गुरुवार, 8 जुलाई 2010

पान बनाम लोहे के खान की जंग

दक्षिण कोरियाई और विश्व की अग्रणी स्टील निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनी पोस्को के उडीसा स्थित जगतसिंहपुर जिले के प्रस्तावित स्टील फैक्ट्री परियोजना का पारादीप के समीप के गांओं में पान की खेती करने वाले किसानों नें भारी विरोध करना शुरू कर दिया है. ज्ञात हो कि स्थानीय किसान पान की खेती कर मालदीव, पाकिस्तान, सउदी अरब, श्री लंका और बांग्लादेश जैसे देशों को निर्यात कर अपना जीवन यापन करते है. इलाके में पान की खेती के कारोबार के वजह से लगभग 6000 लोगों को रोजगार मिला हुआ है किसानों का कहना है कि उन्हें एक पान के पत्ते से एक रूपये की आय होती है किसान बताते है कि एक एकड़ जमीन पान के पत्ते के उपज से वार्षिक 1,00,000,00-/ रूपये की आय होती है. धिनिकिया ग्राम पंचायत के सरपंच सिसिर महापात्रा और अन्य पान की खेती करने वाले किसान कहते है- हम अपने उपजाऊ जमीन का एक इंच हिस्से का अधिग्रहण नहीं होने देंगे, हमारी कृषि अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है और सतत है .' महापात्रा पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिती के सदस्य भी है.

पोस्को परियोजना का विरोध कर रही महिला कार्यकर्ता मनोरमा खटुआ का कहना है कि धिनकिया के पान के पत्तों की अपनी अहमियत है मुंबई और कानपूर के लोगों में भी इसकी अच्छी खासी मांग है. प्रस्तावित परियोजना को दुसरी जगह ले जाये जाने की मांग करते हुए पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिती नें उडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को दिए ज्ञापन में कहा है कि "पान की खेती के कारण पूर्व में बलीपाल से इंटीग्रेटेड टेस्ट रेंज को बालेश्वर जिले के चांदीपुर ले जाया गया " इतना ही नहीं इस क्षेत्र के किसानों नें 1993...94 में आईओसीएल की प्रस्तावित रीफाइनरी को पारादीप स्थानांतरित करने को मजबूर कर दिया था.

आज से 5 वर्ष पहले उपरोक्त कंपनी पोस्को ने उडीसा सरकार के साथ 22 जून 2005 को उडीसा के जगतसिंहपुर जिले में स्टील फैक्ट्री लगाने के सहमति पत्र पर दस्तखत किया था. दक्षिण कोरिया की उक्त स्टील निर्माता कंपनी जगतसिंहपुर के अपने प्रस्तावित परियोजना में 51,000/- करोड़ के निवेश का लक्ष्य रखा था कंपनी को १.२ करोड़ टन स्टील सालाना उत्पादन के लिए ४००० एकड़ जमीन की जरूरत थी. उक्त सहमति पत्र ( एम्ओयू) की मियाद 5 वर्ष की थी जो कि 22 जून 2010 को ख़त्म हो गयी विभिन्न शर्तों वाली उक्त एम्ओयू में पांचवी शर्त या भी थी कि इस एम्ओयू की मियाद बढाई जा सकती है लेकिन इसके लिए पोस्को को इन ५ वर्षों में ढ़ांचा खड़ा करने के आलावा प्लांट स्थापना, मशीनों की फिक्सिंग, के अलावां पूजी विनियोग आवश्यक होगा अगर ऐसा नहीं किया गया तो एम्ओयू की मियाद कत्तई नहीं बढाई जायेगी.

शर्त के मुताबिक पोस्को नें प्लांट स्थापना, मशीनों की फिक्सिंग, और पूजी विनियोग तो दूर की बात है, एक इंच जमीन भी अपने नाम हस्तांतरित नहीं करवा सकी है. ऐसे में एम्ओयू रद्द हो जाना चाहिए. एमओयू की आठवीं शर्त यह थी कि नियत समय पर प्रकल्प का कार्य शुरू न होने की स्थिति में कंपनी को लोहा पत्थर खदान की लीज, कोयला की लीज व अन्य जो भी प्रोत्साहन सरकार देगी वो खुद-ब-खुद खत्म मानी जाएगी. इस स्थिती में पोस्को के पास सिवाय पुरानी हो चुकी एम्ओयू के अलावा कुछ भी नहीं बचा होना चाहिए। एमओयू की शर्त के अनुसार सरकार द्वारा दी गई तमाम सहूलियतें अपने आप एक्सपायर हो गई हैं.

पोस्को द्वारा जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे, पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिती सहित अन्य जनसंगठनों का कहना है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए जमीन अधिग्रहण करने पर आमादा नवीन पटनायक सरकार जनता के हितों के साथ समझौता कर रही है, परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों के विरूद्ध बढ़ रही पुलिस की नृशंसता पर पटनायक सरकार की मौन सहमती है. विस्थापन विरोधी कार्यकर्ताओं का कहना है कि परियोजना के लिए किसानों से 4000 एकड़ कृषि योग्य जमीन छिन जाने से जिले की तीन पंचायतों नवगांव, धिनकिया, गडकुजंगा और एरसामां ब्लाक के 30,000 लोग विस्थापित होंगे. स्थानीय किसान किसी भी कीमत पर अपनी उपजाऊ जमीनों को अधिग्रहण न करने देने पर अड़े हुए है. उनका कहना है कि इस परियोजना के लिए हमारी उपजाऊ जमीन को अधिग्रहित करने को प्रतिबद्ध सरकार यह बखूबी जानती है कि यहाँ की आबादी की रोजी-रोटी खेती पर ही निर्भर है.

विस्थापन विरोधी कार्यकर्ताओं का कहना है कि पटनायक सरकार किसानों की जमीन को जबरन हड़प कर पोस्तो के हवाले करना चाहती है. सरकार अपने इस घिनौने खेल में स्थानीय अदालतों को भी शामिल कर लिया है परियोजना का विरोध करने वाले आन्दोलनकारियों का नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ताओं के विरुद्ध झूठे आरोपों के तहत स्थानीय अदालतों द्वारा धडाधड वारंट जारी हो रहे है उन अदालती वारंटों के माध्यम से पुलिस द्वारा विस्थापन विरोधी कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न शुरू कर दिया गया है. उनके अनुसार परियोजना के नाम पर स्थानीय जनता से उनके रोजगार को छिन कर उनके जमीनों से उन्हें बेदखल करने के लिए भिन्न-भिन्न हथकंडों का प्रयोग किया जा रहा है यह गंभीर और चिंताजनक है. जनता के मतों से सत्ताशीन हुई सरकारें बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ मिलकर जनता को ही लूटने और तबाह करने हेतु सरकारी संसाधनों का प्रयोग कर रही हैं. परियोजनाओं की आड़ में बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ मिलकर इसी जन के शोषण का जो घिनौना खेल खेल रही है उसे देख कर बड़े-बड़े क्रूर माफिया भी शरमा जाय.

सरकार के सहयोग से जबरन जमीन हड़पने का सबसे विनाशकारी रास्ता कॉरपोरेट पूंजी अपना रही है. जबरन भूमि अधिग्रहण, कारपोरेट नेतृत्व, विकास का सबसे मारक हथियार बना हुआ है.ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता द्वारा निर्मित 1894 ई. का 'भूमि अधिग्रहण अधिनियम' को आजाद भारत के कर्ताधर्ताओं ने 1952, 1963 ओर 1984 में संशोधित कर और कठोर किया 2006 में इसमें पुनः संशोधन किया गया और साथ में पहली बार पुनर्वास और पुर्नस्थापन नीति भी बनी. किन्तु इस नीति को जमीन में उतारने को राज्य सरकारें इच्छुक नहीं दिखती. दूसरी ओर वही राजसत्ता 'जनहित' में कारॅपोरेट पूंजी के लिए उडीसा, छत्तीसगढ, झारखंड, मध्यप्रदेश, बंगाल में भूमि छीनने को आतुर है. मुआवजे की दर बिना किसानों, जमीन मालिको सें बात किये एकतरफा तय की जाती है. जबरन अधिग्रहण हेतु सशस्त्र पुलिस बल तक उतारा जा रहा है.

भारत में 1991 के वाद कॉरपोरेट घराने और पूजीपति विकास के नाम पर 'विकास का आतंकवाद' फैला रहे है निजीकरण और उदारीकरण के नाम पर हमारी सरकार नें 1992 के बाद लगातार औद्योगिक नीतियों को कॉरपोरेट हित में कमजोर किया 1992, 1996, 2001 और 2004 के बाद पूंजी निवेश को बढावा देने के लिए भूमि, राजस्व, खनन, श्रम आदि कानूनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अनुकूल और जन-विरोधी बनाया गया। केन्द्र और राज्य सरकारों ने पूँजी निवेश बढाने के लिए कई तरह कर (टैक्स) रियायतों की घोषणा की, जैसे, भूमि के लिए बीमा किश्त भरने से मुक्ति, 100 के.वी. तक मुफ्त बिजली, पानी टैक्स पर 30 से 40 प्रतिशत तक की छूट, केन्द्रीय शुल्क के भुगतान पर छूट, आयतित कच्चे माल पर शुल्क की छूट, व्यापारिक करों में 50 प्रतिशत तक की छूट. इस प्रकार भारत सरकार और अन्य राज्य सरकारों नें इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भरपूर मुनाफा कूटने का मौका दिया हुआ है.

आखिर ये जनकल्याण की बात करते नहीं थकने वाले, जनता द्वारा चुने हुए जनसेवक सत्ता पर काबिज होते ही बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ मिलकर उनके दलाल की तरह व्यवहार करते हुए जन के शोषण का खेल क्यों शुरू कर देतें है ? क्या इनका शोषण ही देश की जनता की नियती बन चुकी है ? क्या पोस्को की दलाली के सामने उन 30,000 लोगों का कोई मायने नहीं है जो इस परियोजना के बाद विस्थापन के शिकार होंगे ? आखिर क्यों उडीसा की पटनायक सरकार अपनी ही रियाया के विरुद्ध खलनायक भूमिका में उतर आयी है ? आखिर इन सवालों का जवाब किसके पास है ? इसका जवाब उन लाखों लाख आन्दोलनकारियों को कौन देगा जो पोस्को और अन्य बहुराष्ट्रीय निगमों के खूनी अपराध के शिकार है संवैधानिक रूप से जनता के प्रति उत्तरदायी सरकार, इन प्रश्नों का जवाब देनें से रही, क्योंकि जनता के हित में सरकारों का संचालन करने वाले ए लोग बहुराष्ट्रीय निगमों के गोद में जा बैठे हैं.