सोमवार, 31 अगस्त 2009

जरूरी है भोजन के अधिकारों (राइट टू फ़ूड) को कानूनी संरक्षण

डा. मनमोहन सिंह नें शनिवार को पत्रकारों को संबोधित करते हुए बताया कि जन वितरण प्रणाली के लिए देश के पास पर्याप्त खाद्यान भंडार है देश में कोई भूखा पेट न रहे इसकी जिम्मेदारी मौजूदा सरकार के माध्यम से अपने ऊपर ली । सूखे के चलते देश के ऊपर मंडरा रहे अकाल और भूखमरी के खतरे और अपने पार्टी के चुनावी घोषणापत्र को ध्यान में रख कर उन्होंने यह बयान दिया । भूखमरी और कुपोषण गरीबी और अभाव देश के लगभग ३५ करोड़ लोगों को प्रभावित किये हुए है ऐसा नहीं कि हमारे प्रधानमंत्री को इस विषय की जानकारी नहीं है उपरोक्त ३५ करोड़ लोग जोकि भूखमरी और कुपोषण के लिए अभिशप्त है अभी तक इनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही क्यों नहीं तय की गयी । पहले से मौजूद इन आंकडों पर जब हम नजर डालते है कि भारत के करीब २० करोड़ लोग रात को खाली पेट सोने को मजबूर है (संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट) क्या प्रधानमंत्री महोदय नें इनके भोजन की व्यवस्था कर दी है ?
पिछले दिनों राष्ट्रपति ने यह घोषणा की कि भोजन का अधिकार कानून बनाना नयी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता है इसके तत्काल बाद खाद्य व नागरिक आपूर्ति मंत्रालय ने एक प्रस्ताव जारी किया जिसमें इस प्रस्तावित कानून के तहत सरकार की भूमिका महीने में सिर्फ़ २५ किलोग्राम चावल और गेहं तीन रुपये प्रति किलो की दर से आपूर्ति करने तक सीमित रखने की कोशिश की गयी । वह भी आबादी के एक छोटे से तबके के लिए जिन्हें सरकार गरीब मानती हो दबी जुबान यहां तक कहा गया कि इससे सरकारी खजाने पर काफ़ी बोझ पड़ेगा लेकिन इसके कुछ समय पहले यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस संदर्भ में शीघ्र कार्रवाई करने का आग्रह किया था जो कहीं ज्यादा व्यापक तरीके से भूखे लोगों को समुचित भोजन का भरोसा दिलाये उन्होंने कहा था कि इसके मसौदे में ऐसे लोगों का खास तौर पर ध्यान रखा जाये जो गंभीर रूप से भोजन के अभाव से ग्रस्त हैं जैसे कि अकेली महिला, अपंग या वृद्ध व्यक्ति, सड़कों पर पलनेवाले बच्चे, बंधुआ मजदूर, खेतिहर मजदूर और कचरा बीननेवाले लोगों समेत शहरी बेघर लोग ।
उनकी इस पहल पर ब्राजील के राष्ट्रपति लुला द सिल्वा के शब्दों की झलक थी जब उनके देश ने इसी तरह से एक खाद्य गारंटी योजना हंगर जीरो लांच की थी। लुला ने विश्वास जताते हए कहा था- हम अपने देश के लोगों के लिए यह संभव कर देंगे कि उन्हें रोज तीन वक्त खाने को मिले जिसके लिए किसी को हाथ न फ़ैलाना पड़े ब्राजील इस तरह की विषमता के साथ और आगे नहीं जा सकता हमें भूख, गरीबी और सामाजिक विषमता पर काबू पाना होगा । हमारी जंग किसी को मारने के लिए नहीं है यह जिंदगी बचाने के लिए है । ब्राजील की खाद्य सुरक्षा नीति का उपशीर्षक भी उतना ही जबरदस्त है -ऐसे ब्राजीली नागरिक, जिन्हें भोजन नसीब होता है वे उनकी मदद करें जिनके पास भोजन नहीं है । यदि भारत को फ़िर से इतिहास लिखना है तो उसे ऐसी नैतिक और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर ही भोजन का अधिकार कानून बनाना होगा ।
सवाल सिर्फ पेट भरने का ही नहीं है, सवाल समुचित पोषक तत्वों के शरीर में पहुंचने का भी है, ताकि शरीर इतना स्वस्थ बने कि व्यक्ति रोटी कमाने के लायक बन सके। अपेक्षित क़ानून में इस बात की गारंटी होनी चाहिये कि न केवल सबको पर्याप्त भोजन मिलेगा, बल्कि सबको पर्याप्त भोजन अर्जित करने का अवसर भी उपलब्ध कराया जायेगा। इस दृष्टि से देखें तो यह अधिकार व्यापक सन्दर्भों वाला बन जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ बरसों से भूख की समस्या से जूझने का संकल्प दुहराता रहा है और इसे मूल मानवीय अधिकारों का हिस्सा बताता रहा है। आज भी भूख एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा है लेकिन इतना कह देने से बात बनती नहीं। हर देश को अपने स्तर पर इस समस्या से जूझना है। कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में इस आशय की बात कही थी।
देश में कुपोषण और भुखमरी की भयावह स्थिति तथा सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में भ्रष्टाचार एवं लापरवाही को देखते हुए २००१ में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पी.यू.सी.एल.), राजस्थान ने भोजन के अधिकार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित चायिका दायर की। यह याचिका उस समय दायर की गई, जब एक ओर देश के सरकारी गोदामों में अनाज का भरपूर भंडार था, वहीं दूसरी ओर देश के विभिन्न हिस्सों में सूखे की स्थिति एवं भूख से मौत के मामले सामने आ रहे थे। इस केस को भोजन के अधिकार केस के नाम से जाना जाता है। भोजन के अधिकार को न्यायिक अधिकार बनाने के लिए विभिन्न संस्थाएं, संगठन लगातार संघर्ष कर रही है। पी.यू.सी.एल. द्वारा दायर की गयी इस याचिका का आधार संविधान का अनुच्छेद २१ है जो व्यक्ति को जीने का अधिकार देता है। जीने का अर्थ गरिमापूर्ण जीवन से है और यह भूख और कुपोषण से जूझ रहे व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यह एक मौलिक अधिकार है। सरकार का दायित्व है इसकी रक्षा करना। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार जीने के अधिकार को परिभाषित किया है, इसमें इज्जत से जीवन जीने का अधिकार और रोटी के अधिकार आदि शामिल हैं।
जब हम जीने के अधिकार की बात करते हैं, तो प्रकारांतर से वैयक्तिक और सामाजिक सुरक्षा को ही रेखांकित करते हैं। भोजन का अधिकार देने का मतलब सबको सस्ती दरों पर कुछ अनाज मुहैया करा देना ही नहीं, इसका अर्थ बेहतर जिंदगी की गारंटी देना है। सब स्वस्थ हों, शिक्षित हों, जीविका उपार्जन में समर्थ हों, इसके लिए उन स्थितियों का निर्माण ज़रूरी है, जिनमें यह सब संभव हो सकता है। भोजन का अधिकार देना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम होगा। ऐसे क़दम की सार्थकता ब्राजील प्रमाणित कर चुका है। अब देखना यह है कि हमारी सरकार चला रहे नेतागण अपने चुनावी घोषणापत्र में किये गये (राइट टू फ़ूड) भोजन के अधिकार विषय पर वायदे का विधेयक लाने और उसे लोकसभा में पास कराने जैसी नैतिक जिम्मेदारी कितनी जल्दी पूरा करते है ।

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