रविवार, 16 दिसंबर 2007

संघर्ष के दायरे

भारत मे नागरिक अधिकार आन्दोलन की शुरुआत स्वतंत्रता के के पहले ही हो गई थी । वर्ष १९३६ मे सिविल लिबर्टीज यूनियन (सी. एल. यू.) का गठन हुआ था इसके गठन मे पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रमुख भूमिका रही पर आजादी मिलने के कुछ वर्षों के भीतर ही सी. एल. यू. निष्क्रिय एवं अंततः समाप्त हो गई इसका मुख्य कारण नेहरू एवं अन्य अधिकांश नेताओं का यह खयाल था कि स्वतंत्रता मिल जाने और लोकतांत्रिक संविधान लागू नो जाने के बाद नागरिक अधिकार आन्दोलन की आवश्यकता नही रह गई है ।इसके बाद १९६० के दशक मे कुछ संगठन बने इनमे पश्चिम बंगाल मे एसोसिएशन फार द प्रोटेक्शन आफ डेमोक्रेटिक राइट्स ( ए. पी. डी. आर. ), आन्ध्र प्रदेश मे आन्ध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज कमेटी ( ए. पी. सी. एल. सी. ), और पंजाब मे एसोसिएशन फार द डेमोक्रेटिक राइट्स ( ए. एफ. डी. आर.), प्रारंभिक है । इन संगठनों ने ग्रामीण इलाको मे दमन और शोषण के मुद्दे उठाए तथा राज्य की शक्ति से संघर्ष भी किया । लेकिन व्यापक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार आन्दोलन को स्वरूप देने एवं राज्य व्यवस्था के वास्तविक चरित्र का खुलासा करने मे इनकी भूमिका सीमित ही रही ।देश मे पहला राष्ट्रीय स्तर का मानवाधिकार संगठन जयप्रकाश नारायण की पहल और प्रेरणा से १९७५ मे बना यह था पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज एंड डेमोक्रेटिक राइट्स ( पी. यू. सी. एल. डी. आर. ) इस संगठन ने आपात काल के पहले और आपात काल के दौरान इंदिरा गाँधी के नेतृत्व मे सामने आए भारतीय राज्य के तानाशाही स्वरूप से प्रभावशाली संघर्ष किया लेकिन १९७७ मे इंदिरा गाँधी की पराजय और जनता पार्टी की सरकार के सत्ता मे आने के साथ ही यह संगठन भी लगभग निष्क्रिय हो गया । कारण यह रहा की संगठन के नीति निदेशकों सहित भारी पैमाने पर इसके सक्रिय कार्यकर्ताओं को सत्ता का सुख मिल गया अर्थात संसद मे पहुच गए और सरकार मे भी शामिल हो गए तो उन्हें ऐसा लगा कि हम सत्ता मे पहुचे तो लोकतंत्र स्थापित हो गया, बात को और स्पष्ट करें तो यह धारणा बन गई कि लोकतंत्र कि बहाली के बाद अब नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकार के संघर्षों कि आवश्यकता नही रह गई है । बहरहाल १९८० मे इंदिरा गाँधी के सत्ता मे वापस आते ही यह धारणा टूट गई । तब दिल्ली मे (पी. यू. सी. एल. डी. आर. ) का सम्मेलन बुलाया गया इस सम्मेलन मे यह संगठन विभाजित हो गया पी.यू. सी. एल. और पी. यू. डी. आर. नामके दो संगठन आस्तित्व में आए पी.यू.सी.एल. का सांगठनिक ढांचा राष्ट्रीय स्तर का रहा जबकि पी.यू.डी.आर. का दिल्ली आधारित ८० के दशक में भारतीय राज्य व्यवस्था के गहराते संकठ के साथ देश के विभिन्न इलाकों में कई और मानवाधिकार संगठन बने उनमे अनेक आज भी सक्रिय है । और मानवाधिकार आन्दोलन में अपनी भूमिका निभा रहे है ।मौजूदा समय में मानवाधिकार आन्दोलन के सामने अनेक चुनौतियां है ऐसे अनेक क्षेत्र है जिनका मानवाधिकार से सीधा संबंध है । और जिनमे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को काम करना चाहिए मानवाधिकारों की रक्षा तभी हो सकती है जब उसके लिए उपयुक्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ हों एक वाक्य में कहे तो इन अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिए काम करना मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कार्य है । दरसल हमारे जैसे समाजों में मानवाधिकार एक संभावना ही बने हुए है यथार्थ में इन्हें उतरना अभी बाकी है । क्या भारतीय मानवाधिकार संगठन यह कार्य कर पा रहे है ? अगर नही तो उसके क्या कारण है ? आइए इस प्रश्न की विवेचना करे ।सबसे पहले हमे यह ध्यान रखना होगा कि भारत में मानवाधिकार आन्दोलन भले ही तीन दशक पुराना हो गया हो पर अभी यह शैशवावस्था में ही है । ऊपर यह बताया जा चुका है कि मानवाधिकार आन्दोलन की कोई स्वतंत्र एवं देसी विचारधारा अभी विकसित नही की जा सकी है । पर अब यह महसूस किया जा रहा है । काफी संख्या में मानवाधिकार कार्यकर्ता इसकी बेहद जरूरत महसूस करने लगे है । जाहिर है इस दिशा में बहुत ही आरंभिक स्तर पर ही सही लेकिन चिंतन मनन की प्रक्रिया शुरू हो गई है । गैट वार्ता और विश्वबाज़ार संगठन के गठन, विश्वबैंक एवं एशियाटिक बैंक की नीतियाँ, एवं उसकी कार्य सूचियों के संदर्भ में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के वीच हुई तीखी बहस इसका प्रमाण है ऐसी ही बहस पर्यावरण एवं विकास की नीति से जुडे मुद्दों पर भी देखने को मिली पिछले तीन दशकों में भारतीय राज्य व्यवस्था के निरंकुश कदमों के गंभीर संकठ पैदा होते रहे और उनपर तात्कालिक प्रतिक्रिया एवं कार्य करने की मजबूरीयों के बीच भी अगर बहस आज इस् स्तर पर पहुंच चुकी है तो यह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सक्रियता की देन है एवं इसे आशाजनक कहा जा सकता है ।
मानवाधिकार संगठनो को किन सीमाओं और सीमित संसाधनों के बीच काम करना पड़ता है इसपर भी ध्यान देना जरुरी है । तीन दशक पहले पी.यू.सी.एल.डी.आर. की स्थापना के समय बड़ी संख्या में लोग उसमे सामिल हो गए उसमे समाज के सम्पन्न तबकों के लोग भी थे विचार धारा की वैसी स्पष्टता भी नहीं थी एक तरह से तब यह संगठन आपातकाल और इंदिरा गाँधी की निरंकुशता के खिलाफ एक मोर्चा बन गया था जनसंघ यानी आज की भारतीय जनता पार्टी से जुडे लोग भी उसमे थे जाहिर है की तब इसका प्रसार ज्यादा था, लेकिन जब मुद्दे बदल गए तो वह बात नही रही । व्यवस्था का संकट जैसे-जैसे गंभीर होता गया मानवाधिकारों की अवधारणा स्पष्ट होती गई और हितों के टकराव के बीच किसका साथ देना है । यह प्रतिबद्धता साफ होती गई, यथास्थितिवादी एवं प्रक्रियावादी लोग इससे अलग हो गए खासकर पंजाब और कश्मीर के समस्याओं के संदर्भ में ए प्रक्रियाए तिब्रता से हुई । ऐसे में संगठन का सीमित होना स्वाभाविक था मगर इन प्रक्रियाओं से मानवाधिकार की अधिक सुसंगत समझ बनी और मानवाधिकार संगठनों के सामने अधिक स्पष्ट विचारधारा एवं कार्यसूची आगई इसलिए बाद के दिनों में इन्होने भले ही कम कार्य किये पर वे अधिक प्रभावशाली साबित हुए ।