सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

सूचना अधिकार कानून को कमजोर करने की कयावद


देश के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह चाहते है कि सूचना के अधिकार कानून और इसके दायरे पर पुनर्विचार हो. श्री सिंह नें यह बात केन्द्रीय सूचना आयुक्तों के दो दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि इस कानून का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सरकार में विचार विमर्श की प्रक्रिया पर इसका कोई उल्टा असर हो या इससे ईमानदार और सही ढंग से काम करने वाले लोग अपनी बात से हतोत्साहित हों हालाँकि अपनें संबोधन में उन्होंने यह भी जोड़ा कि , "हम प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए सूचना के अधिकार को और ज़्यादा प्रभावी बनाना चाहते हैं." साथ में उन्होंने यह भी कहा कि निर्धारित समय में सूचना जारी करने और सार्वजनिक कार्यों में लगे अधिकारियों को मुहैया संसाधनों के बीच एक संतुलन बनाना ज़रूरी है. सवालों के जवाब में उन्होंने यह भी कहा कि "सूचना के अधिकार से सरकार में विचार-विमर्श की प्रक्रिया पर उल्टा असर नहीं होना चाहिए. हमें इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा.

डॉ. मनमोहन सिंह के अनुसार यह ऐसी चिंताएँ हैं जिस पर चर्चा होनी चाहिए और जिसका निबटारा किया जाना चाहिए." उन्होंने सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं के सुरक्षा से संबंधित विधेयक को अगले कुछ महीने में लाने की बात कही इस तरह लोक प्रशासन में गड़बड़ियाँ करने वालों को सामने लाने की कोशिश करने वालों के विरुद्ध हिंसा रोकने में आसानी होगी. प्रधानमंत्री का कहना है कि, "सूचना के अधिकार से जिन विभागों को अलग रखा गया है उन पर भी फिर से विचार करने की ज़रूरत है जिससे ये देखा जा सके कि वो व्यापक हित में हैं या उसमें बदलाव करना चाहिए." उन्होंने कहा कि 'निजता से जुड़े मुद्दों' पर विचार होना चाहिए. डॉ मनमोहन सिंह के इन वक्तव्यों से पता चलता है कि सूचना के अधिकार कानून से सरकार कहीं न कहीं त्रस्त जरूर है. और सूचना के अधिकार कानून की आलोचनात्मक दृष्टि से समीक्षा करके उसे कमजोर करना चाहती हैं.

आपको याद होगा तो बता दें कि सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से विवेक गर्ग नें प्रधानमंत्री कार्यालय से एक चिट्ठी प्राप्त किया था. जो कि 2जी स्पेक्ट्रम पर केन्द्रीय वित्त मंत्रालय की ओर से प्रधानमंत्री को भेजी गई थी इस चिट्ठी को वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की जानकारी में उनके मंत्रालय नें लिखा था. उस पत्र में प्रधानमंत्री को जानकारी दी गई थी कि 30 जनवरी 2008 को तत्कालीन संचारमंत्री ए. राजा से मीटिंग के दौरान तत्कालीन वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम नें पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम की नीलामी की इजाजत दी. जबकि स्पेक्ट्रम की नीलामी ज्यादा कींमत पर की जा सकती थी. दरसल वित्तमंत्रालय के अधिकारियों नें ग्रोथ के अनुपात में फीस तय करने की बात की थी. मंत्रालय 4.4 मेगाहड्स से ऊपर के स्पेक्ट्रम बाजार भाव से बेचना चाहता था किन्तु ए. राजा इससे सहमत नहीं थे और उन्होंने स्पेक्ट्रम की सीमा 6.2 मेगाहड्स कर दी और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम उस पर मान गए. वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की चिट्ठी में प्रधानमंत्री को यह बताया गया था कि अगर श्री पी. चिदंबरम चाहते तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को अपने अंजाम तक पहुंचने से रोका जा सकता था

इस चिट्ठी को लेकर श्री प्रणव मुखर्जी एवं श्री पी. चिदंबरम में काफी तनातनी देखने को मिली थी. जब इस चिट्ठी को लेकर कांग्रेस में घमासान चल रहा था ठीक उस समय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी अमेरिका की यात्रा पर थे वहां से वापस आने पर मनमोहन सिंह ने 2जी मसले पर आरोपों से घिरे पी चिदंबरम के साथ प्रणव मुखर्जी के साथ प्रधानमंत्री आवास पर बैठक की. प्रधानमंत्री के साथ बैठक के बाद प्रणब और चिदंबरम मे प्रेस को साझा नोट पढ़कर सुनाया गया इस नोट में प्रणब की तरफ से कहा गया कि 2जी मामले के बारे में उनके राय निजी नहीं हैं. उस समय प्रणब मुखर्जी ने चिदंबरम का बचाव करते हुए कहा कि 2008 में जो टेलीकॉम पॉलिसी सरकार ने अपनाई वो 2003 की ही पॉलिसी है जिसे एनडीए सरकार ने लाया था. प्रणब के इस बयान को पी चिदंबरम ने सहमति दिखाते हुए कहा था कि यह संकट अब टल गया है. इस पूरे मामले में कांग्रेस और सरकार की काफी किरकिरी हुई और यह सब आरटीआई के तहत विवेक गर्ग द्वारा पीएमओ से प्राप्त किये गए उस पत्र के कारण हुई थी जिसे वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी के मंत्रालय नें प्रधानमंत्री को भेजा था.

लेकिन लगता है कि सरकार द्वारा इस कानून में संशोधन कर इसे कमजोर करने की पृष्ठभूमि तैयार की जाने लगी है इसी क्रम में शुक्रवार को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा सूचना के अधिकार कानून के विषय में दिए गए वक्तव्य को बारीकी से देखने पर पता चलता है कि सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से पीएमओ से निकले वित्तमंत्रालय का पत्र जिसके कारण सरकार की किरकिरी हुई के आलावा एक से बढ़कर एक कामनवेल्थ से लेकर २जी स्पेक्ट्रम सरीखे घोटालों का लगातार खुलासा सूचना के अधिकार कानून की मदद हो रहा है. दरअसल सूचना के अधिकार अधिनियम को लागू हुए छ: साल हो गए और अब सरकार को इस कानून से रोजमर्रा के राजकाज में बड़ी बाधा का सामना करना पड रहा है. कानून लागू होने से लेकर लगभग चार सालों तक सरकार को फायदा हुआ. क्योंकि कानून के लागू होने के बाद से जनमत यह बना कि एक जवाबदेह सरकार अपने रोजमर्रा के राजकाज में पारदर्शिता लाने के लिए प्रतिबद्ध है. किन्तु दिल्ली में हुए कामनवेल्थ खेलों के लिए कराए गए निर्माणकार्य तथा खरीद पर हुए घोटाला एवं २जी स्पेक्ट्रम सरीखे घोटालों का खुलासा जब सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से होने लगा तो तभी से सरकार इस कानून को लेकर सकते में है. इन खुलासों से घबरायी सरकार सूचना के अधिकार कानून का पर कतरना चाहती है.

सूचना का अधि‍कार कानून देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सशक्त हथियार के रूप में तब प्राप्त हुआ जब संसद द्वारा सूचना का अधि‍कार अधि‍नि‍यम, 2005 पारि‍त कि‍या गया. और 15 जून, 2005 माननीय राष्ट्र पति‍ जी से सूचना का अधि‍कार कानून को स्वीकृति‍ प्राप्त हुई. अधि‍नि‍यम का उद्देश्य प्रत्येक सार्वजनि‍क अधि‍करण, केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग के गठन और उनसे संबद्ध या उनसे अनुषांगि‍क मामलों के कार्यों में पारदर्शि‍ता और जि‍म्मेदारी में संवर्धन करने के लि‍ए सार्वजनि‍क अधि‍करणों के नि‍यंत्रण के अंतर्गत नागरि‍कों को सूचना प्राप्ति सुनि‍श्चित करने के लि‍ए सूचना के अधि‍कार का व्यवहारि‍क वि‍धान स्थापि‍त कि‍ये जाने का प्रावधान किया गया. यह अधि‍नि‍यम जम्मू‍ एवं कश्मीयर राज्य को छोड़कर समस्तथ भारत में लागू है. समस्त अधि‍नि‍यम 12 अक्तूबर, 2005 से लागू होता है उक्त अधि‍नि‍यम के प्रावधान के अंतर्गत रा.स.वि.नि. सार्वजनि‍क अधि‍करण होने के नाते अधि‍नि‍यम के भाग 4(1) (ख) के अंतर्गत यथापेक्षि‍त वि‍शि‍ष्ट जानकारी प्रकाशि‍त कि‍ये जाने का दायि‍त्वा है.

अन्ना के जन लोकपाल से संबंधित आंदोलन को अलग करदें तो भारत में वास्तविक जमीनी और दूरदर्शी स्वतः स्फूर्त जनांदोलनों का अभाव है जो कि पूरी व्यवस्था को बदलने के लिए उत्पन्न हुये हों. आजादी के बाद से साल दर साल भारत का आम आदमी लगातार कमजोर हुआ है और भारतीय व्यवस्था तंत्र अधिक अमानवीय, असामाजिक तथा गैर जवाबदेह होता जा रहा है. ऐसी कमजोर हालत में सूचना के अधिकार जैसे कानून को जिस गंभीरता और दूरदर्शिता से संभालते और मजबूत करते जाने की अहम जरूरत थी, जिससे कि समय के साथ साथ धीरे धीरे इसी कानून से और भी बड़े तरीके विकसित करके सत्तातंत्रों को आम आदमी के प्रति जिम्मेदार बनने को विवश करके लोकतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों को संविधान के पन्नों में छापते रहने की बजाय यथार्थ में और जमीनी धरातल पर जीवंत उतार कर ले आया जाता. अब अगर प्रधानमंत्री सूचना के अधिकार कानून को हतोत्साहित कर रहे है तो इसमें कोई बड़ी बात नही क्योकि आजादी के बाद से ही हमारी सरकारें और अफसरशाही ने जरुरत से अधिक अधिकार पाये और वे खुद को मालिक और जनता को गुलाम माना, तो यदि आज आम जनता उनसे कुछ पूछे तो यह बात सरकार और अफसरशाही को कैसे बर्दाश्त होगी. इससे उनकी ‘निजता से जुड़े मुद्दों' पर सवाल जो खड़े होंगे? अतः यदि नेता व अफसर इस कानून को नुकसान पहुंचाते हैं या हतोत्साहित करते हैं तो यह कोई अचरज वाली बात नहीं क्योकि देश की आम जनता को मजबूत न होने देना और खुद को आम जनता का मालिक बनाये रखने के लिये तरह-तरह के हथकंडे अपनाना तो इनके मूल चरित्र में है.

चरम पर चरमराता मनमोहन का पूंजीवाद


दास्तोएव्स्की की डायरी ( द डायरी ऑफ ए राइटर) में उसनें पश्चिमी पूंजीवाद के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “हमारी सदी में एक भयानक क्रांति हुई इसमें बुर्जुआ वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) विजयी हुआ. बुर्जुआ वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) के उदय के साथ-साथ वहां भयानक शहर बनें जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता था. इन शहरों में आलीशान महल थे, अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियां थी, बैंक, बजट, प्रदूषित नदियाँ (नालों के रूप में) रेलवे प्लेटफार्म और कई तरह की संस्थाएं थी और इनके चारों ओर थे कारखानें. लेकिन इस समय लोग एक तीसरे चरण की प्रतीक्षा कर रहे है जिसमें बुर्जुआ वर्ग (पूजीवादी वर्ग) का अंत होगा, आम जनता जागेगी और वह सारी भूमी को कम्यूनों में वितरित करके बाग-बगीचों में रहने लगेगी. बाग-बगीचे ही नई सभ्यता को लायेंगे. जिस प्रकार सामंती युग के किलों की जगह शहरों ने ले ली उसी तरह शहरों की जगह बाग-बगीचे ले लेंगे यही सभ्यता के विकास की दिशा होगी. क्या दास्तोएव्स्की की पूंजीवाद के बारे में की गई टिप्पणी को पूंजीवाद पर गहराता मौजूदा संकट सच की तरफ ले जाता नहीं दिख रहा है?

हम कुछ सिद्धांतों से पूंजीवाद के इतिहास में घटित संकटों को समझाने की कोशिश करते है. इनमें से एक आपदा सिद्धांत है, इस सिद्धांत के तहत मानता है कि जिस समय पूंजीवाद के विरोधाभास अपने उच्चतम बिंदु पर पहुंचेंगें, पूंजीवाद स्वयं ढह जाएगा और स्वर्ग की एक नई सहस्राब्दी के लिए रास्ता बनाएगा. इस सर्वनाशवादी या अति अराजकतावादी विचार ने पूंजीवादी उत्पीड़न और शोषण से सर्वहारा की पीड़ा को समझने की राह में भ्रम तथा गलतफहमियां पैदा की हैं. बहुत से लोग इस तरह के एक गैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्रमित हुए हैं. एक और सिद्धांत है आशावाद, जिसे पूँजीपति वर्ग हमेशा समाज को अपना उपभोक्ता बनाते हुए उसमें फैलाता है. इस सिद्धांत के अनुसार, पूँजीवाद में अपने विरोधाभासों से उबरने के साधन मौजूद हैं और असल अर्थव्यवस्था सट्टेबाज़ी को नष्ट करके ठीक काम करती है. पूंजीवादी प्रतियोगिता की पद्धति की अराजकता पूंजीवादी संकट का एक अन्य कारण है. यह केवल आभासी वक्तव्य नहीं बल्कि चरितार्थ होता दिख रहा है कि पूंजीवाद पतन पर है यह आकस्मिक विनाश की ओर नहीं बल्कि व्यवस्था के एक नए पतन, पूंजीवाद के अंत होते इतिहास की आखिरी मंजिल की ओर बढ़ रहा है. यह केवल और केवल पूंजीवाद की देन है कि रोज़ दुनिया में एक लाख लोग भूख से मरते हैं, हर 5 सेकण्ड में पांच साल का एक बच्चा भूख से मर जाता है. 84 करोड लोग स्थायी कुपोषण के शिकार हैं और विश्व की 600 करोड की आबादी का एक तिहाई हर रोज़ बढ़ती कीमतों के चलते जीने के लिए संघर्ष कर रहा है.

दुनिया के दखते-देखते ३०-४० सालों में पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया. कहते है कि कोई जब अपने अंतिम चरम पर पहुंच जाता है तो उसके सामने ढलान की तरफ धीरे-धीरे आने के आलावा एक रास्ता और बचता है कि बिना किसी सहारे के तेजी से निचे आते हुए अपने आप को ध्वस्त कर ले. क्या पूंजीवाद की स्थिती इससे अलग है? क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि पूंजीवाद मौजूदा समय में गहरे संकट में है. दरअसल पूंजीवाद की इस विफलता की की हकीकत को समझने के लिए हमें पूंजीवाद के दो मुख्य सिद्धांतों को समझना होगा जिसमें पहला “मनुष्य अक्लमंद होते हैं, और बाजार का बर्ताव दोषपूर्ण” दूसरा “बाजार स्वयं अपने दाम निर्धारित करता है” पूंजीवाद के ये दोनों सिद्धांत ही गलत हैं. ओईसीडी के महासचिव खोसे अंखेल गूरिया अभी हाल ही में पूंजीवादी व्यवस्था के फेल हो जाने संबंधी कुछ बातों को स्वीकार करते हुए कहा है कि “मुझे लगता है कि नियामक के तौर पर हम असफल रहे, निरीक्षक के तौर पर असफल रहे और कार्पोरेट व्यवस्थापक के तौर पर असफल रहे, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की भूमिका और जिम्मेदारियां बाटनें में भी हम असफल रहे, हमारी वित्तीय असफलता तुरंत ही असल अर्थ व्यवस्था में फ़ैल गई, वित्तीय संकट से हम सीधे आर्थिक अपंगता और उसके बाद सीधे बेरोज़गारी के संकट तक पहुँच गए हैं.

पूंजीवाद के पैरोंकारों की इस स्वीकारोक्ति से क्या हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को कुछ सीख लेनी चाहिए या फिर वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ की नीतियों का अंधानुकरण ? दरसल देश का आम आदमी वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ द्वारा निर्देशित और बहुप्रचारित मौजूदा मनमोहनोंमिक्स अर्थनीति के पेचीदगियों से नावाकिफ है. उसे न केवल महंगाई, बेकारी, भ्रष्टाचार, आदि से निजाद चाहिए बल्कि उसे चाहिए पर्याप्त भोजन, आवास, चिकित्सा और शिक्षा. उसे मनमोहनोंमिक्स के भौतिक विकास से भी शायद कोई मतलब नहीं है. नब्बे के दशक में इक्कीसवी सदी के आगमन का हवाला देते हुए जिस वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण को अपनाया गया और इसके विषय में देश की आम जनता को चिकनी-चुपड़ी बातों से बरगलाते हुए वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ की नीतियों को जबरन थोपा गया तथा वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण के फायदे गिनाते हुए इसकी शान में जो कसीदे पढे गए. मॉरिशस ट्रीटी के रास्ते आवारा पूंजी के आगमन के साथ देश में विकृत विकास कार्यों की झड़ी लगाई गई. कहा जाने लगा कि मनमोहन के आर्थिक नीतियों के मद्देनजर भारत का कायाकल्प हो रहा है. मॉरिशस तथा अन्य रास्तों से देश में आयी आवारा पूंजी के बल पर फिजूलखर्ची के बड़े-बड़े रिकार्ड कायम करते हुए जहां एक तरफ सुपर एक्सप्रेस हायवे, मीलों लंबे फ्लाईओवर, ऊँचे-ऊँचे बांध, लम्बे टनल, अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे, जम्बो साईज क्रीडा स्थल और पर्यटन के लिए ऐशगाह निर्माण कराया गया वही दुसरी तरफ राज्य टिप्स समझौते, व्यापार घाटे, कर्ज के भार, मूल्यवृद्धि, सरकारी कोषों के दिवालिएपन और भ्रष्टाचार जैसे अपराधों के मकडजाल में फसता गया.

‘कार्पोरेट और मध्यवर्ग भारत’ के लिए इस मनमोहनी अर्थशास्त्र नें एक स्वर्ग सा निर्मित कर दिया था लुटेरों घोटालेबाजों दलालों दरबारियों और गुटबाजों से बना यह कार्पोरेट और मध्यवर्ग खूब मजे लूटा. मजे पश्चिमोन्मुख पांच सितारा किस्म के जीवन के, चहुमुखी व्याप्त वीआयपी मार्का शानों शौकत के मंत्रियों के लिए ऐशों आराम के असीमित साधनों के, माफियाओं को दी जा रही खुली छूट के, सर्वत्र व्याप्त और सब पर हावी भ्रष्टाचार के और ‘दरिद्र भारत’ का क्या हाल रहा? वह भूख से तड़पने, आत्महत्या का खौफनाक रास्ता अपनाने, बीमारी से कराहने, इलाज और भोजन के आभाव में मरने, किसानो ग्रामीणों जनजातियों सर्वहाराओं की ९० करोड से भी अधिक की तादात खून-पसीना बहाकर हाडतोड मेहनत करके भी आंसू पीकर गुजारा करती रही तथा निरक्षरता और कंगाली को ढोने को अभिशप्त रही. ये शर्मनाक अंतर्विरोध देश के लिए क्या भयानक बीमारी के लक्षण नहीं थे? क्या शुरुआती दौर में ही इसकी पडताल नहीं होनी चाहिए थी? लेकिन पूंजीवाद के पैरोकारों नें ऐसा नहीं किया. सत्ता के शिखर पर रीढ़ विहीन नायक विराजमान थे जो आज मौजूद है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक की तिकड़ी के दलाल के रूप में शासन कर रहे हैं. पूंजीवाद के समक्ष घुटने टेककर साष्टांग दंडवत कर प्रार्थनाओं का दौर चल रहा है गांधी के देश में सत्ता पर काबिज लोग जो गांधी को सत्ता का प्रतीक मानते है उनकी नजर में समाजवादी होना वैचारिक जुर्म मान लिया गया है, इतना ही नहीं समाजवाद को विकास के मार्ग में रोडे अटकानेवाला जानी दुश्मन भी करार दिया गया है.

महंगाई, पेट्रोल-डीजल के दाम बढाने और गरीबों, किसानों को दी जा रही सब्सिडी को घटाने के संबंध में अड़ियल रवैया अपनाना-इन सबसे जाहिर होता है कि देश के शासकों के मन में एक साम्राज्यवादी मानसिकता जोर मार रही थी लेकिन अब जब दुनिया मंदी की चपेट में हैं और इस मंदी की मार से ‘मध्यवर्ग भारत’ भी नहीं बच पाया है. ऐसे में वह भी मनमोहन के आर्थिक नीतियों के विरुद्ध खड़ा होता दिखाई दे रहा है. मनमोहन की उदारवादी नीतियों का रास्ता पूंजीपतियों के घर तक तो जाता है लेकिन आम आदमी के घरों को बाईपास करते हुए निकलता है. अब यह कांग्रेस को सोचना है कि अगले चुनावो में सत्ता का स्वाद उन पूंजीपतियों के वजह से चखने को मिलेगा या उस आम आदमी के वजह से जिसे मनमोहन और उनकी मंडली बचकर निकलने के लिए बाईपास का रास्ता अख्तियार कर चुकी है. अगर कांग्रेस यह खुशफहमी पाल बैठी है कि ‘अगले चुनाव तक मतदाता सरकार की जनविरोधी नीतियों को भूल कर उसे ही वोट करेंगे’ तो यह उसकी गलतफहमी है. मनमोहन के पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार के नए-नए कीर्तिमान कायम हो रहे है किन्तु देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए किसी एक पार्टी या नेता को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं होगा. क्योकि इसमें सभी शामिल हैं. यह अलग बात है कि सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार डॉ मनमोहन सिंह और उनकी आर्थिक नीतियाँ हैं जो पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था के लूट के अर्थशास्त्र की पोषक हैं. अब समय आ गया है जब कांग्रेस को यह तय करना है कि देश और आम आदमी का विकास समाजवादी अर्थव्यवस्था जिसे पंडित नेहरु नें अपनाया था, के माध्यम से होगा या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के माध्यम से जो कि पश्चिमी पूंजीवाद के नाम से जाना जाता है और जिसका खेल अब लगभग खत्म होने को है.

विरोध को दबाने की सरकारी मुहिम


देश में सत्ताधारी लोग और सरकारें नागरिक समाज के लोगों, सरकारी अधिकारियों और विरोधी दल के कार्यकर्ताओं को डरा-धमका रहे हैं. तथा उनके खिलाफ झूठे मुकद्दमें कायम करने में मसगूल हैं और ये काम बड़े ही सुनियोजित तरीक़े से किया जा रहा है. वैसे तो विरोधियों को ठिकाने लगाने का सत्ताधारियों का काफी पुराना रिकार्ड रहा है. लेकिन पिछले कुछ दिनों से खुलेआम और बड़े ही बेशर्म तरीके से सत्ताधारी अपनें विरोधियों को कुचलने पर आमादा हैं. इतना ही नहीं जब कोई सामाजिक कार्यकर्ता या समाजसेवी एक पार्टी के विरुद्ध बोलता है तो वह पार्टी तत्काल उक्त समाजसेवी को विरोधी पार्टी के एजेंट के रूप में प्रचारित करने लगती हैं. मोटे तौर पर यह दिखाई दे रहा है कि देश में जितनी पार्टियों की सरकारें सत्ता पर काबिज हैं लगभग सभी सरकारें अपनें विरोधियों के दमनचक्र को पुरजोर तरीके से चला रहीं हैं.

इनके इस रवैये से देश में लोकतंत्र और मानवाधिकारों को गंभीर खतरा पैदा हो गया है. इस दमनचक्र के ताजा शिकार जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रहमण्यम स्वामी, गुजरात के आईपीएस संजीव भट्ट, मध्यप्रदेश इंदौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक प्रभात किरण का मुस्सविर नाम से कार्टून बनाने वाले पत्रकार कार्टूनिष्ट हरीश यादव, बिहार विधान परिषद के कर्मचारी कवि मुसाफिर बैठा और युवा आलोचक अरुण नारायण तथा आदिवासी हकों के सपने देखने वाला लिंगाराम सहित अन्ना हजारे और बाबा रामदेव शामिल हैं. चाहे वह यूपीए के सरकार हो अथवा एनडीए की इसे संयोग ही कहेंगे कि सभी सत्ताधारियों का अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों के विरुद्ध दमनचक्र का तरीका एक ही है.

जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रहमण्यम स्वामी के खिलाफ मामला दर्ज किया है यह मामला दिल्ली स्थित नेहरु प्लेस के क्राईम ब्रांच नें दर्ज किया है. बताया या जा रहा है कि बीते जुलाई महीनें में सुब्रहमण्यम स्वामी नें एक अखबार में मुसलमानों के संबंध में एक लेख लिखा था. जिसके कारण समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंची थी. इसी मामले को लेकर अगस्त महीने में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा पटियाला हाउस कोर्ट में असगर खान नामक एक वकील द्वारा दर्ज कराई गई थी. पुलिस के मुताबिक उसी शिकायत के आधार पर सेक्शन १५३-अ, १५३-ब, और २९५-अ आदि धाराओं में मुकद्दमा दर्ज कराया गया है पुलिस के अनुसार पुलिस नें सीधे इस शिकायत को दर्ज नहीं की है. अगर आपको पता होगा तो बता दें कि १ लाख ७६ हजार करोड का २जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मामले को सुब्रहमण्यम स्वामी द्वारा ही अदालत में ले जाया गया है. जिसके कारण घोटाले में तमाम लोगों के संलग्न होने के प्रमाण सामने आते जा रहे है २जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा, कनिमोझी, सिद्धार्थ बेहरा, गौतम दोषी, करीम मोरानी, शाहिद बलवा, राजीव अग्रवाल, आदि जेल की हवा खा रहे है इस घोटाले को लेकर कहा जाता है कि डीएमके के दयानिधि मारन पर भी तलवार लटक रही है. तथा इस मामले की आंच से कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम भी नहीं बच पाए हैं इतना ही नहीं सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला में उनका अगला खुलासा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को लेकर हैं. स्वामी ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम मामले में पहले पूर्व टेलिकॉम मंत्री ए. राजा, डीएमके सांसद एम.के. कनिमोड़ी, पूर्व केंद्रीय मंत्री दयानिधि मारन और गृह मंत्री पी. चिदंबरम की भूमिकाओं का खुलासा कराने के बाद अब उनका अगला खुलासा रॉबर्ट वाड्रा को लेकर है. संभवतः सुब्रहमण्यम स्वामी की सत्ताधारियों के विरुद्ध इसी सक्रियता के कारण इनके ऊपर एफआईआर दर्ज किया गया लगता है.

गुजरात के आईपीएस संजीव भट्ट पर आरोप है कि एक कांस्टेबल के. डी. पंत को धमकाया और झूठे हलफनामे पर हस्ताक्षर करवाया. गुजरात पुलिस नें संजीव भट्ट को उक्त कांस्टेबल को धमकाने और झूठे हलफनामें पर हस्ताक्षर करवाने के आरोप में घाटलोदिया पुलिस थाने मे एक प्राथमिकी दर्ज कर उन्हें हिरासत में ले लिया है शिकायतकर्ता कांस्टेबल नें आरोप लगाया है कि संजीव भट्ट नें उसे धमकाते हुए २७ फरवरी २००२ को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बुलाई गई उच्चस्तरीय बैठक में गलत हलफनामें पर हस्ताक्षर करवाया. गुजरात के पुलिस महानिदेशक चितरंजन सिंह का कहना है कि संजीव भट्ट के विरुद्ध दर्ज प्राथमिकी के संबंध में भट्ट को पूछताछ के लिये बुलाया गया था. उनका बयान दर्ज किया जायेगा. वर्ष 2002 के दंगों के दौरान भट्ट के अधीन काम कर चुके कांस्टेबल के. डी. पंत ने प्राथमिकी दर्ज कराते हुए आरोप लगाया था कि भट्ट ने एक सरकारी कर्मचारी यानी उन्हें धमकाया, सबूतों को गढ़ा और गलत तरीके से उन पर दबाव बनाया. पंत ने अपनी प्राथमिकी में आरोप लगाया कि उन्हें भट्ट ने 16 जून को फोन किया और उनसे किसी काम के सिलसिले में घर पर आने को कहा. जब पंत भट्ट के आवास पर पहुंचे तो आईपीएस अधिकारी ने उन्हें बताया कि मुकदमे में मदद करने के लिये उच्चतम न्यायालय की ओर से नियुक्त वकील 18 जून को आयेंगे और उन्हें बयान दर्ज कराने के सिलसिले में उनसे मुलाकात करनी होगी. पंत का आरोप है कि भट्ट ने उनसे कहा कि वकील को बताया जाये कि विशेष जांच दल (एसआईटी) ने उनका बयान जबर्दस्ती दर्ज किया था. जब पंत ने इस बात का विरोध किया तो भट्ट ने कथित तौर पर उन्हें धमकी दी. भट्ट ने पंत से कहा कि अगर वह उनके कहे अनुसार काम करते हैं तो इसमें कोई चिंता की बात नहीं है. पुलिस कांस्टेबल पंत का यह भी दावा है कि भट्ट उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अर्जुन मोधवाडिया के पास ले गये. कांग्रेस नेता ने भी पंत को आश्वासन दिया कि इसमें चिंता करने की बात नहीं है और उन्हें वही करना चाहिये जो भट्ट कह रहे हैं. मोधवाडिया से मिलने के बाद भट्ट पंत को गुजरात उच्च न्यायालय के निकट एक वकील और नोटरी के दफ्तर ले गये और उनसे दो हलफनामों पर हस्ताक्षर करवाये. ‘दरअसल भट्ट ने उच्चतम न्यायालय में दायर अपनें हलफनामे में आरोप लगाया है कि गोधराकांड के बाद गुजरात में हुए दंगों में मोदी की कथित तौर पर सहअपराधिता थी.’ यहाँ सवाल यह उठना स्वाभाविक है कि पुलिस कांस्टेबल पंत अगर एक आईपीएस अधिकारी के कहने से हलफनामे पर हस्ताक्षर कर सकता है तो एक मुख्यमंत्री के कहनें पर एक आएपीएस अधिकारी पर झूठे आरोप नहीं लगा सकता ?

मध्यप्रदेश इंदौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक प्रभात किरण के पत्रकार कार्टूनिष्ट हरीश यादव जो कि मुस्सविर नाम से कार्टून बनाते हैं को गिरफ्तार कर लिया गया है. ज्ञात हो कि नरेंद्र मोदी के सद्भभावना अनशन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्से से आये लोग अपने यहां के प्रतीक चिन्ह के तौर पर वस्तुएं मोदी को भेंट कर रहे थे. मोदी उन चीजों को स्वीकार कर रहे थे और ये चीजें मामूली होते हुए भी उस इलाके की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है. इसी दौरान एक सामान्य मुसलमान जो कि पिछले दो दिनों से इंतजार कर रहा था कि वो भी नरेंद्र मोदी को कुछ दे और उसने नरेंद्र मोदी को टोपी दे दी और पहनने का आग्रह किया. ये बहुत ही संवेदनशील और भावुक क्षण था और अगर वो उसे पहनते, तो संभव था कि मुसलमानों के बीच बहुत ही अलग किस्म का सकारात्मक संदेश जाता लेकिन नरेंद्र मोदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया जिससे उनके छद्म सद्भावना अनसन की पोल खुल गई. इसी थीम को लेकर मुस्सविर नाम से बनाया गया कार्टून प्रभात किरण में २० सितंबर को छपा और इस मामले में मोदी के कहने पर मध्यप्रदेश सरकार नें धार्मिक भावनाये भडकाने के आरोप में मल्हारगंज थाने में हरीश यादव के खिलाफ आईपीसी के धारा– 295 ए के तहत मुकदमा दर्ज कर हरीश यादव उर्फ मुस्सविर को गिरफ्तार कर लिया. दरसल जिस चांद-सितारे को कार्टून में दिखाया गया है, उसकी व्याख्या इस्लाम धर्म के जानकार बेहतर कर सकते हैं? क्या इस धर्म में चांद-सितारे की उसी अर्थ में व्याख्या है, जिस अर्थ में मुस्सविर पर धार्मिक भावनाएं भड़काये जाने के लिए सजा दी गयी? ये सिर्फ और सिर्फ उस एक सामान्य मुसलमान की भावनाओं की अभिव्यक्ति है, जो कि नरेंद्र मोदी को टोपी भेंट में देना चाहता था. दरसल मुस्सिवर पर जो कानूनी कार्रवाई की गयी, वो शिवराज सिंह चौहान के आदेश पर की गयी, जिस समय वो चीन के दौरे पर थे. नरेंद्र मोदी ने यहां तक कहा कि आप इंदौर में मामला दर्ज करवाएं नहीं तो फिर अहमदाबाद में करवाया जाएगा. शिवराज नें मोदी के दबाव के कारण रातोंरात कार्रवाई की इस कार्रवाई को दरअसल इस लिए भी आनन्-फानन में अंजाम दिया गया क्योंकि गुजरात और मध्यप्रदेश दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है.

कमोबेस यही स्थिती बिहार की भी है. वहां भी अपने विरुद्ध उठ रही हर आवाज को राजग सरकार क्रूरता से कुचल देनें पर आमादा है. और इन परिस्थितियों में राजग सरकार को आईना दिखाने में सक्षम लोग अथवा बुद्धिजीवी या तो आपसी राग-द्वेष डूबे हुए है या फिर जाति-बिरादरी के नाम पर बंटकर बिहार की तानाशाही सरकार और उसके कर्ताधर्ता के इस नंगे नाच को देखकर भी चुप हैं. दिनांक १६ सितंबर २०११ को बिहार विधान परिषद नें अपने दो कर्मचारियों को केवल इस लिए निलंबित कर दिया क्योकि वे फेसबुक पर परिषद के अधिकारियों असंवैधानिक भाषा का प्रयोग करते है तथा उनके बारे में ‘दीपक तले अँधेरा’ जैसी लोकोक्ति का इस्तेमाल करते हैं और लिखते हैं कि बिहार विधान परिषद जिसकी मै नौकरी करता हूँ वहां विधानों की धज्जियाँ उडाई जाती हैं. अरुण नारायण के निलंबन के लिए भी कुछ इसी तरह के बहाने गढे गए. हिन्दी फेसबुक पर कवी मुसाफिर बैठा अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. और अरुण नारायण नें पिछले एक महीने से फेसबुक पर अपना एकाउंट बनाया था. उपरोक्त टिप्पणियों का जिक्र इन दोनों को निलंबित करते हुए किया गया है. फेसबुक पर टिप्पणी करने के कारण संभवतः हिंदी प्रदेश का पहला उदाहरण है. मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण ए दोनों हिंदी साहित्य की दुनिया के परिचित नाम हैं. मुसाफिर बैठा ‘हिंदी की दलित कहानी’ पर पीएचडी की है तथा अरुण नारायण का बिहार की पत्रकारिता पर एक महत्वपूर्ण शोधकार्य है. मुसाफिर और अरुण के निलंबन के तीन-चार महीने पहले बिहार विधान परिषद से उर्दू के कहानीकार सैयद जावेद हसन को नौकरी से निकाल दिया गया उनके ऊपर भी कुछ इसी तरह के आरोप लगाये गए थे. वस्तुतः इन तीनों लेखक कर्मचारियों का निलंबन, पत्रकारों को खरीद लेने के बाद बिहार सरकार द्वारा काबू में नहीं आने वाले लेखकों व पत्रकारों के विरुद्ध की गई है. बड़े अख़बारों और चैनलों को चांदी के जूते उपहार में देकर अपना पिट्ठू बना लेना तो बिहार सरकार के बस में है लेकिन अपनी मर्जी के मालिक और बिंदास लेखकों पर नकेल कसना राजग सरकार के लिए संभव नहीं हो रहा था परिणामस्वरूप इनको निलंबित किया गया.

ठीक यही कहानी आदिवासी हकों के सपने देखने वाला लिंगाराम के साथ भी दुहराई गयी उसे नक्सलियों का सहयोगी बताकर छत्तीसगढ़ पुलिस नें गिरफ्तार कर लिया. लिंगाराम के बारे में बताया जाता है कि छत्तीसगढ़ स्थित दंतेवाडा के पूर्व डीआयजी कल्लूरी और एसपी अमरेश मिश्रा नें जबरन एसपीओ बनाने के लिए ४० दिन तक दंतेवाडा थाने के शौचालय में भूखा रखा था जिसे स्थानीय मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार नें छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से मुक्त कराया था. और मुक्त होने के बाद वह दिल्ली जाकर पत्रकारिता की पढाई करने लगा. उसी दौरान डीआयजी कल्लूरी और एसपी अमरेश मिश्रा नें एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए कहा कि लिंगाराम कोडोपी कांग्रेसी नेता अशोक गौतम के घर हुए हमले का मास्टर माइंड है, लेकिन जब दिल्ली में शोर मचा कि लिंगाराम तो दिल्ली में है तो दंतेवाडा में कैसे हमला करेगा? तो तत्कालीन पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन नें कहा कि ए प्रेस विज्ञप्ति गलती से जारी हो गई थी. किन्तु अगर उस समय लिंगाराम छत्तीसगढ़ में रहा होता तो उसे नपने से कोई नहीं रोक सकता था. ! खैर गलती तो अक्सर प्रशासन से हो जाया करती है ! बहरहाल बताया जाता है कि दिल्ली से लिंगाराम अपना मिट्टी का घर बनाने गया था. वह अपने दादाजी के घर पर था कि कुछ सादे कपड़े में पुलिस वाले आकार उसे उठा ले गए और नक्सलियों को पैसा पहुँचाने के झूठे आरोप लगाकर उसे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया हाँ लिंगाराम का यह कसूर अवश्य है कि उसनें आदिवासियों के अधिकारों को शासन प्रशासन से मान्यता दिलवाने का सपना देखा.

इसी तरह अन्ना हजारे के जनलोकपाल लाने संबंधी अनसन को न होने देने के लिए उन्हें जेल में डालने से लेकर. रामलीला मैदान में काले धन के बारे में बाबा रामदेव सहित उनके सोये हुए समर्थकों पर आधी रात के समय दिल्ली पुलिस द्वारा किये गए लाठीचार्ज जिसमें अभी हाल में एक महिला की मौत हो गई को अंजाम देना कहाँ तक उचित है. क्या कारण है कि लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से सत्ता पर काबिज हुए लोग उसी लोकतंत्र को दरकिनार कर अचानक तानाशाह बनते जा रहे हैं अतः अब समय रहते देश के नीति-निर्धारकों को इस तथ्य पर गंभीर विचार करते हुए कि मौजूदा सरकारें जो कि अपने विरोधियों को सिर्फ कानून के दुरूपयोग और हिंसा से कुचलने पर आमादा हैं उन्हें रोकने के उपाय करने होंगे. अगर समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे पड़ोसी देशों की तरह हमारा भी नाम भी लोकतान्त्रिक स्तर पर (फेल) नाकाम राष्ट्रों में सुमार कर दिया जाएगा. नीतिगत विरोधियों के सम्मान की रक्षा भी सरकार का दायित्व है ये वही लोग हैं जो सरकार और शासन प्रशासन के जनविरोधी नीतियों का विरोध करते हुए उसमे व्यापक सुधार की मांग करते हैं. जो कि फौरी तौर पर भले ही सरकार और शासन प्रशासन के विरुद्ध दिखें लेकिन वस्तुतः वे दीर्घकालिक तौर पर सरकारों को अलोकप्रिय होने से बचाते हैं और उन्हें जन विरोधी फैसले लेने से रोककर आगामी चुनाओं में जनता को चेहरा दिखाने लायक बना देते हैं. किन्तु यही सरकारें दुर्भावनावश वस उन्हें प्रताड़ित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने नहीं देती. अगर ये सभी विसलव्लोवर अपने-अपने कामों का बहिष्कार कर दें तो समाज की गति थम जाएगी. और यह देश निरंकुशता के भंवर में फंस जायेगा. यह माना कि अपने विरोधियों के दमन की मानसिकता जो कि सदियों से सत्ताधारियों के दिमाग में अपनी विक्षिप्तता के साथ घर कर गई हैं को एक झटके में हटा पाना आसान नहीं है, परतु यह काम असंभव भी नहीं है.

32 रूपये में कैसे जियेंगे मनमोहन जी?




देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की अध्यक्षता के अंतर्गत आधारभूत संरचना और मानव विकास के लिए पुख्ता योजनाये बनाने का दावा करने वाली केन्द्र सरकार की संस्था योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय को बताया है कि खानपान पर शहरों में 965 रुपये और गांवों में 781 रुपये प्रति महीना खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता है. गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है.

अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष हलफनामे के तौर पेश की है. इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हस्‍ताक्षर किए हैं. योजना आयोग ने गरीबी रेखा पर नया मापदंड सुझाते हुए कहा है कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नै में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपये खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं कहा जा सकता.

योजना आयोग के इस हास्यास्पद परिभाषा पर हो-हल्ला मचना शुरू हो चुका है. रिपोर्ट के मुताबिक, एक दिन में एक आदमी प्रति दिन अगर 5.50 रुपये दाल पर, 1.02 रुपये चावल-रोटी पर, 2.33 रुपये दूध, 1.55 रुपये तेल, 1.95 रुपये साग-सब्‍जी, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्‍य खाद्य पदार्थों पर, 3.75 पैसे रसोई गैस व अन्य ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्‍वस्‍थ्‍य जीवन यापन कर सकता है. साथ में एक व्‍यक्ति अगर 49.10 रुपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नहीं कहा जाएगा. योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवा पर 39.70 रुपये प्रति महीने खर्च करके आप स्वस्थ रह सकते हैं। शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा जायेगा. यदि आप 61.30 रुपये महीनेवार, 9.6 रुपये चप्पल और 28.80 रुपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं कहे जा सकते.

योजना आयोग ने गरीबी की इस नई परिभाषा को तय करते समय 2010-11 के इंडस्ट्रियल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और तेंडुलकर कमिटी की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का लेखा-जोखा दिखाने वाली रिपोर्ट पर गौर किया है. हालांकि, रिपोर्ट में अंत में कहा गया है कि गरीबी रेखा पर अंतिम रिपोर्ट एनएसएसओ सर्वेक्षण 2011-12 के बाद पेश की जाएगी. ज्ञात हो कि उच्चतम न्यायालय ने गत 29 मार्च को 2004 के लिए निर्धारित मानदंडों के आधार पर वर्ष 2011 में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों का निर्धारण करने पर मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लिया था. कोर्ट ने योजना आयोग की सिफारिशों के आधार पर गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की आबादी 36 प्रतिशत होने के सरकारी दावों पर सवाल उठाते हुए सरकार से इसका विवरण माँगा था. न्यायाधीशों का कहना था कि 2004 में दिहाड़ी मजदूरी 12 रु. और 17 रु. थी, लेकिन क्या आज यह वास्तविकता है. इतने पैसे में आज क्या होता है? न्यायाधीशों का यह भी कहना था कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन में भी साल में कम से कम दो बार बदलाव होता है, लेकिन गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने में मानदंडों में सात साल में कोई बदलाव नहीं करना आश्चर्य पैदा करने वाला है.

आज देश का गरीब आदमी अपने ही नीतिनिर्धारकों द्वारा तय किये गए 'नव आर्थिक उदारीकरण' की मार झेल रहा है. उसकी जमीन, पानी और रोजी-रोटी राज्य द्वारा कब्जाई जा रही हैं ताकि सब कुछ बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और धन्ना-सेठों की खनन, सेज और दूसरे बड़े-बड़े प्रोजेक्टों, आदि के लिए दी जा सकें. जहाँ एक ओर पिछले 10 सालों में देश के कारपोरेट घरानों को 22 लाख करोड रूपये ( टेक्स आदि में छूट के माध्यम से) दे दिया गया वहीं देश के गरीब आदमी को सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी को खत्म करने की सोची-समझी रणनीति के तहत, योजना आयोग, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में काम कर रहा है. अब ऐसे में उस उच्चतम न्यायालय को उन गरीबों की मदद के लिए आगे आना चाहिए, जिनके अधिकार छीनने की मंसा से योजना आयोग उच्चतम न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है. कोई मनमोहन, मोंटेक अर्थशास्त्रीद्वय, की मंडली से कोई यह पूछे की आपकी झक्क सफेदी जो कि आप सभी के पहनावे में झलकती है और क्रीच टूट जाने पर तत्काल बदल दी जाती है ( दिन में 3 बार) कितना खर्च आता है ? ( संभवतः 23 रूपये से कई गुना ज्यादा होगा) तो आपने यह कैसे मान लिया कि देश का आम आदमी केवल 32 रूपये रोज गुजारा कर लेगा ?

जब देश में वैश्वीकरण की नीतिया लागू की जा रहीं थी उस समय तमाम बुद्धिजीवियों नें जो आशंका व्यक्त की थी कि अगर वैश्वीकरण की नीतियों पर चल कर उदारीकरण और ग्लोबलीकरण को अपनाया गया तो अधिक से अधिक लोग हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे. नतीजतन, एक ऐसी परिस्थिति निर्मित होगी जिसमें बहुत ही थोड़े से लोग अपना अस्तित्व बचा पाएंगे. गरीबों को यह चुनाव करना होगा कि वे फांसी लगाकर मरेंगे या कीटनाशक पीकर अथवा सरकारी सुरक्षाबलों के बंदूक की गोली से. क्या स्थितियां उससे अलग नजर आ रहीं हैं ? राष्ट्रीय आर्थिक संप्रभुता की अधोगति तथा आर्थिक व राजनीतिक प्रक्रिया से दूर रखे जाने की प्रवृत्ति के कारण कई युवा गुमराह होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मजबूरन आतंकवाद और हिंसा तथा अन्य गैरकानूनी रास्ता अपनाने को बाध्य हुए हैं. इन स्थितियों के मद्देनजर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि नक्सलवाद और कुछ नहीं, बल्कि अस्तित्व के संघर्ष में गरीबों के जवाबी प्रतिरोध का पर्याय मात्र है. सवाल यह है कि आखिर योजना आयोग के योजनाकारों के समझ में यह क्यों नहीं आता कि जिस देश में महंगाई दर 10 फीसदी की दर से बढ़ रही हो वहां का आम आदमी 32 रूपये में कैसे गुजारा कर सकता है.

वह वर्ल्ड बैंक जिसके बारे में कहा जाता है कि वह आम आदमी के बारे में नहीं सोचता वह केवल अपने निवेशकों के बारे में सोचता है नें भी गरीबी रेखा के ऊपर की न्यूनतम आय 2 डॉलर यानि 96 रूपये तय किया है और हमारे नीति निर्धारकों की नजर में प्रतिदिन 32 रूपये की आय अर्जित करने वाले गरीबी रेख के निचे नहीं हैं. वैसे तो यूपीए 2 का घोषित लक्ष्य देश के आम आदमी और खासकर देश की गरीब आबादी के लिए ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध करवाकर उनका जीवन स्तर सुधारना था, लेकिन अब वही यूपीए2 की सरकार देश के चंद पूंजीपतियों व निजी कंपनियों का हितसाधक बन गई है. इसी के मद्देनजर गरीबी निर्धारण के भ्रामक आंकड़े उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया है. कुल मिलाकर उच्चतम न्यायालय को हलफनामे के रूप में दी गई योजना आयोग की रिपोट से यह स्पष्ट होता है कि मौजूदा दौर में बट्टा भारी हो गया है और आदमी हल्का हो गया है. सरकार की इन्ही नीति निर्धारण के मद्देनजर चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार, और आवास की बातें करना बेमानी है देश की गरीब जनता के सामने तो अब दो जून की रोटी का सवाल मुंह बाए खड़ा हो गया है.

सरकार की ढिठाई से बेलगाम होती महंगाई


महंगाई कम करने का जादुई तरीका रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने इजाद किया है जब-जब महंगाई बढती है तो आरबीआई अपने जादुई तरीके को अपनाते हुए रेपो रेट और रिवर्स रोपो रेट को बढा देती है परिणाम स्वरूप सभी बैंक व्याज दर में इजाफा कर देती है जिसका असर होम लोन, कार लोन, गूड्स करियर लोन, बिजनेस लोन, पर पड़ना तय है इसके लिए ज्यादा रूपये किस्त के रूप में बैंक को चुकता करना पड़ेगा. अब अगर विभिन्न कारणों से व्याज के रूप में ज्यादा पैसा बैंक को अदा करना पड़े तो महंगाई कैसे रुकेगी?

लगातार बढ़ रही महंगाई से पहले से ही परेशान आम भारतीयों के बजट पर सरकार नें इस सप्ताह फिर से एक बार कुठाराघात किया. इधर पेट्रोलियम कंपनियों नें पेट्रोल के दाम ३.१४ रूपये बढ़ाये तो उधर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया आम आदमी को राहत देने के बजाय सभी तरह के लोन को महंगा करने की व्यवस्था कर दी ऊपर से तुर्रा यह कि यह सब महंगाई को काबू करने के लिए किया जा रहा है. महंगाई को काबू करने के नाम पर पिछले १८ महीनों में १२ बार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया नें रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में २५-२५ बेसिस पाइन्ट्स की बढोत्तरी कर दी इस समय रेपो रेट ८.२५ और रिवर्स रेपो रेट ७.२५ पाइन्ट्स हो गया है. दरसल रेपो रेट का मतलब रिजर्व बैंक अन्य बैंकों को रेपो रेट पर उधार देता है और रिवर्स रेपो रेट का मतलब रिजर्व बैंक रिवर्स रेपो रेट पर अन्य बैंकों से उधार लेता है. जब हम महंगाई दर की चार्ट पर नजर डालते है तो हमें पता चलता है कि अगस्त के महीने में महंगाई दर बढ़कर ९.७८ फीसदी के साथ १२ महीने के उच्चतम स्तर तक जा पहुंची है. खाद्य महंगाई दर भी ३ सितंबर को खत्म हुए सप्ताह में लगातार छठवे सप्ताह भी ९ फीसदी के ऊपर रहते हुए ९.४७ फीसदी पर रही. बेकाबू हो रही महंगाई को रोकने में नाकाम सरकार अपने हाँथ खड़े कर रही है. और सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं को महँगा करना अपनी मजबूरी बता रही है.

सरकार द्वारा लगातार महंगाई बढ़ाना क्या जनविरोधी कदम नहीं है ? गुरुवार रात से पेट्रोल के दाम ३.१४ रूपये बढा दिए गए इसी के साथ इस साल जनवरी से लेकर अब तक लगभग १० रूपये पेट्रोल के दाम में बढ़ोत्तरी कर दी गई है. पेट्रोल के दाम बढ़ाये जाने को लेकर सरकार द्वारा जो बार-बार बहाना बनाया जाता है वह है पेट्रोलियम कंपनियों को लगातार घाटा होना. जिस तरह से पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे की बात की जाती है उसके हिसाब से अब तक पेट्रोलियम कंपनियों को दिवालिया हो जाना चाहिए था. किन्तु ऐसा न होकर पेट्रोलिय की कीमतें बढाये जाने के कारण आम आदमी लगातार आर्थिक रूप से दिवालिया हो रहा है. पेट्रोलियम पदार्थों के कीमतों की बढ़ोत्तरी के पीछे अनुमानत: औद्योगिक घराने ही हैं. क्योकिं इन औद्योगिक घरानों के पेट्रोलियम पदार्थों के (रिटेल चेन) पेट्रोल पम्प इस लिए बंद करने पड़े थे क्योकि कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की पेट्रोलियम कंपनियों को बेलआउट देती थी जिससे उनका नुकसान जो कि सब्सिडी देने पर होता था उसकी भरपाई हो जाती थी और प्राइवेट कंपनियों के नुकसान की भरपाई नहीं हो पा रही थी. अब सरकार उन्ही कंपनियों के हितों के मद्देनजर लगातार पेट्रोलियम के दाम बढाती जा रही है. जिससे कि एक बार फिर से पेट्रोलियम के कारोबार में लगे औद्योगिक घराने पेट्रोलियम पदार्थों के (रिटेल चेन) पेट्रोल पम्प खोल सकें.

व्याज दर बढ़ाकर महंगाई कम करने का जादुई तरीके को समझना मुश्किल है. प्राप्त जानकारी के अनुसार महंगाई कम करने के नाम पर आरबीआई नें पिछले ३ वर्षों में कुल १२ बार व्याज दरों में बढ़ोत्तरी की लेकिन क्या महंगाई कम हुई. वस्तुत: महंगाई कम नहीं होगी उसके कारण सीधे और स्पष्ट हैं भारत सरकार को अनाज, दालें, खाने के तेल, फल आदि, बहुराष्ट्रीय निगमों के (रिटेल चेन) शापिंग माल में बेचने और मुनाफा कमाने का अवसर देना जो है. अब अगर १०-२० रूपये किलो अनाज, दालें, खाने के तेल, फल आदि बेचे जायेगे तो शापिंग माल बनाने में किये गए पूंजी निवेश का रिटर्न या माल के कर्मचारियों की तनख्वाह और रखरखाव तो छोडिये शापिंग माल में लगे सेन्ट्रल एसी के लिए उपभोग की गई बिजली का बिल नहीं भरा जा सकेगा. जमाखोरी के विरुद्ध आपने आढ़तियों के गोदामों पर छापेमारी करते हुए खाद्यान विभाग के अधिकारियों को देखा होगा लेकिन क्या कभी आपने यह भी सुना कि रिटेल चेन के कारोबार में संलग्न बहुराष्ट्रीय निगमों के वेयरहाउसों (जहाँ खाद्यान का बंफर स्टाक जमा करके रखा जाता है) में खाद्यान विभाग के अधिकारियों द्वारा छापेमारी की गई?

अब सरकार यह कहती नजर आ रही है कि महंगाई से हो रही जनता की तकलीफों के लिए हमें खेद है लेकिन चीजों के दाम बढ़ाना हमारी मजबूरी है, सरकार में बैठे लोगों से सवाल किया जाना चाहिए कि महंगाई बढ़ाना आपकी मजबूरी है, भ्रष्टाचार में आपके संतरी से लेकर मंत्री तक सभी आकंठ डूबे हुए है इसलिए भ्रष्टाचार आप मिटा नहीं सकते, आतंकवाद से निपटना आपके बूते का नहीं तो आप सत्ता से क्यों चिपके है. इधर महंगाई सुरसा की तरह बढ़ रही है और उधर आपके मंत्रियों की संपत्ति में हजार-हजार प्रतिशत का इजाफा हो रहा है ! आखिर माजरा क्या है ? छठे वेतन आयोग को लागू करने के भार से अभी केन्द्र सरकार उबर नहीं पायी थी कि केन्द्र सरकार नें १ जुलाई २०११ से अपने कर्मचारियों को ७ प्रतिशत डीए बढा दिया है. इस फैसले से केन्द्र सरकार के ५० लाख कर्मचारी और ४० लाख पेंशनर को फायदा मिलेगा इससे सरकार पर सालाना ७,२२८,७६ करोड रूपये का अतिरिक्त भार होगा. यहाँ यह समझ में आता है कि सरकार का एकमेव उद्देश्य रह गया है... महंगाई बढाओ, आम जनता को लूटो, सरकारी खजाने भरो, और फिर उसे सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों, पार्षदों, विधायकों, सांसदों, और मंत्रियों में बंदरबाँट करो.

१९९१ से लेकर आज तक केवल और केवल देश की सार्वजनिक निगमों को जिसे नवरत्न कहा जाता था. उन्हें पूजीपतियों के पक्ष में न केवल हलाल किया गया वरन एनडीए शासनकाल में (डिस्इन्वेस्टमेंट) विनिवेश मंत्रालय बनाकर औद्योगिक घरानों के हवाले किया गया, जनहित से जुड़े क्षेत्र एक-एक कर औद्योगिक घरानों के हवाले किया जा रहा है, चाहे वह बैंकिंग का क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो, चिकित्सा का क्षेत्र हो, खनन का क्षेत्र हो, यहाँ तक कि बिजली और पानी भी. उधर मंदी से अमेरिका का दम निकल रहा है अमेरिकी बांडों की साख लगातार गिर रही है फिर भी क्या कारण है कि डालर के सामने रूपया (रूपये का अवमूल्यन हो रहा है) लगातार टूट रहा है. आखिर इस समय रूपये के अवमूल्यन का रहस्य क्या है? क्या रूपये का अवमूल्यन निर्यात के व्यवसाय से जुड़े पूंजीपतियों के इशारे पर किया जा रहा है? रइस मंत्रियों के तले देश का दम घुट रहा है और आम आदमी को हासिए पर फेंक दिया गया है.

अब सरकार की नीतियां और सोच मुनाफा बनाने तक ही सीमित हो गई है मुनाफा बनाना ही विकास है. “कल्याणकारी राज्य” अब “मुनाफाखोर राज्य” में तब्दील होता दिख रहा है. सरकार अभी और भी कड़े फैसले लेने की बात कर रही है. रसोई गैस और रेल यात्री/माल किराये में वृद्धि. यानि आम आदमी अभी और अपनी आर्थिक रीढ़ पर महंगाई का वार सहने को को तैयार रहें. अरे सरकार उनके हितों की सुरक्षा के लिए क्यों कड़े फैसले नहीं ले रही है जिसके मतो से वह सत्ताशीन हुई है. स्पष्ट दीखता है कि भारतीय लोकतंत्र को सरकार नहीं बल्कि देश के कुछ चुनिन्दा वकीलों के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने मन मुताबिक हांक रही हैं. महंगाई बढ़ाकर आम आदमी का जेब काटने से लेकर किसानों और आदिवासीयों के हिस्से का जल, जंगल और जमीन लूटने की कयावद जारी है. किन्तु यूपीए सरकार की कैबिनेट द्वारा तेज टिकाऊ और समग्र विकास का जुमला फेंका जा रहा है अब इस जुमले का आम आदमी क्या करे ? वैसे तो यह सभी को पता है कि सत्ता हाँथ में आते ही जैसे कांग्रेस के पिछले जुमले “कांग्रेस का हाँथ गरीब के साथ” को पलट दिया था वैसे ही आम आदमी तेज टिकाऊ और समग्र विकास को अपने साथ जोड़कर न देखे क्योंकि यह जुमला सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों, पार्षदों, विधायकों, सांसदों, और मंत्रियों और पूंजीपतियों के लिए है आम आदमी के लिए नहीं.