रविवार, 22 जून 2008

आम आदमी के साथ की गयी धोखाधडी

वर्षों पहले भारत वासियों ने एक ऐतिहासिक सपथ ली थी-घोर गरीबी और आभाव के बीच मुस्किल से गुजारा कर रही जनता के दुःख दर्द दूर करने की सपथ । लेकिन अफ़सोस, उस पवित्र निश्चय को लगातार भुलाया जा रहा है खुले-आम वादा खिलाफी की जा रही है । हम भारत के लोग...संविधान की प्रस्तावना में जो देशभक्ति पूर्ण संकल्प दर्ज किया गया था, सर्वोच्च राजाज्ञा का वह संकल्प जिसे भारत के संसद की सर्वोच्च सम्मति से भी नहीं बदला जा सकता उसे उलट दिए जाने की त्रासदी हम आज देख रहे है । और संसद ? उसका वजूद ही क्या रह गया है, जब संसद में किसी प्रकार की बहस किए बगैर ही वित्त मंत्रालय में गैट और डब्ल्यू० टी० ओ० का पालन करने की होड़ मची हो- शासन चाहे किसी भी पार्टी का हो, अविश्वास प्रस्ताव ही क्यो न पारित हुआ हो, आम चुनाव ही क्यो न सर पर हो और गिरगीट की तरह रंग बदलने वालों की गठबंधन सरकारें ही क्यो न स्थापित हुई हो । और दोष निवारण के विशेष अधिकारों से लैश दुसरी प्रमुख संवैधानिक संस्था सर्वोच्च न्यायालय की क्या स्थिति है ? कभी तो यह एक बुत की तरह रहस्यमय चुप्पी साधे रहता है और कभी कम महत्व के मुद्दों पर व्यवस्थाए देते हुए राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर राय देने से कतरा जाता है ।

ऐसे में कार्यपालिका वस्तुतः एक जंगली घोडे पर सवार होकर भारतीय जनता को मन मुताविक हांकती जा रही है इस पर लगाम लगाना न तो संसद के बस में है न न्यायपालिका के और न प्रेस के ।
अंकुश संतुलन की व्यवस्था स्थापित करने की बातें महज एक भ्रम साबित हुई है एक अरब से भी अधिक जनता की आवाज जो शिर्फ़ मतदान के समय तथा वह भी अत्यन्त धीमी सुनाई देती है का कोई मायने नहीं रह गया है । सत्ता चंद मंत्रियों से कैबिनेट के हाँथ में है, राष्टपति शीर्ष पर विराजमान है, विधायिका में मछली बाजार जैसा शोर है और राजनैतिक पार्टियाँ सौदेबाजी में मशगुल है इन सबसे त्रस्त आम जनता संदिग्ध प्रशासन की ओर खौफजदा निगाहों से देख रही है ।
बर्लिन की दीवार ढह चुकी है चीन की महान दीवार फांदी जा रही है । हिमालय भी एक चुनौती न रह कर कब्जा जमाने वाले विदेशी निवेशकों को न्योता दे रहा है । चुनाव एक नकली मुखौटा है मताधिकार प्राप्त आबादी का मात्र दस या बीस फीसदी हिस्सा चुनावी गणित के सहारे सत्ता पर कब्जा दिला सकता है और वह बहुमत का शासन कहला सकता है कैबिनेट एक षड्यंत्रकारी दल बन चुका है देश की प्रमुख पार्टीयाँ तुच्छ मतभेदों को लेकर हो हल्ला मचाती है उसमे चाहे कोई भी चुनाव जीत जाए राज्य साम्राज्यवाद के अलंबरदार पैक्स अमेरिकाना का ही होता है । संविधान की प्रस्तावना जैसे आधारभूत दस्तावेजों के उद्देश्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता, बावजूद इसके १९८० के दशक के उत्तरार्ध तक इसका पालन करने में कोताही बरती गई और बेईमानी भी की गई । हमारी आयात-निर्यात नीतियां विदेशी निवेश स्वीकार करने की तैयारी हमारा पूरा वित्तीय ढांचा और विदेश संवंधों में व्यवहारवाद यह सब गाँधी-नेहरू काल के अनुरूप हो रहे है आज तक विभिन्न
पार्टियों और गठबंधनों के मंत्रिमंडल संविधान की बाकायदा सपथ लेते रहे है जिससे ऐसा लगता है कि एक शाब्दिक निरंतरता बनी रही है एक के बाद एक सभी मंत्रियों नें गांधीजी को राष्ट्रपिता और आंबेडकर और नेहरू को आधुनिक भारत के निर्माता ही माना है । मगर अचानक १९९१ में पीछे मुड का आदेश दिया गया । वास्तव में इस दिशा पलट की भूमिका १९८० के दशक के उत्तरार्ध में राजीव गांधी के विचारधारात्मक घोटाले और २१ वी शताब्दी के आगमन के बारे में दुअर्थी बयानबाजी ने तैयार कर दी थी नरसिंह राव नें संसद की राय लिए बिना जनता के बीच बहस-मुबाहिसा कराए बगैर और भारतीय संविधान की आज्ञा की परवाह किए बगैर एकाएक दिशा पलट दी , इस जबरन कार्रवाई के दौरान वैश्वीकरण, उदारीकरण, और निजीकरण, के ऐसे सगूफे छोडे गये कि संवैधानिक जगत में उथल-पुथल मच गयी इधर वैचारिक भ्रम फैलाने और चिकनी-चुपडी बातों से जनता को बरगलाने की कोशिश हुई और उधर हमारे देश के आर्थिक ढांचे पर विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की दुधारी तलवार ने वार किया ।

भारत पर रीगनी अर्थशास्त्र यानि रीगनोमिक्स का पालन करने की शतें थोपी गयी इसी नये नुस्खे को नाम दिया गया मनमोहनोंमिक्स, चिदम्बरोमिक्स के रूप में इसका नया संस्करण तैयार हुआ इसके पश्चात् स्वदेशी के समर्पित कार्यकर्ताओं, गरीबी की नब्ज टटोलने वालों और देश भक्ती के पुजारियों नें जन विरोधी और नस्लवादी दंभ के कड़वे घोल में उसी नुस्खे को मिलाकर एक नई दवा इजाद की - सिन्होमिक्स, अब मनमोहनोंमिक्स और चिदम्बरोमिक्स की जुगल जोड़ी दूसरी पारी डट कर खेल रही है ।

इन सब के निचोड़ के तौर पर देश में जो छुब्ध करने वाली तस्वीर उभर कर सामने आ रही है वह कुछ इस प्रकार है ।

कार्पोरेट कंपनियों के मालिक वर्ग के लिए और उसका पुछल्ला बन चुके मध्य वर्ग के लिए एक स्वर्ग सा निर्मित हुआ है । तमाम दरबारियों, गुटबाजों, शत्रु-सहयोगियों, संश्रयकारियों से बना है यह दस करोड़ से अधिक का मध्यवर्ग आज यह तबका खूब मजे लूट रहा है मजे पश्चिमोन्मुख पांच सितारा किस्म के जीवन के, चहुमुखी व्याप्त वी० आय० पी० मार्का शानों शौकत के, मंत्रियों के लिए ऐशो आराम के असीमित साधनों के, माफियाओं को दी जा रही खुली छुट के, सर्वत्र व्याप्त और सबपर हावी भ्रष्टाचार के, तथा विकृत विकास कार्यों के लिए राज्य द्वारा की गयी फिजूल खर्ची के जिससे एक ओर तो जहां-तहां फ्लाईओवरों, ऊँचें-ऊँचें बांधों, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों, जम्बो साइज क्रीडा स्थलों और पर्यटन के लिए ऐशगाहों का निर्माण हो रहा है तो दुसरी ओर राज्य व्यापार घाटे, कर्ज के भार मूल्यवृद्धि, सरकारी कोषों के दिवालिएपन, और उत्तरोत्तर अपराधों के बढ़ते मकड़जाल में फसता जा रहा है । और दरिद्र भारत का क्या हाल है ? वह भूख से तड़प रहा है, आत्महत्या का खौफनाक रास्ता अपनाने को विवस हो रहा है, बीमारी के कारण कराह रहा है, और इलाज व भोजन के अभाव में मर रहा है, किसानों, जनजातियों, ग्रामीणों, सर्वहाराओं, की एक बहुत बडी तादात खून-पसीना बहा कर हाड़-तोड़ मेहनत कर और आँसू पीकर गुजारा कर रही है । दुनिया में सबसे ज्यादा निरक्षर, कंगाल, एड्स के शिकार, बेघर परिवार, और गंदे, अस्त-व्यस्त, प्रदूषित, कोलाहल युक्त शहर हमारे भारत में ही है । गावों एवं कस्बों में पीने के पानी का भी अभाव है लेकिन स्काच विह्स्की, फास्ट-फ़ूड, पेप्सी, कोका-कोला, और काल-गर्ल संस्कृति को हर सरकार अपने शासन काल में प्रगती का पैमाना मानती रही है ।

ये शर्मनाक अंतर्विरोध भयानक बीमारी के लक्षण है जिसकी गहरी पड़ताल होनी चाहिए, यह काम कठिन नहीं है पर इसका अहसास कठिनाई पैदा करता है । सत्ता के शिखर पर ऐसे रीढ़ विहीन नायक विराजमान है जिनपर विकसित देश दबाव डालते है और जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, और विश्वबैंक की तिकडी के दलालों के रूप में शासन करते है । स्वदेशी मर चुका है, समाजवाद को जानी दुश्मन करार दिया गया है, अधर्मियों का राज है और मसीहाओं को सलीबों पर लटकाया जा चुका है, तथा बचे-खुचों को लटकाने का षड्यंत्र जारी है । विदेशी जीवनशैली की चका-चौंध में दृष्टिहीन हो चुका हमारा मध्यवर्ग देश को दुबारा उपनिवेश बनाने के संविधान विरोधी अभियान को सहयोग और समर्थन दे रहा है । अफसरशाहों और पार्टियों के पदाधिकारियों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चाटुकारिता करने की होड़ मची है । न्यायालय जुआ घर बन गये है, कानून के हांथ बांध दिए गये है और न्यायालयों के शरण में जाने वाले कंगाली के चपेट में आ रहे है । ऐसी स्थिति में किसी से कोई उम्मीद की जा सकती है ।

जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री हुए तो लगा कि वे हमें स्वराज्य की संकल्पना की ओर वापस ले चलेंगे लेकिन यह भोली आशावादिता ही साबित हुई वी० पी० सिंह पहले ही राजनीति के पटल से गायब हो चुके थे । फ़िर छमाही प्रधानमंत्रियों का ताँता लग गया इसके बाद स्वदेशी का दंभ भरने वालों और आज के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री- सब के सब स्वराज्य को ताक पर रख दिया और साम्राज्यवादी देवताओं को साष्टांग दंडवत कर उनकी ओर से आने वाले तमाम प्रस्ताव एक-एक करके स्वीकारते चले जा रहे है ।

बडे व्यवसायीयों और लुटेरों द्वारा संचालित वैश्विकरण के कारण महात्मा गाँधी के सपनों की हत्या ठीक उसी तरह हो रही है जिस तरह उनकी हत्या कर दी गयी । धनपिपासुओं के खातिर किए जा रहे उदारीकरण और निजीकरण के माध्यम से भारत की कृषि एवं उद्योग को विदेशी प्रभुत्व के नए नए अवतारों के हवाले किया जा रहा है ।

भारत के आर्थिक तंत्र पर आख़िर राज किसका है ? प्रचार चाहे कुछ भी किया जा रहा हो पेट्रौल -डीजल तथा रसोई घर के गैस का दाम बढाया जाना जनविरोधी कदम ही था और आयात करों में हेर-फेर राष्ट्रीय उद्योग के लिए हानिकारक ही होगा । सार्वजनिक निगमों को हलाल करना, विदेशी बैंकों और बीमा कंपनियों को प्रवेश की निर्बाध छुट देना, पेटेंट और ट्रिप्स-ट्रिप्स, परमाणु समझौते आदि को लागु करने के प्रति अड़ियल रवैया अपनाना -इन सबसे जाहिर है कि एक साम्राज्य परस्त मानसिकता जोर मार रही है । वित्तमंत्री पी० चिदंबरम ने कहा है कि अभी और सख्त फैसले किए जाने है इसका अर्थ है कि उन भारतीयों की टूटी अर्थ व्यवस्थाएं जिन्हें इन्सान तक नही समझा जाता, बर्फीली हवाओं के चपेट में आने वाली है । आख़िर वे देश के उन गरीबों के हित में सख्त फैसले क्यो नहीं लेते जिनके मतों से सत्ताशीन हुए है ? उनके मतदाता कौन थे ? अमेरिकी कंपनिया या भारत की आम जनता ? गैट-असुर के सामने आत्मसमर्पण करने के सवाल पर विपक्ष की सत्ता पक्ष के साथ एकता है । स्वतंत्रता प्राप्ति के ४० साल बाद तक भारतीय आवाम ने अपने बेहतरी के लिए न कभी भीख मांगी न उधार लिया और न कभी घुटने टेके । देश का संकठ अल्पावधि ऋण लेने के गैर जिम्मेदार फैसलों, विदेश से खर्चीले सामानों की खरीद तथा निवेश और साथ-साथ जनमानस के प्रति उदासीनता के कारण पैदा हुआ है । उधर विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के शूरमाओं नें इस संकठ का लाभ उठाने की कोशिश शुरू की, इधर हमारी सरकार चलाने वाले उसका शिकार बनने के लिए तैयार बैठे थे । क्या कोई वैकल्पिक रास्ता भी था इसपर सायद ही संदेह होगा कि जब विकासशील देश धनी देशों के साथ सीधा संवंध बनाते है तो वे आधुनिक तकनीक पर आधारित नये उद्योग एवं सेवा क्षेत्रों की आवश्यकता महसूस करते है । सवाल उस मान्यता पर उठाया जाना चाहिए जिसके अनुसार इस आधुनिक क्षेत्रों का इतना व्यापक विस्तार किया जा सकता है कि उसके लाभ आम आदमी तक पहुंचनें लगेंगे और यह कि ऐसा जल्दी ही संभव बना दिया जाएगा ।

हमारे वक्तव्य का प्रस्थान बिन्दु या यों कहें कि इस हद तक की गरीबी है । जो दुःख तकलीफ पैदा करती है, मनुष्य को छरित करती है और उसकी छमताओं को कुंद कर देती है हमारा पहला दायित्व यह जानने और समझने का है कि यह गरीबी किस तरह की सीमांए और बाधाएं खडी करती है साथ ही यह भी कि विकास का भौतिकवादी दर्शन हमें शिर्फ़ भौतिक अवसरों का दर्शन कराता है । अन्य कम महत्वपूर्ण लगने वाले कारकों पर कोई प्रकाश नहीं डालता । आशय यह है कि दरसल मानव विकास की शूरूआत वस्तुओं से होती ही नहीं है, उनकी शिक्षा से होती है, उनके संगठन से होती है, एवं उनके अनुशासन से होती है । इन तत्वों के बिना सारे संसाधन महज अन्तर्निहित क्षमता और सुप्त संभावना ही बने रहते है ।

आज की मौजूदा स्थिति यह है कि देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रीगण, सांसदगण, तथा अन्य वी० आय० पी० ख़ुद को जनता से काटते जा रहे है किंतु यह निश्चित है कि यदि वे अपना रास्ता नही बदले तो उनको इसकी किंमत आवश्यक रूप से चुकानी पडेगी । वैश्वीकरण के प्रति जो भय व्याप्त हो रहा है वह एक न एक दिन लावा बनकर अवस्य फूटेगा । उदाहरण के लिए बास्तील का वह किला जिसपर प्रहार के साथ फ्रांसीसी क्रांति की शुरूवात हुई थी आज भी प्रतीक के रूप में खडा है । वस्तुतः फ्रांस की क्रांति के पश्चात मैग्नाकार्टा की उदघोषणा मानव अधिकारों की आवश्यकता को जिस तरह उल्लिखित किया बिलकूल ठीक वही स्थिति आज हमारे भारत देश की है ।

बुधवार, 18 जून 2008

मानव अधिकारों का सामाजिक स्वरूप

वस्तुतः मानव अधिकारों का स्वरूप सामाजिक ही है समाज के बिना अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं, यह एक प्रकार का सामाजिक दावा है जो कि न तो स्वार्थ पूर्ण है और न तो किसी दुसरे व्यक्ति के हितों को नुकसान पहुंचता है । प्रो० लास्की ने कहा है कि " अधिकार सामाजिक जीवन की वह परिस्थिति है जिनके बिना कोई भी मनुष्य अपनी उन्नति पर नहीं पहुंच सकता" मानव अधिकार द्वारा समाज में सभी के हितों की पुष्टि होती है और इसमे समाज तथा कानून की मान्यता निहित रहती है मानव अधिकारों का स्वरूप कल्याणकारी है ए प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से मानव कल्याण से संवंधित है मानव हित से संवंधित होने के कारण ही मानव अधिकार राज्य तथा समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है ।
मानव अधिकारों की सोच व्यक्ति के सामाजिक जीवन की देन है, समाज में रह कर ही मानव अधिकारों का प्रयोग किया जाता है मानव अधिकारों का प्रयोग जब-तक लोकहित में होता रहेगा तब-तक उसके ऊपर किसी का भी नियंत्रण नही हो सकेगा मानव अधिकारों के संरक्षण की जिम्मेदारी राज्य के ऊपर होती है, प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से अधिकारों का प्रयोग करने का अवसर देना कल्याणकारी राज्य का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए, मानव अधिकारों का लक्ष्य सार्वभौमिक है यदि एक व्यक्ति को जीने का अधिकार है तो यह अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए अन्तर्निहित है, मानव अधिकारों की अवधारणा ने कर्तव्य को प्राथमिकता दी है अधिकार हमेसा कर्तव्य से संवंधित रहता है कर्तव्य के अभाव में हम किसी अधिकार की कल्पना नहीं कर सकते यदि लोगों को संपत्ति का अधिकार है तो यह अन्य व्यक्ति का कर्तव्य है कि वे उसके इस अधिकार का उल्लंधन न करे इस विषय में पश्चिमी विचारक हाब हाउस ने कहा है कि "अधिकार और कर्तव्य सामाजिक कल्याण की दो महत्वपूर्ण दशाए है ।
वैसे तो केवल एक लेख में संपूर्ण मानव अधिकारों की व्याख्या करना अत्यन्त कठिन कार्य है, सभ्यता और सामाजिक संगठन के साथ ही अधिकारों की वृद्धि होती गई और अब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई है । भिन्न-भिन्न देशों के नागरिकों को भिन्न-भिन्न अधिकार प्राप्त है स्वतंत्र देश के नागरिक के अधिकार परतंत्र देश के नागरिकों के अधिकारों से भिन्न एवं मुखर होते है, हम यहाँ स्वतंत्र देश के नागरिकों के अधिकारों का अध्यन करें । अधिकारों को हम यहाँ चार श्रेणियों में विभाजित करते है । (१) प्राकृतिक अधिकार (२) नैतिक अधिकार (३) मौलिक अधिकार (४) कानूनी या वैधानिक अधिकार ।
प्राकृतिक अधिकार :- प्राकृतिक अधिकारों की श्रेणी में नैतिक व नैसर्गिक मूल अधिकार आते है यदि प्राकृतिक शब्द का विश्लेषण किया जाय तो पता चलता है कि इस शब्द का प्रयोग विराट, स्वाभाविक, आदर्श, अकृत्रिम और नैतिक के अर्थ में होता है अतः प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक अधिकारों से व्यक्ति के उन अधिकारों का ज्ञान होता है जो उसे प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त हो इसका अर्थ यह हुआ कि आदिम अवस्था में अथवा समाज के निर्माण से पहले व्यक्ति उन अधिकारों का उपयोग करता आया है । इन अधिकारों की जननी प्रकृति थी और जबतक संसार में मनुष्य रहेंगे तब-तक उन अधिकारों से मनुष्य को वंचित नहीं किया जा सकता प्रकृति ने जो सामाजिक भावना की उत्पत्ति की है इन्ही अधिकारों की रक्षा के लिए थी ।
उदाहरण के लिए-जीवन रक्षा और स्वतंत्रता के अधिकार व्यक्ति को है तो समाज का कर्तव्य हो जाता है कि वह इन अधिकारों की रक्षा इस लिए करे क्योकि समाज का निर्माण इन्ही अधिकारों की रक्षा के लिए हुआ है इस विषय में रूसों का मत है कि-"प्राकृतिक अधिकार ही आदर्श अधिकार थे और वे राज्य की उत्पत्ति से पहले विद्यमान थे ।
नैतिक अधिकार :- ऐतिहासिक काल से ही समाज व्यक्ति के इन अधिकारों को स्वीकार करता आया है उदहारण के लिए-बच्चे को यह अधिकार प्राप्त है कि जब-तक वह बडा न हो जाय माता-पिता उसका भरण-पोषण करें, गरीबों को सहायता करना, अंधे को रास्ता बताना आदि ऐसे अधिकार है जिनके विपरीत कार्य करने पर राज्य अथवा समाज दण्डित तो नही कर सकता परन्तु उन्हें हीन दृष्टि से अवश्य देख सकता है । इस आधार पर नैतिक अधिकार को इस तरह परिभाषित किया जा सकता है "जिन अधिकारों के प्रयोग के अभाव में व्यक्ति के आत्मा को कष्ट हो अथवा जिसका संवंध आत्मा से है वे नैतिक अधिकार है जैसे राज्य या समाज का यह कर्तव्य है कि वह नारी (महिलाओं ) का आदर करे । शवों का सम्मान भी नैतिक अधिकार के ही अंतर्गत आते है ।
मौलिक अधिकार :- इन अधिकारों को हम प्राकृतिक तथा वैज्ञानिक दोनों कह सकते है, यही कारण है जिसके उन्हें मूल अधिकार कहा जाता है । इन्ही अधिकारों के कारण व्यक्ति और समाज, राज्य और नागरिक का संवंध स्थिर होता है । कोई भी राज्य अथवा समाज बिना अपने सांस्कृतिक स्वरूप को बदले इन अधिकारों के प्रयोग से नागरिकों को वंचित नहीं कर सकता यही कारण है कि प्रायः सभी सभ्य एवं आधुनिक देशों के विधान में इन अधिकारों का स्पष्ट वर्णन रखा गया है । स्वतंत्रता, समानता, जीवनरक्षा, जीविकोपार्जन तथा देश के संविधान में आस्था इन्ही मौलिक अधिकारों की श्रेणी में आते है ।
इन अधिकारों को प्राकृतिक अथवा मौलिक अधिकार इसलिए कहा जाता है कि इन्ही से व्यक्ति की स्थिति और विकास की आवश्यक दशाओं का निर्माण होता है इन अधिकारों का कोई निश्चित वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं किया जा सकता तथा न ही इसकी कोई सर्वमान्य तालिका ही बनाई जा सकती है ।
कानूनी या वैज्ञानिक अधिकार :- वैज्ञानिक अधिकारों के अंतर्गत सामाजिक तथा राजनैतिक दोनों प्रकार के अधिकार आते है । यह अधिकार व्यक्ति की वह मांग है जिसे समाज स्वीकार करता है तथा राज्य मान्यता देता है । वैज्ञानिक अधिकार वह अधिकार है जिसका उपयोग सभी नागरिक (वयस्क, बालक, विदेशी और व्यापारी ) करते है राज्य का यह कर्तव्य है कि इन अधिकारों के उपयोग के लिए सरल नियम बनाये साथ ही जो व्यक्ति, व्यक्ति अथवा समाज को इन अधिकारों के उपयोग से वंचित करें या इन अधिकारों का हनन अथवा अतिक्रमण करे उन्हें राज्य समुचित दंड दे । कानूनी अधिकारों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है (१) सामाजिक अधिकार (२) राजनैतिक अधिकार ........आगे जारी...................

सोमवार, 16 जून 2008

महिला अधिकारों की विवेचना

जिस तरह हर संपत्ति, साम्राज्य लूट ठगी और अपराध की बुनियाद पर टिका होता है ठीक उसी तरह परिवार का ताना-बाना स्त्री की गुलामी और अस्मिता विहीनता की बुनियाद पर खडा है-चाहे वह मध्य युगीन पितृसत्तात्मक ढांचे वाला सामंती संयुक्त परिवार हो या पूंजीवादी ढंग से संगठित परिवार । परिवार वर्ग निरपेक्ष संस्था नहीं है परिवार का प्यार मूल्य मुक्त प्यार होता ही नही यही कारण है कि पूर्ण समानता और स्वतंत्र अस्मिता की चाहत रखने वाली कोई भी स्त्री भला क्यो चाहेगी कि बचा रहे परिवार ।
मेरे द्वारा इन तथ्यों को उभारने से कृपया मुझे अराजकतावादी अथवा स्वच्छंदतावादी न समझें यह बुर्जुआओं और फिलिसटाईन बुद्धिजीवियों और अतीत की रागात्मकता के लिए विलाप करने वाले अतीतजीवियों का गुण है । इतिहास में पीछे की ओर चलें तो एक विवाह प्रथा की स्थापना के साथ ही एक ओर जहाँ मानव सभ्यता के उच्चतर, अधिक वैज्ञानिक नैतिक मूल्यों का जन्म हुआ, पुरूष द्वारा स्त्री को दास बनाये जाने की शुरुआत भी यहीं से हुई धीरे-धीरे स्त्री एक सजीव पारिवारिक संपत्ति के रूप में रूपांतरित होती चली गई । संपत्ति संचय और कानूनी वारिसों को उसका हस्तांतरण परिवार का मुख्य उद्देश्य बन गया ।

सामंती समाज के पित्रसत्तात्मक पारिवारिक ढांचे में ऊपर से जो रागात्मकता, स्त्री के प्रति उदार संरक्षण भाव, यदा-कदा श्रद्धा भाव और उसके सौंदर्य के प्रति सूक्ष्म जागरूकता दिखाई देती है वह सब उपरी चीज है "खांटी पुरूष दृष्टि" को यह सब बहुत भाता है धुंधली पर्त को भेद कर रहस्य तक पहुंचने पर पता चलता है कि स्त्री सामंती समाज में विलासिता और निजी उपभोग की वस्तु मात्र थी और साथ ही वंश चलाने का जरूरी साधन । अपनी प्रजा, हांथी, घोडे, नौकर आदि के प्रति संरक्षण भाव रखने वाले सामंत स्त्रियों के प्रति भी संरक्षण भाव रखते थे ।
पूजीवाद ने अपनी जरूरतों से स्त्रियों को रसोई घर से उठाकर तथा गुलामी से आंशिक मुक्ति दिलाने के नाम पर दोयम दर्जे की नागरिकता देने के साथ उसे निकृष्टतम कोटी की उजरती गुलाम बनाकर सड़कों पर धकेल दिया पूजीवाद की विकसित अवस्था की उपभोक्ता संस्कृति में सूचना तंत्र, प्रचार तंत्र, और नये मनोरंजन उद्योग के अंतर्गत स्त्री ख़ुद में एक उपभोक्ता सामाग्री बनकर रह गई, पुराने सामंती परिवार के राग अनुराग को तोड़ कर पूंजी ने घटिया उपयोगितावाद को जन्म दिया और पूंजी पर निजी लाभ के आधार पर खडे पूजीवादी परिवार में बेगानापन पोर-पोर में रच-बस गया मध्य युगीन प्यार के स्वप्न लोक में विचरण करती दुखी आत्माओं को लगने लगा कि परिवार टूट रहा है, प्रलय आ रहा है, लेकिन यह परिवार का टूटना नहीं बल्कि उसका पूजीवादी रूपांतरण था ।

आज भारत में जिसे परिवारों का टूटना विखरना कहा जा रहा है वह क्या है ? इसका उत्तर है- औपनिवेशिक भारतीय समाज भूमि संबंधों के "जूकर" टाइप रूपांतरण और उद्योगों के विकास के साथ ही एक अर्ध औद्योगिक कृत समाज में क्रमशः रूपांतरित होता चला गया यहाँ साम्राज्यवाद पर निर्भर एक बौना, बीमार, विकलांग पूजीवाद विकसित हुआ है । अठारहवीं, उन्नीसवी सदी के यूरोपीय पूजीवाद से भिन्न उपनिवेशवाद के गर्भ से जन्मा साम्राज्यवादी विश्व परिवेश में पला यह पूजीवाद जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों मान्यताओं से समझौता किए हुए है, उन्हें "एडाप्ट" किए हुए है और स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों और तर्क परता से रिक्त है इस संक्रमण कालीन भारतीय समाज में स्त्रीयों की पीड़ा दोहरी है । संयुक्त परिवारों के ढांचे टूटने, नाभिक परिवारों के बढ़ते जाने और आंशिक सामाजिक आजादी के बावजूद मुल्क मान्यताओं के धरातल पर वह पित्रसत्तात्मक स्वेछाचारिता को भुगत रही है, और उपभोक्ता संस्कृति के नई नग्न निरंकुशता को भी, पति उसे शिक्षित और आधुनिक देखना चाहता है । अपनी मित्र मंडली को प्रभावित करना और जलाना चाहता है पर यह नहीं चाहता कि वह उसकी इच्छाओं की सीमा-रेखा लांघकर किसी पुरुष से (यहाँ तक कि किसी स्त्री से स्वतंत्र सम्बन्ध बनाये) वह यह तो चाहता है कि घर का बोझ हल्का करने के लिए कमाए पर वह यह नहीं चाहता कि अपने दफ्तर या कारखाने में स्वतंत्र रिश्ते बनाये वह यह जरूर चाहता है कि स्त्री यन्त्र मानव की तरह बस पैसे कमाए, और आज्ञाकारी शुशील पत्नी की तरह वह समय से घर आ जाए । उच्च से लेकर उच्च मध्यवर्ग तक में किटीपार्टियों, लायंस, रोटरी पार्टियों में जाने की आजादी है और पत्नियों की अदला-बदली और स्वच्छंद यौनोपभोग का खुला गुप्त चलन भी बढ़ रहा है । मध्य वर्ग से लेकर कामगार वर्गों तक की काम-काजू स्त्रियों का शारीरिक मानसिक श्रम सबसे सस्ता है । बाहरी काम-काज या नौकरी में पुरूष से अधिक श्रम करने के बावजूद उसे घर का काम-काज और बच्चों का लालन-पालन भी करना है कुछ उदार पति इसमें हाँथ बटाकर उसे उपकृत जरूर करते रहते है । प्यार को बचाने के लिए परिवार को बचाना जरूरी नही है समाज के नैतिक आत्मिक सौन्दर्यात्मक मूल्यों और भौतिक जरूरतों की एक अभिव्यक्ति समाज के इस नाभिक के रूप में हुई जो निजी दैनंदिन जीवन के संगठन का सबसे महत्वपूर्ण रूप थी पर मानवीय सारतत्व और प्यार की अभिव्यक्ति भविष्य के लिए समाज में किसी और संगठन के रूप में होगी यदि उसे परिवार की संज्ञा दी भी जाए तो कम से कम यह जरूरी कहना होगा कि उसका ढांचा मौजूदा पारिवारिक ढांचे से गुणात्मक रूप से भिन्न होगा उत्पादन एवं विनिमय प्रक्रिया के सामाजीकरण के साथ रसोई घर की गुलामी से पूर्णतः मुक्त होगी, स्त्री-पुरूष का प्यार तब पूर्ण समानता और स्वतंत्रता के आधार पर होंगे उसमें बाध्यता और विवशता का कोई तत्व नहीं होगा ।

भारत में जिस तरह पूरे सामाजिक राजनीतिक तंत्र में, ठीक उसी तरह आत्मिक- निजी जीवन में एक पुरानी बुराई का स्थान नई बुराई ने ले लिया है पित्रसत्तात्मक सामंती पारिवारिक ढांचे की स्वेच्छाचारिता, कूपमंडूकिय रागात्मकता स्त्रियों के पाथक्य आदि का स्थान आज बाजार उपनिवेशवाद के दौर में पूजीवादी पारिवारिक ढांचे की निरंकुशता, नग्न यौन उत्पीडन, उपभोक्ता संस्कृति और बेगानापन ने ले लिया है । और यह नया ढांचा अभी से क्षरणशील है, विघटनोंन्मुख है । साथ ही सकारात्मक पहलू यह है कि स्त्री के भीतर अपनी अस्मिता की नई पहचान, और नई मुक्ति चेतना पैदा हुई है । अभी वह हजारों साल पुराने संस्कारों से मुक्त नहीं हो सकी है पर अब वह दिन दूर भी नहीं कि वह सच्ची समानता व स्वतंत्र इच्छा पर आधारित नैतिक प्यार की उद्दातता व गरिमा को हासिल करने के लिए परिवार की मौजूदा संस्था, इसके व्यभिचारी, उत्पीड़क, शोषक, निरंकुश स्वरूप को ध्वस्त कर देगी इसे बचाने की कोशिश बेकार है वर्तमान की दुर्दशा का समाधान अतीत में नहीं बल्कि भविष्य में देखना होगा, सवाल सौन्दर्यात्मक उद्दात्त धरातल पर मानवीय प्रेम की प्राण प्रतिष्ठा का हैं एक ऐसी सामाजिक संरचना के निर्माण का है, जिसमें स्त्री पूर्ण समानता, स्वावलंबन और स्वतंत्र अस्मिता के आधार पर स्वयं अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने में सक्षम हो ।

गुरुवार, 12 जून 2008

धारा ३७७ और मानव अधिकारों का उल्लंघन

दिल्ली उच्च न्यायालय में वयस्कों के बीच सहमति से बनाये गए यौन संवंध को गैर-आपराधिक घोषित करने के लिए नांज फाउंडेशन इंडिया द्वारा दायर याचिका के जबाव में भारत सरकार नें कहा है कि धारा ३७७ भारतीय दंड संहिता को बदला नहीं जा सकता, क्योकि अधिकतर भारतीय समाज समलैंगिकता को अनुचित समझता है । इस स्पष्टीकरण में सरकार यह पहचानने में असफल रही कि बहुसंख्यक जनता की लोकप्रिय भावना जिसका वो दावा करती है का लिहाज किए बिना इस देश के कानून का काम है कि सभी नागरिकों के मानव अधिकारों को सुरक्षित रखना व उन्हें बल देना बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के तौर से बात करना वैसे ही कठिन है खासकर यह ध्यान में रखते हुए कि 'अप्राकृतिक' समझी जाने वाली यौन क्रियाओं में मुख व गुदा मैथुन शामिल है, चाहे ये क्रियाएँ पुरूष-पुरूष, महिला-महिला या महिला पुरूष के बीच ही क्यो न हो रही हो ।
ऐसे मामलों में भी जहाँ राज्य स्वयं प्रत्यक्ष रूप से उत्पीडन नहीं करता, धारा ३७७ कानून का विद्यमान होना ही संविधान के तीसरे भाग द्वारा सुनिश्चित बहुत से मौलिक अधिकारों का अनादर करता है । इसमें शामिल है -जीवन तथा स्वतंत्रता का अधिकार जैसा कि अनुच्छेद २१ में दिया गया है ( इसके अंतर्गत स्वास्थ्य तथा एकांतता का अधिकार भी आता है ) अनुच्छेद १४ के तहत दिया गया समानता का अधिकार और अनुच्छेद १९ के अंतर्गत बोलने, आने-जाने, इकट्ठा होने, व्यवसाय या व्यापर करने तथा रहने का अधिकार शामिल है । जैसा कि इस पूरे दस्तावेज में साक्ष्यों से पता चलता है - जबरदस्ती ठीक करने के लिए अपनाई गई चिकित्सा, नौकरी या घर छीन जाने अथवा स्वतंत्र रूप से बोलने या इकट्ठा होने की असमर्थता की कहानियों के माध्यम से-धारा ३७७ एक ऐसा कानून है जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है । जैसा कि संविधान में कहा गया है ऐसे कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर देना चाहिए ।
धारा ३७७ अन्याय की संस्कृति बनाये रखने में भी योगदान देती है । भेद-भावपूर्ण सामाजिक मनोवृत्तियों को 'कानूनी' करार देकर यह धारा उन सामाजिक नजरिये को मजबूत बनाती है जो चुपचाप, चतुराई से हम सबकों अपनी लपेट में लेती है, धारा ३७७ जिन मूल्यों को बढावा देती है, वे यौनिकता के इर्दगिर्द शर्म, गोपनीयता और अपराधबोध पैदा करना चाहते है ये वे हथियार है जो पित्रसत्ता के लिए बहुत फायदेमंद साबित हुए है क्योकि इनके द्वारा यह सुनिश्चित हुआ है कि महिलाये अपना चुनाव न कर सकें । धारा ३७७ नागरिकों को उन अधिकारों, जिन्हें सकारात्मक रूप से यौनिक अधिकारों के रूप में परिभाषित किया जाता है, का प्रयोग करने की स्वीकृति नहीं देती । किस तरह की यौनिकता को हम 'सहज' 'साधारण' और 'मान्य' मानेगें -यह तय करने के मापदंड गढ़ती है धारा ३७७ लेकिन जहाँ यह कानून सभी यौनिकताओं के लिए मापदंडों का निर्माण करने में सफल रहा है, वही इसने समलैंगिक इच्छा रखने वाले लोगों व समुदायों के लिए खास तरह की परेशानिया खड़ी की है ।
यौनिक अल्पसंख्यकों के मानव अधिकारों का उल्लंघन कैसे किया जाता है, यह देखने के लिए हमे यह जानना जरूरी है कि राज्य के साथ-साथ उल्लंघन करने वालों में शामिल है कई तरह के गैर राजकीय दावेदार जैसे परिवार, मीडिया और चिकित्सक । राज्य द्वारा किए जाने वाले भेदभाव और सामाजिक भेदभाव में स्पष्ट रूप से ऐसा संबंध है जो एक दुसरे के द्वारा किए गए भेदभाव को बढावा देता है । उचित सचेतना ( Due diligence ) का सिद्धांत भारत सरकार द्वारा केवल कथनी में दिखता है, करनी में नहीं । यह मांग करता है कि राज्य गैर-राजकीय दावेदारों के द्वारा किए जा रहे उल्लंघनों की रोकथाम करें, उनकी जांच करें, मुकदमा चलाए और क्षतिपूर्ति करें । लेकिन वास्तविकता यह है कि निजी तौर पर नागरिकों द्वारा किए जाने वाले उल्लंघनों में राज्य की भी भागीदारी रहती है । समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों व समुदायों को मानव अधिकार उल्लंघन से सुरक्षा प्रदान करने में राज्य की अनिच्छा साफ नजर आती है धारा ३७७ जैसे कानून इस गैर-कानूनी और अन्यायपूर्ण व्यवस्था को केवल एक औपचारिक रूप देते है ।
जो विषमलैगिक ढांचे के अनुसार नहीं चलते, उनकी स्थिति का काफी दस्तावेजीकरण हो रहा है, बहुत सी रिपोर्टें, जिसमें पीपल्स यूनियन आफ सिविल लिबर्टीज़, कर्नाटक ( पी यू सी एल के ) द्वारा प्रकाशित रिपोर्टें भी शामिल है यह दिखाती है कि गे, लेस्बियन, हिजडा, ट्रांसजैन्डर्ड और बाईसेक्स्युअल लोगों की मानव प्रतिष्ठा का बार-बार किस प्रकार उल्लंघन किया जाता है । उल्लंघनों का क्षेत्र बहुत ब्यापक है- पुलिसवालों द्वारा हिजडों के बार-बार बलात्कार से लेकर एक समलैगिक छात्र की व्यथा तक जिसके माता-पिता नें उसे बेघर कर दिया और उस व्यक्ति की यंत्रणा तक जिसे समलैंगिकता का 'इलाज' करने के लिए दर्दनाक चिकित्सा पद्धति से गुजरने के लिए मजबूर किया जाता है । पुलिस द्वारा समलैंगिक पुरुषों को लगातार तंग किया जाना और बडी संख्या में उन दोनों महिलाओं द्वारा आत्महत्या जो अपना जीवन साथ-साथ गुजारना चाहती थी - ऐसे किस्से डर, उत्पीडन और हिंसा की एक दुःख भरी तस्वीर पेश करते है । भारत में यौनिक अल्पसंख्यक इसी माहौल में अपना जीवन व्यतीत करते है ।
जिन विशेष उल्लंघनों का सामना गे, लेस्बियन, हिजडा, ट्रांसजैन्डर्ड और बाईसेक्स्युअल लोग करते है, उन्हें मुद्दे के रूप में उठाने की आवश्यकता को अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार समुदाय के अधिवक्ताओं नें पहचाना है । इस महसूस की गई जरूरत को प्रतिज्ञापत्रों और घोषणाओं द्वारा समर्थन मिला है । सन १९९१ में एमनेस्टी इन्टरनेशनल नें उन लोगों के अधिकारों की सहायता के लिए एक नीति बनाई, जिन्हें (एकांत में ) समलैगिक क्रियाओं में भाग लेने के कारण कैद में डाला गया था । 'टूटन बनाम तिस्मानिया राज्य' के मामले में निर्णय के बाद यौनिक अल्पसंख्यक अधिकारों के बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चिंताओं नें जोर पकड़ा इस निर्णय के मुताबिक तिस्मानिया का वह कानून जो गुदा मैथुन को गैर-कानूनी ठहरता है, ( काफी हद तक भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ के समान ) तिस्मानिया द्वारा हस्ताक्षरित अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार समझौते के अंतर्गत समान सुरक्षा और एकांत से जुड़े अधिकारों का उल्लंघन करता है । दक्षिण अफ्रीका में भी हाल ही में संवैधानिक न्यायालय नें गुदा मैथुन विरोधी कानून को असंवैधानिक घोषित किया है क्योकि यह समलैगिक लोगों की गरिमा और एकांत से जुड़े अधिकारों का उल्लंघन करता है । अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तनों में दक्षिण अफ्रीकी संविधान का एक संशोधन शामिल है जो यौनिक अभिरूचि के आधार पर भेद-भाव पर रोक लगता है । इसके अलावा यूरोपियन यूनियन की शर्त भी है जिसके तहत यूरोपियन यूनियन के सभी सदस्य हर उस कानून को हटाए जो गे, लेस्बियन, और बाईसेक्स्युअल लोगों के खिलाफ भेद-भाव करता है ।
नागरिक समाज की ओर नजर घुमाये तो अपने आप को उदार व अति प्रगतिशील कहने वाले लोगों में भी यौनिकता को एक तुच्छ, हल्का या बुर्जुआ मुद्दा कहकर उसपर ध्यान नहीं दिया जाता । ऐसी परिस्थिति में समलैगिकता को कुल मिलाकर इस तरह देखा जाता है जैसे वह कुछ 'असामान्य' हो । ज्यादा से ज्यादा उसे एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मुद्दे के रूप में देखा जाता है, मानव अधिकार के रूप में नहीं । सामान्य यौनिक अन्तर पर आधारित उत्पीडन के मुकाबले गरीबी, वर्ग और जाति से जुड़े उत्पीडन के मुद्दे को अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है । लेकिन यह इस सत्य को अनदेखा कर देता है कि यौनिक का सभी सामाजिक उत्पीड़नों (जैसे कि पित्रसत्ता, पूजीवाद, जातिप्रथा और धार्मिक उन्माद या कट्टरता ) से गहरा जुडाव है । विडंबना यह है कि सभी अधिकार मूल-रूप से एक दुसरे से जुड़े हुए है और उन्हें अलग-थलग नहीं किया जा सकता- इन सिद्धांतों का समर्थन करने वाले मानव अधिकार कार्यकर्ता यौनिक अधिकारों को अलग से अल्पसंख्यक अधिकारों का दर्जा देकर छोटा बना देते है । हमें यह पहचानने में गलती नहीं करनी चाहिए कि यौनिक अधिकारों की मांग कोई अलग मांग नहीं है -और वास्तव में यह आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक न्याय के व्यापक मानव अधिकार संघर्ष का एक अटूट हिस्सा है ।
धारा ३७७ मानव अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र का भी उल्लंघन करता है :
* मानव अधिकारों का विश्वव्यापी घोषणा :- ' कोई भी व्यक्ति यंत्रणा या क्रूर अमानवीय, अपमानजनक व्यवहार या फ़िर दंड का विषय नहीं होना चाहिए ( अनुच्छेद ५)
* संयुक्त राष्ट्र की मानव अधिकार समिति :- नें एक मामले में नोट किया कि आई सी सी पी आर ( इन्टरनेशनल काविनेन्ट आन सिविल एंड पोलिटिकल राइट्स - नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय शपथपत्र ) की गैर भेद-भाव वाली धारा में किए गए यौन के उल्लेख में 'यौनिक अभिरूचि' को भी शामिल किया जाना चाहिए ।
* संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार आयोग ने :- सब राज्यों से अपील की है कि वे न केवल समलैगिकता को आपराधिक मानने वाले कानूनों को रद्द करें, वल्कि अपने संविधानों या अन्य मौलिक कानूनों में यौनिक अभिरूचि पर आधारित भेद-भाव के निषेध को प्रतिष्ठापित करें ।
* बीजिंग पी ऍफ़ ए :- महिलाओं के मानव अधिकारों में उनकी यौनिकता से संवंधी बातो में जिम्मेदारी व स्वतंत्रता से निर्णय लेने और नियंत्रण का अधिकार शामिल है । इसमे बिना जबरदस्ती, बिना भेद-भाव और बिना हिंसा के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य भी शामिल है ।

शुक्रवार, 6 जून 2008

संभाव्य एवं सुदृढ़ विकास बनाम पर्यावरण एक संतुलित अवधारणा

विकास बनाम पर्यावरण की संतुलित अवधारणा या पर्यावरण बनाम विकास की परंपरागत अवधारणा परस्पर विरोधाभाषी है । पहले तात्पर्य यह था कि या तो पर्यावरण अथवा विकास । किंतु आधुनिक समय में उपरोक्त अवधारणा सुसंगत नहीं है इस दुविधात्मक परिस्थिति का हल है "संभाव्य सुदृढ़ विकास" जो पर्यावरण के संवंध में सकारात्मक है "संभाव्य सुदृढ़ विकास" के अंतर्गत ही संपूर्णतया निर्धारित किया जा सकता है कि आथिक ढांचे के सभी विभागों के विकास के लिए क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, कब करना चाहिए, और क्यों करना चाहिए जो उचित और आवश्यक है ।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर "संभाव्य सुदृढ़ विकास" की व्याख्या का सर्वप्रथम उद्भव १९७२ में स्टोक होल्म उदघोषणा में हुआ था इसके पश्चात वर्ष १९८७ में विश्व पर्यावरण और विकास आयोग ( World Commission on Environment and Development) ने अपने रिपोर्ट में "संभाव्य सुदृढ़ विकास" की व्याख्या को प्रमाणित स्वरूप दिया था । तत्पश्चात विश्व पर्यावरण और विकास आयोग को समर्थन देते हुए, "सर्वमान्य और सर्वसामान्य भविष्य" नामक अपने रिपोर्ट में प्रकृति के लिए विश्व निधी ( World Wide Fund for Nature ) नें भी पृथ्वी के लिए देख-भाल ( Caring for the Eardh ) साथ में "संभाव्य सुदृढ़ विकास" ( Sustainable Development ) की अवधारणा को पुष्ट किया ।
जून १९९२ में, रियो-डी-जेनेरो में आयोजित पृथ्वी शिखर समिती नें " संभाव्य सुदृढ़ विकास" पर मोहर लगायी । साथ में समिती नें हस्ताक्षर द्वारा प्रस्ताओं को प्रमाणित करते हुए दो मुख्य लक्ष्य हासिल किए ।
(१) समिती नें जीवसृष्टि की विविधता का विस्तृत रिपोर्ट पेश किया । साथ ही
(२) वातावरण एवं पर्यावरण परिवर्तन पर अपने सघन विचार प्रकट किए ।
तत्पश्चात इन दस्तावेजों पर १५३ राष्ट्रों नें अपने हस्ताक्षर किए । साथ में समिती के प्रतिनिधि मंडल नें तीन महालेख भी सर्वानुमति से प्रकाशित किए (१) वन्य सिद्धांतों का विवरण (२) पर्यावरण नीति एवं विकास की भूमिका संवंधी सिद्धांतों की उदघोषणा (३) एजेंडा २१ इक्कीसवी सदी में पर्यावरण के हेतु क्या करना चाहिए उसके लिए रचनात्मक सूचनाये एवं निर्देश ।
" संभाव्य सुदृढ़ विकास" की व्याख्या का प्रारम्भ १९७२ में स्टोक-होल्म में हुआ था और इस विचारधारा नें अपना वास्तविक स्वरूप १९९२ में रियो-डी-जेनेरो में प्राप्त किया । मौजूदा समय में हम जानते है कि "संभाव्य सुदृढ़ विकास" के अंतर्गत पर्यावरण और विकास की परस्पर मर्यादा निभाते हुए मानव जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु, अज्ञान के कारण पैदा हुई गरीबी का निर्मूलन कैसे किया जाय । और समस्त विश्व के राष्ट्र इस व्याख्या के अंतर्गत अपना विकास करने हेतु निरंतर प्रयासरत है ।
"संभाव्य सुदृढ़ विकास" के माने स्पष्ट है कि (१) पर्यावरण के संतुलन ही "संभाव्य सुदृढ़ विकास" की बुनियाद है । (२) इसलिए विकास के नाम पर पर्यावरण और जीवसृष्टि की प्राथमिक या अंधाधुंध अवहेलना नहीं की जायेगी (३) पर्यावरण का संतुलन या विकास का आयोजन एक ही सिक्के के दो पहलू है । (४) पर्यावरण बनाम विकास या विकास बनाम पर्यावरण, दोनों ही "संभाव्य सुदृढ़ विकास" के परिपक्व अन्वेषण से परस्पर सहायक और पूरक है ।

गुरुवार, 5 जून 2008

पर्यावरण दिवस पर पर्यावरणीय चिंता

प्रकृति और मानव का संवंध चिरकालिक और शाश्वत है । प्रकृति ईश्वर का रूप है जिसे हम देख भी सकते है । प्रकृति की गोंद में खेलते हुए मानव नें उन्नति की है सभ्यता के प्रारम्भ में मानव प्रकृति के बहुत निकट था परन्तु जैसे-जैसे पृथ्वी महाद्वीपों, देशों, और शहरों में विभक्त होने लगी और कंक्रीट के जंगल खड़े होने लगे, धीरे-धीरे मानव प्रकृति से दूर होता गया और उसने प्रकृति की उपेक्षा करनी शुरू कर दी है । हमारे पूर्वज पंचमहाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, और वायु के महत्व को जानते थे क्योकि प्राणीमात्र की संरचना में यही उपदान के कारण है । वैदिक काल से ही प्रकृति को उच्च भाव से देखा गया है प्रकृति व मानव अन्योंन्याश्रित है इसीलिए प्राणिमात्र वन, उपवन, हरे-भरे वृक्षों, लताओं और वनस्पतियों, झरनों व नदियों में कल-कल बहते शुद्ध जल का लाभ उठाता है । किंतु आज यह सारा पर्यावरण दूषित हो गया है और पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय हो गया है । हमारी लापरवाही के कारण मानो प्रकृति हमसे क्षुब्ध हो गई है और बाढ़, सूखा, भूकंप, भूस्खलन, आदि अनेक प्राकृतिक आपदाओं के रूप में अपना रोष प्रकट कर रही है । इसी वजह से मानव घबराया हुआ है और दिन ब दिन पर्यावरण के प्रति सचेत होता जा रहा है । आज इस् दिशा में अनेक नियम और कानून बनाये जा रहे है । और सरकारें करोडों अरबों रूपया खर्च करके पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना चाहती है पर कुछ लोगों के व्यावसायिक स्वार्थ इस दिशा में अवरोध बनकर खड़े है ।
प्रकृति मानव तथा पर्यावरण सृष्टि रूपी त्रिभुज के त्रिकोण है प्रदुषण कई प्रकार से प्रकट होता है जैसे जल, वायु, मृदा, ध्वनि, व रेडियोधर्मी प्रदुषण । जनसंख्या विस्फोट से भी प्रदुषण होता है मानव द्वारा फैलाये जा रहे प्रदुषण से आज प्रकृति की आत्मा कराह उठी है । वृक्षों की अनवरत कटान, भूमि का तेजी से क्षरण, औद्योगीकरण, पश्चिमी जीवन शैली से उपजा प्रदुषण, वनस्पतियों तथा अपार वन संपदा का ह्रास, जीव जंतुओं का विलुप्तिकरण, नदी व भूक्षरण, परमाणु परीक्षणों से उत्पन्न जल, वायु तथा भूमि में प्रदुषण, पालीथीन का प्रचुर मात्रा में बढ़ता उपयोग, शहरों में बढ़ता कूडा-करकट, अस्पतालों से निकला कचरा, नदियों में कूडा-करकट फेकने से उपजा जल प्रदुषण, शहरों में बढ़ता ध्वनि प्रदुषण, पेट्रोल-डीजल के जलने से उपजा वायु प्रदुषण, ओजोन की परत में क्षरण, ग्लोबल वार्मिंग तथा न्युक्लियर फाल आउट आदि के गंभीर परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पडेगा ।
आत्म-संयम और विवेक, प्रकृति प्रेम व उसके प्रति सहभागिता का भाव हमारे लिए सच्चे समाधान जुटा सकता है भौतिकवादी जीवन को मूर्तरूप देने की ललक में मानव प्रकृति व पर्यावरण का क्रूरता पूर्वक शोषण कर रहा है । अनियंत्रित औद्योगीकरण आज पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण है । यद्यपि सरकार नें पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाया हुआ है जिससे अनापत्ति प्रमाण-पत्र लिए बिना किसी उद्योग को चलाने की अनुमति नही दी जाती यह बोर्ड जांच करता है कि कारखाने से निकलने वाले रासायनिक धुआं, कचरा आदि के निस्तारण की इस प्रकार व्यवस्था हो कि प्रदूषण न फैले । किंतु पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण संवंधी विभागों में फैले भरी मात्रा में भ्रष्टाचार ने उद्योगपतियों को प्रदूषण फैलाने की अबाध एवं खुली छुट दे रखी है । इनके कारखानों से निकला विषाक्त कचरा व रसायन पास के नदी-नाले अथवा समुद्र के पानी को लगातार एवं भयावह रूप से प्रदूषित कर रहे है परिणाम स्वरूप जल में पाई जाने वाली मछलियाँ व जीव-जंतु लुप्त होने लगे है जो लोग इस प्रदूषित पानी का उपयोग करते है रोगग्रस्त हो जाते है । आलम यह है कि ऐसे प्रदूषित पानी की मछलियों के खाने से भी बीमारियाँ फ़ैल रही है कोलकाता की एक रिपोर्ट के अनुसार वहां के पानी में आर्सेनिक की मात्रा पाई गई है जिसके लम्बे समय तक प्रयोग से कैंसर जैसी घातक बीमारी हो सकती है । इतना ही नहीं भारत में तमाम औद्योगिक इकईयाँ रासायनिक कचरायुक्त पानी को जमीन के निचे पानी की सतह में लगातार फेंक रहें है जिसके कारण उस औद्योगिक इकाई के आस-पास के कस्बों अथवा गाँवो के नागरिकों द्वारा भूगर्भीय जल का इस्तेमाल करने से वे घातक बीमारियों से ग्रस्त हो रहे है किंतु स्थानीय पर्यावरण नियंत्रण विभाग इन औद्योगिक इकाईयों द्वारा किए जा रहे पर्यावरणीय विनाशक अपराध के प्रति आँखें बंद किए बैठा है ।
पालीथीन का प्रयोग भी आज देश के लिए एक बडी समस्या बन चुका है ये आसानी से नष्ट नहीं होते इसके खाने से अनेक गाये मर चुकी है चूँकि लोग खाने का सामान इसमे रख कर बाहर फेंक देंते है । बहुराष्ट्रीय प्लास्टिक उद्योग भारत में २ मिलियन टन प्लास्टिक बनाता है जो बाद में कचरे में परिवर्तित हो जाता है इसमे से एक मिलियन टन वह कंटेनर है जिसमें भोज्य पदार्थ, दवाएं, कास्मेटिक्स सीमेंट बैग आदि होते है, जो एक बार प्रयोग के बाद बेकार हो जाते है । इन्हे कौन उठाकर फ़िर से रीसायकिल करेगा ? २५००० करोड़ का यह सनराईज उद्योग जो कि १० से १५ प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रहा है पर्यावरण दुष्प्रभाव के नाम से भी चिढ़ता है । इन लोगों को देश के उन छोटे-छोटे कारीगरों, कुम्हारों, डलिया व जूट बनाने वाले श्रमिकों से क्या मतलब जिनकी रोटी इनके कारण छीन सी गई है । इनके लिए तो पर्यावरण की बात करने वाले लोग भी पसंद नही है । स्वीडन, नार्वे व जर्मनी में ऐसे नियम बनाए गए है कि प्लास्टिक कंपनियों द्वारा बनाए गए प्लास्टिक कचरे को एकत्र करके उसे रीसाईकल करने की जिम्मेदारी इन्ही कंपनियों की है । भारत में रंगनाथन कमेटी ने कहा था कि प्लास्टिक उद्योग अपने द्वारा उत्पादित १५००० टन बोतलों के कचरे का १००० केन्द्रों द्वारा एकत्र करके रीसाईकिल करे पर कोई नहीं जनता कि इस दिशा में क्या प्रगति हुई । सरकार ने ३ बार रीसाईकिल उत्पाद नियम के द्वारा २० माईक्रोन से कम के ८ गुणे १२ के छोटे प्लास्टिक लिफाफे बनाने पर प्रतिबन्ध लगाया है चूकि यह इधर-उधर उड़ते है और गंदगी फैलाते है पर क्या मात्र इस प्रतिबन्ध से समस्या हल हो जायेगी ?
अस्पतालों से निकला कचरा जैसे प्लास्टिक की ग्लूकोज की बोतलें, दवाये, प्लास्टिक आफ पेरिस व अन्य विषाक्त वस्तुए समाज के लिए बहुत ही खतरनाक है इन्हे नष्ट करने के लिए इनसिनेटर नामक मशीन आती है इस मशीन की जरूरत आज हर बडे अस्पतालों में है पर हमारी सरकार इस दिशा में कितना कार्य कर पाई है पर्यावरण की सुरक्षा आज हमारी परम आवश्यकता बन चूकी है इसके लिए केवल सरकार पर निर्भर नही रहा जा सकता इस् लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ एवं अनुच्छेद ५१-अ (ग ) के तहत आम नागरिकों को भी पर्यावरण वायु एवं जल प्रदूषण से आने वाली पीढ़ी के लिए पैदा हुए गंभीर खतरे को रोकने हेतु अनिवार्य रूप से कार्य करना होगा अन्यथा पर्यावरण प्रदूषण मानवता के लिए गंभीर खतरे का रूप ले चुका है ।

सोमवार, 2 जून 2008

अपराध कानून और मानवाधिकार

अपराध का प्राकृतिक स्वरूप :
मानवता के आरंभिक चरण में भी मनुष्य अपराधों का निवारण करता था । तथा वह स्वयं शत्रुओं से बदला लेता था इस कार्य में आवश्यकतानुसार उसके बंधू और मित्र भी सहयोग करते थे लेकिन इस अवस्था में प्रत्येक मनुष्य के प्राण हथेली पर रहते थे उस समय प्रत्येक मनुष्य अपने मामले में स्वयं न्यायाधीश होता था और शारीरिक बल ही एकमात्र न्याय का मापदंड था इसलिए उस समय आवश्यक नही था कि अपराध के लिए निश्चित रूप से दंड दिया ही जाएगा अथवा निरपराध को अपनी सफाई में कुछ बोलने के अवसर या अधिकार प्राप्त होंगे ।
उस समय एक अपराध दुसरे अपराध को जन्म देता था और आनुषंगिक अपराध केवल अपराधी तक ही सीमित नही होता था बल्कि उसके साथ उसके परिवार एवं उसके कबीलों को भी प्रतिरोध का शिकार बनना पड़ता था इस तरह समूहों और कबीलों में संघर्ष छिड़ जाता था जो कई व्यक्तियों और उसके संबंधियों को प्रभावित करता था तथा साथ ही कई-कई पीढियों तक चलता रहता था यह संघर्ष व्यापक रूप से कष्टकारी एवं विध्वंसकारी एवं रक्तरंजित होता था सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही इस न्याय के मापदंड में बदलाव आया इन संघर्षों में होने वाली क्षति की क्षतिपूर्ति की व्यवस्था की गई यहाँ तक कि हत्या तक के मामलों में मरने वाले व्यक्ति के संबंधियों को उस व्यक्ति के महत्व के अनुसार रक्त द्रव्य के रूप में धन अदा किया जाने लगा इस प्रकार न्याय प्रशासन ने निश्चित नियमों के तहत एक निश्चित दिशा की तरफ़ कदम बढाया ।
इसके बाद राज्य के उदय होने के साथ ही आपराधिक प्रशासन में भी परिवर्तन आया तथा अपराध नियंत्रण का अधिकार व्यक्ति के हांथों से निकल कर राज्य के हांथों में चला गया उस युग की यह धारणा थी कि अपराध का सम्बन्ध केवल अपराधी और उससे आहत व्यक्ति तक ही सीमित है धूमिल पड़ने लगा और यह भावना कि समाज विरोधी कार्य केवल व्यक्ति के विरुद्ध ही नही वरन राज्य के विरुद्ध अपराध है प्रबल होती गई ।
मनुष्य जब सामाजिक जीवन व्यतीत करना शुरू किया है तभी से समाज में अपराध भी अनेक रूपों से अस्तित्व में आया अन्तर केवल इतना है मानव समाज के विकास के साथ-साथ विकास के अर्थों तथा प्रारूपों में अन्तर होता चला गया दुसरे अन्य व्यवहारों की भांति आपराधिक व्यवहार भी मानव व्यवहार का अंग बन गया इसीलिए मानव व्यवहार का ही एक अंग होने के कारण सामाजिक नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों में परिवर्तन के साथ-साथ यह भी बदलता चला गया अर्थात अपराध की अवधारणा अपराध के कारण, प्रकार व करने के ढंग की सभ्यता के विकास के साथ-साथ परिवर्तित होते चले गए ।
इस तरह यह मानने से इंकार नही किया जा सकता कि अपराध एक वास्तविक सामाजिक समस्या है जिसकी प्रवित्ति को समझना तथा उसके विरोध का उपाय करना प्रत्येक समाज का कर्तव्य है मानव समाज में सायद ही कभी ऐसा समय रहा हो जबकि अपराध का अस्तित्व न रहा हो । भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग भी अपराधों से विषाक्त थे यह कहा जाता है कि उस समय लोग चोरी नही करते थे इस लिए उस समय लोग अपने घरों में ताले नही लगाते थे लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नही कि उस समय लोग चोरी नही करते थे वास्तविकता यह थी कि उस समय कानून बहुत कठोर थे तथा उसका पालन भी शक्ति से किया जाता था लेकिन आज तो अपराध निरंतर अबाध गति से बढ़ते ही जा रहे है साधारण तथा सर्वत्र अपराध की प्रवित्ति भी बढ़ती जा रही है ।
अपराधों को रोकने के लिए रोज नये-नये उपाय किए जाने के बावजूद भी उसमे निरंतर बढोत्तरी ही हो रही है जिसे देखते हुए प्रो टेटन बाम का कथन संभवतः सही प्रतीक होता है कि "अपराध को समाज से अलग नही किया जा सकता" इसी प्रकार के विचार फ्रांसीसी समाज शास्त्री दुर्खिम ने व्यक्त किए है कि "पाप के समान अपराध भी समाज की एक सामान्य घटना है और मनुष्य द्वारा निर्मित कानून और प्रथाये असामान्य" दुर्खिम ने अपराध को समाज के लिए उपयोगी बताते हुए कहा है कि अपराध समाज के लिए आवश्यक है सामाजिक जीवन की आधार भूत दशाओं से संबंधित होने के कारण यह इसके लिए उपयोगी भी है "।
ठीक इसी प्रकार डा परिपूर्णानन्द वर्मा का कथन है कि "अपराध हीन समाज कल्याण से परे की वस्तु है । जब नियम बनेंगें तो उसको तोड़ने वाले भी पैदा होंगे नियम की रचना समाज की रचना के साथ होती है दोनों एक दुसरे के साथ साधन और साध्य के समान मिले हुए है अतः इस संबंध में कुछ भी नई बात या नया निदान खोज निकलने का प्रयत्न करना अनंत यात्रा करना है निष्कलंक मनुष्य अथवा निष्कलंक समाज सायद ही कभी मिले चूँकि हम ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते है इस लिए हमें केवल भगवान ही निष्कलंक तथा पाप-पुण्य से परे नजर आता है जो लोग प्रभु की सत्ता को नहीं मानते उनके लिए तो यह सहारा भी नही है ।
यद्यपि अपराध समाज की एक अमूर्त अवधारणा है लेकिन कोई भी ऐसा समाज नही है जिसमें किसी न किसी रूप में प्रत्येक काल में अपराध विद्यमान न रहा हो इसलिए इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक काल्पनिक एवं मिथ्या समाज को छोड़ कर अपराध को विल्कुल मिटाया नहीं जा सकता ज्यों-ज्यों मानव सभ्यता ने उन्नति की है यह अनुभव किया जाने लगा है कि समाज में कुछ लोग ऐसा व्यवहार करते है जिसके कारण सामाजिक हितों को चोट पहुंचती है । इस प्रकार के कृत्य केवल सामाजिक एकता एवं संगठन को ही नुकसान नहीं पहुँचाते वरन उसके अस्तित्व को ही खतरा पैदा कर देते है ।
अपराध की परिभाषा :
साधारण बोल-चाल की भाषा में "अपराध" शब्द का अभिप्राय उस कार्य से है जिसे समाज अनैतिक व अनुचित मानता है और समझता है तथा जिसको सामाजिक शान्ति का विनाशक मानता है प्रत्येक समाज की निश्चित व्यवस्था होती है इस व्यवस्था के बने रहने में ही अधिकाधिक समाज कल्याण की आशा की जा सकती है तथा समाज भी प्रगति की दिशा की ओर बढ़ सकता है इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कुछ वैधानिक प्रतिमान बना दिए जाते है जिसके पालन पर ही समाज की आन्तरिक संरचना और बाहरी व्यवस्था निर्भर करती है जो व्यक्ति इन नियमों का पालन नहीं करते अथवा दुसरे शब्दों में जो व्यक्ति समाज के नियमों का पालन नहीं करते अथवा दुसरे शब्दों में जो व्यक्ति समाज के नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों के विरुद्ध आचरण करते है और समाज की व्यवस्था को धक्का पहुचाते है तथा सामाजिक संगठन को छिन्न-भिन्न करने का खतरा पैदा करते है उनके इस विशेष व्यवहार को अपराध कहा जाता है ।
लेकिन अगर इसको वास्तविक रूप से समझा जाए तो इसका अर्थ बहुत व्यापक है जिसकी व्याख्या करना बडा कठिन कार्य है वस्तुतः समाज विरोधी व्यवहार ही अपराध है जिन समाजों में कानून की विकसित व्यवस्था होती है वहां उसी आचरण को अपराध कहते है जो कि कानून की दृष्टि में अपराध है, कानून का उल्लंघन है इसी प्रकार जिन समुदायों में आचरण संहिता का बोलबाला होता है उसमे नैतिकता के नियमों का उल्लंघन अपराध कहलाता है इस विषय पर अटेबरी व हंट का कहना है कि "अपराध वह कार्य है जो कि किसी निर्दिष्ट समय में अथवा निर्दिष्ट स्थान पर किसी समूह के पूर्व स्थापित व्यवहारों का विरोध करता है" जब अपराध की व्याख्या समाज विरोधी व्यवहार के रूप में की जाती है । तो इसका आरंभ वास्तव में अनैतिक अथवा अवांछनीय अथवा अपेक्षित व्यवहार के रूप में की जाती है परन्तु क्या सभी नैतिक मूल्यों को प्रभावित करने वाले कृत्य अपराध है ? उदाहरण के तौर पर बच्चे द्वारा माता पिता की आज्ञा का पालन न करना नैतिकता के खिलाफ तो हो सकता है लेकिन क्या इसे अपराध कहा जा सकता है ? संभवतः नहीं ।
आगे जारी..........................

रविवार, 1 जून 2008

परमात्मा की दानशीलता

मैंने भगवान से मांगी शक्ति,
उसने मुझे दी कठिनाइयां,
हिम्मत बढाने के लिए ।

मैंने भगवान से मांगी बुद्धि,
उसने मुझे दी उलझनें,
सुलझाने के लिए ।

मैंने भगवान से मांगी संवृद्धि
उसने मुझे दी समझ,
काम करने के लिए ।

मैंने भगवान से माँगा प्यार,
उसने मुझे दिए दुखी लोग,
मदद करने के लिए ।

मैंने भगवान से मांगी हिम्मत,
उसने मुझे दी परेशानियाँ,
उबर पाने के लिए ।

मैंने भगवान से मांगे वरदान,
उसने मुझे दिए अवसर,
उन्हें पाने के लिए ।

वो मुझे नही मिला जो मैंने माँगा था ,
मुझे वो मिल गया जो मुझे चाहिए था