सोमवार, 31 दिसंबर 2007

मानव अधिकारों के संघर्ष के रास्ते में नई चुनौती

मानव अधिकार के हनन में लगा महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग---------
वर्ष १९९६ में जब आल इंडिया ह्यूमन राइट्स एंड सिटीझन आफ्शन नामक संस्था की नीव रखी तो उस समय संस्था के उद्देश्यों में महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग की गठन के मांग को सबसे ऊपर रखा गया था । आयोग के गठन की मांग को लेकर संस्था ने वर्ष १९९६ से लेकर जब तक आयोग का गठन नही हो गया तब तक संघर्ष किया, रैलियां की, जनसभाए की, धरने-प्रदर्शन किए राज्य स्तरिय मानव अधिकार आयोग के गठन के लिए ज्ञापन दिए किन्तु यह सब करते समय हमे यह मालूम न था कि महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग का गठन हो जाने के पश्चात यह मानव अधिकार आयोग हम जैसे मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्य कर रहे मानव अधिकार कार्यकर्ताओं तथा स्वयंसेवी संगठनों एवं संस्थाओं को कुचलना ही अपना मुख्य उद्देश्य बना लेगा ।इस् विषय का हमे तब पता चला जब महाराष्ट्र के मंत्रालय में मैं उपस्थित था वहाँ मौजूद कुछ सचिव स्तर के अधिकारियों द्वारा महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग को "मलाईदार महकमा" के नाम से संबोधित करते हुए सुना तो हमे यह आभास हो गया कि किस तरह महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुका है । सरकारी महकमे मसलन पुलिस, महसूल, परिवहन, एवं महानगरपालिका आदि के अधिकारियों के विरुद्ध आयोग में आयी हुई शिकायतों को रफा-दफा करने हेतु सौदे किये जाने लगे है । आम आदमी जो यह समझता था कि कही न्याय मिले न मिले लेकिन मानव अधिकार आयोग में न्याय अवश्य मिलेगा आयोग द्वारा उनके इस् विश्वास को छला जाने लगा । आम आदमी को तो यह पता ही नही था कि उसके द्वारा कि गयी शिकायत मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम १९९३ के तहत सुनवाई के योग्य है या नही इसका लाभ लेकर आयोग के सदस्यों ने उन सभी शिकायतों को यह कह कर खारिज करना शुरू कर दिया कि यह शिकायत मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम १९९३ के तहत सुनवाई के योग्य नही है । और तो और पुलिस द्वारा व्यवसायी पर मकोका लगाए जाने के मामले को यह कह कर खारिज कर दिया गया कि यह दीवानी का मामला है । जिन मामलों में वे ऐसा नही कर पाए उन मामलों में शिकायतकर्ताओं को यह कह कर शिकायत पीछे लेने हेतु दबाव डाला जाने लगा कि पुलिस से अथवा सरकारी अधिकारियों से दुश्मनी मत मोल लो शिकायत वापस लेलो नही तो तुम्हे आगे काफी तकलीफ आयेगी, इतना ही नहीं आयोग द्वारा बिचौलिए की भूमिका निभाते हुए पुलिस अधिकारियों से पीड़ित को पैसे दिलाकर मामले को रफा-दफा किये जाने की बात होने लगी है, तथा शिकायतकर्ताओं को बिना सूचित किये सुनवाई बंद की जाने लगी ।मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम १९९३ में यह कलमबद्ध किया गया है कि मानव अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनो, संस्थाओं को मानव अधिकार आयोगों द्वारा प्रोत्साहित किया जायेगा किन्तु महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग द्वारा स्थिति उलट दी गयी । जब कोई स्वयंसेवी संगठन जो कि मानव अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे है उनके द्वारा रखे गए सेमिनार में वक्ता के रूप में मौजूद आयोग के सदस्य या कर्मचारी मसलन मानव अधिकार हनन के मामलों कि जांच के लिए आयोग में नियुक्त पुलिस अधिकारी अपने भाषण में यह कहना शुरू कर दिया है कि मानव अधिकार आयोग का किसी स्वयंसेवी संगठन या संस्था से कोई संबंध नहीं है यहाँ यह विचारणीय है कि अगर ये आयोग जनसंगठनो या संस्थाओं से संबंधों को नकार रहे है तो क्या वे आम जनता के मानव अधिकारों के लिए कार्य करेगे ? इसमें संशय है । आयोग के सदस्य और कर्मचारीगण स्वयम यह साबित करना शुरू कर दिया है कि "मानव अधिकार जो कि आम नागरिक का मुद्दा था उसे व्यवस्था द्वारा हड़प लिया गया है" उन्होने मानव अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनो तथा संस्थाओं पर हमले तेज कर दिए है उनके इन हमलों से पता चलता है कि मानव अधिकार आयोगों को ऐसे गैर सरकारी संगठन या संस्था जो कि मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत है और आयोग के क्रियाकलापों पर नजर रख सकते है उनके द्वारा गलत किये जाने पर ऊँगली भी उठा सकते है ।
दु:ख की बात यह है की महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग इससे भी दो कदम आगे जाकर मानव अधिकारों के क्षेत्र में पिछले १५ वर्षों से कार्यरत मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस के माध्यम से झूठे एफ.आई.आर. दर्ज कराने शुरू कर दिए है तथा मानव अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों की जांच के नाम पर संगठनों, संस्थाओं के कार्यकर्ताओं को प्रताडित करना शुरू कर दिया है । यह सब आयोग में बैठे आयोग के सदस्यों एवं आयोग के जांच विभाग में बैठाये गए पुलिस कर्मचारियों के इशारे पर हो रहा है आयोग के सदस्य के द्वारा तो यहाँ तक कहते सुना गया है कि ऐसे सभी स्वयं सेवी संगठनों को बंद कराना है जो मानव अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे है । प्रश्न यह है कि आखिर महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग की मंशा क्या है मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के विरुद्ध झूठे एफ।आई.आर. दर्ज कराने से लेकर, जांच के नाम पर मानव अधिकार संगठनों को प्रताडित करना क्या यही मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम १९९३ का उद्देश्य था, क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानव अधिकार विश्वघोषणा का उद्देश्य यही है ? जो महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग का उद्देश्य बनता नजर आ रहा है जब रक्षक भक्षक बन जाये तो उसके विरुद्ध उठ खडे हो जाना नितांत आवश्यक हो जाता है । ब्यवस्था की खामियों से संघर्ष करना ही मानव अधिकार आंदोलनों का पहला चरण है अब वह समय आ गया है जब हम सभी मानव अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनो एवं संस्थाओं तथा कार्यकर्ता एकजुट हों और महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग द्वारा भारी पैमाने पर किये जा रहे मानव अधिकार हनन के विरुद्ध संघर्ष शुरू करे ।

रविवार, 16 दिसंबर 2007

संघर्ष के दायरे

भारत मे नागरिक अधिकार आन्दोलन की शुरुआत स्वतंत्रता के के पहले ही हो गई थी । वर्ष १९३६ मे सिविल लिबर्टीज यूनियन (सी. एल. यू.) का गठन हुआ था इसके गठन मे पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रमुख भूमिका रही पर आजादी मिलने के कुछ वर्षों के भीतर ही सी. एल. यू. निष्क्रिय एवं अंततः समाप्त हो गई इसका मुख्य कारण नेहरू एवं अन्य अधिकांश नेताओं का यह खयाल था कि स्वतंत्रता मिल जाने और लोकतांत्रिक संविधान लागू नो जाने के बाद नागरिक अधिकार आन्दोलन की आवश्यकता नही रह गई है ।इसके बाद १९६० के दशक मे कुछ संगठन बने इनमे पश्चिम बंगाल मे एसोसिएशन फार द प्रोटेक्शन आफ डेमोक्रेटिक राइट्स ( ए. पी. डी. आर. ), आन्ध्र प्रदेश मे आन्ध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज कमेटी ( ए. पी. सी. एल. सी. ), और पंजाब मे एसोसिएशन फार द डेमोक्रेटिक राइट्स ( ए. एफ. डी. आर.), प्रारंभिक है । इन संगठनों ने ग्रामीण इलाको मे दमन और शोषण के मुद्दे उठाए तथा राज्य की शक्ति से संघर्ष भी किया । लेकिन व्यापक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार आन्दोलन को स्वरूप देने एवं राज्य व्यवस्था के वास्तविक चरित्र का खुलासा करने मे इनकी भूमिका सीमित ही रही ।देश मे पहला राष्ट्रीय स्तर का मानवाधिकार संगठन जयप्रकाश नारायण की पहल और प्रेरणा से १९७५ मे बना यह था पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज एंड डेमोक्रेटिक राइट्स ( पी. यू. सी. एल. डी. आर. ) इस संगठन ने आपात काल के पहले और आपात काल के दौरान इंदिरा गाँधी के नेतृत्व मे सामने आए भारतीय राज्य के तानाशाही स्वरूप से प्रभावशाली संघर्ष किया लेकिन १९७७ मे इंदिरा गाँधी की पराजय और जनता पार्टी की सरकार के सत्ता मे आने के साथ ही यह संगठन भी लगभग निष्क्रिय हो गया । कारण यह रहा की संगठन के नीति निदेशकों सहित भारी पैमाने पर इसके सक्रिय कार्यकर्ताओं को सत्ता का सुख मिल गया अर्थात संसद मे पहुच गए और सरकार मे भी शामिल हो गए तो उन्हें ऐसा लगा कि हम सत्ता मे पहुचे तो लोकतंत्र स्थापित हो गया, बात को और स्पष्ट करें तो यह धारणा बन गई कि लोकतंत्र कि बहाली के बाद अब नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकार के संघर्षों कि आवश्यकता नही रह गई है । बहरहाल १९८० मे इंदिरा गाँधी के सत्ता मे वापस आते ही यह धारणा टूट गई । तब दिल्ली मे (पी. यू. सी. एल. डी. आर. ) का सम्मेलन बुलाया गया इस सम्मेलन मे यह संगठन विभाजित हो गया पी.यू. सी. एल. और पी. यू. डी. आर. नामके दो संगठन आस्तित्व में आए पी.यू.सी.एल. का सांगठनिक ढांचा राष्ट्रीय स्तर का रहा जबकि पी.यू.डी.आर. का दिल्ली आधारित ८० के दशक में भारतीय राज्य व्यवस्था के गहराते संकठ के साथ देश के विभिन्न इलाकों में कई और मानवाधिकार संगठन बने उनमे अनेक आज भी सक्रिय है । और मानवाधिकार आन्दोलन में अपनी भूमिका निभा रहे है ।मौजूदा समय में मानवाधिकार आन्दोलन के सामने अनेक चुनौतियां है ऐसे अनेक क्षेत्र है जिनका मानवाधिकार से सीधा संबंध है । और जिनमे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को काम करना चाहिए मानवाधिकारों की रक्षा तभी हो सकती है जब उसके लिए उपयुक्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ हों एक वाक्य में कहे तो इन अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिए काम करना मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कार्य है । दरसल हमारे जैसे समाजों में मानवाधिकार एक संभावना ही बने हुए है यथार्थ में इन्हें उतरना अभी बाकी है । क्या भारतीय मानवाधिकार संगठन यह कार्य कर पा रहे है ? अगर नही तो उसके क्या कारण है ? आइए इस प्रश्न की विवेचना करे ।सबसे पहले हमे यह ध्यान रखना होगा कि भारत में मानवाधिकार आन्दोलन भले ही तीन दशक पुराना हो गया हो पर अभी यह शैशवावस्था में ही है । ऊपर यह बताया जा चुका है कि मानवाधिकार आन्दोलन की कोई स्वतंत्र एवं देसी विचारधारा अभी विकसित नही की जा सकी है । पर अब यह महसूस किया जा रहा है । काफी संख्या में मानवाधिकार कार्यकर्ता इसकी बेहद जरूरत महसूस करने लगे है । जाहिर है इस दिशा में बहुत ही आरंभिक स्तर पर ही सही लेकिन चिंतन मनन की प्रक्रिया शुरू हो गई है । गैट वार्ता और विश्वबाज़ार संगठन के गठन, विश्वबैंक एवं एशियाटिक बैंक की नीतियाँ, एवं उसकी कार्य सूचियों के संदर्भ में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के वीच हुई तीखी बहस इसका प्रमाण है ऐसी ही बहस पर्यावरण एवं विकास की नीति से जुडे मुद्दों पर भी देखने को मिली पिछले तीन दशकों में भारतीय राज्य व्यवस्था के निरंकुश कदमों के गंभीर संकठ पैदा होते रहे और उनपर तात्कालिक प्रतिक्रिया एवं कार्य करने की मजबूरीयों के बीच भी अगर बहस आज इस् स्तर पर पहुंच चुकी है तो यह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सक्रियता की देन है एवं इसे आशाजनक कहा जा सकता है ।
मानवाधिकार संगठनो को किन सीमाओं और सीमित संसाधनों के बीच काम करना पड़ता है इसपर भी ध्यान देना जरुरी है । तीन दशक पहले पी.यू.सी.एल.डी.आर. की स्थापना के समय बड़ी संख्या में लोग उसमे सामिल हो गए उसमे समाज के सम्पन्न तबकों के लोग भी थे विचार धारा की वैसी स्पष्टता भी नहीं थी एक तरह से तब यह संगठन आपातकाल और इंदिरा गाँधी की निरंकुशता के खिलाफ एक मोर्चा बन गया था जनसंघ यानी आज की भारतीय जनता पार्टी से जुडे लोग भी उसमे थे जाहिर है की तब इसका प्रसार ज्यादा था, लेकिन जब मुद्दे बदल गए तो वह बात नही रही । व्यवस्था का संकट जैसे-जैसे गंभीर होता गया मानवाधिकारों की अवधारणा स्पष्ट होती गई और हितों के टकराव के बीच किसका साथ देना है । यह प्रतिबद्धता साफ होती गई, यथास्थितिवादी एवं प्रक्रियावादी लोग इससे अलग हो गए खासकर पंजाब और कश्मीर के समस्याओं के संदर्भ में ए प्रक्रियाए तिब्रता से हुई । ऐसे में संगठन का सीमित होना स्वाभाविक था मगर इन प्रक्रियाओं से मानवाधिकार की अधिक सुसंगत समझ बनी और मानवाधिकार संगठनों के सामने अधिक स्पष्ट विचारधारा एवं कार्यसूची आगई इसलिए बाद के दिनों में इन्होने भले ही कम कार्य किये पर वे अधिक प्रभावशाली साबित हुए ।