गुरुवार, 5 जून 2008

पर्यावरण दिवस पर पर्यावरणीय चिंता

प्रकृति और मानव का संवंध चिरकालिक और शाश्वत है । प्रकृति ईश्वर का रूप है जिसे हम देख भी सकते है । प्रकृति की गोंद में खेलते हुए मानव नें उन्नति की है सभ्यता के प्रारम्भ में मानव प्रकृति के बहुत निकट था परन्तु जैसे-जैसे पृथ्वी महाद्वीपों, देशों, और शहरों में विभक्त होने लगी और कंक्रीट के जंगल खड़े होने लगे, धीरे-धीरे मानव प्रकृति से दूर होता गया और उसने प्रकृति की उपेक्षा करनी शुरू कर दी है । हमारे पूर्वज पंचमहाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, और वायु के महत्व को जानते थे क्योकि प्राणीमात्र की संरचना में यही उपदान के कारण है । वैदिक काल से ही प्रकृति को उच्च भाव से देखा गया है प्रकृति व मानव अन्योंन्याश्रित है इसीलिए प्राणिमात्र वन, उपवन, हरे-भरे वृक्षों, लताओं और वनस्पतियों, झरनों व नदियों में कल-कल बहते शुद्ध जल का लाभ उठाता है । किंतु आज यह सारा पर्यावरण दूषित हो गया है और पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय हो गया है । हमारी लापरवाही के कारण मानो प्रकृति हमसे क्षुब्ध हो गई है और बाढ़, सूखा, भूकंप, भूस्खलन, आदि अनेक प्राकृतिक आपदाओं के रूप में अपना रोष प्रकट कर रही है । इसी वजह से मानव घबराया हुआ है और दिन ब दिन पर्यावरण के प्रति सचेत होता जा रहा है । आज इस् दिशा में अनेक नियम और कानून बनाये जा रहे है । और सरकारें करोडों अरबों रूपया खर्च करके पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना चाहती है पर कुछ लोगों के व्यावसायिक स्वार्थ इस दिशा में अवरोध बनकर खड़े है ।
प्रकृति मानव तथा पर्यावरण सृष्टि रूपी त्रिभुज के त्रिकोण है प्रदुषण कई प्रकार से प्रकट होता है जैसे जल, वायु, मृदा, ध्वनि, व रेडियोधर्मी प्रदुषण । जनसंख्या विस्फोट से भी प्रदुषण होता है मानव द्वारा फैलाये जा रहे प्रदुषण से आज प्रकृति की आत्मा कराह उठी है । वृक्षों की अनवरत कटान, भूमि का तेजी से क्षरण, औद्योगीकरण, पश्चिमी जीवन शैली से उपजा प्रदुषण, वनस्पतियों तथा अपार वन संपदा का ह्रास, जीव जंतुओं का विलुप्तिकरण, नदी व भूक्षरण, परमाणु परीक्षणों से उत्पन्न जल, वायु तथा भूमि में प्रदुषण, पालीथीन का प्रचुर मात्रा में बढ़ता उपयोग, शहरों में बढ़ता कूडा-करकट, अस्पतालों से निकला कचरा, नदियों में कूडा-करकट फेकने से उपजा जल प्रदुषण, शहरों में बढ़ता ध्वनि प्रदुषण, पेट्रोल-डीजल के जलने से उपजा वायु प्रदुषण, ओजोन की परत में क्षरण, ग्लोबल वार्मिंग तथा न्युक्लियर फाल आउट आदि के गंभीर परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पडेगा ।
आत्म-संयम और विवेक, प्रकृति प्रेम व उसके प्रति सहभागिता का भाव हमारे लिए सच्चे समाधान जुटा सकता है भौतिकवादी जीवन को मूर्तरूप देने की ललक में मानव प्रकृति व पर्यावरण का क्रूरता पूर्वक शोषण कर रहा है । अनियंत्रित औद्योगीकरण आज पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण है । यद्यपि सरकार नें पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाया हुआ है जिससे अनापत्ति प्रमाण-पत्र लिए बिना किसी उद्योग को चलाने की अनुमति नही दी जाती यह बोर्ड जांच करता है कि कारखाने से निकलने वाले रासायनिक धुआं, कचरा आदि के निस्तारण की इस प्रकार व्यवस्था हो कि प्रदूषण न फैले । किंतु पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण संवंधी विभागों में फैले भरी मात्रा में भ्रष्टाचार ने उद्योगपतियों को प्रदूषण फैलाने की अबाध एवं खुली छुट दे रखी है । इनके कारखानों से निकला विषाक्त कचरा व रसायन पास के नदी-नाले अथवा समुद्र के पानी को लगातार एवं भयावह रूप से प्रदूषित कर रहे है परिणाम स्वरूप जल में पाई जाने वाली मछलियाँ व जीव-जंतु लुप्त होने लगे है जो लोग इस प्रदूषित पानी का उपयोग करते है रोगग्रस्त हो जाते है । आलम यह है कि ऐसे प्रदूषित पानी की मछलियों के खाने से भी बीमारियाँ फ़ैल रही है कोलकाता की एक रिपोर्ट के अनुसार वहां के पानी में आर्सेनिक की मात्रा पाई गई है जिसके लम्बे समय तक प्रयोग से कैंसर जैसी घातक बीमारी हो सकती है । इतना ही नहीं भारत में तमाम औद्योगिक इकईयाँ रासायनिक कचरायुक्त पानी को जमीन के निचे पानी की सतह में लगातार फेंक रहें है जिसके कारण उस औद्योगिक इकाई के आस-पास के कस्बों अथवा गाँवो के नागरिकों द्वारा भूगर्भीय जल का इस्तेमाल करने से वे घातक बीमारियों से ग्रस्त हो रहे है किंतु स्थानीय पर्यावरण नियंत्रण विभाग इन औद्योगिक इकाईयों द्वारा किए जा रहे पर्यावरणीय विनाशक अपराध के प्रति आँखें बंद किए बैठा है ।
पालीथीन का प्रयोग भी आज देश के लिए एक बडी समस्या बन चुका है ये आसानी से नष्ट नहीं होते इसके खाने से अनेक गाये मर चुकी है चूँकि लोग खाने का सामान इसमे रख कर बाहर फेंक देंते है । बहुराष्ट्रीय प्लास्टिक उद्योग भारत में २ मिलियन टन प्लास्टिक बनाता है जो बाद में कचरे में परिवर्तित हो जाता है इसमे से एक मिलियन टन वह कंटेनर है जिसमें भोज्य पदार्थ, दवाएं, कास्मेटिक्स सीमेंट बैग आदि होते है, जो एक बार प्रयोग के बाद बेकार हो जाते है । इन्हे कौन उठाकर फ़िर से रीसायकिल करेगा ? २५००० करोड़ का यह सनराईज उद्योग जो कि १० से १५ प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रहा है पर्यावरण दुष्प्रभाव के नाम से भी चिढ़ता है । इन लोगों को देश के उन छोटे-छोटे कारीगरों, कुम्हारों, डलिया व जूट बनाने वाले श्रमिकों से क्या मतलब जिनकी रोटी इनके कारण छीन सी गई है । इनके लिए तो पर्यावरण की बात करने वाले लोग भी पसंद नही है । स्वीडन, नार्वे व जर्मनी में ऐसे नियम बनाए गए है कि प्लास्टिक कंपनियों द्वारा बनाए गए प्लास्टिक कचरे को एकत्र करके उसे रीसाईकल करने की जिम्मेदारी इन्ही कंपनियों की है । भारत में रंगनाथन कमेटी ने कहा था कि प्लास्टिक उद्योग अपने द्वारा उत्पादित १५००० टन बोतलों के कचरे का १००० केन्द्रों द्वारा एकत्र करके रीसाईकिल करे पर कोई नहीं जनता कि इस दिशा में क्या प्रगति हुई । सरकार ने ३ बार रीसाईकिल उत्पाद नियम के द्वारा २० माईक्रोन से कम के ८ गुणे १२ के छोटे प्लास्टिक लिफाफे बनाने पर प्रतिबन्ध लगाया है चूकि यह इधर-उधर उड़ते है और गंदगी फैलाते है पर क्या मात्र इस प्रतिबन्ध से समस्या हल हो जायेगी ?
अस्पतालों से निकला कचरा जैसे प्लास्टिक की ग्लूकोज की बोतलें, दवाये, प्लास्टिक आफ पेरिस व अन्य विषाक्त वस्तुए समाज के लिए बहुत ही खतरनाक है इन्हे नष्ट करने के लिए इनसिनेटर नामक मशीन आती है इस मशीन की जरूरत आज हर बडे अस्पतालों में है पर हमारी सरकार इस दिशा में कितना कार्य कर पाई है पर्यावरण की सुरक्षा आज हमारी परम आवश्यकता बन चूकी है इसके लिए केवल सरकार पर निर्भर नही रहा जा सकता इस् लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ एवं अनुच्छेद ५१-अ (ग ) के तहत आम नागरिकों को भी पर्यावरण वायु एवं जल प्रदूषण से आने वाली पीढ़ी के लिए पैदा हुए गंभीर खतरे को रोकने हेतु अनिवार्य रूप से कार्य करना होगा अन्यथा पर्यावरण प्रदूषण मानवता के लिए गंभीर खतरे का रूप ले चुका है ।