शनिवार, 26 नवंबर 2011

मनमोहन सरकार का जनविरोधी फैसला

भारत में पिछले दो सालों से जब लगातार खाद्य पदार्थों के दाम बढाये जा रहे थे तब भी शायद कुछ लोगों को मालूम था कि रणनीतिक रूप से नए-नए कीर्तिमान स्थापित करती इस कृत्रिम महंगाई के पीछे कौन है. देश के आम जन के सामने इसका खुलासा २४/११/२०११ गुरुवार रात ९. बजे उस समय हो गया जब खबर आयी कि सरकार में बैठे लोगों नें एक खतरनाक और जन विरोधी फैसला ले लिया है. गुरुवार को भारत के खुदरा बाजार में एफडीआई को कैबिनेट की मंजूरी मिल गई. कैबिनेट के इस फैसले नें खुदरा बाजार में विदेशी कंपनियों को मल्टी ब्रांड रिटेल में ५१ % की हिस्सेदारी और सिंगल ब्रांड रिटेल में १००% हिस्सेदारी के लिए छूट दे दी. इसी के साथ वर्षों से भारत के इस सघन खुदरा बाजार पर गिद्ध दृष्टी गडाए वालमार्ट (अमेरिका) केयरफोर (फ्रांस), टेस्को (ब्रिटेन) व मेट्रो (जर्मनी) जैसी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत में अपने मेगा रिटेल स्टोर श्रृंखला खोलने के रास्ते खुल गए.

वैसे तो मनमोहन सरकार नें वर्ष २००६ में ही एक ‘प्रेसनोट’ जारी कर निम्नलिखित शर्तों के साथ ‘सिंगल ब्रांड’ उत्पादों के खुदरा बाजार में ५१% तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत दे दी थी जिसमें कहा गया था कि (१) बिक्रय उत्पाद केवल सिंगल ब्राण्ड होना चाहिए, (२) उत्पादों को अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर उसी ब्राण्ड के तहत बेचा जाना चाहिए, (३) सिंगल ब्राण्ड उत्पाद रिटेलिंग में केवल वे ही उत्पाद शामिल होंगे, जिन्हें निर्माण के दौरान ही ब्राण्डेड किये जाते हैं. और अब कैबिनेट द्वारा एफडीआई को दी गई मंजूरी के नोट में खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के लिए निम्नलिखित शर्तों को शामिल किया है वे हैं (१) विदेशी कंपनियों के निवेश का ५० फीसदी आधारभूत सरंचना जैसे कोल्ड स्टोरेज, स्टोर जैसे इंतजामों पर खर्च करना होगा. (२) ३० फीसदी खरीददारी छोटे और मझौले आकार के उद्योगों से होगी. (३) १० लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में ही ऐसे स्टोर खोले जाएंगे.(४) ब्रांडेड और गैर ब्रांड की चीजों की भी बिक्री करनी होगी.(५) एक प्रोजेक्ट में कम से कम ५०० करोड़ रुपये का निवेश करना होगा.

सरकार के इस फैसले के साथ एक सवाल उभरता है कि उन करोड़ों खुदरा व्यापारियों का क्या होगा जो अपनी छोटी-छोटी पूंजी के साथ किराना का व्यवसाय कर अपनी आजीविका चला रहें है. एफडीआई के माध्यम से इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारतीय बाजारों में प्रवेश कराकर चाहे भारत सरकार जितने भी सब्जबाग दिखाये, खुदरा व्यापार में भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश से हमारे देश के आतंरिक व्यापार, बल्कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था के ताने-बाने को गंभीर खतरा पैदा हो जायेगा. बताते है कि भारतीय बाजार में मोनसेंटो नें पिछले ५ वर्षों में किसानों के उपयोग के लिए कीटनाशक और सीड्स बेच कर ५०० गुना मुनाफा कमाया है और वही पिछले ५ वर्षों में देश में ५५ हजार किसानों नें आत्महत्या की. मनमोहन सरकार द्वारा इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारतीय खुदरा बाजार के दरवाजे खोलने के उतावलेपन के बरक्स देखा जाय तो किसानों और कृषि के लिए हमारी सरकार की नीति क्या है ? देश में किसानों से उनकी जमीनें छिनी जा रही है आंकड़े बताते है कि एसीजेड और विकास के नाम पर किसानों से अब तक १०% उपजाऊ जमीन छीन ली गई है ऊपर से तुर्रा यह कि इससे किसानों को फायदा होगा. किसानों और कृषि नीति पर सरकार की अनदेखी किसी से छिपी नहीं है. किसानों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्या इसका ज्वलंत उदाहरण है.

यहाँ करीब डेढ़ दशक पहले की पंजाब की उस घटना की चर्चा जरूरी है जब पंजाब सरकार ने एक विदेशी कंपनी से समझौते के बाद राज्य के किसानों को टमाटर बोने के लिए प्रोत्साहित किया था. उस समय कंपनी ने वादा किया था कि वह किसानों से उचित मूल्य पर टमाटर खऱीदेगी और अपनी प्रोसेसिंग यूनिट में उससे केचप और दूसरी चीजें तैयार करेगी, लेकिन जब टमाटर का रिकार्ड उत्पादन होने लगा तो कंपनी तीस पैसे प्रति किलो की दर से टमाटर मांगने लगी. जिससे क्रुद्ध होकर किसानों ने कंपनी को टमाटर बेचने की बजाय सड़कों पर ही फैला दिए थे यानी किसानों को वाजिब हक कहां मिल पाया था. किसानों और उपभोक्ताओं को फायदा होने का तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि देश में जिन करोड़ों लोगों की जीविका गली-मुहल्ले में रेहड़ी-पटरी लगाकर सब्जी-भाजी बेचकर चलती है या गली के मुहाने की दुकान के सहारे रोजी-रोटी चल रही है, रिटेल चेन बढ़ने के बाद उन ४.५ से ५ करोड लोगों का क्या होगा.

मनमोहन जी आपके इमानदारी और काबिलियत पर मुग्ध होकर आपको इस देश नें बहुत कुछ दिया है आपसे लिया कुछ नहीं. आप पर भरोसा कर इस देश नें आपको रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया, विदेशी संस्थानों में आपको सम्मानित पदों पर बिठाया, आपके अर्थशास्त्रिय ज्ञान पर भरोसा करते हुए वित्त मंत्रालय की बागडोर दी, और अंततः इस देश के सर्वोच्च पद पर आपको पदासीन किया किन्तु आपने इस देश को क्या दिया. आपने इस देश को पूंजीवाद के अंधे कुंए में धकेलने की कोशिश की, आपने अपने कैबिनेट के लुटेरे सहयोगियों को भ्रष्टाचार के बड़े बड़े कीर्तिमान कायम करने की खुली छूट दी, आपने महंगाई को चरम पर पहुंचाया, आप लगातार देश के आम आदमी और गरीबों की उपेक्षा करते हुए धन पिपासुओं और पूंजीपतियों के हक में तमाम फैसले लेते रहे.

लेकिन अब खुदरा बाजार में एफडीआई को कैबिनेट की मंजूरी दिलवाने और उसे लागू करने के आपके फैसले के कारण इस देश की ३३% आबादी जिसका जीवन यापन इसी खुदरा कारोबार के भरोसे है, बुरी तरह प्रभावित होगी क्योकि इस खुदरा कारोबार में ४.५ से ५ करोड लोग प्रत्यक्ष रूप से, १० करोड लोग अप्रत्यक्ष रूप से शामिल है और इसी खुदरा कारोबार के वजह से ४० करोड लोगों का जीवन यापन हो रहा है. इन सभी से इनका रोजगार बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक झटके में छीन लेंगी और ये बेरोजगारी के शिकार होकर भुखमरी के कगार पर पहुंच जायेंगे. इसलिए मनमोहन सिंह जी आपको समझना चाहिए कि यह युद्ध-अपराध से भी बड़ा अपराध है. आपके इस जनविरोधी फैसले को यह देश कभी माफ नहीं करेगा और जब कभी इतिहास में आपको याद किया जायेगा तो “पूंजीवाद के दलाल” के रूप में ही याद किया जायेगा देश के एक सम्मानित नेता के रूप में नहीं. मनमोहन सिंह अगर देश के प्रधानमंत्री के रूप में आम आदमी के भले के लिए नहीं सोच सकते तो कम से कम राजनीतिक रूप से कांग्रेस के भले के लिेए तो सोचें ही क्योंकि इसका सबसे अधिक राजनीतिक नुकसान कांग्रेस को होगा.

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

सूचना अधिकार कानून को कमजोर करने की कयावद


देश के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह चाहते है कि सूचना के अधिकार कानून और इसके दायरे पर पुनर्विचार हो. श्री सिंह नें यह बात केन्द्रीय सूचना आयुक्तों के दो दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि इस कानून का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सरकार में विचार विमर्श की प्रक्रिया पर इसका कोई उल्टा असर हो या इससे ईमानदार और सही ढंग से काम करने वाले लोग अपनी बात से हतोत्साहित हों हालाँकि अपनें संबोधन में उन्होंने यह भी जोड़ा कि , "हम प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए सूचना के अधिकार को और ज़्यादा प्रभावी बनाना चाहते हैं." साथ में उन्होंने यह भी कहा कि निर्धारित समय में सूचना जारी करने और सार्वजनिक कार्यों में लगे अधिकारियों को मुहैया संसाधनों के बीच एक संतुलन बनाना ज़रूरी है. सवालों के जवाब में उन्होंने यह भी कहा कि "सूचना के अधिकार से सरकार में विचार-विमर्श की प्रक्रिया पर उल्टा असर नहीं होना चाहिए. हमें इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा.

डॉ. मनमोहन सिंह के अनुसार यह ऐसी चिंताएँ हैं जिस पर चर्चा होनी चाहिए और जिसका निबटारा किया जाना चाहिए." उन्होंने सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं के सुरक्षा से संबंधित विधेयक को अगले कुछ महीने में लाने की बात कही इस तरह लोक प्रशासन में गड़बड़ियाँ करने वालों को सामने लाने की कोशिश करने वालों के विरुद्ध हिंसा रोकने में आसानी होगी. प्रधानमंत्री का कहना है कि, "सूचना के अधिकार से जिन विभागों को अलग रखा गया है उन पर भी फिर से विचार करने की ज़रूरत है जिससे ये देखा जा सके कि वो व्यापक हित में हैं या उसमें बदलाव करना चाहिए." उन्होंने कहा कि 'निजता से जुड़े मुद्दों' पर विचार होना चाहिए. डॉ मनमोहन सिंह के इन वक्तव्यों से पता चलता है कि सूचना के अधिकार कानून से सरकार कहीं न कहीं त्रस्त जरूर है. और सूचना के अधिकार कानून की आलोचनात्मक दृष्टि से समीक्षा करके उसे कमजोर करना चाहती हैं.

आपको याद होगा तो बता दें कि सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से विवेक गर्ग नें प्रधानमंत्री कार्यालय से एक चिट्ठी प्राप्त किया था. जो कि 2जी स्पेक्ट्रम पर केन्द्रीय वित्त मंत्रालय की ओर से प्रधानमंत्री को भेजी गई थी इस चिट्ठी को वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की जानकारी में उनके मंत्रालय नें लिखा था. उस पत्र में प्रधानमंत्री को जानकारी दी गई थी कि 30 जनवरी 2008 को तत्कालीन संचारमंत्री ए. राजा से मीटिंग के दौरान तत्कालीन वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम नें पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम की नीलामी की इजाजत दी. जबकि स्पेक्ट्रम की नीलामी ज्यादा कींमत पर की जा सकती थी. दरसल वित्तमंत्रालय के अधिकारियों नें ग्रोथ के अनुपात में फीस तय करने की बात की थी. मंत्रालय 4.4 मेगाहड्स से ऊपर के स्पेक्ट्रम बाजार भाव से बेचना चाहता था किन्तु ए. राजा इससे सहमत नहीं थे और उन्होंने स्पेक्ट्रम की सीमा 6.2 मेगाहड्स कर दी और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम उस पर मान गए. वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की चिट्ठी में प्रधानमंत्री को यह बताया गया था कि अगर श्री पी. चिदंबरम चाहते तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को अपने अंजाम तक पहुंचने से रोका जा सकता था

इस चिट्ठी को लेकर श्री प्रणव मुखर्जी एवं श्री पी. चिदंबरम में काफी तनातनी देखने को मिली थी. जब इस चिट्ठी को लेकर कांग्रेस में घमासान चल रहा था ठीक उस समय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी अमेरिका की यात्रा पर थे वहां से वापस आने पर मनमोहन सिंह ने 2जी मसले पर आरोपों से घिरे पी चिदंबरम के साथ प्रणव मुखर्जी के साथ प्रधानमंत्री आवास पर बैठक की. प्रधानमंत्री के साथ बैठक के बाद प्रणब और चिदंबरम मे प्रेस को साझा नोट पढ़कर सुनाया गया इस नोट में प्रणब की तरफ से कहा गया कि 2जी मामले के बारे में उनके राय निजी नहीं हैं. उस समय प्रणब मुखर्जी ने चिदंबरम का बचाव करते हुए कहा कि 2008 में जो टेलीकॉम पॉलिसी सरकार ने अपनाई वो 2003 की ही पॉलिसी है जिसे एनडीए सरकार ने लाया था. प्रणब के इस बयान को पी चिदंबरम ने सहमति दिखाते हुए कहा था कि यह संकट अब टल गया है. इस पूरे मामले में कांग्रेस और सरकार की काफी किरकिरी हुई और यह सब आरटीआई के तहत विवेक गर्ग द्वारा पीएमओ से प्राप्त किये गए उस पत्र के कारण हुई थी जिसे वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी के मंत्रालय नें प्रधानमंत्री को भेजा था.

लेकिन लगता है कि सरकार द्वारा इस कानून में संशोधन कर इसे कमजोर करने की पृष्ठभूमि तैयार की जाने लगी है इसी क्रम में शुक्रवार को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा सूचना के अधिकार कानून के विषय में दिए गए वक्तव्य को बारीकी से देखने पर पता चलता है कि सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से पीएमओ से निकले वित्तमंत्रालय का पत्र जिसके कारण सरकार की किरकिरी हुई के आलावा एक से बढ़कर एक कामनवेल्थ से लेकर २जी स्पेक्ट्रम सरीखे घोटालों का लगातार खुलासा सूचना के अधिकार कानून की मदद हो रहा है. दरअसल सूचना के अधिकार अधिनियम को लागू हुए छ: साल हो गए और अब सरकार को इस कानून से रोजमर्रा के राजकाज में बड़ी बाधा का सामना करना पड रहा है. कानून लागू होने से लेकर लगभग चार सालों तक सरकार को फायदा हुआ. क्योंकि कानून के लागू होने के बाद से जनमत यह बना कि एक जवाबदेह सरकार अपने रोजमर्रा के राजकाज में पारदर्शिता लाने के लिए प्रतिबद्ध है. किन्तु दिल्ली में हुए कामनवेल्थ खेलों के लिए कराए गए निर्माणकार्य तथा खरीद पर हुए घोटाला एवं २जी स्पेक्ट्रम सरीखे घोटालों का खुलासा जब सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से होने लगा तो तभी से सरकार इस कानून को लेकर सकते में है. इन खुलासों से घबरायी सरकार सूचना के अधिकार कानून का पर कतरना चाहती है.

सूचना का अधि‍कार कानून देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सशक्त हथियार के रूप में तब प्राप्त हुआ जब संसद द्वारा सूचना का अधि‍कार अधि‍नि‍यम, 2005 पारि‍त कि‍या गया. और 15 जून, 2005 माननीय राष्ट्र पति‍ जी से सूचना का अधि‍कार कानून को स्वीकृति‍ प्राप्त हुई. अधि‍नि‍यम का उद्देश्य प्रत्येक सार्वजनि‍क अधि‍करण, केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग के गठन और उनसे संबद्ध या उनसे अनुषांगि‍क मामलों के कार्यों में पारदर्शि‍ता और जि‍म्मेदारी में संवर्धन करने के लि‍ए सार्वजनि‍क अधि‍करणों के नि‍यंत्रण के अंतर्गत नागरि‍कों को सूचना प्राप्ति सुनि‍श्चित करने के लि‍ए सूचना के अधि‍कार का व्यवहारि‍क वि‍धान स्थापि‍त कि‍ये जाने का प्रावधान किया गया. यह अधि‍नि‍यम जम्मू‍ एवं कश्मीयर राज्य को छोड़कर समस्तथ भारत में लागू है. समस्त अधि‍नि‍यम 12 अक्तूबर, 2005 से लागू होता है उक्त अधि‍नि‍यम के प्रावधान के अंतर्गत रा.स.वि.नि. सार्वजनि‍क अधि‍करण होने के नाते अधि‍नि‍यम के भाग 4(1) (ख) के अंतर्गत यथापेक्षि‍त वि‍शि‍ष्ट जानकारी प्रकाशि‍त कि‍ये जाने का दायि‍त्वा है.

अन्ना के जन लोकपाल से संबंधित आंदोलन को अलग करदें तो भारत में वास्तविक जमीनी और दूरदर्शी स्वतः स्फूर्त जनांदोलनों का अभाव है जो कि पूरी व्यवस्था को बदलने के लिए उत्पन्न हुये हों. आजादी के बाद से साल दर साल भारत का आम आदमी लगातार कमजोर हुआ है और भारतीय व्यवस्था तंत्र अधिक अमानवीय, असामाजिक तथा गैर जवाबदेह होता जा रहा है. ऐसी कमजोर हालत में सूचना के अधिकार जैसे कानून को जिस गंभीरता और दूरदर्शिता से संभालते और मजबूत करते जाने की अहम जरूरत थी, जिससे कि समय के साथ साथ धीरे धीरे इसी कानून से और भी बड़े तरीके विकसित करके सत्तातंत्रों को आम आदमी के प्रति जिम्मेदार बनने को विवश करके लोकतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों को संविधान के पन्नों में छापते रहने की बजाय यथार्थ में और जमीनी धरातल पर जीवंत उतार कर ले आया जाता. अब अगर प्रधानमंत्री सूचना के अधिकार कानून को हतोत्साहित कर रहे है तो इसमें कोई बड़ी बात नही क्योकि आजादी के बाद से ही हमारी सरकारें और अफसरशाही ने जरुरत से अधिक अधिकार पाये और वे खुद को मालिक और जनता को गुलाम माना, तो यदि आज आम जनता उनसे कुछ पूछे तो यह बात सरकार और अफसरशाही को कैसे बर्दाश्त होगी. इससे उनकी ‘निजता से जुड़े मुद्दों' पर सवाल जो खड़े होंगे? अतः यदि नेता व अफसर इस कानून को नुकसान पहुंचाते हैं या हतोत्साहित करते हैं तो यह कोई अचरज वाली बात नहीं क्योकि देश की आम जनता को मजबूत न होने देना और खुद को आम जनता का मालिक बनाये रखने के लिये तरह-तरह के हथकंडे अपनाना तो इनके मूल चरित्र में है.

चरम पर चरमराता मनमोहन का पूंजीवाद


दास्तोएव्स्की की डायरी ( द डायरी ऑफ ए राइटर) में उसनें पश्चिमी पूंजीवाद के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “हमारी सदी में एक भयानक क्रांति हुई इसमें बुर्जुआ वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) विजयी हुआ. बुर्जुआ वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) के उदय के साथ-साथ वहां भयानक शहर बनें जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता था. इन शहरों में आलीशान महल थे, अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियां थी, बैंक, बजट, प्रदूषित नदियाँ (नालों के रूप में) रेलवे प्लेटफार्म और कई तरह की संस्थाएं थी और इनके चारों ओर थे कारखानें. लेकिन इस समय लोग एक तीसरे चरण की प्रतीक्षा कर रहे है जिसमें बुर्जुआ वर्ग (पूजीवादी वर्ग) का अंत होगा, आम जनता जागेगी और वह सारी भूमी को कम्यूनों में वितरित करके बाग-बगीचों में रहने लगेगी. बाग-बगीचे ही नई सभ्यता को लायेंगे. जिस प्रकार सामंती युग के किलों की जगह शहरों ने ले ली उसी तरह शहरों की जगह बाग-बगीचे ले लेंगे यही सभ्यता के विकास की दिशा होगी. क्या दास्तोएव्स्की की पूंजीवाद के बारे में की गई टिप्पणी को पूंजीवाद पर गहराता मौजूदा संकट सच की तरफ ले जाता नहीं दिख रहा है?

हम कुछ सिद्धांतों से पूंजीवाद के इतिहास में घटित संकटों को समझाने की कोशिश करते है. इनमें से एक आपदा सिद्धांत है, इस सिद्धांत के तहत मानता है कि जिस समय पूंजीवाद के विरोधाभास अपने उच्चतम बिंदु पर पहुंचेंगें, पूंजीवाद स्वयं ढह जाएगा और स्वर्ग की एक नई सहस्राब्दी के लिए रास्ता बनाएगा. इस सर्वनाशवादी या अति अराजकतावादी विचार ने पूंजीवादी उत्पीड़न और शोषण से सर्वहारा की पीड़ा को समझने की राह में भ्रम तथा गलतफहमियां पैदा की हैं. बहुत से लोग इस तरह के एक गैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्रमित हुए हैं. एक और सिद्धांत है आशावाद, जिसे पूँजीपति वर्ग हमेशा समाज को अपना उपभोक्ता बनाते हुए उसमें फैलाता है. इस सिद्धांत के अनुसार, पूँजीवाद में अपने विरोधाभासों से उबरने के साधन मौजूद हैं और असल अर्थव्यवस्था सट्टेबाज़ी को नष्ट करके ठीक काम करती है. पूंजीवादी प्रतियोगिता की पद्धति की अराजकता पूंजीवादी संकट का एक अन्य कारण है. यह केवल आभासी वक्तव्य नहीं बल्कि चरितार्थ होता दिख रहा है कि पूंजीवाद पतन पर है यह आकस्मिक विनाश की ओर नहीं बल्कि व्यवस्था के एक नए पतन, पूंजीवाद के अंत होते इतिहास की आखिरी मंजिल की ओर बढ़ रहा है. यह केवल और केवल पूंजीवाद की देन है कि रोज़ दुनिया में एक लाख लोग भूख से मरते हैं, हर 5 सेकण्ड में पांच साल का एक बच्चा भूख से मर जाता है. 84 करोड लोग स्थायी कुपोषण के शिकार हैं और विश्व की 600 करोड की आबादी का एक तिहाई हर रोज़ बढ़ती कीमतों के चलते जीने के लिए संघर्ष कर रहा है.

दुनिया के दखते-देखते ३०-४० सालों में पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया. कहते है कि कोई जब अपने अंतिम चरम पर पहुंच जाता है तो उसके सामने ढलान की तरफ धीरे-धीरे आने के आलावा एक रास्ता और बचता है कि बिना किसी सहारे के तेजी से निचे आते हुए अपने आप को ध्वस्त कर ले. क्या पूंजीवाद की स्थिती इससे अलग है? क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि पूंजीवाद मौजूदा समय में गहरे संकट में है. दरअसल पूंजीवाद की इस विफलता की की हकीकत को समझने के लिए हमें पूंजीवाद के दो मुख्य सिद्धांतों को समझना होगा जिसमें पहला “मनुष्य अक्लमंद होते हैं, और बाजार का बर्ताव दोषपूर्ण” दूसरा “बाजार स्वयं अपने दाम निर्धारित करता है” पूंजीवाद के ये दोनों सिद्धांत ही गलत हैं. ओईसीडी के महासचिव खोसे अंखेल गूरिया अभी हाल ही में पूंजीवादी व्यवस्था के फेल हो जाने संबंधी कुछ बातों को स्वीकार करते हुए कहा है कि “मुझे लगता है कि नियामक के तौर पर हम असफल रहे, निरीक्षक के तौर पर असफल रहे और कार्पोरेट व्यवस्थापक के तौर पर असफल रहे, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की भूमिका और जिम्मेदारियां बाटनें में भी हम असफल रहे, हमारी वित्तीय असफलता तुरंत ही असल अर्थ व्यवस्था में फ़ैल गई, वित्तीय संकट से हम सीधे आर्थिक अपंगता और उसके बाद सीधे बेरोज़गारी के संकट तक पहुँच गए हैं.

पूंजीवाद के पैरोंकारों की इस स्वीकारोक्ति से क्या हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को कुछ सीख लेनी चाहिए या फिर वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ की नीतियों का अंधानुकरण ? दरसल देश का आम आदमी वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ द्वारा निर्देशित और बहुप्रचारित मौजूदा मनमोहनोंमिक्स अर्थनीति के पेचीदगियों से नावाकिफ है. उसे न केवल महंगाई, बेकारी, भ्रष्टाचार, आदि से निजाद चाहिए बल्कि उसे चाहिए पर्याप्त भोजन, आवास, चिकित्सा और शिक्षा. उसे मनमोहनोंमिक्स के भौतिक विकास से भी शायद कोई मतलब नहीं है. नब्बे के दशक में इक्कीसवी सदी के आगमन का हवाला देते हुए जिस वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण को अपनाया गया और इसके विषय में देश की आम जनता को चिकनी-चुपड़ी बातों से बरगलाते हुए वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ की नीतियों को जबरन थोपा गया तथा वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण के फायदे गिनाते हुए इसकी शान में जो कसीदे पढे गए. मॉरिशस ट्रीटी के रास्ते आवारा पूंजी के आगमन के साथ देश में विकृत विकास कार्यों की झड़ी लगाई गई. कहा जाने लगा कि मनमोहन के आर्थिक नीतियों के मद्देनजर भारत का कायाकल्प हो रहा है. मॉरिशस तथा अन्य रास्तों से देश में आयी आवारा पूंजी के बल पर फिजूलखर्ची के बड़े-बड़े रिकार्ड कायम करते हुए जहां एक तरफ सुपर एक्सप्रेस हायवे, मीलों लंबे फ्लाईओवर, ऊँचे-ऊँचे बांध, लम्बे टनल, अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे, जम्बो साईज क्रीडा स्थल और पर्यटन के लिए ऐशगाह निर्माण कराया गया वही दुसरी तरफ राज्य टिप्स समझौते, व्यापार घाटे, कर्ज के भार, मूल्यवृद्धि, सरकारी कोषों के दिवालिएपन और भ्रष्टाचार जैसे अपराधों के मकडजाल में फसता गया.

‘कार्पोरेट और मध्यवर्ग भारत’ के लिए इस मनमोहनी अर्थशास्त्र नें एक स्वर्ग सा निर्मित कर दिया था लुटेरों घोटालेबाजों दलालों दरबारियों और गुटबाजों से बना यह कार्पोरेट और मध्यवर्ग खूब मजे लूटा. मजे पश्चिमोन्मुख पांच सितारा किस्म के जीवन के, चहुमुखी व्याप्त वीआयपी मार्का शानों शौकत के मंत्रियों के लिए ऐशों आराम के असीमित साधनों के, माफियाओं को दी जा रही खुली छूट के, सर्वत्र व्याप्त और सब पर हावी भ्रष्टाचार के और ‘दरिद्र भारत’ का क्या हाल रहा? वह भूख से तड़पने, आत्महत्या का खौफनाक रास्ता अपनाने, बीमारी से कराहने, इलाज और भोजन के आभाव में मरने, किसानो ग्रामीणों जनजातियों सर्वहाराओं की ९० करोड से भी अधिक की तादात खून-पसीना बहाकर हाडतोड मेहनत करके भी आंसू पीकर गुजारा करती रही तथा निरक्षरता और कंगाली को ढोने को अभिशप्त रही. ये शर्मनाक अंतर्विरोध देश के लिए क्या भयानक बीमारी के लक्षण नहीं थे? क्या शुरुआती दौर में ही इसकी पडताल नहीं होनी चाहिए थी? लेकिन पूंजीवाद के पैरोकारों नें ऐसा नहीं किया. सत्ता के शिखर पर रीढ़ विहीन नायक विराजमान थे जो आज मौजूद है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक की तिकड़ी के दलाल के रूप में शासन कर रहे हैं. पूंजीवाद के समक्ष घुटने टेककर साष्टांग दंडवत कर प्रार्थनाओं का दौर चल रहा है गांधी के देश में सत्ता पर काबिज लोग जो गांधी को सत्ता का प्रतीक मानते है उनकी नजर में समाजवादी होना वैचारिक जुर्म मान लिया गया है, इतना ही नहीं समाजवाद को विकास के मार्ग में रोडे अटकानेवाला जानी दुश्मन भी करार दिया गया है.

महंगाई, पेट्रोल-डीजल के दाम बढाने और गरीबों, किसानों को दी जा रही सब्सिडी को घटाने के संबंध में अड़ियल रवैया अपनाना-इन सबसे जाहिर होता है कि देश के शासकों के मन में एक साम्राज्यवादी मानसिकता जोर मार रही थी लेकिन अब जब दुनिया मंदी की चपेट में हैं और इस मंदी की मार से ‘मध्यवर्ग भारत’ भी नहीं बच पाया है. ऐसे में वह भी मनमोहन के आर्थिक नीतियों के विरुद्ध खड़ा होता दिखाई दे रहा है. मनमोहन की उदारवादी नीतियों का रास्ता पूंजीपतियों के घर तक तो जाता है लेकिन आम आदमी के घरों को बाईपास करते हुए निकलता है. अब यह कांग्रेस को सोचना है कि अगले चुनावो में सत्ता का स्वाद उन पूंजीपतियों के वजह से चखने को मिलेगा या उस आम आदमी के वजह से जिसे मनमोहन और उनकी मंडली बचकर निकलने के लिए बाईपास का रास्ता अख्तियार कर चुकी है. अगर कांग्रेस यह खुशफहमी पाल बैठी है कि ‘अगले चुनाव तक मतदाता सरकार की जनविरोधी नीतियों को भूल कर उसे ही वोट करेंगे’ तो यह उसकी गलतफहमी है. मनमोहन के पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार के नए-नए कीर्तिमान कायम हो रहे है किन्तु देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए किसी एक पार्टी या नेता को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं होगा. क्योकि इसमें सभी शामिल हैं. यह अलग बात है कि सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार डॉ मनमोहन सिंह और उनकी आर्थिक नीतियाँ हैं जो पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था के लूट के अर्थशास्त्र की पोषक हैं. अब समय आ गया है जब कांग्रेस को यह तय करना है कि देश और आम आदमी का विकास समाजवादी अर्थव्यवस्था जिसे पंडित नेहरु नें अपनाया था, के माध्यम से होगा या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के माध्यम से जो कि पश्चिमी पूंजीवाद के नाम से जाना जाता है और जिसका खेल अब लगभग खत्म होने को है.

विरोध को दबाने की सरकारी मुहिम


देश में सत्ताधारी लोग और सरकारें नागरिक समाज के लोगों, सरकारी अधिकारियों और विरोधी दल के कार्यकर्ताओं को डरा-धमका रहे हैं. तथा उनके खिलाफ झूठे मुकद्दमें कायम करने में मसगूल हैं और ये काम बड़े ही सुनियोजित तरीक़े से किया जा रहा है. वैसे तो विरोधियों को ठिकाने लगाने का सत्ताधारियों का काफी पुराना रिकार्ड रहा है. लेकिन पिछले कुछ दिनों से खुलेआम और बड़े ही बेशर्म तरीके से सत्ताधारी अपनें विरोधियों को कुचलने पर आमादा हैं. इतना ही नहीं जब कोई सामाजिक कार्यकर्ता या समाजसेवी एक पार्टी के विरुद्ध बोलता है तो वह पार्टी तत्काल उक्त समाजसेवी को विरोधी पार्टी के एजेंट के रूप में प्रचारित करने लगती हैं. मोटे तौर पर यह दिखाई दे रहा है कि देश में जितनी पार्टियों की सरकारें सत्ता पर काबिज हैं लगभग सभी सरकारें अपनें विरोधियों के दमनचक्र को पुरजोर तरीके से चला रहीं हैं.

इनके इस रवैये से देश में लोकतंत्र और मानवाधिकारों को गंभीर खतरा पैदा हो गया है. इस दमनचक्र के ताजा शिकार जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रहमण्यम स्वामी, गुजरात के आईपीएस संजीव भट्ट, मध्यप्रदेश इंदौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक प्रभात किरण का मुस्सविर नाम से कार्टून बनाने वाले पत्रकार कार्टूनिष्ट हरीश यादव, बिहार विधान परिषद के कर्मचारी कवि मुसाफिर बैठा और युवा आलोचक अरुण नारायण तथा आदिवासी हकों के सपने देखने वाला लिंगाराम सहित अन्ना हजारे और बाबा रामदेव शामिल हैं. चाहे वह यूपीए के सरकार हो अथवा एनडीए की इसे संयोग ही कहेंगे कि सभी सत्ताधारियों का अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों के विरुद्ध दमनचक्र का तरीका एक ही है.

जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रहमण्यम स्वामी के खिलाफ मामला दर्ज किया है यह मामला दिल्ली स्थित नेहरु प्लेस के क्राईम ब्रांच नें दर्ज किया है. बताया या जा रहा है कि बीते जुलाई महीनें में सुब्रहमण्यम स्वामी नें एक अखबार में मुसलमानों के संबंध में एक लेख लिखा था. जिसके कारण समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंची थी. इसी मामले को लेकर अगस्त महीने में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा पटियाला हाउस कोर्ट में असगर खान नामक एक वकील द्वारा दर्ज कराई गई थी. पुलिस के मुताबिक उसी शिकायत के आधार पर सेक्शन १५३-अ, १५३-ब, और २९५-अ आदि धाराओं में मुकद्दमा दर्ज कराया गया है पुलिस के अनुसार पुलिस नें सीधे इस शिकायत को दर्ज नहीं की है. अगर आपको पता होगा तो बता दें कि १ लाख ७६ हजार करोड का २जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मामले को सुब्रहमण्यम स्वामी द्वारा ही अदालत में ले जाया गया है. जिसके कारण घोटाले में तमाम लोगों के संलग्न होने के प्रमाण सामने आते जा रहे है २जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा, कनिमोझी, सिद्धार्थ बेहरा, गौतम दोषी, करीम मोरानी, शाहिद बलवा, राजीव अग्रवाल, आदि जेल की हवा खा रहे है इस घोटाले को लेकर कहा जाता है कि डीएमके के दयानिधि मारन पर भी तलवार लटक रही है. तथा इस मामले की आंच से कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम भी नहीं बच पाए हैं इतना ही नहीं सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला में उनका अगला खुलासा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को लेकर हैं. स्वामी ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम मामले में पहले पूर्व टेलिकॉम मंत्री ए. राजा, डीएमके सांसद एम.के. कनिमोड़ी, पूर्व केंद्रीय मंत्री दयानिधि मारन और गृह मंत्री पी. चिदंबरम की भूमिकाओं का खुलासा कराने के बाद अब उनका अगला खुलासा रॉबर्ट वाड्रा को लेकर है. संभवतः सुब्रहमण्यम स्वामी की सत्ताधारियों के विरुद्ध इसी सक्रियता के कारण इनके ऊपर एफआईआर दर्ज किया गया लगता है.

गुजरात के आईपीएस संजीव भट्ट पर आरोप है कि एक कांस्टेबल के. डी. पंत को धमकाया और झूठे हलफनामे पर हस्ताक्षर करवाया. गुजरात पुलिस नें संजीव भट्ट को उक्त कांस्टेबल को धमकाने और झूठे हलफनामें पर हस्ताक्षर करवाने के आरोप में घाटलोदिया पुलिस थाने मे एक प्राथमिकी दर्ज कर उन्हें हिरासत में ले लिया है शिकायतकर्ता कांस्टेबल नें आरोप लगाया है कि संजीव भट्ट नें उसे धमकाते हुए २७ फरवरी २००२ को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बुलाई गई उच्चस्तरीय बैठक में गलत हलफनामें पर हस्ताक्षर करवाया. गुजरात के पुलिस महानिदेशक चितरंजन सिंह का कहना है कि संजीव भट्ट के विरुद्ध दर्ज प्राथमिकी के संबंध में भट्ट को पूछताछ के लिये बुलाया गया था. उनका बयान दर्ज किया जायेगा. वर्ष 2002 के दंगों के दौरान भट्ट के अधीन काम कर चुके कांस्टेबल के. डी. पंत ने प्राथमिकी दर्ज कराते हुए आरोप लगाया था कि भट्ट ने एक सरकारी कर्मचारी यानी उन्हें धमकाया, सबूतों को गढ़ा और गलत तरीके से उन पर दबाव बनाया. पंत ने अपनी प्राथमिकी में आरोप लगाया कि उन्हें भट्ट ने 16 जून को फोन किया और उनसे किसी काम के सिलसिले में घर पर आने को कहा. जब पंत भट्ट के आवास पर पहुंचे तो आईपीएस अधिकारी ने उन्हें बताया कि मुकदमे में मदद करने के लिये उच्चतम न्यायालय की ओर से नियुक्त वकील 18 जून को आयेंगे और उन्हें बयान दर्ज कराने के सिलसिले में उनसे मुलाकात करनी होगी. पंत का आरोप है कि भट्ट ने उनसे कहा कि वकील को बताया जाये कि विशेष जांच दल (एसआईटी) ने उनका बयान जबर्दस्ती दर्ज किया था. जब पंत ने इस बात का विरोध किया तो भट्ट ने कथित तौर पर उन्हें धमकी दी. भट्ट ने पंत से कहा कि अगर वह उनके कहे अनुसार काम करते हैं तो इसमें कोई चिंता की बात नहीं है. पुलिस कांस्टेबल पंत का यह भी दावा है कि भट्ट उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अर्जुन मोधवाडिया के पास ले गये. कांग्रेस नेता ने भी पंत को आश्वासन दिया कि इसमें चिंता करने की बात नहीं है और उन्हें वही करना चाहिये जो भट्ट कह रहे हैं. मोधवाडिया से मिलने के बाद भट्ट पंत को गुजरात उच्च न्यायालय के निकट एक वकील और नोटरी के दफ्तर ले गये और उनसे दो हलफनामों पर हस्ताक्षर करवाये. ‘दरअसल भट्ट ने उच्चतम न्यायालय में दायर अपनें हलफनामे में आरोप लगाया है कि गोधराकांड के बाद गुजरात में हुए दंगों में मोदी की कथित तौर पर सहअपराधिता थी.’ यहाँ सवाल यह उठना स्वाभाविक है कि पुलिस कांस्टेबल पंत अगर एक आईपीएस अधिकारी के कहने से हलफनामे पर हस्ताक्षर कर सकता है तो एक मुख्यमंत्री के कहनें पर एक आएपीएस अधिकारी पर झूठे आरोप नहीं लगा सकता ?

मध्यप्रदेश इंदौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक प्रभात किरण के पत्रकार कार्टूनिष्ट हरीश यादव जो कि मुस्सविर नाम से कार्टून बनाते हैं को गिरफ्तार कर लिया गया है. ज्ञात हो कि नरेंद्र मोदी के सद्भभावना अनशन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्से से आये लोग अपने यहां के प्रतीक चिन्ह के तौर पर वस्तुएं मोदी को भेंट कर रहे थे. मोदी उन चीजों को स्वीकार कर रहे थे और ये चीजें मामूली होते हुए भी उस इलाके की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है. इसी दौरान एक सामान्य मुसलमान जो कि पिछले दो दिनों से इंतजार कर रहा था कि वो भी नरेंद्र मोदी को कुछ दे और उसने नरेंद्र मोदी को टोपी दे दी और पहनने का आग्रह किया. ये बहुत ही संवेदनशील और भावुक क्षण था और अगर वो उसे पहनते, तो संभव था कि मुसलमानों के बीच बहुत ही अलग किस्म का सकारात्मक संदेश जाता लेकिन नरेंद्र मोदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया जिससे उनके छद्म सद्भावना अनसन की पोल खुल गई. इसी थीम को लेकर मुस्सविर नाम से बनाया गया कार्टून प्रभात किरण में २० सितंबर को छपा और इस मामले में मोदी के कहने पर मध्यप्रदेश सरकार नें धार्मिक भावनाये भडकाने के आरोप में मल्हारगंज थाने में हरीश यादव के खिलाफ आईपीसी के धारा– 295 ए के तहत मुकदमा दर्ज कर हरीश यादव उर्फ मुस्सविर को गिरफ्तार कर लिया. दरसल जिस चांद-सितारे को कार्टून में दिखाया गया है, उसकी व्याख्या इस्लाम धर्म के जानकार बेहतर कर सकते हैं? क्या इस धर्म में चांद-सितारे की उसी अर्थ में व्याख्या है, जिस अर्थ में मुस्सविर पर धार्मिक भावनाएं भड़काये जाने के लिए सजा दी गयी? ये सिर्फ और सिर्फ उस एक सामान्य मुसलमान की भावनाओं की अभिव्यक्ति है, जो कि नरेंद्र मोदी को टोपी भेंट में देना चाहता था. दरसल मुस्सिवर पर जो कानूनी कार्रवाई की गयी, वो शिवराज सिंह चौहान के आदेश पर की गयी, जिस समय वो चीन के दौरे पर थे. नरेंद्र मोदी ने यहां तक कहा कि आप इंदौर में मामला दर्ज करवाएं नहीं तो फिर अहमदाबाद में करवाया जाएगा. शिवराज नें मोदी के दबाव के कारण रातोंरात कार्रवाई की इस कार्रवाई को दरअसल इस लिए भी आनन्-फानन में अंजाम दिया गया क्योंकि गुजरात और मध्यप्रदेश दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है.

कमोबेस यही स्थिती बिहार की भी है. वहां भी अपने विरुद्ध उठ रही हर आवाज को राजग सरकार क्रूरता से कुचल देनें पर आमादा है. और इन परिस्थितियों में राजग सरकार को आईना दिखाने में सक्षम लोग अथवा बुद्धिजीवी या तो आपसी राग-द्वेष डूबे हुए है या फिर जाति-बिरादरी के नाम पर बंटकर बिहार की तानाशाही सरकार और उसके कर्ताधर्ता के इस नंगे नाच को देखकर भी चुप हैं. दिनांक १६ सितंबर २०११ को बिहार विधान परिषद नें अपने दो कर्मचारियों को केवल इस लिए निलंबित कर दिया क्योकि वे फेसबुक पर परिषद के अधिकारियों असंवैधानिक भाषा का प्रयोग करते है तथा उनके बारे में ‘दीपक तले अँधेरा’ जैसी लोकोक्ति का इस्तेमाल करते हैं और लिखते हैं कि बिहार विधान परिषद जिसकी मै नौकरी करता हूँ वहां विधानों की धज्जियाँ उडाई जाती हैं. अरुण नारायण के निलंबन के लिए भी कुछ इसी तरह के बहाने गढे गए. हिन्दी फेसबुक पर कवी मुसाफिर बैठा अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. और अरुण नारायण नें पिछले एक महीने से फेसबुक पर अपना एकाउंट बनाया था. उपरोक्त टिप्पणियों का जिक्र इन दोनों को निलंबित करते हुए किया गया है. फेसबुक पर टिप्पणी करने के कारण संभवतः हिंदी प्रदेश का पहला उदाहरण है. मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण ए दोनों हिंदी साहित्य की दुनिया के परिचित नाम हैं. मुसाफिर बैठा ‘हिंदी की दलित कहानी’ पर पीएचडी की है तथा अरुण नारायण का बिहार की पत्रकारिता पर एक महत्वपूर्ण शोधकार्य है. मुसाफिर और अरुण के निलंबन के तीन-चार महीने पहले बिहार विधान परिषद से उर्दू के कहानीकार सैयद जावेद हसन को नौकरी से निकाल दिया गया उनके ऊपर भी कुछ इसी तरह के आरोप लगाये गए थे. वस्तुतः इन तीनों लेखक कर्मचारियों का निलंबन, पत्रकारों को खरीद लेने के बाद बिहार सरकार द्वारा काबू में नहीं आने वाले लेखकों व पत्रकारों के विरुद्ध की गई है. बड़े अख़बारों और चैनलों को चांदी के जूते उपहार में देकर अपना पिट्ठू बना लेना तो बिहार सरकार के बस में है लेकिन अपनी मर्जी के मालिक और बिंदास लेखकों पर नकेल कसना राजग सरकार के लिए संभव नहीं हो रहा था परिणामस्वरूप इनको निलंबित किया गया.

ठीक यही कहानी आदिवासी हकों के सपने देखने वाला लिंगाराम के साथ भी दुहराई गयी उसे नक्सलियों का सहयोगी बताकर छत्तीसगढ़ पुलिस नें गिरफ्तार कर लिया. लिंगाराम के बारे में बताया जाता है कि छत्तीसगढ़ स्थित दंतेवाडा के पूर्व डीआयजी कल्लूरी और एसपी अमरेश मिश्रा नें जबरन एसपीओ बनाने के लिए ४० दिन तक दंतेवाडा थाने के शौचालय में भूखा रखा था जिसे स्थानीय मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार नें छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से मुक्त कराया था. और मुक्त होने के बाद वह दिल्ली जाकर पत्रकारिता की पढाई करने लगा. उसी दौरान डीआयजी कल्लूरी और एसपी अमरेश मिश्रा नें एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए कहा कि लिंगाराम कोडोपी कांग्रेसी नेता अशोक गौतम के घर हुए हमले का मास्टर माइंड है, लेकिन जब दिल्ली में शोर मचा कि लिंगाराम तो दिल्ली में है तो दंतेवाडा में कैसे हमला करेगा? तो तत्कालीन पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन नें कहा कि ए प्रेस विज्ञप्ति गलती से जारी हो गई थी. किन्तु अगर उस समय लिंगाराम छत्तीसगढ़ में रहा होता तो उसे नपने से कोई नहीं रोक सकता था. ! खैर गलती तो अक्सर प्रशासन से हो जाया करती है ! बहरहाल बताया जाता है कि दिल्ली से लिंगाराम अपना मिट्टी का घर बनाने गया था. वह अपने दादाजी के घर पर था कि कुछ सादे कपड़े में पुलिस वाले आकार उसे उठा ले गए और नक्सलियों को पैसा पहुँचाने के झूठे आरोप लगाकर उसे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया हाँ लिंगाराम का यह कसूर अवश्य है कि उसनें आदिवासियों के अधिकारों को शासन प्रशासन से मान्यता दिलवाने का सपना देखा.

इसी तरह अन्ना हजारे के जनलोकपाल लाने संबंधी अनसन को न होने देने के लिए उन्हें जेल में डालने से लेकर. रामलीला मैदान में काले धन के बारे में बाबा रामदेव सहित उनके सोये हुए समर्थकों पर आधी रात के समय दिल्ली पुलिस द्वारा किये गए लाठीचार्ज जिसमें अभी हाल में एक महिला की मौत हो गई को अंजाम देना कहाँ तक उचित है. क्या कारण है कि लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से सत्ता पर काबिज हुए लोग उसी लोकतंत्र को दरकिनार कर अचानक तानाशाह बनते जा रहे हैं अतः अब समय रहते देश के नीति-निर्धारकों को इस तथ्य पर गंभीर विचार करते हुए कि मौजूदा सरकारें जो कि अपने विरोधियों को सिर्फ कानून के दुरूपयोग और हिंसा से कुचलने पर आमादा हैं उन्हें रोकने के उपाय करने होंगे. अगर समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे पड़ोसी देशों की तरह हमारा भी नाम भी लोकतान्त्रिक स्तर पर (फेल) नाकाम राष्ट्रों में सुमार कर दिया जाएगा. नीतिगत विरोधियों के सम्मान की रक्षा भी सरकार का दायित्व है ये वही लोग हैं जो सरकार और शासन प्रशासन के जनविरोधी नीतियों का विरोध करते हुए उसमे व्यापक सुधार की मांग करते हैं. जो कि फौरी तौर पर भले ही सरकार और शासन प्रशासन के विरुद्ध दिखें लेकिन वस्तुतः वे दीर्घकालिक तौर पर सरकारों को अलोकप्रिय होने से बचाते हैं और उन्हें जन विरोधी फैसले लेने से रोककर आगामी चुनाओं में जनता को चेहरा दिखाने लायक बना देते हैं. किन्तु यही सरकारें दुर्भावनावश वस उन्हें प्रताड़ित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने नहीं देती. अगर ये सभी विसलव्लोवर अपने-अपने कामों का बहिष्कार कर दें तो समाज की गति थम जाएगी. और यह देश निरंकुशता के भंवर में फंस जायेगा. यह माना कि अपने विरोधियों के दमन की मानसिकता जो कि सदियों से सत्ताधारियों के दिमाग में अपनी विक्षिप्तता के साथ घर कर गई हैं को एक झटके में हटा पाना आसान नहीं है, परतु यह काम असंभव भी नहीं है.

32 रूपये में कैसे जियेंगे मनमोहन जी?




देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की अध्यक्षता के अंतर्गत आधारभूत संरचना और मानव विकास के लिए पुख्ता योजनाये बनाने का दावा करने वाली केन्द्र सरकार की संस्था योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय को बताया है कि खानपान पर शहरों में 965 रुपये और गांवों में 781 रुपये प्रति महीना खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता है. गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है.

अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष हलफनामे के तौर पेश की है. इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हस्‍ताक्षर किए हैं. योजना आयोग ने गरीबी रेखा पर नया मापदंड सुझाते हुए कहा है कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नै में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपये खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं कहा जा सकता.

योजना आयोग के इस हास्यास्पद परिभाषा पर हो-हल्ला मचना शुरू हो चुका है. रिपोर्ट के मुताबिक, एक दिन में एक आदमी प्रति दिन अगर 5.50 रुपये दाल पर, 1.02 रुपये चावल-रोटी पर, 2.33 रुपये दूध, 1.55 रुपये तेल, 1.95 रुपये साग-सब्‍जी, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्‍य खाद्य पदार्थों पर, 3.75 पैसे रसोई गैस व अन्य ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्‍वस्‍थ्‍य जीवन यापन कर सकता है. साथ में एक व्‍यक्ति अगर 49.10 रुपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नहीं कहा जाएगा. योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवा पर 39.70 रुपये प्रति महीने खर्च करके आप स्वस्थ रह सकते हैं। शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा जायेगा. यदि आप 61.30 रुपये महीनेवार, 9.6 रुपये चप्पल और 28.80 रुपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं कहे जा सकते.

योजना आयोग ने गरीबी की इस नई परिभाषा को तय करते समय 2010-11 के इंडस्ट्रियल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और तेंडुलकर कमिटी की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का लेखा-जोखा दिखाने वाली रिपोर्ट पर गौर किया है. हालांकि, रिपोर्ट में अंत में कहा गया है कि गरीबी रेखा पर अंतिम रिपोर्ट एनएसएसओ सर्वेक्षण 2011-12 के बाद पेश की जाएगी. ज्ञात हो कि उच्चतम न्यायालय ने गत 29 मार्च को 2004 के लिए निर्धारित मानदंडों के आधार पर वर्ष 2011 में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों का निर्धारण करने पर मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लिया था. कोर्ट ने योजना आयोग की सिफारिशों के आधार पर गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की आबादी 36 प्रतिशत होने के सरकारी दावों पर सवाल उठाते हुए सरकार से इसका विवरण माँगा था. न्यायाधीशों का कहना था कि 2004 में दिहाड़ी मजदूरी 12 रु. और 17 रु. थी, लेकिन क्या आज यह वास्तविकता है. इतने पैसे में आज क्या होता है? न्यायाधीशों का यह भी कहना था कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन में भी साल में कम से कम दो बार बदलाव होता है, लेकिन गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने में मानदंडों में सात साल में कोई बदलाव नहीं करना आश्चर्य पैदा करने वाला है.

आज देश का गरीब आदमी अपने ही नीतिनिर्धारकों द्वारा तय किये गए 'नव आर्थिक उदारीकरण' की मार झेल रहा है. उसकी जमीन, पानी और रोजी-रोटी राज्य द्वारा कब्जाई जा रही हैं ताकि सब कुछ बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और धन्ना-सेठों की खनन, सेज और दूसरे बड़े-बड़े प्रोजेक्टों, आदि के लिए दी जा सकें. जहाँ एक ओर पिछले 10 सालों में देश के कारपोरेट घरानों को 22 लाख करोड रूपये ( टेक्स आदि में छूट के माध्यम से) दे दिया गया वहीं देश के गरीब आदमी को सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी को खत्म करने की सोची-समझी रणनीति के तहत, योजना आयोग, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में काम कर रहा है. अब ऐसे में उस उच्चतम न्यायालय को उन गरीबों की मदद के लिए आगे आना चाहिए, जिनके अधिकार छीनने की मंसा से योजना आयोग उच्चतम न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है. कोई मनमोहन, मोंटेक अर्थशास्त्रीद्वय, की मंडली से कोई यह पूछे की आपकी झक्क सफेदी जो कि आप सभी के पहनावे में झलकती है और क्रीच टूट जाने पर तत्काल बदल दी जाती है ( दिन में 3 बार) कितना खर्च आता है ? ( संभवतः 23 रूपये से कई गुना ज्यादा होगा) तो आपने यह कैसे मान लिया कि देश का आम आदमी केवल 32 रूपये रोज गुजारा कर लेगा ?

जब देश में वैश्वीकरण की नीतिया लागू की जा रहीं थी उस समय तमाम बुद्धिजीवियों नें जो आशंका व्यक्त की थी कि अगर वैश्वीकरण की नीतियों पर चल कर उदारीकरण और ग्लोबलीकरण को अपनाया गया तो अधिक से अधिक लोग हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे. नतीजतन, एक ऐसी परिस्थिति निर्मित होगी जिसमें बहुत ही थोड़े से लोग अपना अस्तित्व बचा पाएंगे. गरीबों को यह चुनाव करना होगा कि वे फांसी लगाकर मरेंगे या कीटनाशक पीकर अथवा सरकारी सुरक्षाबलों के बंदूक की गोली से. क्या स्थितियां उससे अलग नजर आ रहीं हैं ? राष्ट्रीय आर्थिक संप्रभुता की अधोगति तथा आर्थिक व राजनीतिक प्रक्रिया से दूर रखे जाने की प्रवृत्ति के कारण कई युवा गुमराह होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मजबूरन आतंकवाद और हिंसा तथा अन्य गैरकानूनी रास्ता अपनाने को बाध्य हुए हैं. इन स्थितियों के मद्देनजर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि नक्सलवाद और कुछ नहीं, बल्कि अस्तित्व के संघर्ष में गरीबों के जवाबी प्रतिरोध का पर्याय मात्र है. सवाल यह है कि आखिर योजना आयोग के योजनाकारों के समझ में यह क्यों नहीं आता कि जिस देश में महंगाई दर 10 फीसदी की दर से बढ़ रही हो वहां का आम आदमी 32 रूपये में कैसे गुजारा कर सकता है.

वह वर्ल्ड बैंक जिसके बारे में कहा जाता है कि वह आम आदमी के बारे में नहीं सोचता वह केवल अपने निवेशकों के बारे में सोचता है नें भी गरीबी रेखा के ऊपर की न्यूनतम आय 2 डॉलर यानि 96 रूपये तय किया है और हमारे नीति निर्धारकों की नजर में प्रतिदिन 32 रूपये की आय अर्जित करने वाले गरीबी रेख के निचे नहीं हैं. वैसे तो यूपीए 2 का घोषित लक्ष्य देश के आम आदमी और खासकर देश की गरीब आबादी के लिए ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध करवाकर उनका जीवन स्तर सुधारना था, लेकिन अब वही यूपीए2 की सरकार देश के चंद पूंजीपतियों व निजी कंपनियों का हितसाधक बन गई है. इसी के मद्देनजर गरीबी निर्धारण के भ्रामक आंकड़े उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया है. कुल मिलाकर उच्चतम न्यायालय को हलफनामे के रूप में दी गई योजना आयोग की रिपोट से यह स्पष्ट होता है कि मौजूदा दौर में बट्टा भारी हो गया है और आदमी हल्का हो गया है. सरकार की इन्ही नीति निर्धारण के मद्देनजर चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार, और आवास की बातें करना बेमानी है देश की गरीब जनता के सामने तो अब दो जून की रोटी का सवाल मुंह बाए खड़ा हो गया है.

सरकार की ढिठाई से बेलगाम होती महंगाई


महंगाई कम करने का जादुई तरीका रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने इजाद किया है जब-जब महंगाई बढती है तो आरबीआई अपने जादुई तरीके को अपनाते हुए रेपो रेट और रिवर्स रोपो रेट को बढा देती है परिणाम स्वरूप सभी बैंक व्याज दर में इजाफा कर देती है जिसका असर होम लोन, कार लोन, गूड्स करियर लोन, बिजनेस लोन, पर पड़ना तय है इसके लिए ज्यादा रूपये किस्त के रूप में बैंक को चुकता करना पड़ेगा. अब अगर विभिन्न कारणों से व्याज के रूप में ज्यादा पैसा बैंक को अदा करना पड़े तो महंगाई कैसे रुकेगी?

लगातार बढ़ रही महंगाई से पहले से ही परेशान आम भारतीयों के बजट पर सरकार नें इस सप्ताह फिर से एक बार कुठाराघात किया. इधर पेट्रोलियम कंपनियों नें पेट्रोल के दाम ३.१४ रूपये बढ़ाये तो उधर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया आम आदमी को राहत देने के बजाय सभी तरह के लोन को महंगा करने की व्यवस्था कर दी ऊपर से तुर्रा यह कि यह सब महंगाई को काबू करने के लिए किया जा रहा है. महंगाई को काबू करने के नाम पर पिछले १८ महीनों में १२ बार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया नें रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में २५-२५ बेसिस पाइन्ट्स की बढोत्तरी कर दी इस समय रेपो रेट ८.२५ और रिवर्स रेपो रेट ७.२५ पाइन्ट्स हो गया है. दरसल रेपो रेट का मतलब रिजर्व बैंक अन्य बैंकों को रेपो रेट पर उधार देता है और रिवर्स रेपो रेट का मतलब रिजर्व बैंक रिवर्स रेपो रेट पर अन्य बैंकों से उधार लेता है. जब हम महंगाई दर की चार्ट पर नजर डालते है तो हमें पता चलता है कि अगस्त के महीने में महंगाई दर बढ़कर ९.७८ फीसदी के साथ १२ महीने के उच्चतम स्तर तक जा पहुंची है. खाद्य महंगाई दर भी ३ सितंबर को खत्म हुए सप्ताह में लगातार छठवे सप्ताह भी ९ फीसदी के ऊपर रहते हुए ९.४७ फीसदी पर रही. बेकाबू हो रही महंगाई को रोकने में नाकाम सरकार अपने हाँथ खड़े कर रही है. और सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं को महँगा करना अपनी मजबूरी बता रही है.

सरकार द्वारा लगातार महंगाई बढ़ाना क्या जनविरोधी कदम नहीं है ? गुरुवार रात से पेट्रोल के दाम ३.१४ रूपये बढा दिए गए इसी के साथ इस साल जनवरी से लेकर अब तक लगभग १० रूपये पेट्रोल के दाम में बढ़ोत्तरी कर दी गई है. पेट्रोल के दाम बढ़ाये जाने को लेकर सरकार द्वारा जो बार-बार बहाना बनाया जाता है वह है पेट्रोलियम कंपनियों को लगातार घाटा होना. जिस तरह से पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे की बात की जाती है उसके हिसाब से अब तक पेट्रोलियम कंपनियों को दिवालिया हो जाना चाहिए था. किन्तु ऐसा न होकर पेट्रोलिय की कीमतें बढाये जाने के कारण आम आदमी लगातार आर्थिक रूप से दिवालिया हो रहा है. पेट्रोलियम पदार्थों के कीमतों की बढ़ोत्तरी के पीछे अनुमानत: औद्योगिक घराने ही हैं. क्योकिं इन औद्योगिक घरानों के पेट्रोलियम पदार्थों के (रिटेल चेन) पेट्रोल पम्प इस लिए बंद करने पड़े थे क्योकि कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की पेट्रोलियम कंपनियों को बेलआउट देती थी जिससे उनका नुकसान जो कि सब्सिडी देने पर होता था उसकी भरपाई हो जाती थी और प्राइवेट कंपनियों के नुकसान की भरपाई नहीं हो पा रही थी. अब सरकार उन्ही कंपनियों के हितों के मद्देनजर लगातार पेट्रोलियम के दाम बढाती जा रही है. जिससे कि एक बार फिर से पेट्रोलियम के कारोबार में लगे औद्योगिक घराने पेट्रोलियम पदार्थों के (रिटेल चेन) पेट्रोल पम्प खोल सकें.

व्याज दर बढ़ाकर महंगाई कम करने का जादुई तरीके को समझना मुश्किल है. प्राप्त जानकारी के अनुसार महंगाई कम करने के नाम पर आरबीआई नें पिछले ३ वर्षों में कुल १२ बार व्याज दरों में बढ़ोत्तरी की लेकिन क्या महंगाई कम हुई. वस्तुत: महंगाई कम नहीं होगी उसके कारण सीधे और स्पष्ट हैं भारत सरकार को अनाज, दालें, खाने के तेल, फल आदि, बहुराष्ट्रीय निगमों के (रिटेल चेन) शापिंग माल में बेचने और मुनाफा कमाने का अवसर देना जो है. अब अगर १०-२० रूपये किलो अनाज, दालें, खाने के तेल, फल आदि बेचे जायेगे तो शापिंग माल बनाने में किये गए पूंजी निवेश का रिटर्न या माल के कर्मचारियों की तनख्वाह और रखरखाव तो छोडिये शापिंग माल में लगे सेन्ट्रल एसी के लिए उपभोग की गई बिजली का बिल नहीं भरा जा सकेगा. जमाखोरी के विरुद्ध आपने आढ़तियों के गोदामों पर छापेमारी करते हुए खाद्यान विभाग के अधिकारियों को देखा होगा लेकिन क्या कभी आपने यह भी सुना कि रिटेल चेन के कारोबार में संलग्न बहुराष्ट्रीय निगमों के वेयरहाउसों (जहाँ खाद्यान का बंफर स्टाक जमा करके रखा जाता है) में खाद्यान विभाग के अधिकारियों द्वारा छापेमारी की गई?

अब सरकार यह कहती नजर आ रही है कि महंगाई से हो रही जनता की तकलीफों के लिए हमें खेद है लेकिन चीजों के दाम बढ़ाना हमारी मजबूरी है, सरकार में बैठे लोगों से सवाल किया जाना चाहिए कि महंगाई बढ़ाना आपकी मजबूरी है, भ्रष्टाचार में आपके संतरी से लेकर मंत्री तक सभी आकंठ डूबे हुए है इसलिए भ्रष्टाचार आप मिटा नहीं सकते, आतंकवाद से निपटना आपके बूते का नहीं तो आप सत्ता से क्यों चिपके है. इधर महंगाई सुरसा की तरह बढ़ रही है और उधर आपके मंत्रियों की संपत्ति में हजार-हजार प्रतिशत का इजाफा हो रहा है ! आखिर माजरा क्या है ? छठे वेतन आयोग को लागू करने के भार से अभी केन्द्र सरकार उबर नहीं पायी थी कि केन्द्र सरकार नें १ जुलाई २०११ से अपने कर्मचारियों को ७ प्रतिशत डीए बढा दिया है. इस फैसले से केन्द्र सरकार के ५० लाख कर्मचारी और ४० लाख पेंशनर को फायदा मिलेगा इससे सरकार पर सालाना ७,२२८,७६ करोड रूपये का अतिरिक्त भार होगा. यहाँ यह समझ में आता है कि सरकार का एकमेव उद्देश्य रह गया है... महंगाई बढाओ, आम जनता को लूटो, सरकारी खजाने भरो, और फिर उसे सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों, पार्षदों, विधायकों, सांसदों, और मंत्रियों में बंदरबाँट करो.

१९९१ से लेकर आज तक केवल और केवल देश की सार्वजनिक निगमों को जिसे नवरत्न कहा जाता था. उन्हें पूजीपतियों के पक्ष में न केवल हलाल किया गया वरन एनडीए शासनकाल में (डिस्इन्वेस्टमेंट) विनिवेश मंत्रालय बनाकर औद्योगिक घरानों के हवाले किया गया, जनहित से जुड़े क्षेत्र एक-एक कर औद्योगिक घरानों के हवाले किया जा रहा है, चाहे वह बैंकिंग का क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो, चिकित्सा का क्षेत्र हो, खनन का क्षेत्र हो, यहाँ तक कि बिजली और पानी भी. उधर मंदी से अमेरिका का दम निकल रहा है अमेरिकी बांडों की साख लगातार गिर रही है फिर भी क्या कारण है कि डालर के सामने रूपया (रूपये का अवमूल्यन हो रहा है) लगातार टूट रहा है. आखिर इस समय रूपये के अवमूल्यन का रहस्य क्या है? क्या रूपये का अवमूल्यन निर्यात के व्यवसाय से जुड़े पूंजीपतियों के इशारे पर किया जा रहा है? रइस मंत्रियों के तले देश का दम घुट रहा है और आम आदमी को हासिए पर फेंक दिया गया है.

अब सरकार की नीतियां और सोच मुनाफा बनाने तक ही सीमित हो गई है मुनाफा बनाना ही विकास है. “कल्याणकारी राज्य” अब “मुनाफाखोर राज्य” में तब्दील होता दिख रहा है. सरकार अभी और भी कड़े फैसले लेने की बात कर रही है. रसोई गैस और रेल यात्री/माल किराये में वृद्धि. यानि आम आदमी अभी और अपनी आर्थिक रीढ़ पर महंगाई का वार सहने को को तैयार रहें. अरे सरकार उनके हितों की सुरक्षा के लिए क्यों कड़े फैसले नहीं ले रही है जिसके मतो से वह सत्ताशीन हुई है. स्पष्ट दीखता है कि भारतीय लोकतंत्र को सरकार नहीं बल्कि देश के कुछ चुनिन्दा वकीलों के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने मन मुताबिक हांक रही हैं. महंगाई बढ़ाकर आम आदमी का जेब काटने से लेकर किसानों और आदिवासीयों के हिस्से का जल, जंगल और जमीन लूटने की कयावद जारी है. किन्तु यूपीए सरकार की कैबिनेट द्वारा तेज टिकाऊ और समग्र विकास का जुमला फेंका जा रहा है अब इस जुमले का आम आदमी क्या करे ? वैसे तो यह सभी को पता है कि सत्ता हाँथ में आते ही जैसे कांग्रेस के पिछले जुमले “कांग्रेस का हाँथ गरीब के साथ” को पलट दिया था वैसे ही आम आदमी तेज टिकाऊ और समग्र विकास को अपने साथ जोड़कर न देखे क्योंकि यह जुमला सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों, पार्षदों, विधायकों, सांसदों, और मंत्रियों और पूंजीपतियों के लिए है आम आदमी के लिए नहीं.


बुधवार, 7 सितंबर 2011

सोती सरकारें मरते लोग

आज सुबह १० बजकर १५ मिनट पर दिल्ली हाईकोर्ट के गेट नं ५, पर जोरदार बम धमाका हुआ है । बताया जा रहा है कि इस् बम धमाके में कम से कम ११ लोगों की मौत हो गयी है और लगभग ७६ से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हैं। आज बुधवार का दिन था। आज का दिन दिल्ली हाईकोर्ट के पीआईएल (पब्लिक इंट्रेस्ट लिटिगेशन) का दिन होता है यह बम धमाका दिल्ली हाईकोर्ट के गेट नं ४ और ५, के बीच जहाँ लिटीगेंस/ विजिटर्स का पास बनाया जाता है लिटीगेंस /विजिटर्स का पास बनाने के लिए लोगों की लंबी कतार लगी हुई थी। सुबह कोर्ट खुलने का समय होने के कारण दिल्ली हाईकोर्ट के गेट नं ५, के आस-पास वकीलों और उनके मुवक्किलों की भारी भीड़ जमा थी। चश्मदीदों के अनुसार यह बम ब्रीफकेस में रखकर लाया गया था और इसे ठीक उस वक्त ब्लास्ट कराया गया जब दिल्ली हाईकोर्ट के गेट नं ५ पर भारी भेद जमा थी। भारत सरकार के गृह सचिव के मुताबिक इस् धमाके में आईईडी और टाइमर का इस्तेमाल किया गया हो सकता है। धमाके में अमोनियम नाईट्रेट का भी इस्तेमाल किये जाने की खबर है। इस् बीच खबर आयी है कि हरकतुल इस्लामी जेहाद के नाम का मेल मीडिया को भेजकर एक आतंकी गुट नें इस आतंकी कार्रवाई की जिम्मेदारी ली है। गृह मंत्रालय के अनुसार इस मामले के जाँच की जिम्मेदारी नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी (एन.आई.ए) के हवाले कर दी गयी है।

केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम नें संसद में दिए गये अपने बयान में यह क़ुबूल कर लिया है कि यह एक आतंकवादी हमला है। उन्होंने मृतकों के परिजनों के प्रति संवेदना व्यक्त करने की रस्म अदायगी भी की साथ ही धमाके की जगह का ८ मिनट ( इतने कम समय में पी चिदंबरम नें घटनास्थल का दौरा कर क्या हासिल करना चाहते थे ए वे ही जानें) का दौरा कर यह जताने की भरपूर कोशिश की है कि सरकार इस आतंकी कार्रवाई में मारे गये लोगों और घायलों के प्रति संवेदनशील है। दिल्ली की मुखिया शीला दीक्षित भी १.१५ बजे घायलों का हाल-चाल जानने डॉ राम मनोहर लोहिया अस्पताल पहुंची। जाहिर है कि इस धमाके से संबंधित और इस तरह के मामलों को रोकने के लिए जिम्मेदार दोनों नेताओं नें लगभग अपनी-अपनी औपचारिकतायें पुरी कर ली हैं संभव है कि इन दौरों के पश्चात् मृतकों के परिजनों और घायलों के लिए मुआवजे भी घोषित कर दिए जाय। शीला दीक्षित की आगवानी के लिए डॉ राम मनोहर लोहिया अस्पताल का अमला हाँथ बांधे खड़ा नजर आया किन्तु आश्चर्य यह होता है कि घायलों और मृतकों के परिजन पागलों की तरह अपनें लोगों को ढूढ़ रहे थे किन्तु उन्हें जानकारी देने वाला किसी भी अस्पताल में कोई नहीं था।

ज्ञात हो कि इसी वर्ष २५ मई को दिल्ली हाईकोर्ट की पार्किंग में आतंकियों द्वारा बम धमाका किया गया था किन्तु उस धमाके में न किसी की मौत हुई थी और न ही कोई हताहत हुआ था। दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर गेट नं ५ पर आज किये गये बम धमाके उन आतंकियों के मनोबल और हमारी सुरक्षा एजेंसियों के नकारेपन का पता चलता है। बताया जाता है कि दिल्ली पुलिस के आलावा दिल्ली हाईकोर्ट की सुरक्षा का जिम्मा सीआईएसएफ के हवाले है। सवाल यह पैदा होता है कि ये सभी सुरक्षा एजेंसियों ने २५ मई को दिल्ली हाईकोर्ट परिसर में हुए बम धमाके के बाद सुरक्षा के लिहाज से क्या कदम उठाया । क्या उस जगह पर जहाँ २५ मई को बम धमाका हुआ था वहां सीसीटीवी कैमरे नहीं लगाये जा सकते थे ? अगर पिछले धमाके से सबक लेते हुए उस स्थान पर सीसीटीवी कैमरे लगा दिए गये होते तो आज के धमाके की जांच में कुछ न कुछ मदद जरूर मिलती, कुछ न कुछ सुराग सीसीटीवी कैमरे के माध्यम से जरूर मिलते। आम तौर पर कहा जाता है कि आतंकी उस जगह को दुबारा निशाना नहीं बनाते जिस जगह को वे एक बार निशाना बना चुके होते है किन्तु आज के बम धमाके के मामले में आतंकियों द्वारा इस् सोच को पलट दिया गया दीखता है।

देश में जहाँ जहाँ आतंकियों द्वारा बम धमाके किये गये है वहां के सुरक्षा के बारे में अगर एक नजर डालें तो हमें पता चलता है कि सुरक्षा एजेंसियों द्वारा भारी लापरवाही की जा रही है। सवाल यह उठता है कि किसी भी आतंकवादी कार्रवाई के पश्चात प्रेकॉशन के लिए कौन कौन से स्टेप उठाये गये। क्या मुखबिरी के नेटवर्क को मजबूत किया गया ? क्या तकनीक के इस्तेमाल के लिए जरूरी कदम उठाये गये ? अथवा क्या इसे नियती मानकर देश की सुरक्षा एजेंसियों की मजबूरी को मान्यता दे दी जाय ? बांग्लादेश के दौरे पर गये देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी बयान आ चुका है उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट के पास हुए इस आतंकी कार्रवाई को 'कायरता पूर्ण कार्रवाई' बताया है। उन्होंने कहा है कि "हम इस आतंकवाद के आगे झुकेंगे नहीं, ये एक लंबी लड़ाई है जिसमे सभी राजनैतिक दलों और नागरिकों को मिलकर लड़ना होगा" प्रधानमंत्री जी देश का आम आदमी आपसे पूछ रहा है कि आतंकियों के विरुद्ध इस लड़ाई को लड़ने के लिए आपकी क्या तैयारी है ? इसका जवाब है आपके पास ? क्या इस लड़ाई में आप लगातार आम आदमी को झोकते रहेंगे आखिर इन आतंकवादी कार्रवाई को रोकनें में आप अक्षम क्यों हैं ? इन आतंकी कार्रवाईयों में आम जनता मरने को अभिशप्त क्यों है।

वकील के लबादे में और वकील की हैसियत से दिल्ली हाईकोर्ट में घटनास्थल पर पहुंचे कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी नें मीडिया से पहले ही अपनी असहमती दर्ज करा दी उन्होंने कहा कि वे मीडिया से असहमत हैं । (ध्यान रहे कि उस समय मीडिया के लोग ऐसे धमाकों को न रोक पाने के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे थे ) अब अभिषेक मनु सिंघवी से यह कौन पूछे की इस् भारी चूक की जिम्मेदार सरकार और संबंधित एजेंसियां नहीं हैं तो और कौन है? शीला दीक्षित नें मृतकों और घायलों के परिजनों के प्रति सहानुभूति जताती नजर आयी। लेकिन शीलाजी आपकी सहानुभूति का आम आदमी क्या करे, उसे ओढ़े या बिछाए, क्या आपके सहानुभूति से उन लोगों के परिजनों के जीवन हानि या वे जिन्होंने धमाके में अपनें हाँथ-पाँव खो दिए है उनके नुकसान की भरपाई हो पायेगी, आपनें तो चूक की जिम्मेदारी इन्क्वायरी के गड्ढे में डाल दिया। अब शायद is चूक की गाज किसी छोटे-मोटे अधिकारी पर गीरेगी और उसे नाप दिया जायेगा। और जैसा कि लगभग सभी आतंकी कार्रवाई के बाद एक सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या इस् आतंकी कार्रवाई के बाद हमारी सरकार और संबंधित एजेंसियां सबक ले लेंगी? क्या आइन्दा इस तरह की घटनाओं को रोकने का तरीका निकाल लिया जायेगा ? या इस घटना के बाद भी सरकारें और संबंधित एजेंसियां सोती रहेंगी और देश का आम आदमी इन आतंकी कार्रवाईयों का शिकार होकर लगातार मरता रहेगा। और इस तरह के धमाकों को रोकने के लिए (गलत) नीतियां बनाने के जिम्मेदार लोग सत्ता के गलियारे में उसी पुराने ठसक के साथ सत्ता की मलाई खाने में मशगूल हो जायेंगे या देश की आम जनता इन्हें इनकी जिम्मेदारियों का एहसास करायेगी।

रविवार, 4 सितंबर 2011

कुपोषण के काल के गाल में नौनिहाल

भिवंडी, शाहपुर, वाडा, मोखाड़ा, पालघर, दहाणू, व तलासरी के इलाके देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से १०० किलोमीटर के दायरे में पड़ते है। लेकिन १०० किलोमीटर दूर मुंबई अगर अपने ऐशो आराम के लिए जानी जाती है तो मुंबई से सटे ये इलाके इन दिनों किसी और कारण से चर्चा में है। यह कारण है अबोध बच्चों की कुपोषण से मौत। भारी संख्या में बसे आदिवासी और उनके बच्चे भूख और कुपोषण के चलते कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने को अभिशप्त है। बीते महीने अगस्त के आख़िरी सप्ताह में खबर आयी कि इन उपरोक्त इलाकों में कम से कम १५० आदिवासी बच्चों की कुपोषण से मौत हो गई तथा हजारों की संख्या में बच्चे आब भी कुपोषण के कारण मौत के कगार पर हैं।

यह खबर भी तब आ रही है जब देश भर में १ से ७ सितंबर के बीच राष्ट्रीय पोषण सप्ताह मनाया जा रहा हैराष्ट्रीय पोषण सप्ताह के बीच कुपोषण से मौत की ख़बरें स्तब्ध कर देने वाली है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार अप्रैल से जून २०११ तक कुपोषण से ठाणे जिले में कुल १५८ मृत्यु दर्ज की गई। इसमें ११९ बच्चों की उम्र केवल १ वर्ष है तथा बाकी बच्चों की उम्र ६ वर्ष तक है। आंकड़ों के अनुसार अप्रैल में ५५, मई में ४९, और जून में ५४ बच्चों की मृत्यु कुपोषण से हुई इस वर्ष के आंकड़ों के अनुसार भिवंडी में ३, वसई में १, मुरबाड में ३, शाहपुर में १४, वाडा में ६, दहाणू में ७, मोखाड़ा में ५, जव्हार में ६, और विक्रमगढ़ में १, बच्चे की मौत कुपोषण के कारण हुई।

इन कुपोषण से लगातार हो रही मौतों के संबंध में अगर ठाणे जिले के स्वास्थ्य विभाग के दावे को माने तो कुपोषण से हो रही इन मौतों में ३०% की कमी आयी है प्राप्त आंकड़ों के अनुसार मोखाड़ा तालुका में ही कुल ९४३७ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। बताया जाता है कि मोखाड़ा तालुका में सामान्य कुपोषित बच्चों की संख्या ५९९०, तथा मध्यम कुपोषित बच्चों की संख्या ३१६५ और तीव्र कुपोषित बच्चों की संख्या २८२ सहित कुल ९४३७ बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। उन २८२ कुपोषित बच्चों की हालत दिनों-दिन बद-से बदतर होती जा रही है और जिले का स्वास्थ्य विभाग आंकड़े इकट्ठे करने और उसकी तुलना पिछले वर्ष कुपोषण से हुई मौतों से करने में मशगुल है। जबकि स्वास्थ्य विभाग को यह मालूम रहता है कि कुपोषण का गंभीर खतरा सबसे अधिक बच्चों के गर्भ में आने से लेकर ३३ महीने तक रहता है। और कुपोषणग्रस्त इलाकों में कम से कम ६ वर्ष तक नजर रखना आवश्यक होता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि फुला हुआ पेट, थका हुआ चेहरा और बेहद पतले हांथ-पैर बच्चों में कुपोषण के आम लक्षण हैं।

आपको याद दिला दें कि दिसंबर २०१० में एक खबर आयी थी कि देश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले मुंबई शहर में १४ बच्चे भुखमरी और कुपोषण के कारण काल के गाल में समा गए थे। इस भूखमरी और कुपोषण से प्रशासन और सरकार बेखबर थी जब मीडिया के द्वारा खबरें निकलकर आयी तो पता चला कि मुंबई के गोवंडी इलाके में पांच साल और उससे कम उम्र के १४ बच्चे भूख और कुपोषण के शिकार हो गए। पता चला था कि गोवंडी के झोपड़पट्टी में ६५% बच्चे कुपोषण के शिकार थे। इस मामले का खुला तब हुआ जब मुंबई की टाटा इंस्टीट्युट ऑफ़ सोशल साईंस से जुडी एक स्वयंसेवी संस्था नें जब गोवंडी झोपड़पट्टी का सर्वे किया। कुल ६०० परिवारों का सर्वे करनें पर उन्हें पता चला कि इन ६०० परिवारों के बीच कुल १४ बच्चे कुपोषण के वजह से मौत के शिकार हुए और गोवंडी की झोपड़पट्टी में ६५ % कुपोषण के शिकार बच्चे कमजोरी के कारण नियुमोनिया, मेनेंजाईटीस, और डायरिया से जूझ रहे थे। अब अगर पिछले साल ही सही देश की आर्थिक राजधानी मुंबई का यह हाल था तो मुंबई से सटे ठाणे जिले के आदिवासी इलाके के १५८ बच्चों की भूख और कुपोषण से हुई मौत आश्चर्य तो नहीं किन्तु शासन और प्रशासन की लापरवाही पर गंभीर चिंता का सबब बनता है।

हमारे शासकों द्वारा बताया जा रहा है कि भारत तेजी से विश्व की एक बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो रहा है और इस विकास दर को ८.५ का बताया जा रहा है । देश के नीतिनिर्धारकों के लिए क्या यह शर्म की बात नहीं है कि इस तेजी से विकसित हो रहे देश में बच्चों की एक बड़ी आबादी कुपोषण के कारण तिल-तिल कर मरने को मजबूर है आंकड़े बताते हैं कि देश में प्रति वर्ष ६,००,००० बच्चों की मौत कुपोषण के कारण हो जाती है। वैश्विक संस्थाओं, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण और तमाम गैर सरकारी संगठनों के आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में बाल कुपोषण की खतरनाक स्थिति का पता चलता है। देश में ४३% बच्चे कुपोषण के वजह से सामान्य से कम वजन के हैं। और ५ वर्ष से कम उम्र के करीब ७०,००,००० बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण के शिकार हैं। वैश्विक भूख सूचकांक नें भी २०१० की अपनी रिपोर्ट में भारत में कुपोषण की स्थिति पर गंभीर चिंता जताई थी वैश्विक भूख सूचकांक की रिपोर्ट में शामिल १२२ विकासशील देशों की सूची में भारत ६४ वें स्थान पर था इस रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सामान्य से कम वजन वाले बच्चों में से ४२ % बच्चे भारत में ही हैं।

सरकार और उसके नुमाइन्दों द्वारा आमतौर पर यह तर्क दिया जाता है कि कुपोषण की समस्या का मूल कारण आबादी है पर अगर हम अपनी तुलना चीन से करेंगे तो हमारी सरकार और उसके नुमाइन्दों का तर्क हमें खोखला और बेमानी लगने लगता है क्योंकि चीन की जनसंख्या हमारे देश से कहीं अधिक है। फिर भी वहां कुपोषण के शिकार बच्चे हमारे देश से छह गुणा कम है। सरकार नें बच्चों में कुपोषण को दूर करने के लिए कई योजनायें और जागरूकता कार्यक्रम भी चलायें हैं। छह वर्ष तक के बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए समेकित बाल विकास योजना शुरू कई गई। केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधीन खाद्य एवं पोषण बोर्ड लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिए हर साल १ से ७ सितंबर तक राष्ट्रीय पोषण सप्ताह आयोजित करता है। इस् वर्ष भी इस् सप्ताह के दौरान देश भर में कार्यशालाओं, शिविर, प्रदर्शनी आदि का आयोजन कर लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाया जा रहा है। लेकिन लगातार कुपोषण से हो रही मौतों के आकड़ें ऐसे प्रयासों, कार्यक्रमों और नीतियों पर सवाल खड़े कर रहे हैं।

रविवार, 28 अगस्त 2011

अरे रे... स्वामी अग्निवेश.. ए क्या कर रहे हो महाराज च.. च..




ये है स्वामी अग्निवेश का असली चेहरा....स्वामी अग्निवेश भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे और देश के उन करोड़ों आन्दोलनकारियों के आन्दोलन का हिस्सा बनकर किस तरह सरकार के भेदिये का काम कर रहे है । इसका खुलासा या यूं ट्यूब का सवा मिनट का विडियो करता है इस् विडियो में स्वामीजी संभवतः कपिल सिब्बल से बात कर रहे है। उन्हें समझा रहे है कि कैसे सरकार जितना झुकती जा रही है उतना ही ये लोग अर्थात अन्ना हजारे के लोग सिर पर चढ़ रहे है। इसे आप खुद सुनें और अपने विचारों से हमें अवगत करायें।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

उम्मीद की लौ


अब संसद के पीछे

छिपने लगे है नेता

और जनता सड़क पर

उतर गयी है


१२० करोड़ जनता नें

तय कर लिया है

कि वे जगाकर रहेंगे ५४५

सोये हुए लोगों को


अन्ना का

स्वास्थ्य गिर रहा है

गिर रही है सरकार की

लोकप्रियता भी


हे ईश्वर

सलामत रखना

अन्ना को और उनके

स्वास्थ्य को भी


क्योंकि उन्होंने

जनता के मन में

उम्मीद की लौ
जला दी है

शनिवार, 20 अगस्त 2011

स्विस बैंक तथा अन्य बैंकों में जमा भारतियों के काले धन की सूची

स्विस बैंक तथा अन्य बैंकों में जमा भारतियों के काले धन की सूची जुलियस अन्साजे नें अपने वेब साईट विकीलीक्स के माध्यम से दिनांक ०२/०८/२०११ को जारी की है। इस् सूची की जानकारी हमें न्यूज़ ऑफ़ डेल्ही डाट काम पर मिली। इसे आप भी देखें और अपनी टिप्पणी से हमें अवगत कराएँ।





शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

यह परिवर्तन की लहर है...

यह परिवर्तन की लहर है। आजादी की दुसरी लड़ाई है। अहिंसा से क्रांति पुरी होकर रहेगी। क्रांति कैसी होती है, नौजवानों ने दिखा दिया है । शांति और अहिंसा के रास्ते पर चलकर लोग यूं ही साथ देते रहें। उपवास से मेरा वजन घट रहा है मगर युवा शक्ति देखकर उतनी ही उर्जा भी मिल रही है। हम सबको सुखद भविष्य के सपने पूरे करने हैं । जीत हमारी ही होगी । भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सभी को कमर कसनी है । तभी हम मंजिल तक पहुंचेगें ।


अन्ना








गुरुवार, 18 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार ख़त्म हो अड़ा है आदमी

सत्ता की जिद्द से
लड़ा है आदमी
जीत के मुहाने पर
खड़ा है आदमी

यह देश आज मांगता है
आपसे समर्थन
देखो नया इतिहास
गढ़ा है आदमी

यह जता दिया है
अन्ना के अनसन नें
सांसद, सरकार से
बड़ा है आदमी

जनता की जीत हो
इस जनांदोलन में
स्वेक्षा से कूद
पड़ा है आदमी

चाहे इंडिया गेट हो या
हो तिहाड़ जेल
अहिंसा का पाठ
पढ़ा है आदमी

शहर-२ से कर रहा है
दिल्ली को कूच
तिरंगा लहराकर
बढ़ा है आदमी

युवा चल दिया है आज
बापू की राह
भ्रष्टाचार खत्म हो
अड़ा है आदमी

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

इस देश को बचाना है

एलाने-जंग हो गया
मोह भंग हो गया

अब जंग भ्रष्टाचार से
केंद्र की सरकार से

यह पुनीत कार्य है
क्या तुम्हे स्वीकार्य है

राष्ट्र की पुकार सुन
अन्ना की हुंकार सुन

अमर सपूत हो अगर
उठो चलो धरो डगर

मां भारती का कर्ज है
हम सबका यही फर्ज है

इस देश को बचना है
जेल में भी जाना है

सोमवार, 15 अगस्त 2011

दिल्ली की सरकार संभल जा

दिल्ली की सरकार संभल जा
वो गांधी का अनुयायी है

कहते है सब अन्ना उसको
वह देश का बड़ा भाई है

तन मन धन सब दान दिया
भारत माता का लाल है वो

मानो मांग जनलोकपाल की
वर्ना फिर महा काल है वो

अनसन पर गर बैठ गया तो
समझो शामत आ जायेगी

और महंगा होगा जेल भेजना
दिल्ली की सत्ता जायेगी

मत करो उपेक्षा जनहित की
अब अपना मुह मत मोड़ो

जनअधिकारों को मान्य करो
आसुरी प्रवित्ति छोडो

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

रक्षा करो अन्नदाता की

अरे किसान की कौन सुने
सत्ता का खेल जारी है

जंगल जमीन सब छीन रहे
अब पानी की बारी है

सुन सकते हो लालबहादुर
क्या हुआ तुम्हारा नारा

जो अधिकारों की मांग करे
वो मारा जाय बेचारा

पुलिस कर रही हत्याएं
और सरकारें सोती हैं

आह, चार को मार दिए
भारत माता भी रोती हैं

वो किसान हैं कहाँ जांय
क्या करें तुम्ही बतलाओं

रक्षा करो अन्नदाता की
स्वर्ग से वापस आओ

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

बहुत हुआ यह अत्याचार

आम जनों को पता नहीं था
महंगाई की मार पड़ेगी

कालेधन और लोकपाल पर
मनमोहन सरकार अड़ेगी

अगर आमजन जाग गया तो
तुम चुनाव जाओगे हार

सरकारों अब दिशा बदल दो !
बहुत हुआ यह अत्याचार !!

भुला दिया तुमने जनता को
धनपशुओं का रख्खा ध्यान

इनके ही शोषण में फंसकर
फांसी लगाकर मरें किसान

ऐश कर रहे नेता-मंत्री
खूब कर रहे पापाचार

सरकारों अब दिशा बदल दो !
बहुत हुआ यह अत्याचार !!

अधिकारी घुसखोर हो गये
जनप्रतिनिधि चोर हो गये

जनता त्राहि त्राहि करती है
भूख कुपोषण से मरती है

दलित, किसान व मजदूरों के
छिने जा रहे है अधिकार

सरकारों अब दिशा बदल दो !
बहुत हुआ यह अत्याचार !!





गुरुवार, 28 जुलाई 2011

मुंबई शहर की समेकित बाल विनाश योजना



समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) के कार्यक्रम अनौपचारिक स्कूल पूर्व शिक्षा हेतु तमाम अन्य योजनाओं के माध्यम से सरकार द्वारा करोड़ों का बजट आबंटित किया जा रहा है. ज्ञात हो कि इस मद में वर्ष २००९-१० में ८१७२ करोड़ तथा वर्ष २०१०-११ में ८७०० करोड़ रुपया आबंटित किया गया किन्तु क्या यह आपको पता है कि आईसीडीएस कार्यक्रम के लिए आबंटित इस भारी भरकम धनराशि का लाभ उन ३ करोड ५० लाख बच्चों को मिल पा रहा है, सरकार द्वारा जिन्हें लाभान्वित होने का दावा किया जा रहा है ? समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) के तहत मुंबई में चल रही आँगनवाड़ियों (बालवाड़ी) को केंद्रित करके जब हमने इस विषय का अध्ययन किया तो काफी चौकाने वाले तथ्य उभर कर सामने आये जोकि काफी चिंताजनक हैं.
समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) और उसी की तर्ज पर ही महाराष्ट्र राज्य में संचालित योजना “एकात्मिक बाल विकास योजना” के तहत कुल ८८ हजार २ सौ ७२ आँगनवाड़ियों को संचालित किया जा रहा है और बताते है कि महाराष्ट्र में इस योजना से ८६ लाख ३२ हजार बच्चे लाभान्वित हो रहे है किन्तु जब हमने इस आँगनवाड़ी योजना को लेकर मुंबई की स्थिति की जानकारी इकट्ठी की तो हमने पाया कि इन आँगनवाड़ियों (बालवाड़ी) की आड में भारी पैमाने पर गडबडियां की जा रही हैं. इन आँगनवाड़ियों (बालवाड़ी) से संबंधित गडबड़ियों एवं भ्रष्टाचार में आकंठ तक डूबे प्रकल्प अधिकारियों ( Project Officer) से लेकर आँगनवाडी कार्यकर्ता सभी शामिल है. इस योजना के मुंबई में संचालन का जिम्मा कुल ३२ प्रकल्प अधिकारियों ( Project Officer) पर है प्रत्येक प्रकल्प अधिकारी के अंतर्गत २० से २५ आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) प्रत्येक आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) में अनौपचारिक स्कूल पूर्व शिक्षा प्राप्त कर रहे कम से कम ३० और अधिक से अधिक ५० बच्चे है. इस तरह मुंबई में सरकार द्वारा चलाई जा रही इन आँगनवाड़ियों (बालवाड़ी) में लगभग २८ हजार बच्चे अनौपचारिक स्कूल पूर्व शिक्षा प्राप्त कर रहे है.
इन आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) के प्रत्येक बच्चे के लिए पूरक पोषाहार के रूप में मध्यान्ह भोजन ( Mid Day Meal) के रूप में प्रत्येक बच्चों के लिए १०० ग्राम प्रतिदिन पोषक तत्वों से भरपूर पका हुआ भोजन जिसमें एनपी एनएसपीई २००६ के संशोधित नियम के अनुसार पोषण सामग्री जिसमें ४५० कैलोरी, १२ प्रोटीन एवं सूक्ष्म आहार के रूप में आयरन, फोलिक एसिड, विटामिन-ए, इत्यादि सक्षम आहारों की पर्याप्त मात्रा हो, दिया जाना चाहिए. मुंबई के जिस आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) में ५० बच्चे अनौपचारिक स्कूल पूर्व शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं उन्हें पोषक तत्वों से भरपूर पका हुआ भोजन १०० ग्राम के हिसाब से ५ किलो मिलना चाहिए किन्तु किन्तु आलम यह है कि इन केन्द्रों पर ठेकेदार संस्थाओं द्वारा दो से ढाई किलो ही पका हुआ खाना आँगनवाड़ियों (बालवाड़ी) के बच्चों में वितरित कर रहे है तथा इस चोरी के एवज में आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) कार्यकर्ता को ५० रूपये प्रतिदिन रिश्वत के रूप में दे रहे है.
५० रूपये रिश्वत पा जाने पर आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) कार्यकर्ता पोषक आहार मुहैया कराने वाले ठेकेदार के ५ किलो के चालान पर आँख बंद करके हस्ताक्षर कर रहे है. अगर आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) के बच्चों को दिया जाने वाला पका हुआ भोजन आधा से अधिक चोरी कर रहे हैं. तो पौष्टिक आहार के (Composition) जैसे कैलोरी, प्रोटीन, आयरन, फोलिक एसिड, विटामिन-ए, आदि सक्षम आहारों के समिश्रण के अनुपालन का तो भगवान ही मालिक है. पोषक आहार उपलब्ध कराने वाले ठेकेदारों द्वारा प्रकल्प अधिकारी ( Project Officer) को उनके रिश्वत का हिस्सा पहुंचाया जाता है. बताया जाता है कि आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) कार्यकर्ताओं के ऊपर पर्यवेक्षक का एक पद होता है. एक पर्यवेक्षक के अनुसार उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया जाता. जो पर्यवेक्षक इन आँगनवाड़ियों (बालवाड़ी) में नियमतः काम करवाना चाहते है उन्हें या तो शीर्षस्थ अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित कर चुप करा दिया जाता है या तो उनका स्थानांतरण कर दिया जाता है.
मुंबई में चल रहे आँगनवाड़ियों (बालवाड़ी) की योजना में करोड़ों रूपये का घोटाला केवल हुआ ही नहीं बल्कि लगातार हो रहा है. बावजूद इसके इस योजना का महाराष्ट्र में पिछले ५ वर्षों से ऑडिट नहीं किया गया है. भ्रष्टाचार में आकंठ तक डूबे अधिकारियों की रिपोर्ट को सही मानकर योजना की धनराशि बढाकर मुहैया करा दी जाती है और इस योजना से भ्रष्टाचार का परनाला लगातार बहता रहता है. उस पर तुर्रा यह कि अभी हाल में ही आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) कर्मियों के मानदेय को दुगना कर दिया गया पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों पर मंत्रिमंडल समिति की बैठक में आँगनवाड़ी कर्मियों को दिये जा रहे मानदेय को १५०० रूपये प्रति माह से बढ़ा कर ३००० हजार करने को मंजूरी दी गई. कैबिनेट की बैठक के बाद पेट्रोलियम मंत्री एस जयपाल रेड्डी ने संवाददाताओं से कहा कि अर्ध आँगनवाड़ी कर्मियों को समेकित बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) के तहत अब ७५० रूपये प्रतिमाह के स्थान पर १५०० रूपये प्रतिमाह मानदेय दिया जायेगा. सवाल यह है कि क्या इस बढे हुए मानदेय के मद्देनजर आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) कार्यकर्ता भारी पैमाने पर चल रहे भ्रष्टाचार से अलग कर लेंगे, शायद नहीं.
“निरक्षरता हमारे लिए पाप और शर्मनाक है इसका नाश किया जाना चाहिए” महात्मा गांधी के इसी आदर्श वाक्य के मद्देनजर तथा भारत सरकार की राष्ट्रीय बाल नीति जिसमें कि बच्चों को राष्ट्र की परम महत्वपूर्ण संपत्ति माना गया है, से हुआ. इस योजना का नाम समेकित बाल विकास योजना रखा गया इसकी नीव १९७४ में रखी गई तथा इसकी शुरूवात महात्मा गांधी के जन्म दिवस २ अक्टूबर को वर्ष १९७५ की गई प्रयोग के तौर पर यह कार्यक्रम उस समय संपूर्ण भारत के केवल ३३ खण्डों में चलाया गया किन्तु आज के समय में इसका विस्तार पुरे देश में व्यापक रूप से हो चुका है इस कार्यक्रम का उद्देश्य छ: साल तक के आयु के बच्चों पोषण व स्वास्थ्य में सुधार लाना, बच्चों के मानसिक, शारीरिक, सामाजिक व बौद्धिक विकास की नीव रखना, बाल मृत्यु दर व बच्चों के कुपोषण में कमी लाना, बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर [ ड्राप आउट] {राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की ओर से २००९ में किए गए अध्ययन के मुताबिक ८१.५० लाख बच्चों ने स्कूली शिक्षा अधूरी छोड़ी जो ६-१३ आयुवर्ग के बच्चों की आबादी के ४.२८ प्रतिशत है} में कमी लाना, गर्भवती व दूध पिलाने वाली माताओं के स्वास्थ्य व पोषण स्तर में सुधार लाना, महिलाओं में स्वास्थ्य व पोषण के बारे में जागृती लाकर उन्हें इस काबिल बनाना कि वे अपने परिवार तथा विशेषतौर से अपने बच्चों की पोषाहार व स्वास्थ्य की जरूरतों को स्वयं पूरा कर सकें. इन समेकित बाल विकास योजना के तहत संचालित आँगनवाडियों के माध्यम से दी जाने वाली सेवाएं निम्नलिखित है जैसे पूरक पोषाहार, अनौपचारिक स्कूल पूर्व शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जां, पोषाहार एवं स्वास्थ्य शिक्षा ( महिलाओं के लिए) और संदर्भ सेवाएं प्रमुख है.
इस समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) के तहत चलाई जा रही आँगनवाड़ियों के माध्यम से बच्चों को दी जा रही अनौपचारिक स्कूल पूर्व शिक्षा जिसे मुंबई में बालवाड़ी योजना के नाम से जाना जाता है, में चल रहे भारी भ्रष्टाचार को देखकर यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि इस योजना का मुंबई जैसे शहर में जहाँ अत्यधिक जागरूक नागरिक बसते है, यह हाल है तो भारत के दूर-दराज के गाँव में क्या होता होगा इसमें कोई शक नहीं कि भारत के दूर-दराज के गाँव में आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) केवल कागजों पर ही होती होंगी. ऐसे में भारत सरकार की राष्ट्रीय बाल नीति जिसमें कि बच्चों को राष्ट्र की परम महत्वपूर्ण संपत्ति माना जाता है, के क्या मायने है और आखिर यह सवाल किससे किया जाना चाहिए कि बच्चों के मानसिक, शारीरिक, सामाजिक व बौद्धिक विकास की नीव रखने की जिम्मेदारीयुक्त आँगनवाड़ी (बालवाड़ी) में चल रहे भारी भ्रष्टाचार और उनके पोषक आहार पर डाले जा रहे डाके को रोकने की जिम्मेदारी किसकी है ?

यह लेख विस्फोट.कॉम पर २७ जुलाई २०११ को प्रकाशित हो चुका है

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

कैसे होगा मानवाधिकारों का संरक्षण ?


देश के मानवाधिकार आयोगों में बैठे लोगों के कारण मानवाधिकार आयोगों की भारी किरकिरी हो रही है मौजूदा समय में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के। जी. बालाकृष्णन के ऊपर लगातार हो रहे आरोपों की बौछार से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जो स्थिती है वह किसी से छुपी नहीं है के. जी. बालाकृष्णन के तीन रिश्तेदारों के खिलाफ चल रहे आय से अधिक सम्पति के आरोपों की जांच में उनके पास काला धन होने की खबर आने से भी के. जी. बालाकृष्णन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के पद से चिपके हुए है इन विवादों के चलते पूर्व चीफ जस्टिस जे. एस. वर्मा ने २७ फरवरी २०११ को बालाकृष्णन से एनएचआरसी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की मांग की उन्होंने कहा कि ऐसा न होने पर पूर्व चीफ जस्टिस को हटाने के लिए राष्ट्रपति को मामले में दखल देनी चाहिए. वर्मा ने कहा कि अगर आरोप सच नहीं हैं तो उन्हें गलत साबित करने की जिम्मेदारी भी बालाकृष्णन की ही है. ऐसे वक्त में चुप्पी साधना कोई विकल्प नहीं है. उन्होंने कहा कि अगर पूर्व सीजेआई चुप रहने का विकल्प चुनते हैं और खुद को बेदाग नहीं साबित करते तो उन्हें हटाने की प्रक्रिया शुरू कर दी जानी चाहिए. इस मामले में कोच्चि के डायरेक्टर जनरल ऑफ इनकम टैक्स (इन्वेस्टिगेशन)ई. टी. लुकोसे का कहना है कि जहां तक पूर्व सीजेआई बालाकृष्णन का सवाल है तो अभी इस बारे में कुछ नहीं कह सकता लेकिन जहां तक उनके रिश्तेदारों का सवाल है तो हमने उनके मामले में ब्लैक मनी की मौजूदगी पाई है. यह अफ़सोसजनक है कि इस नई संस्कृति का शिकार अब नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए बने संस्थान हो रहे है, मानवाधिकार आयोग हो, सूचना आयोग, महिला आयोग, बाल अधिकार आयोग या न्यायपालिका सबकी स्थिति लगभग एक जैसी ही है सभी जगहों पर सत्ता के एजेंट ही बैठे है और उनका तालमेल अद्भुत है, मजाल कही आम आदमी के लिए कोई एक छेद भर भी गुंजाईस हो. चोरी और सीनाजोरी की यह व्यवस्था मुकम्मिल तौर पर इस सत्ता और उसके एजेंटो की है ना कम ना ज्यादा पूरी की पूरी जमीनी लूट से उपरी न्यायपालिका और आसमानी सत्ता तक अब बालकृष्णन से आप क्या आशा कर सकते है, न्याय की, नहीं आप तो केवल सत्ता की वफ़ादारी की ही आशा कीजिये, इसी मे आपकी समझदारी है और उनकी सुविधा भी.

मुंबई के अख़बारों में दिनांक २५ फरवरी २०११ को एक छोटी सी खबर छपी थी कि मुंबई में अशोक ढवले नामक एक पुलिस अधिकारी को ब्राउन शूगर के साथ रंगे हाँथ पकड़ा गया इस विषय पर जानकारी हासिल करने की उत्सुकता तब और बढ़ी जब यह पता चला कि अशोक ढवले महाराष्ट्र पुलिस में डीवायएसपी के पद पर था और तब आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब यह पता चला कि यह मादक पदार्थों का तस्कर पुलिस अधिकारी महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग के उस विभाग में डीवायएसपी के पद पर तैनात था जो विभाग नागरिकों से प्राप्त मानवाधिकार हनन के मामलों की जाँच करता है अशोक ढवले नामक मादक पदार्थों का तस्कर पुलिस अधिकारी को रंगे हाथ पकडनें पर मै मुंबई पुलिस को बधाई देता हूँ लेकिन मुंबई पुलिस द्वारा जारी किये गये प्रेस नोट जिसमें यह बताया गया था कि अशोक ढवले “प्रोटेक्शन ऑफ़ सिव्हिल राईट” विभाग में काम कर रहा था की निंदा करता हूँ मुंबई पुलिस नें सीधे सीधे अपने प्रेस नोट में यह क्यों नहीं बताया कि अशोक ढवले महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग के जाँच विभाग ( इन्क्वायरी विंग) में तैनात था आखिर मुंबई पुलिस नें महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग का नाम इस मामले में छुपाने का प्रयास क्यों किया जहाँ यह तस्कर अधिकारी तैनात था। यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि एक पुलिस अधिकारी ब्राउन शूगर की तस्करी करते रंगे हाथों पकड़ा गया मुद्दा ऐसे रंगे सियारों का मानवाधिकार आयोगों में बिठाये जाने का है यह चिंता का विषय है कि मौजूदा समय में ऐसा प्रतीक होता है कि भारत के मानवाधिकार आयोग अपराधियों के शरण स्थली बनते जा रहे है.

इसके पहले भी मुंबई से ही एक खबर आयी थी कि महाराष्ट्र राज्य के मानवाधिकार आयोग में तैनात पूर्व आईएएस अधिकारी सुभाष लाला नामक सदस्य आदर्श हाऊसिंग सोसायटी घोटाले में संलिप्त है आदर्श हाउसिंग सोसायटी मामले में अपनी भूमिका को लेकर आरोपों के घेरे में आए सुभाष लाला ने राज्य मानवाधिकार आयोग के सदस्य के पद से इस्तीफा भी दे दिया। बताया जाता है कि सुभाष लाला महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के कृपापात्र नौकरशाहों में एक ( पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के पूर्व निजी सहायक) थे और इन्हें विलासराव देशमुख के ही कृपा से महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग में सदस्य की कुर्सी मिली थी महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग में सुभाष लाला को लेकर एक बात प्रचलित थी इन्हें महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग में सरकार एवं पुलिस के विरुद्ध आयी शिकायतों पर सरकार एवं पुलिस के लिए सेप्टी वाल्व की तरह काम करने के लिए नियुक्त किया गया है महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग में शिकायतों को लेकर जाने वाले स्वयंसेवी संगठन बताते है कि आयोग में आयी सामान्य और गंभीर दोनों किस्म की जितनी शिकायतों को सुभाष लाला नें कार्रवाई के लिए अयोग्य बताकर निरस्त किया उतनी शिकायतें किसी अन्य सदस्य नें निरस्त नहीं किया सुभाष लाला के बारे में बताया जाता है कि इनके पास मुंबई में कई बेनामी संपत्तियां और फ्लैट्स है जिससे लाखों रूपये किराये के रूप में प्राप्त होते है हालाँकि आदर्श मामले में सुभाष लाला नें सफाई दी थी कि उनके दिवंगत पिता संग्राम लाला सैन्य इंजीनियरिंग सेवा में कार्यरत थे इसीलिए आदर्श सोसायटी के मुख्य प्रमोटर आर सी ठाकुर नें उन्हें आदर्श सोसायटी में सदस्य बनाया था. वस्तुतः आदर्श सोसायटी कारगिल के शहीदों के परिजनों को आवासीय सहायता के नाम पर अवैध तरीके से बनाई गयी थी अतः सुभाष लाला के इस सफाई का क्या औचित्य है.

इतना ही नहीं पिछले दिनों महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग के कार्य कलापों को के विरुद्ध मुंबई के एक व्यवसायी व समाजसेवी पुष्कर दामले नें मुंबई हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी यह याचिका मानवाधिकार आयोग में मानवाधिकार उल्लंघन के बारे में प्राप्त शिकायतों पर कोई करवाई न किए जाने और आयोग के सदस्यों द्वारा नियमित तौर पर की गई अनियमितताओं की जाँच के लिए दायर की गयी थी। इस याचिका के लिए सूचना अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त की गई सूचनाओं से पता चला था कि जून २००८ तक २८,०८३ मामले दायर किए गए थे । परन्तु आयोग नें कारवाई का आदेश केवल ३९ मामलों में दोषी अधिकारियों के खिलाफ दिया है. ये मामले राज्य के विरुद्ध थे जिसमें सरकारी अधिकारी भी शामिल थे. आयोग नें २४०७१ मामले निपटाए तथा जून २००८ तक ४०१२ मामले निपटाने बाकी थे याचिका में कहा गया था कि २४०३२ मामलों को विचारणीय न माना जाना अजीब लगता है. इसका अर्थ यह हुआ कि केवल ०.१६ प्रतिशत मामलों में ही मानवाधिकार उल्लंघन के केस साबित हो पाए क्या बाकी बकवास थे ? यह याचिका हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार तथा एस.सी. धर्माधिकारी की खंडपीठ में सुनवायी हेतु आयी थी । खंडपीठ नें इस याचिका पर राज्य सरकार से ३ सप्ताह के भीतर उत्तर देने को कहा था. याचिका में बताया गया है कि राज्य सरकार नें वर्ष १९९३ के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के वर्ष २००६ के संशोधन के प्रावधानों को लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया इस परिवर्तन से किसी भी उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता तथा ४ सदस्यों वाले आयोग में मात्र एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य रखे जाने थे पर वर्ष २००६ में आयोग केवल एक सदस्य अध्यक्ष सी.एल. थूल ( सेवानिवृत्त जिला जज) की अध्यक्षता में ६ माह तक काम करता रहा. याचिका में आरोप लगाया गया है कि २३.११.२००६ में इसके लागू होने से पूर्व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित कमेटी नें ३ सदस्यों का चयन किया इनकी नियुक्ति राज्यपाल नें वास्तव में १०.११.२००६ में की थी. अब तक जो सदस्य कार्यरत रहे उनमें टी.सिंगार्वेल ( नागपुर के पूर्व पुलिस आयुक्त ) सुभाष लाला ( मुख्यमंत्री के पूर्व निजी सहायक) तथा विजय मुंशी ( उच्च न्यायलय के पूर्व जज ) याचिका में कहा गया है कि परिवर्तित एच.आर. एक्ट अभी तक महाराष्ट्र सरकार नें लागू नहीं किया है. याचिका में कहा गया था कि अपनी नियुक्ति के एक दिन बाद ही एक सदस्य कैंसर सर्जरी के लिए अवकाश पर चला गया. इस सदस्य के इलाज पर राज्य सरकार के ६.२५ लाख रूपये खर्च हुए एक अन्य सदस्य नें निर्देशों का उल्लंघन करके अपनी पत्नी के साथ अत्यधिक देश-विदेश की यात्रायें की थी इस जनहित याचिका का जिक्र करने का आशय यह नहीं कि उक्त याचिका पर मुंबई हाई कोर्ट के माध्यम से कार्रवाई की गयी या नहीं. आशय आयोगों के क्रियाकलापों को उजागर करना है.

मानव अधिकार आयोगों के संबंध में समय-समय पर एक बात और उजागर हो रही है कि वे नागरिक अधिकार आंदोलनों, सामाजिक और मानवाधिकार संगठनों को कुचलने का काम कर रहे है इनके क्रियाकलापों तथा जनसंगठनों के विरुद्ध कार्रवाई हेतु प्रशासन और पुलिस को भेजे जा रहे पत्रों को देखकर ऐसा प्रतीक होता है कि इन सरकारी आयोगों का गठन सरकारों नें नागरिक अधिकार आंदोलनों को कुचलने के लिए ही किया है. जबकि मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम १९९३ में यह कलमबद्ध किया गया है कि मानव अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनो, संस्थाओं को मानव अधिकार आयोगों द्वारा प्रोत्साहित किया जायेगा किन्तु स्थिति इससे उलट है "मानव अधिकार जो कि आम नागरिक का मुद्दा है उसे व्यवस्था नें हड़प लिया है" तथा मानव अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनो तथा संस्थाओं पर इन्ही आयोगों के माध्यम से हमले तेज कर दिए है उनके इन हमलों से पता चलता है कि सरकारों को ऐसे नागरिक अधिकार आन्दोलन, स्वयंसेवी संगठन, तथा संस्थाएं नहीं चाहिए जो आयोगों के क्रियाकलापों पर नजर रख सकते है उनके द्वारा गलत किये जाने पर ऊँगली भी उठा सकते. उन्हें चाहिए सरकारी मानवाधिकार आयोगों में बैठे भ्रष्ट एवं आपराधिक प्रवित्ति के लोग जो कि मानवाधिकारों के संरक्षण के नाम पर सत्ता के एजेंट के रूप में काम करें.

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

अच्छा है मानवाधिकार

अंजाम देखा आपने
हुस्ने मुबारक का

था मिस्र का भी वही
जो है हाल भारत का

परजीवियों के राज का
तख्ता पलट कर दो

जन में नई क्रांति का
जोश अब भर दो

उठो आओ हिम्मत करो
क्रांति का परचम धरो

मत भूलो यह सरोकार
अच्छा है मानवाधिकार

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011


गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर महाराष्ट्र स्थित नाशिक जिले के अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनवणे की हत्या से महाराष्ट्र राज्य ही नहीं वरन पूरे देश का प्रशासन और प्रबुद्ध नागरिक भौचक्क है। महाराष्ट्र राज्य के ८० हजार राजपत्रित अधिकारी (गजटेड आफिसर) यशवंत सोनवणे की हत्या के विरोध में गुरुवार को हड़ताल पर चले गये. वास्तव में यह घटना पूरे देश को हिलाकर रख दिया है. एक राजपत्रित अधिकारी को जलाकर मार डालने का दुस्साहस करने वाला तेल माफिया पोपट दत्तू शिंदे और उसके साथियों को पुलिस नें पकड़ लिया है. इस जघन्य अपराध में पोपट दत्तू शिंदे के आलावा उसका साला सीताराम भालेराव और सहायक राजू शिरसाट, काचरू सुरोद, विकास शिंदे, दीपक वोरास, तोसिफ शेख, अल्ताफ शेख एवं पोपट शिंदे का लड़का कुणाल शामिल हैं.
अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनवणे की हत्या कोई साधारण घटना नहीं है यह एक आश्चर्यजनक घटना है. आखिर एक मिलावटखोर तेल माफिया एक राजपत्रित अधिकारी को जलाकर मार डालने की हिमाकत कैसे की यह जाँच का विषय है. अगर इमानदारी से इस मामले की जाँच हो जाय तो पोपट शिंदे महाराष्ट्र के किसी बड़े राजनेता के संरक्षण में अपने इस काले कारोबार को फैला रहा है इसका खुलासा हो जायेगा. लेकिन यकीन मानिए जाँच वहां तक पहुंचने ही नहीं पायेगी और पोपट शिंदे के संरक्षक पर किसी तरह की कोई आंच नहीं आयेगी. इस पोपट शिंदे के जेल या सजा हो जाने पर वह राजनेता किसी नये पोपट शिंदे को पैदाकर उसके संरक्षण में संलग्न हो जायेगा जिससे अगला पोपट शिंदे उस राजनेता के राजनैतिक और आर्थिक हवस की पूर्ति करता रहे और जरूरत पड़ने पर किसी प्रशासनिक अधिकारी की जघन्य हत्या से भी गुरेज न करे.
गुंडाराज के मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों का नाम लिया जाता था किन्तु अब महाराष्ट्र राज्य के नाम का भी उसमे सुमार हो गया है यशवंत सोनवणे की हत्या भ्रष्टाचारियों और मिलावटखोरों के मनोबल को दर्शाता है इस विषय पर गुरुवार को ही केन्द्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री जयपाल रेड्डी और राज्यमंत्री आर.पी.एन. सिंह नें एमओपीएनजी और तेल विपणन कंपनियों के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक की और पेट्रोलियम उत्पादों तथा रियायती ऑटो इंजन में मिलावट की समीक्षा की. यह समीक्षा मालेगांव (महाराष्ट्र) के अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनवणे की हत्या के मद्देनज़र की गयी जो कि पेट्रोलियम उत्पादों की चोरी रोकने के लिए अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए मारे गये. मंत्री महोदय द्वय नें यशवंत सोनवणे के संतप्त परिवार के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए तेल कंपनियों की ओर से उनके परिवार को २५ लाख रूपये की अनुग्रह राशि देने की घोषणा की.
महाराष्ट्र में जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने वाले आरटीआई एक्टिविस्ट सतीश शेट्टी की हत्या की गयी उसी समय सरकार की चुप्पी और निष्क्रियता नें इस तरह की हत्याओं के लिए जमीन तैयार कर दी थी. सतीश शेट्टी की हत्या में भी दबी जुबान राज्य के बड़े नेता का नाम लिया जा रहा था उस समय भी आम जन सतीश शेट्टी की हत्या से विचलित थे किन्तु सरकार चुप थी सतीश शेट्टी की बर्बर हत्या का विरोध आम जन को सड़क पर उतर कर करना चाहिए था. जो कि नहीं किया गया. सतीश शेट्टी नें भी अवैध कारोबार रोकने की कोशिश की थी और यशवंत सोनवणे नें भी किन्तु दोनों मामलों के बीच फर्क यह रहा कि यशवंत सोनवणे की हत्या के विरोध में प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी के लाखों कर्मचारी हड़ताल पर चले गये तथा राज्य और केंद्र सरकार पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाने में कामयाब रहे लेकिन दुर्भाग्य बस सतीश शेट्टी के मामले में ऐसा नहीं हुआ.
मोदी के "वाईब्रेंट गुजरात" में कुछ इसी तरह की घटना घटी यहाँ पर भी आरटीआई एक्टिविस्ट अमित जेठवा की जघन्य हत्या की गयी बताया जाता है कि अमित जेठवा भाजपा सांसद दीनू सोलंकी के काले कारनामों को उजागर कर रहे थे. जिससे क्षुब्ध होकर दीनू सोलंकी नें अपने भतीजे द्वारा अमित जेठवा की हत्या करवा दी. पांच वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में तैनात इंडियन आयल कारपोरेशन के सेल्स मैनेजर षग्मुगम मंजुनाथन की गोली मारकर हत्या भी ऐसे ही तेल माफियाओं द्वारा ही की गयी थी. वे भी लखीमपुर खीरी के कुख्यात मिलावटखोर से मिलावटखोरी बंद कराने के लिए उलझ गये थे इन हत्याओं से पेट्रोल और डीजल में मिट्टी का तेल मिलाकर मोटी कमाई करने वाले तेल माफियाओं का मनोबल कितने खतरनाक स्थिति तक बढ़ चुका है पता चलता है.सवाल यह है कि इन मिलावटखोरों, भ्रष्टाचारियों पर अंकुश लगाने के लिए किसी समाज सेवक या अफसर के शहीद होने के बाद ही सरकार की नींद टूटेगी अगर ऐसा है तो वह दिन दूर नहीं जब इन भ्रष्टाचारी मिलावटखोरों, माफियाओं को रोकने की बजाय समाज सेवक या अफसर अपनी रोजी-रोटी, परिवार तथा जीवन की फ़िक्र ज्यादा करेंगे और इनके सामने चल रहे भ्रष्टाचार या मिलावटखोरी को अनदेखा कर देंगे या शायद इस काले धंधे में हिस्सेदार भी बन जायेंगे.
हत्या चाहे षग्मुगम मंजुनाथन और यशवंत सोनवणे जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसरों की हो या सतीश शेट्टी अमित जेठवा जैसे सामाजिक व्हिसल व्लोवर्स की हो इन हत्याओं के कारण समाज और सरकारी कर्मचारियों में जो संदेश जा रहा है और इस संदेश के कारण उनके भीतर जो भय व्याप्त हो रहा है वह देश के कानून और व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है अब अगर सरकारें समय रहते ऐसी घटनाओं पर अंकुश नहीं लगायीं तो वह दिन दूर नहीं जब भ्रष्टाचारी, मिलावटखोर माफियाओं के द्वारा किये जा रहे हत्याओं की जद में देश के राजनेता भी होंगे. उस समय स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है. यशवंत सोनवणे की हत्या के मामले में जितना दोषी पोपट शिंदे और उसका मिलावटखोर गैंग है उससे कम दोषी उन तेल कंपनियों के अधिकारी और स्थानीय पुलिस प्रशासन नहीं है जिन्होंने पोपट शिंदे से मिलीभगत/भ्रष्टाचार करके उसे मिलावट करने की खुली छूट दी. इनसे भी अधिक दोषी वे राजनेता है जिनका वरदहस्त पोपट शिंदे जैसे मिलावटखोरों पर है. क्या इनके विरुद्ध भी यशवंत सोनवणे की हत्या के लिए परिस्थितियों के निर्माण में सहयोग करने का दोषी मानकर कार्रवाई होगी ? अगर नहीं तो आने वाले दिनों में इस तरह के अनेकों भयावह मंजर से भारतीय समाज को रूबरू होना होगा साथ ही इन तेजश्वी समाज सेवकों और अधिकारियों की हत्याओं को न रोक पाने के कलंक को ढ़ोना होगा. भारतीय लोकतंत्र के लिए यह शर्मनाक स्थिति होगी.