है तो पुलिस का दृष्टिकोण अचानक बदल जाता है । स्वाधीनता के बासठ वर्ष बीत चुके है लेकिन अब तक न तो पुलिस को मानवीय बनाया गया, और न ही उसे एहसास कराया गया कि उसके लिए सभी नागरिक समान है ।

पुलिस को आम भाषा में "वर्दी वाला गुंडा" तक कहा जाता है, फ़िर भी पुलिस के आचरण में कोई अन्तर नही आ रहा है पुलिस चाहे पंजाब की हो, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, अथवा दिल्ली की पुलिस पुलिस के बारे में आम नागरिकों की राय अच्छी नही है अब भी लोग पुलिस को उसी दृष्टिकोण से देखते है जैसे अंग्रेजों के समय पुलिस को निर्दयी मानते थे । पुलिस अत्याचार की जो कहानियाँ प्रायः प्रकाशित होती रहती है उसके कारण आम लोगों और पुलिस में अब भी उसी तरह की दुरी बनी हुई है पुलिस और जनता के दुरी के कई कारण है उसमे एक पुलिस हिरासत में होने वाली मौतें भी है, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार २००४-२००५ में हिरासतीय मौतों के अकडों में पुलिस हिरासत में १३६ मौतें तथा न्यायिक हिरासत में १३५७ मौतें अर्थात हिरासत में कुल १४९३ मौतों की रिपोर्ट दी है ।

देश की आम जनता के प्रति पुलिस का रवैया कभी भी दोस्ताना नही रहा, कोई भी ऐसा राज्य नही है जहाँ पुलिस पर ऊँगली न उठाई गई हो हालांकि दिल्ली की पुलिस को अपेक्षाकृत अधिक सतर्क और मानवीय माना जाता है लेकिन यहाँ भी पुलिस अत्याचारों, मानवाधिकार हनन की कहानियाँ अक्सर सामने आती रहतीं है । पैसों के लिए लोगों को प्रताडित करना, झूठे केसों में फ़साने की धमकी देकर पैसा ऐठ्ना, शिकायतकर्ता को उल्टे झूठे केस में फसा देना, पैसा लेकर आरोपियों को छोड़ देना पुलिस के लिए आम बात है । पुलिस कितनी निरंकुश एवं कितनी निर्भीक है उसके द्वारा किए जा रहे दमनात्मक कार्रवाईयों से पता चलता है । निचले स्तर के पुलिसकर्मी दूकानदारों तथा फुटपाथ पर धंधा करने वालों से हप्ता वसूली और न देने पर उनके साथ अत्याचार, पैसा लेकर अनैतिक कार्यों को प्रोत्साहन देना, असामाजिक तत्वों का संरक्षण, भोले-भाले आम नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार, किसी भी नागरिक पर बिना वजह डंडे बरसाना एवं थानें में लेजाकर पिटाई करने की धमकी, घिनौनी गालियों से लोगों का स्वागत इनके लिए साधारण बात है । इतना ही नही बल्कि पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी भी अमानवीय अत्याचार और अपराध करने के मामले में पीछे नही है उदाहरण के लिए पंजाब के पुलिस प्रमुख गिल के द्वारा की गई वरिष्ठ महिला अधिकारी के साथ छेड़खानी का हो, दिल्ली पुलिस आयुक्त जसपाल सिंह द्वारा किया गया हत्या का मामला अथवा अभी हाल में मुम्बई के मशहूर भवन निर्माता चतुर्वेदी को फर्जी मामले में फंसाये जाने का मामला लोगों के समक्ष है ।

मैंने एक समाचार पत्र में पुलिस के प्रति एक व्यंग पढा था की किसी देश में दुनिया के हर देशों की पुलिस के उत्कृष्टता हेतु या सर्वोच्च काविलियत के प्रदर्शन हेतु प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, उसमे विभिन्न देशों की पुलिस सामिल हुई । आयोजकों ने बड़े जंगल में एक शेर को छोड़ा और उपस्थित पुलिसवालों से कहा कि जिस देश की पुलिस सबसे पहले शेर को जंगल से पकड़ कर लाएगी उसे ही सर्वोच्च एवं उत्कृष्ट माना जाएगा । अन्य देशों की पुलिस अपने-अपने तरीकों से शेर को ढूढने में लग गई, मगर भारतीय पुलिस शेर को ढूढने जंगल में घुसी तथा जंगल में घुसते ही उसने एक भेडिये को पकड़ लिया और उसकी पिटाई शुरू कर दी कि कबूल कर कि तू भेडिया नही शेर है, विचारा भेडिया पिटाई से बचने के लिए अपने आप को शेर होना कबूल किया और तुरत-फुरत में भेडिये को शेर बनाकर आयोजकों के समक्ष पेश कर दिया भेद खुलने पर भले ही किरकिरी हुई तो ये है हमारी भारतीय पुलिस इसका अर्थ है कि हमारी पुलिस में इतना दम है कि वह जो भी चाहे किसी से कबूल करवा सकती है । यह अंग्रेजों की बनाई पुलिस सायद यह भूल गई किउस समय यदि उसे असीमित अधिकार प्राप्त थे तो नौकरी भी पल में चली जाती थी । देश आजाद हुआ तो पुलिस को चाहिए कि वह लोगों को एहसास भी कराए कि वह अंग्रेजों की नही आजाद भारत की पुलिस है ।

कहा जाता है कि वर्तमान पुलिस की बुनियाद व शैली अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई थी आजादी मिलने के बाद पुलिस व्यवस्था में कोई बदलाव न करते हुए गोरों का स्थान भारतीयों ने ले लिया वर्तमान सत्ता के दलालों या भ्रष्ट राजनीतिबाजों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नही आया अंग्रेजों के जमाने में तो पुलिस का मुख्य काम अंग्रेजों के सत्ता की रक्षा करना व भारतीयों के आन्दोलन को किसी भी प्रकार से कुचलना होता था, परन्तु यदि अन्य अपराधों से निपटने के बारे में आज की पुलिस से तब की कारगुजारियों की तुलना करें तो पायेगें कि उस समय की पुलिस काफी निष्पक्ष, कारगर, समर्थ, व दयालू थी जबकि आज उसकी इन्हीं कार्रवाईयों में भारी गिरावट आई है हालांकि तब छोटे पदों पर अधिकांश भारतीय ही थे यदि हम अंग्रेजों के सत्ता हितों की रक्षा को अलग रक्खे तो पुलिस में केस दर्ज करवाने से जांच तक प्रत्येक स्तर पर कानून का कठोरता से पालन होता था कई बार पक्षपात करने पर भारतीय पुलिस अधिकारियों को अंग्रेज अफसरों द्वारा दण्डित या अपमानित भी किया जाता था । हमारी कानून व्यवस्था इंग्लैंड के कानून प्रणाली पर आधारित है तथा अंग्रेज सामाजिक न्याय के लिए दुनिया भर में ऊँचा स्थान रखतें है, पर हम उनकी नक़ल करते हुए उनकी बुराइयों को तो अपना लिए, और अच्छाइयों को दरकिनार कर दिया ।

अंग्रेजों के समय में पुलिस व न्याय के मामले में आज की तरह राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था, हालांकि तब भी पुलिस को काफी अधिकार प्राप्त थे लेकिन आज जितना भ्रष्टाचार तब भी नहीं था, सायद इसी कारण देख या सुन कर यह सवाल जेहन में पैदा हो जाता है कि क्या हम स्वतंत्र भारत के नागरिक है ? अंग्रेजों ने अपने समय में पुलिस संस्था को इस् ढंग से व्यवस्थित किया था उस समय की पुलिस को काफी अधिकार देने के साथ एक और अच्छी बात यह थी कि भ्रष्ट पुलिस अधिकारी को नौकरी से तुरंत बर्खास्त करने के साथ-साथ उसकी जायजाद भी जप्त कर लेने का प्रावधान भी था, उस समय आज-कल के संविधान की धारा ३२२ नहीं थी अतः नौकरी तत्काल खोनी पड़ सकती थी बात भी सही थी रक्षक को भक्षक बनने का हक़ क्यों मिले ।

आजादी के बाद के पुलिस की छवि गालियाँ देने वाले व यातना देने वाले वहशी की बन चुकी है क्या कभी स्वयं पुलिस वाले या इसमें सबसे ज्यादा दोषी मौजूदा राजनीतिबाजों ने सोचा है ? आज पुलिस का अपराधीकरण होने के साथ-साथ साम्प्रदायीकरण भी हो चुका है जो देश के लिए अत्यन्त खतरनाक है । पिछले ३० वर्षों से हमारा समाज पहले से कही अधिक मानवीय मूल्यों से परे हो गया है देश की चुनावी राजनीति धर्म-जाति मतदाताओं पर बंटी हुई है, जिस क्षेत्र में जिस जाति या धर्म के लोग ज्यादा वोट हो उसी धर्म या जाति के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाता है फ़िर वही नेता विधायक या मंत्री बनकर अपनी ही जाति या धर्म के पुलिस अधिकारियों को उस क्षेत्र में तैनात करवाकर अपने विरोधियों से बदला लेने या अपने लोगों की स्वार्थ पूर्ति कराने हेतु उक्त पुलिस अधिकारियों का उपयोग करते है ।

विश्व के सबसे बडे प्रजातंत्र का संचालन व प्रबंध आज भी ब्रिटिशों द्वारा बनाये ढांचों व कानूनों से किया जा रहा है । समय बदला आवश्यकताए बदली लेकिन हमारा कानून व पुलिस का ढांचा विगड़ता चला गया, अंग्रेजों से विरासत में मिले इस कानून व प्रशासनिक ढांचे का एक दुखद पहलू यह भी है कि पुलिस सत्ताधारी शासकों व पूंजीपतियों की कठपुतली बन कर रह गई है, तथा इसमें क्रूर प्रवित्ति बढ़ती जा रही है अपने असीमित अधिकारों का पुलिस द्वारा भारी दुरूपयोग किया जाने लगा है, इन बातों से पुलिस संस्था को अपने छवि की कोई चिंता नही है, आज की पुलिस एक अत्याचारी संस्था का रूप ले चुकी है । और यही आज बडे पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन करती दिखाई दे रही है । पुलिस संस्था में सुधार या उसे पुरी तरह बदलने के लिए बडे-बडे सुझाव आए, पुलिस में सुधार के लिए धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन भी किया गया लेकिन सायद हमारे राजनीतिक ही नही चाहते कि पुलिस संस्था को सुधार कर उसे जनानुकूल बनाया जाए ।

पुलिस सुधार के लिए कुछ आवश्यक सुझाव :

(१) पुलिस प्रक्रिया पर राजनैतिक हस्तक्षेप से बचाव हो ।

(२) राज्य सुरक्षा आयोग जैसी स्वतंत्र इकाई का गठन किया जाय ।

(३) पुलिस प्रमुख के चयन की प्रक्रिया पारदर्शी हो और उनका सुनिश्चित कार्यकाल हो ।

(४) आन्तरिक अनुशासन के लिए एक विशेष तंत्र की व्यवस्था हो ।

(५) पुलिस द्वारा किए गए ग़लत कार्यों हेतु सुनिश्चित दंड की व्यवस्था हो ।

(६) अनियमित कार्यो को परिभाषित कर सार्वजनिक किया जाय ।

(७) स्पष्ट, निष्पक्ष एवं पारदर्शी अनुशासनात्मक प्रक्रिया का अनुपालन हो ।

(८) पुलिस अपराधों की स्पष्ट व्याख्या हो ।

(९) जनता की शिकायतों के लिए स्वतंत्र इकाई बने जोकि पुलिस प्रभाव से मुक्त हो जो केवल पुलिस के विरुद्ध शिकायतों पर ही ध्यान दे ।

(१०) जनता के शिकायतों के लिए बनी इकाई में जनता के तरफ़ से अपने प्रतिनिधि चुन कर भेजे जाय तथा यह चुनाव प्रक्रिया पारदर्शी हो ।

(११) जिला और राज्य स्तर तक बनी इन इकाईयों तक आम आदमी आसानी से पहुँच सके ।

(१२) इन इकाईयों को अधिकार हो कि एफ आई आर दर्ज और विभागीय कार्यवाही कराने के लिए प्रभावी निर्देश दे सके तथा पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति राशि दिलाने में सक्षम हों ।

(१३) पुलिस के दिन प्रतिदिन के कार्यों कि गुणवत्ता में सुधार हो ।

(१४) पुलिस के कार्यों एवं कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या हो ।

(१५) कानून व्यवस्था बनाये रखने तथा अपराधिक जांच के कार्यों के लिए पृथक पुलिस दल हो ।

रविवार, 25 मई 2008

स्वास्थ्य के अधिकार (रोड दुर्घटना )

विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डब्ल्यू एच ओ ) ने स्वास्थ्य को शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक कल्याण की अवस्था के रूप में मंजूरी दी है । स्वास्थ्य के अधिकार को मानव अधिकार की सार्वभौम घोषणा के अनुबंध २५ के अंतर्गत प्रतिष्ठापित किया गया था जिसमे घोषित किया गया था : "प्रत्येक व्यक्ति को, अपने स्वयं के तथा अपने परिवार के स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए उपयुक्त जीवन स्तर का अधिकार है जिसमे भोजन, वस्त्र, आवास और चिकित्सा देख-रेख तथा बीमारी और अशक्तता की स्थिति में सुरक्षा का अधिकार शामिल है ।" इसके अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकार संबंधी अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा ( आई सी एस सी आर ) में भी अनुबंध १२ के अंतर्गत यह मान्यता दी गई है "प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के उच्चतम प्राप्य स्तर का उपभोग करने का अधिकार है ।"
इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य के अधिकार की उचित देख-भाल यह अनिवार्य रूप से संगत है कि इसे आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक ( ई एस सी आर ) दृष्टिकोण से देखा जाए देश के वर्तमान स्वास्थ्य व्यवस्था में काफी खामियां है । जैसे आपातकालीन चिकित्सा एवं देख-भाल की अत्यन्त असंतोषजनक व्यवस्था, जिसके कारण भारी संख्या में लोगों की मृत्यु हो रही है जो कि गंभीर चिंता का विषय है । इस विषय पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने अप्रैल २००३ में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के पूर्व निदेशक डा पी के दवे की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ ग्रुप का गठन किया गया । उपरोक्त विशेषज्ञ दल ने दिनांक ०७ अप्रैल २००४ को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । अपनी रिपोर्ट में दल ने उल्लेख किया कि भारत में विभिन्न स्थानों पर दुर्घटनाओं में घायल होने के कारण प्रति वर्ष ४,००,००० व्यक्ति अपनी जान गंवाते है, करीब ७५,००,००० व्यक्ति अस्पताल में भर्ती किए जाते है तथा ३,५०,००० व्यक्ति मामूली चोटों में आपातकालीन देख-भाल पाते है । देश में वर्तमान आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था ( ई एम् एस ) कम अनुकूल वातावरण में काम कर रही है तथा इन्हे सुधारने की आवश्यकता है । रिपोर्ट में उन कमियों का खुलासा किया गया जो कमियां वर्तमान आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था में मौजूद है । तथा अल्पावधि के साथ साथ दीर्घावधि योजनाओं में कार्यान्वयन के लिए कई सुझाव दिए गए जो कि निम्नलिखित है ----
अल्पावधि उपाय
(१) राष्ट्रीय दुर्घटना नीति की घोषणा ।
(२) स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था के लिए एक केंद्रीय समन्वयकारी, मददगार, सुविधा, परिविक्षण तथा नियंत्रक समिति की स्थापना ।
(३) मेडिकल कालेजों के संयोजन के लिए ३-४ जिलों की नियुक्ति, जो प्रत्येक राज्य तथा संघ शासित क्षेत्रों में संबंधित केन्द्र के रूप में कार्य करेंगे ।
(४) देश में सभी राज्यों के सभी जिलों एवं संघ राज्य क्षेत्रों में केंद्रीकृत दुर्घटना और आघात सेवाओं की स्थापना का कार्य करेंगे ।
(५) स्वास्थ्य देख-भाल के सभी स्तरों पर नीति की योजना एवं नेटवर्क के परिपेक्ष्य में सहायता के लिए एक कम्प्यूटरीकृत सूचना आधार का विकास किया जाएगा ।
(६) सरकार डाटा संग्रह तथा विश्लेषण के लिए राष्ट्रीय आघात रजिस्ट्री की स्थापना कर सकतीं है ।
(७) आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था स्वास्थ्य देख-रेख उपयोग के लिए सभी विद्यमान सुविधाओं के लिए सूचना प्रसार ।
(८) ई एम् एस के उन्नयन के लिए राज्य प्रस्ताव बनाए ।
(९) ई एम् एस के प्रशिक्षण को मेडिकल कालेजों तथा अन्य प्रादेशिक क्षेत्रों में आयोजित किया जाए ।
दीर्घावधि उपाय
(१) राष्ट्रीय दुर्घटना नीति की प्रस्तावित सिफारिशों का कार्यान्वयन ।
(२) क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर प्रशिक्षित कर्मचारियों सहित सुसज्जित आघात केन्द्र की स्थापना ।
(३) सभी जिला अस्पतालों में विशेषीकृत बहुअनुशासनिक आघात देख-भाल सुविधाये होनी चाहिए ।
(४) आपातकालीन औषधि केन्द्र की स्थापना एक विशेषता के रूप में करना ।
(५) आपात स्थिति में टोल फ्री सूचना नंबर समर्पित करना, जो पूरे राष्ट्र के लिए सार्वजनिक होना चाहिए ।
(६) स्वर्ण चतुर्भुज रोड परियोजना के संबंध में प्रति ३० किलोमीटर पर एक सूचना काल सेंटर के साथ-साथ सुसज्जित और कर्मचारी सहित एक एम्बुलेंश खड़ी करनी चाहिए । अर्ध चिकित्सीय स्टाफ द्वारा कार्य किए जाने वाले आपात देख-भाल केन्द्रों को प्रति ५० किलोमीटर पर स्थापित करना चाहिए । साथ ही सभी राष्ट्रीय राजमार्गों में भी इसी प्रकार की सुविधाए होनी चाहिए ।

शनिवार, 24 मई 2008

अधिकार हों सबके लिए

हम एक ऐसे समाज में रहते है जिसमे एक ही तरह की यौनिकता को मान्यता दी जाती है --शादी के रिश्ते में बंधे हुए औरत और मर्द की । एक मात्र उसी को 'प्राकृतिक' और 'सामान्य' बताया जाता है । इसमे भी मर्द की यौनिकता निर्णायक और प्रधान है । औरत की यौनिकता तो वंश चलाने का एक जरिया भर है । यहाँ तक की औरत और मर्द का क्या मतलब है, दोनों के बीच क्या रिश्ता हो, उनकी भूमिकाएं क्या हों और इनके मुताबिक परिवार का स्वरूप क्या हो--इन सबका सामाजिक ताकतें ऐसा रूप तय करती है जिससे की समाज में गैरबराबरी बनी रहे । इन सामाजिक ताकतों में महत्वपूर्ण है पित्रसत्ता, जिसे बरकरार रखने के लिए विषमलैंगिकता ( यौनिकता का वो रूप जिसमे केवल औरत और मर्द के बीच आकर्षण हो ) और जेंडर की एक संकीर्ण परिभाषा की जरुरत होती है । अगर औरत में औरतों से अपेक्षित गुण न हों, मर्द में मर्दों से जुड़े गुण न हों, और ये शादी में बंध कर अपनी तय भूमिकाएं निभाते हुए परिवार न बनाएँ, तो पित्रसत्ता की व्यवस्था चलेगी कैसे ? वे सभी जो इस 'आदर्श संरचना' के बाहर जीने की हिम्मत रखते है, उन्हें नैतिकता और समाज के लिए खतरा मन जाता है । इस खतरे के कारण सामाजिक व्यवस्था या तो इस 'आदर्श संरचना' से अलग जाने वालों के अस्तित्व को पुरी तरह नकार देती है या उन्हें यह कह कर अस्वीकार कर देती है कि वे पश्चिमी सभ्यता की उपज है । जैसे कहा जाता है कि 'हमारे समाज में लेस्बियन औरतें है ही नही' या 'पश्चिमी रंग में रंगे हुए उच्च वर्ग के मुठ्ठी भर शहरी युवक ही गे है । ' जब उनकी उपस्थिति को अनदेखा करना मुश्किल हो जाता है, तो उन्हें इस तरह दण्डित किया जाता है कि उनके लिए स्वतंत्र व गरिमामय जीवन जीना दूभर हो जाता है ।
पिछले कुछ दशकों में समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों, जिसमें लेस्बियन ( औरत जो औरत के प्रति आकर्षित है ), गे ( मर्द जो मर्द के प्रति आकर्षित है ), बाईसेक्स्युअल ( औरत और मर्द दोनों के प्रति आकर्षित है ), ट्रांसजेंडरर्ड ( औरत और मर्द कि परिभाषा में नहीं बंधे हुए ), हिजडा आदि सामिल है, की ओर से हिंसामुक्त और भयमुक्त, गरिमामय जीवन के संवैधानिक मानव अधिकार की मांग भारत के अलग-अलग कोनों से उठ रही है । यह आन्दोलन ऐसे लोगों के विरुद्ध हो रहे मानव अधिकारों के हनन का विरोध कर रहा है । उनके संघर्षों के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहा है । लोगों की आपबीती के माध्यम से टकराहट और सहयोग दोनों के अनुभवो को सामने ला रहा है । अन्य प्रगतिशील आन्दोलनों के साथ जुडाव बनाने की कोशिश भी जारी है । ताकि संगठित होकर उन सामाजिक ताकतों को चुनौती दी जा सके जो परिभाषित 'आदर्श संरचना' से बाहर रहने वालों को प्रताडित करती है।
इस आलेख का विषय भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ है जो 'प्राकृतिक नियम के विरुद्ध' माने जाने वाले स्वैच्छिक यौन संबंधों को आपराधिक मानती है । और आज यौनिक अधिकारों के आन्दोलन में एक मुख्य बाधा बनी हुई है । बिडम्बना यह है की दावा किया जाता है कि १८६० में पास हुआ औपनिवेशिक कानून आज भी हमारे समाज के लिए उपयुक्त है । यह कानून ऐसे सभी यौनिक व्यवहारों को आपराधिक करार करने के लिए बनाया गया था जो प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े नही है । इस कानून के अंतर्गत, दो वयस्कों के बीच समलैगिक यौनिक गतिविधियाँ या एक विषमलैंगिक शादीशुदा जोड़े के बीच मुख मैथुन से लेकर सभी 'अप्राकृतिक क्रियाएँ' अपराध है । फिर भी हमारे समाज में व्याप्त होमोफोबिया ( समलैगिकता के प्रति भय ) यह सुनिश्चित करता है कि केवल पहली स्थिति ( दो वयस्कों के बीच समलैंगिक व्यवहार) को ही दण्डित किया जाए ।
धारा ३७७ के बारे में हमारी मुख्य चिंताएँ क्या है ? यौनिक और जेंडर की विविधता पर धारा ३७७ एकरूपता थोपना चाहती है । क्या 'प्राकृतिक' है और क्या 'सामान्य है --इन अवधारणाओं को यह मान्यता देती है ताकि पित्रसत्ता और विषमलैगिकता से जुड़ी शादी एवं परिवार जैसी सामाजिक संस्थाएं और उनमे निहित गैर- बराबरी बनी रहे । यह समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों को दण्डित करने की अनुमति देती है । इनके मानव अधिकारों का उल्लंघन राज्य व पुलिस, परिवार, मिडिया और चिकित्सा जैसे विविध राजकीय एवं गैर राजकीय पात्रों द्वारा बार-बार होता है । पुलिस द्वारा यौनिक अत्याचार और शोषण, जबरदस्ती पैसे ऐठ्ना, मानसिक चिकित्सा संस्थाओं में विजली के झटके और तेज दवाये देकर 'मरीज' की यौनिकता को बदलने की कोशिश करना और हर रोज होने वाले सामाजिक लांछन और भेदभाव-- ऐसे मानव अधिकार उल्लंघनों का दस्तावेजीकरण कई तथ्य-जांच की रिपोर्ट और अध्ययन करते है । लेकिन बार-बार घटने वाले इन गंभीर उल्लंघनों को समाज ने अभी तक नही समझा है । व्यक्तिगत जिंदगी के अनुभव भी हमे बताते है कि यह कानून मित्रों, परिवार वालों, सहकर्मियों आदि द्वारा खुले रूप से भिन्न यौनिक प्रवित्तियों को स्वीकार करने में एक मुख्य बाधा है । जो सामाजिक कार्यकर्ता इन उपेक्षित लोगों के बीच, शिक्षा सहयोग और पैरवी करने के लिए प्रतिबद्ध है । उन्हें भी कानूनी रूप से अपराधी ठहराए जाने का खतरा है ।
इसके अलावा धारा ३७७ और बाल यौन उत्पीडन के मामले में इसके उपयोग ने बाल अधिकार कार्यकर्ताओं को हताश किया है । उनका तर्क यह है कि धारा ३७७ बाल यौन उत्पीडन से निपटने के लिए नही बनाया गया था । इसलिए वह बाल यौन उत्पीडन के मामलों की जटिलता और जरूरतों को समझने में पूरी तरह असमर्थ है । डर यह है कि जबतक धारा ३७७ बनी रहेगी, बाल यौन उत्पीडन पर अलग से कोई विशेष उपयुक्त कानून नही बन पाएगा ।
धारा ३७७ के विरुद्ध सबसे पहली याचिका सन १९९४ में एड्स भेदभाव विरोधी आन्दोलन (ए.बी.वी.ए. ) द्वारा दायर की गई थी । सन २००१ में नांज फाउन्डेशन इंडिया ने लायर्स कलेक्टिव के माध्यम से दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पी.आई.एल.) दायर की सन २००३ में सरकार ने न्यायालय को जो जवाब दिया, उससे जाहिर है कि धारा ३७७ को चुनौती देना आसान नही होगा । सरकार का तर्क था कि आम तौर पर भारतीय समाज समलैगिकता को अनुचित मानता है । और इसे अपराध करार देना के लिए यही कारण काफी है । इसके अलावा बाल यौन उत्पीडन के मामलों में कानूनी कार्यवाही करने के लिए और समाज को नैतिक गिरावट से बचाने के लिए सरकार धारा ३७७ को सही करार देती है ।
सितम्बर २००४ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिका रद्द की , यह कहते हुए कि याचिका उस समुदाय द्वारा दर्ज कीजा सकती है, जो इस् कानून से सीधे रूप से प्रभावित है । नाज ने इस फैसले पर पुनः विचार के लिए उच्च न्यायालय में एक रिव्यू पेटिशन दर्ज किया । पेटिशन में नाज ने तर्क दिया कि नांज को धारा ३७७ से प्रभावित समुदाय की ओर से याचिका दर्ज करनी पडी क्योकि धारा ३७७ के रहते अपने पहचान के खुलासे और पुलिस उत्पीडन के डर की वजह से समलैंगिक समाज ख़ुद सीधे अदालत नहीं जा सकता । लेकिन उच्च न्यायालय ने रिव्यू पेटिशन खारिज कर दिया । कई समूहों की राय लेते हुए नाज ने सर्वोच्च न्यायालय से उच्च न्यायालय के याचिका खारिज करने के सीमित बिन्दु पर अपील की । मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह एक सार्वजनिक हित का मामला है और एक ऐसा मसला है जिसपर दुनिया भर में चर्चा चल रही है अदालत ने सरकार को निर्धारित समय के अन्दर इस बात पर जवाब देने के लिए कहा कि जनहित याचिका वैध है है या नहीं ।
धारा ३७७ के मूलभूत संदर्भ में, यह देखना बाकी है कि सरकार सामाजिक मूल्यों के नाम पर अपने नजरिये को लागु करने का अधिकार हथियाएगी ? क्या वो इस अधिकार को समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों की आजादी, सम्मान और अधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण ठहराएगी ?
लेकिन सार्वजनिक नैतिकता का फौजदारी कानून से क्या रिश्ता है ? कौन तय करता है कि 'नैतिक' क्या है और 'प्राकृतिक' क्या है ? अकेले भारत में ही समलैगिक इच्छा रखने वाले लोग, विधवाऐ, ......आगे जारी....................

बुधवार, 21 मई 2008

नंदीग्राम और सिंगुर की जनता ने माकपा को दिया करारा जवाब

पश्चिम बंगाल के पंचायती चुनाव में वहाँ की जनता ने वाम मोर्चे को करारा जवाब दे दिया है । पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ वाममोर्चे के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बने नंदीग्राम और सिंगुर में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के हांथों वाम मोर्चे के उम्मीदवारों को मुह की खानी पडी है ।
सिंगुर की तीन जिला परिषद सीटों पर वाम मोर्चे के उम्मीदवारों को तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों के हाथों हार का मुह देखना पडा है इन चुनाओं में उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की नीति की परीक्षा के तौर पर देखा जा रहा है ।
इस पंचायती चुनावों में पश्चिम बंगाल पुलिस के अनुसार चुनाव के दौरान हिंसा में ८ लोगों की मौत हुई तथा १३ लोग घायल हुए पुलिस का कहना है की पश्चिम बंगाल के सत्तारूढ़ वाम मोर्चे के समर्थकों और कार्यकर्ताओं नें दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर हथियारों से हमले किए ।
दरसल नंदीग्राम और सिगुर में विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस ई जेड़ ) खास करके हुगली जिले के सिंगुर में टाटा मोटर्स की एक लाख रूपये की ड्रीम कार परियोजना हेतु राज्य सरकार ने ९९७ एकड़ जमीन टाटा समूह को सौपने का निर्णय लिया था इसके अलावा हल्दिया और नंदीग्राम में बनने वाले एस ई जेड़ को इण्डोनेशियाई कम्पनी को सौपने की तैयारी चल रही थी, वस्तुतः पश्चिम बंगाल सरकार बडे औद्योगिक घरानों को खुश करने के लिए किसानों से उनकी उपजाऊ जमीन छीन रही थी । जमीन बचाने के लिए आन्दोलन कर रहे नंदीग्राम के किसानों पर १४ मार्च २००७ को पुलिस ने गोलियां चलाई थी जिसमे कम से कम १४ आन्दोलनकारी मारे गए थे ।
यही कारण है कि साल २००३ में हुए पंचायती चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को जिला परिषद में केवल २ सीटें मिली थी किंतु २००८ के अभी तक घोषित ५३ सीटों के परिणाम में ३२ सीटों को वहाँ के लोगों ने तृणमूल की झोली में डाल दिया है । बतादें कि जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी किसानों के हितों के लिए आन्दोलनरत थी ।
आशय यह है कि जन विरोधी नीतियों का खामियाजा तो वाम मोर्चे को भुगतना ही होगा, उम्मीद की जानी चाहिए की वाम मोर्चा इस् चुनाव से सबक लेगी और अपनी गलतियों को सुधारने की कोशिश करेगी ।

मंगलवार, 13 मई 2008

अस्पृश्यता चरम विन्दु है मानव अधिकार हनन का

संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा ने "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा करते समय उसकी उद्देशिका लिखने के बाद उसके अनुच्छेद ४ में लिखा था---किसी भी व्यक्ति को दास या गुलाम बनाकर नही रखा जाएगा, सभी प्रकार की दासता और दास व्यापार निषिद्ध होगा,१ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ऐसा उदघोषित कर मानव जाति में शताब्दियों से चली आ रही एक बडी बुराई के विरुद्ध जंग छेड़ी है । दरसल दास प्रथा में मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण एवं उत्पीडन होता है तथा दास व्यापार में मनुष्य द्वारा मनुष्य पर भारी अत्याचार होता है । उपरोक्त महासभा ने इस् रक्षा उपाय मे यह चेतावनी भी दी थी कि यदि मनुष्य के इन अधिकारों की कानूनों के माध्यम से प्राप्ति नही कराई गई तो इसके भयावह परिणाम हो सकते है ।
महासभा ने इन "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" की उद्देशिका मे लिखा है ---यदि मनुष्य के अत्याचार और उत्पीडन अंतिम अस्त्र के रूप मे विद्रोह का अवलंब लेने के लिए विवस नही किया जाना है तो यह आवश्यक है की मानव अधिकारों का संरक्षण विधि सम्मत शासन द्वारा किया जाना चाहिए २ । इसके साथ ही महासभा ने मानव अधिकार अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा मे अपने संकल्प को अंगीकृत करते हुए तथा उसमे आथिक-सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का उपबंध जोड़ते हुए उसकी उद्देशिका मे इसका तर्क बताया था कि इस् प्रसंविदा के पक्षकार राज्य यह मानकर कि ये अधिकार मानव देह की अन्तरनिहित गरिमा से व्युत्पन्न है ३ । इन अनुच्छेदों का करार करते है । देखा जा सकता है कि "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" के अनुच्छेद ४ के नजदीक भारत के संविधान मूल अधिकार वाले अध्याय के अनुच्छेद २३ (१) में इसी प्रकार का प्रावधान रखा गया है--मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस् उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा ।
हुआ यों था कि तबतक दास प्रथा और दास व्यापार विश्व की समस्या बन चुके थे । विश्व की कई मानव नस्लें और राष्ट्र दास प्रथा के विरोध मे लड़ रहे थे अमेरिका मे इस् प्रथा को समाप्त करने के लिए गृहयुद्ध लड़ा जा चुका था । इस पृष्ठभूमि और उसकी जानकारी के कारण मानव समाज का यह एक खास मुद्दा था । लेकिन भारतीय समाज मे एक इससे भी ज्यादा घिनौनी प्रथा कायम थी, परन्तु उसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नही हो सकी थी । यहाँ जो स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चला रहे थे वह अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए था, उस समय तक विश्व समुदाय को यही पता था कि भारत ब्रिटेन से अपनी आजादी की लडाई लड़ रहा है उस समय के मानव चिंतकों को यह पता नही था कि भारत में ब्रिटेन की गुलामी से स्वतंत्र होने के बाद भी एक और सामाजिक गुलामी बची रह सकती है जो दास प्रथा अथवा दास व्यापर से भी ज्यादा खतरनाक एवं भयावह है ।
तत्कालीन भारतीय हिंदू राजनीतिक और वेदांत के दार्शनिक विद्वान् विदेशी मंचों पर अपनी इस् भयावह बुराई को छिपाया करते थे वे विदेशों में अपनी स्वतंत्रता की लडाई पर क्रांतिकारी एवं गंभीर भाषण दिया करते लेकिन मन में इस बात से डरे रहते थे कि कोई उनसे हिन्दुओं में फैली अस्पृश्यता के बारे में सवाल न पूछ बैठे । इस सवाल के पूछे जाने पर उन्हें बेहद बेचैनी महसूस होती थी क्योंकि इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था एक केवल डा० आम्बेडकर थे जिन्होंने अवसर मिलने पर इस समस्या को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाया था । संयोग से उन्हें १९४२ में इंस्टीट्यूट आफ पैसिफिक रिलेशन के चेयरमैन के तरफ़ से भारत के अछूतों की समस्या पर कनाडा के क्यूबेक के मांट ट्रमबलेंट में होने वाली कांफ्रेंस में एक पेपर पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया था । बाद में उन्होंने अपना यह पेपर "मिस्टर गाँधी एंड द एमोंसिपेशन आफ द अनटचेबल्स" शीर्षक से पुस्तिका के रूप में अलग से छपवाया था । इसमे डा अम्बेडकर ने विश्व समुदाय को बताया था कि भारत में अछूतों की मुसीबतें विश्व में अन्यत्र नीग्रो और यहूदियों की मुसीबतों से कम कठिन नहीं है उन्होंने चाहा था कि साम्राज्यवाद और नस्लवाद से लड़ते समय विश्व के चिन्तक अस्पृश्यता से लड़ना न भूलें ।५ इधर डा अम्बेडकर ने भारत में भी अस्पृश्यता की इस समस्या को पूरे राजनीतिक स्तर पर उठा दिया था उन्होंने एक तरह से अस्पृश्यता के खिलाफ पूरी शक्ति से आवाज उठाई थी । उनकी आवाज दबाने के लिए उस समय के कट्टरपंथी एवं उदारवादी हिन्दुओं के दोनों वर्गों ने पूरी कोशिश की थी लेकिन डा अम्बेडकर ने अपने काम में सफलता हासिल कर ली । उनके इसी दबाव के कारण भारत के संविधान के अनुच्छेद १७ में "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" से अधिक और अलग तथा उसमे एक नया आयाम जोड़ते हुए लिखा गया कि-"अस्पृश्यता" का अंत किया जाता है । आगे जारी.........

शनिवार, 10 मई 2008

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने कहा है कि 'सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ हो'

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह की फाँसी की सज़ा माफ़ करने की वकालत की है । उनका व्यक्तिगत मानना है कि सरबजीत को माफ़ कर दिया जाना चाहिए । उन्होंने राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को सरबजीत मामले की समीक्षा करने को कहा है तथा सुझाव दिया है कि वे सरबजीत की फाँसी की सज़ा पर रोक लगा दें । इससे पहले पाकिस्तान के मानवाधिकार मामले के पूर्व मंत्री अंसार बर्नी ने राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ से कहा था कि उन्हें पाकिस्तान में मौत की सारी सज़ाओं को उम्रक़ैद में तब्दील करने पर विचार करना चाहिए । उनका यह सुझाव भी सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ करने के संदर्भ में था । हालांकि पाकिस्तान सरकार ने भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह की फाँसी पर अगले आदेश तक के लिए रोक पहले ही लगा दी है। लेकिन अभी सज़ा माफ़ नहीं की गई है ।
पाकिस्तान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री ने एक भारतीय टेलीविज़न चैनल सीएनएन-आईबीएन को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि उन्होंने राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को सुझाव दिया है कि सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ कर देनी चाहिए । उन्होंने कहा, "सरबजीत की फाँसी की सज़ा पर गृहमंत्रालय, विदेश मंत्रालय, क़ानून और मानवाधिकार मंत्रालय को भी विचार करना चाहिए । " गिलानी ने यह भी कहा है कि सरबजीत की फाँसी पर पाकिस्तान का विदेश मंत्रालय विचार कर रहा है पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का यह सुझाव भारत की ओर से की गई अपील के बाद आया है जिसमें कहा गया था कि पाकिस्तान को सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ कर देनी चाहिए ।
शुरूआत मे राष्ट्रपति मुशर्रफ ने सरबजीत की फासी ३० दिन के लिए टाल दी थी, ऐसा इसलिए किया गया था ताकि पाकिस्तान की नई सरकार सरबजीत को क्षमादान करने के सम्बन्ध मे भारत सरकार के अपील की समीक्षा कर सके । गिलानी के हस्तक्षेप की वजह से पाकिस्तानी अधिकारियों ने अगले आदेश तक सरबजीत की फांसी स्थगित कर दी थी । सरबजीत को १९९० मे पंजाब प्रांत मे हुए चार बम धमाकों मे कथित तौर पर शामिल रहने को लेकर मौत की सजा सुनाई गई थी ।
सरबजीत के परिजनों ने भी पाकिस्तान सरकार से ऐसी ही अपील की थी । पिछले दिनों सरबजीत के परिजन उनसे मिलने पाकिस्तान गए थे । इसके अलावा दोनों देशों के कई मानवाधिकार संगठन और नेता सरबजीत की फाँसी की सज़ा माफ़ करने की माँग करते आए हैं ।

मंगलवार, 6 मई 2008

देशमुख के मोहरा है "राज"

दिनांक ३ मई को मुम्बई के शिवाजी मैदान में मनसे के सर्वेसर्वा राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों पर कड़ी ( गाली गलौज के स्तर की) टीका टिप्पणी की दो वर्ष पहले राज अपने चचा बालठाकरे का साथ केवल इसलिए छोड़ा क्योकि उनकी महत्वाकांक्षा वहाँ पूरे होने के आसार नही थे इसलिए वे शिवसेना से निकलकर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना नामक पार्टी बनाई किंतु जब राज अपने आपको राजनैतिक हासिये पर जाता हुआ महसूस करने लगे तो उन्होंने अपनी दिशा बदल दी और वे पिछले कुछ दिनों से नफरत और हिंसा फैलाने का काम शुरू कर दिया वस्तुतः राज के पास कोई मुद्दा नही है जिससे वे महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें । इसीलिए उत्तर भारतीय टैक्सी ड्राइवरों पर हमले और उत्तर भारतीयों के खिलाफ बयानबाजी करना उनकी मजबूरी बन गयी है । राज अपने वजूद को बनाये रखने के लिए इसके अलावा और कुछ कर भी नही सकते ।
कांग्रेस और एनसीपी (अघाड़ी सरकार) के खिलाफ कुछ कह नही सकते क्योकि राज का देशमुख सरकार से तालमेल है तथा अन्य जो भी कांग्रेसी नेता है वे राज से काफी ताक़तवर है अगर उनके खिलाफ राज ने कुछ कहा तो वे राज को धुल चटा सकते है । जहाँ तक एनसीपी का सवाल है तो श्री शरद पवार के रहते राज की इतनी हिम्मत नही कि वे एनसीपी पर कोई कड़ी टिपण्णी कर सकें एनसीपी के अध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री के समकक्ष देश के कद्दावर नेता श्री शरद पवार ने राज की रैली से ठीक पहले राज को निशाना बनाते हुए कहा कि अलगाववादियों को कत्तई वरदास्त नही किया जाएगा, आपको बतादे कि आमतौर पर अलगाववादी शब्द आतंकवादियों के लिए उपयोग मे लाया जाता है । इसके बावजूद भी राज की हिम्मत नही हुई कि पवार के इस् बयान पर कोई टिपण्णी कर सकें । अब बची भाजपा-शिवसेना ये दोनों ही पार्टियाँ राज पर भारी है भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने इसपर महाराष्ट्र सरकार की उदाशीनता के तरफ़ इशारा करते हुए केवल इतना कहा कि समाज मे नफरत फैलाने के काम को रोका जाना चाहिए । ऐसे मी राज के पास केवल एक ही चारा है कि वे उत्तर भारतीयों के खिलाफ टिपण्णी करके अपना एवं अपनी पार्टी मनसे का प्रचार-प्रसार कर सकें ।
पता चला है कि ०६ मई को राज के विरुद्ध किसी तरह की करवाई न किए जाने के मुद्दे को लेकर महाराष्ट्र राज्य के उप मुख्यमंत्री और गृह मंत्री श्री आर आर पाटील को काफी खरी-खोटी सुननी पडी श्री आर आर पाटील को श्री अजित पवार और श्री नारायण राणे ने खरी-खोटी सुनाई इससे नाराज होकर श्री पाटील अपना स्तीफा देने तक की धमकी दे डाली पर मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख के बीच-बचाव करने पर मामला शांत हुआ । इसके पहले भी राज ठाकरे पर करवाई किए जाने पर हुई देरी को लेकर एनसीपी अध्यक्ष श्री शरद पवार ने श्री पाटील को आडे हाथों लिया था ।
वस्तुतः इस नूरा कुस्ती के केन्द्र मे शिवसेना को कमजोर करने की कयावत चल रही है क्योकि शिवसेना ने पिछले दिनों जब राष्ट्रपति के चुनाव की बात आई तो शिवसेना सुप्रीमो श्री बालासाहेब ठाकरे प्रतिभा ताई को मराठी माणूस के नाम पर समर्थन दिया तथा इस् मुद्दे पर एनडीए को ठेंगा दिखा दिया शिवसेना सुप्रिमों प्रतिभा ताई पाटील को समर्थन देते समय अपने आप को मराठी माणूस का सबसे प्रबल पैरोकार बताने की कोशिश की, बाकी अन्य तमाम मुद्दे मसलन महाराष्ट्र के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या, मंहगाई को लेकर शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष एवं राज के चचेरे भाई श्री उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री श्री विलास राव देशमुख को बुरी तरह घेर दिया है इसलिए देशमुख को उद्धव को दबाने के लिए एक मोहरा चाहिए था जोकि राज के रूप मे उनके हाथ लग गया है अब देशमुख लोहा लोहे से काट रहे है इसमे भले ही उत्तर भारतीय अपमानित हों और मारे जाय तथा मराठी माणूस के नाम पर हिन्दी भाषियों के बीच आतंक फैलाया जाय इन बातों से देशमुख को कोई फर्क नही पड़ता देशमुख का मकसद एक मुस्त मराठी वोटर को शिवसेना के तरफ जाने से रोकना है इसके लिए अब उन्हें शिवसेना के मराठी माणूस के प्रबल पैरोकार के काट के रूप मे "राज" नामक तुरुप का पत्ता हाथ लग गया है कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है की उत्तर भारतीयों को इंधन के रूप मे इस्तेमाल कर राजनीति की रोटियां सेकी जा रही है ।
उधर राहुल बाबा उत्तर प्रदेश मे कांग्रेस को स्थापित करने के लिए एडी से चोटी तक का जोर लगा रहे है और इधर विलास राव देशमुख यू पी सहित उत्तर भारतीयों के मन मे जो भी थोडी बहुत कांग्रेस के प्रति राहुल गाँधी द्वारा आस्था पैदा की जा रही थी उसे सफाचट करते जा रहे है यानि बाड़ ही खेत को खा रहा है क्या करेंगे उत्तर भारतीय और क्या करेंगे राहुल बाबा ?