शुक्रवार, 4 मार्च 2011

कैसे होगा मानवाधिकारों का संरक्षण ?


देश के मानवाधिकार आयोगों में बैठे लोगों के कारण मानवाधिकार आयोगों की भारी किरकिरी हो रही है मौजूदा समय में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के। जी. बालाकृष्णन के ऊपर लगातार हो रहे आरोपों की बौछार से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जो स्थिती है वह किसी से छुपी नहीं है के. जी. बालाकृष्णन के तीन रिश्तेदारों के खिलाफ चल रहे आय से अधिक सम्पति के आरोपों की जांच में उनके पास काला धन होने की खबर आने से भी के. जी. बालाकृष्णन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के पद से चिपके हुए है इन विवादों के चलते पूर्व चीफ जस्टिस जे. एस. वर्मा ने २७ फरवरी २०११ को बालाकृष्णन से एनएचआरसी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की मांग की उन्होंने कहा कि ऐसा न होने पर पूर्व चीफ जस्टिस को हटाने के लिए राष्ट्रपति को मामले में दखल देनी चाहिए. वर्मा ने कहा कि अगर आरोप सच नहीं हैं तो उन्हें गलत साबित करने की जिम्मेदारी भी बालाकृष्णन की ही है. ऐसे वक्त में चुप्पी साधना कोई विकल्प नहीं है. उन्होंने कहा कि अगर पूर्व सीजेआई चुप रहने का विकल्प चुनते हैं और खुद को बेदाग नहीं साबित करते तो उन्हें हटाने की प्रक्रिया शुरू कर दी जानी चाहिए. इस मामले में कोच्चि के डायरेक्टर जनरल ऑफ इनकम टैक्स (इन्वेस्टिगेशन)ई. टी. लुकोसे का कहना है कि जहां तक पूर्व सीजेआई बालाकृष्णन का सवाल है तो अभी इस बारे में कुछ नहीं कह सकता लेकिन जहां तक उनके रिश्तेदारों का सवाल है तो हमने उनके मामले में ब्लैक मनी की मौजूदगी पाई है. यह अफ़सोसजनक है कि इस नई संस्कृति का शिकार अब नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए बने संस्थान हो रहे है, मानवाधिकार आयोग हो, सूचना आयोग, महिला आयोग, बाल अधिकार आयोग या न्यायपालिका सबकी स्थिति लगभग एक जैसी ही है सभी जगहों पर सत्ता के एजेंट ही बैठे है और उनका तालमेल अद्भुत है, मजाल कही आम आदमी के लिए कोई एक छेद भर भी गुंजाईस हो. चोरी और सीनाजोरी की यह व्यवस्था मुकम्मिल तौर पर इस सत्ता और उसके एजेंटो की है ना कम ना ज्यादा पूरी की पूरी जमीनी लूट से उपरी न्यायपालिका और आसमानी सत्ता तक अब बालकृष्णन से आप क्या आशा कर सकते है, न्याय की, नहीं आप तो केवल सत्ता की वफ़ादारी की ही आशा कीजिये, इसी मे आपकी समझदारी है और उनकी सुविधा भी.

मुंबई के अख़बारों में दिनांक २५ फरवरी २०११ को एक छोटी सी खबर छपी थी कि मुंबई में अशोक ढवले नामक एक पुलिस अधिकारी को ब्राउन शूगर के साथ रंगे हाँथ पकड़ा गया इस विषय पर जानकारी हासिल करने की उत्सुकता तब और बढ़ी जब यह पता चला कि अशोक ढवले महाराष्ट्र पुलिस में डीवायएसपी के पद पर था और तब आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब यह पता चला कि यह मादक पदार्थों का तस्कर पुलिस अधिकारी महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग के उस विभाग में डीवायएसपी के पद पर तैनात था जो विभाग नागरिकों से प्राप्त मानवाधिकार हनन के मामलों की जाँच करता है अशोक ढवले नामक मादक पदार्थों का तस्कर पुलिस अधिकारी को रंगे हाथ पकडनें पर मै मुंबई पुलिस को बधाई देता हूँ लेकिन मुंबई पुलिस द्वारा जारी किये गये प्रेस नोट जिसमें यह बताया गया था कि अशोक ढवले “प्रोटेक्शन ऑफ़ सिव्हिल राईट” विभाग में काम कर रहा था की निंदा करता हूँ मुंबई पुलिस नें सीधे सीधे अपने प्रेस नोट में यह क्यों नहीं बताया कि अशोक ढवले महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग के जाँच विभाग ( इन्क्वायरी विंग) में तैनात था आखिर मुंबई पुलिस नें महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग का नाम इस मामले में छुपाने का प्रयास क्यों किया जहाँ यह तस्कर अधिकारी तैनात था। यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि एक पुलिस अधिकारी ब्राउन शूगर की तस्करी करते रंगे हाथों पकड़ा गया मुद्दा ऐसे रंगे सियारों का मानवाधिकार आयोगों में बिठाये जाने का है यह चिंता का विषय है कि मौजूदा समय में ऐसा प्रतीक होता है कि भारत के मानवाधिकार आयोग अपराधियों के शरण स्थली बनते जा रहे है.

इसके पहले भी मुंबई से ही एक खबर आयी थी कि महाराष्ट्र राज्य के मानवाधिकार आयोग में तैनात पूर्व आईएएस अधिकारी सुभाष लाला नामक सदस्य आदर्श हाऊसिंग सोसायटी घोटाले में संलिप्त है आदर्श हाउसिंग सोसायटी मामले में अपनी भूमिका को लेकर आरोपों के घेरे में आए सुभाष लाला ने राज्य मानवाधिकार आयोग के सदस्य के पद से इस्तीफा भी दे दिया। बताया जाता है कि सुभाष लाला महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के कृपापात्र नौकरशाहों में एक ( पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के पूर्व निजी सहायक) थे और इन्हें विलासराव देशमुख के ही कृपा से महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग में सदस्य की कुर्सी मिली थी महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग में सुभाष लाला को लेकर एक बात प्रचलित थी इन्हें महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग में सरकार एवं पुलिस के विरुद्ध आयी शिकायतों पर सरकार एवं पुलिस के लिए सेप्टी वाल्व की तरह काम करने के लिए नियुक्त किया गया है महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग में शिकायतों को लेकर जाने वाले स्वयंसेवी संगठन बताते है कि आयोग में आयी सामान्य और गंभीर दोनों किस्म की जितनी शिकायतों को सुभाष लाला नें कार्रवाई के लिए अयोग्य बताकर निरस्त किया उतनी शिकायतें किसी अन्य सदस्य नें निरस्त नहीं किया सुभाष लाला के बारे में बताया जाता है कि इनके पास मुंबई में कई बेनामी संपत्तियां और फ्लैट्स है जिससे लाखों रूपये किराये के रूप में प्राप्त होते है हालाँकि आदर्श मामले में सुभाष लाला नें सफाई दी थी कि उनके दिवंगत पिता संग्राम लाला सैन्य इंजीनियरिंग सेवा में कार्यरत थे इसीलिए आदर्श सोसायटी के मुख्य प्रमोटर आर सी ठाकुर नें उन्हें आदर्श सोसायटी में सदस्य बनाया था. वस्तुतः आदर्श सोसायटी कारगिल के शहीदों के परिजनों को आवासीय सहायता के नाम पर अवैध तरीके से बनाई गयी थी अतः सुभाष लाला के इस सफाई का क्या औचित्य है.

इतना ही नहीं पिछले दिनों महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग के कार्य कलापों को के विरुद्ध मुंबई के एक व्यवसायी व समाजसेवी पुष्कर दामले नें मुंबई हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी यह याचिका मानवाधिकार आयोग में मानवाधिकार उल्लंघन के बारे में प्राप्त शिकायतों पर कोई करवाई न किए जाने और आयोग के सदस्यों द्वारा नियमित तौर पर की गई अनियमितताओं की जाँच के लिए दायर की गयी थी। इस याचिका के लिए सूचना अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त की गई सूचनाओं से पता चला था कि जून २००८ तक २८,०८३ मामले दायर किए गए थे । परन्तु आयोग नें कारवाई का आदेश केवल ३९ मामलों में दोषी अधिकारियों के खिलाफ दिया है. ये मामले राज्य के विरुद्ध थे जिसमें सरकारी अधिकारी भी शामिल थे. आयोग नें २४०७१ मामले निपटाए तथा जून २००८ तक ४०१२ मामले निपटाने बाकी थे याचिका में कहा गया था कि २४०३२ मामलों को विचारणीय न माना जाना अजीब लगता है. इसका अर्थ यह हुआ कि केवल ०.१६ प्रतिशत मामलों में ही मानवाधिकार उल्लंघन के केस साबित हो पाए क्या बाकी बकवास थे ? यह याचिका हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार तथा एस.सी. धर्माधिकारी की खंडपीठ में सुनवायी हेतु आयी थी । खंडपीठ नें इस याचिका पर राज्य सरकार से ३ सप्ताह के भीतर उत्तर देने को कहा था. याचिका में बताया गया है कि राज्य सरकार नें वर्ष १९९३ के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के वर्ष २००६ के संशोधन के प्रावधानों को लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया इस परिवर्तन से किसी भी उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता तथा ४ सदस्यों वाले आयोग में मात्र एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य रखे जाने थे पर वर्ष २००६ में आयोग केवल एक सदस्य अध्यक्ष सी.एल. थूल ( सेवानिवृत्त जिला जज) की अध्यक्षता में ६ माह तक काम करता रहा. याचिका में आरोप लगाया गया है कि २३.११.२००६ में इसके लागू होने से पूर्व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित कमेटी नें ३ सदस्यों का चयन किया इनकी नियुक्ति राज्यपाल नें वास्तव में १०.११.२००६ में की थी. अब तक जो सदस्य कार्यरत रहे उनमें टी.सिंगार्वेल ( नागपुर के पूर्व पुलिस आयुक्त ) सुभाष लाला ( मुख्यमंत्री के पूर्व निजी सहायक) तथा विजय मुंशी ( उच्च न्यायलय के पूर्व जज ) याचिका में कहा गया है कि परिवर्तित एच.आर. एक्ट अभी तक महाराष्ट्र सरकार नें लागू नहीं किया है. याचिका में कहा गया था कि अपनी नियुक्ति के एक दिन बाद ही एक सदस्य कैंसर सर्जरी के लिए अवकाश पर चला गया. इस सदस्य के इलाज पर राज्य सरकार के ६.२५ लाख रूपये खर्च हुए एक अन्य सदस्य नें निर्देशों का उल्लंघन करके अपनी पत्नी के साथ अत्यधिक देश-विदेश की यात्रायें की थी इस जनहित याचिका का जिक्र करने का आशय यह नहीं कि उक्त याचिका पर मुंबई हाई कोर्ट के माध्यम से कार्रवाई की गयी या नहीं. आशय आयोगों के क्रियाकलापों को उजागर करना है.

मानव अधिकार आयोगों के संबंध में समय-समय पर एक बात और उजागर हो रही है कि वे नागरिक अधिकार आंदोलनों, सामाजिक और मानवाधिकार संगठनों को कुचलने का काम कर रहे है इनके क्रियाकलापों तथा जनसंगठनों के विरुद्ध कार्रवाई हेतु प्रशासन और पुलिस को भेजे जा रहे पत्रों को देखकर ऐसा प्रतीक होता है कि इन सरकारी आयोगों का गठन सरकारों नें नागरिक अधिकार आंदोलनों को कुचलने के लिए ही किया है. जबकि मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम १९९३ में यह कलमबद्ध किया गया है कि मानव अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनो, संस्थाओं को मानव अधिकार आयोगों द्वारा प्रोत्साहित किया जायेगा किन्तु स्थिति इससे उलट है "मानव अधिकार जो कि आम नागरिक का मुद्दा है उसे व्यवस्था नें हड़प लिया है" तथा मानव अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनो तथा संस्थाओं पर इन्ही आयोगों के माध्यम से हमले तेज कर दिए है उनके इन हमलों से पता चलता है कि सरकारों को ऐसे नागरिक अधिकार आन्दोलन, स्वयंसेवी संगठन, तथा संस्थाएं नहीं चाहिए जो आयोगों के क्रियाकलापों पर नजर रख सकते है उनके द्वारा गलत किये जाने पर ऊँगली भी उठा सकते. उन्हें चाहिए सरकारी मानवाधिकार आयोगों में बैठे भ्रष्ट एवं आपराधिक प्रवित्ति के लोग जो कि मानवाधिकारों के संरक्षण के नाम पर सत्ता के एजेंट के रूप में काम करें.