शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

मानव अधिकार
दोस्तों कल 10 दिसंबर 2016 अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस पर अगर हम मानव अधिकारों की श्रेणी की बात करें तो- मनुष्य योनि में जन्म लेने के साथ मिलने वाला प्रत्येक अधिकार मानवाधिकारका श्रेणी में आता है। संविधान में बनाये गये अधिकारों से कहीं बढ़कर महत्व मानवाधिकारोंका माना जा सकता है।
कारण यह कि ये ऐसे अधिकार है जो सीधे सीधे प्रकृति से संबंध रखते है। मसलन जीने का अधिकार, कोई कानून सम्मत अधिकार नहीं, वरन समाज के हर वर्ग को प्रकृति द्वारा समान रूप से प्रदान किया गया है। दूसरे रूप में हम यह भी कह सकते है कि प्रकृति के अलावा मनुष्यों द्वारा बनाये गये विधि सम्मत कानून का भी यही कर्तव्य है कि वह मानवाधिकारोंकी रक्षा करें। हम यह देख रहे है कि हमारे इसी मानवीय समाज में मानवाधिकारोंका भय आम लोगों पर विशेष रूप से दिखाई नहीं पड़ रही है। प्रत्यक्ष उदाहरण के तौर पर हम आये दिन होने वाले महिला प्रताड़ना मामलों को ले सकते है। हमारे सांस्कृतिक सभ्यता वाले महान देश में प्रतिदिन हजारों कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं हमारी संस्कृति को तार-तार कर रही है। इतना ही नहीं इस मानवीय समाज को रचने वाली नारियां भी लाखों की संख्या में दहेज की बलिवेदी पर चढ़ायी जा रही है। महिलाओं के यौन शोषण मामलों में वृद्धि के साथ ही साथ कम उम्र की बालिकाओं को समय से पूर्व अवैध मातृत्व के कारण आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ रहा है। इतना कुछ होने के बाद भी हम मानवाधिकारकानून की दुहाई देते नहीं थक रहे है। सच्चाई की धरातल पर खड़े हम ऐसे ही अपराधों पर नियंत्रण के लिए मानवाधिकारके रक्षकों से केवल गुहार ही लगा पा रहे है।

10 दिसंबर सन् 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा अस्तित्व में लाये गये मानवाधिकारने अब तक 68 वर्ष की यात्रा पूरी कर ली है। इन अधिकारों के जन्म लेने के साथ ही इसमें शामिल सदस्यों का यह कर्तव्य बन गया है कि वे मानवाधिकारोंका संरक्षण और उनकी देखभाल करें। वास्तव में देखा जाये तो मानवीय जीवन और अधिकार की रक्षा उस देश के मानवाधिकारकानूनों के लिए गौरवान्वित करने वाली बात होती है। वर्तमान में हमारे देश में मानवाधिकारोंकी स्थिति वास्तव में जटिलता में देखी जा रही है। मानवाधिकारोंकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसका हनन राजनैतिक कारणों के अतिरिक्त धार्मिक मुद्दों पर भी किया जा रहा है। धर्म एक ऐसा मार्ग है जो प्रत्येक जाति वर्ग को प्रेम और स्नेह से रहना सिखाता है। आज उसी धर्म के नाम पर कट्टरता का प्रचार प्रसार करते हुए हिंसा के कारण लोग बेवजह मारे जा रहे है। मानवाधिकारोंसे भारतवर्ष का नाता बहुत पुराना है। हम वसुधैव कुटुम्बकमको अपना सूत्र वाक्य मानते है। संपूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है जिसने दुनिया को जीयो और जीने दोका आदर्श वाक्य देते हुए आपसी प्रेम स्नेह का संचार करने में बड़ी भूमिका का निर्वहन किया है।

आज के परिप्रेक्ष्य में मानवाधिकारऔर उसकी रक्षा प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बनकर सार्वभौमिक सत्यता को जन्म दे रहा है। मानव समाज के प्रत्येक सदस्य को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दिया गया यह अधिकार अब अपने ही संरक्षण के लिए हम सभी से सहयोग की अपील करता दिखायी पड़ रहा है। समयांतर के दृष्टिकोण से मानवाधिकारोंका सम्मान एक गंभीर चिंतन का विषय बना हुआ है। परस्पर सद्भाव के द्वारा ही हम मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अपनी ओर से गारंटी दे सकते है। संपूर्ण मानवीय प्रजाति को प्रदान किये गये इस अधिकार की गहराई में जाकर चिंतन करें तो आतंकवाद और नक्सलवाद ही मानवाधिकारके सबसे बड़े दुश्मन के रूप में दिखाई पड़ रहे है। इसका दूसरा पक्ष अशिक्षा के रूप में भी समाज के समक्ष आ रहा है। भारतवर्ष के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अभाव अभी भी हमें साल रहा है। यही कारण है कि लोग शिक्षित न होने के कारण मानवाधिकारोंके हनन किये जाने पर उसका विरोध भी नहीं कर पा रहे है। अक्षर ज्ञान का अभाव ग्राम्यजनों को अधिकारों से अवगत भी नहीं होने दे रहा है। समय-समय पर मानवाधिकारोंकी सुरक्षा के लिए प्रयास किये जाते रहे है। इसी तारतम्य में सन् 1975 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव पारित कर किसी भी प्रकार के उत्पीड़न की निंदा करते हुए उसे अमानवीय करार दिया गया। सन् 1993 से 2003 तक के दशक को इसी कारण नस्लवाद विरोध दशक के रूप में मनाने का निर्णय भी लिया गया।

महिला अधिकारों के संरक्षण को तवज्जो देते हुए सन् 1993 में एक प्रस्ताव के माध्यम से उन्हें मजबूती दी गयी। शिशु अधिकारों को बल प्रदान करने के लिए सन् 1959 तथा सन् 1989 में विशेष प्रबंध बनाये गये। जिसमें विशेष रूप से शिशु के जीवन यापन के अधिकार से लेकर उसके संरक्षण के अधिकार तक की विस्तृत चर्चा की गयी। इसी प्रकार अल्प संख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए भी महासभा ने समय-समय पर चिंतन किया है। इसके अतिरिक्त मजदूरों तथा उनके परिवारों की सुरक्षा के प्रावधान भी मानवाधिकारोंमें शामिल किये गये। भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, यौन शोषण, शारीरिक उत्पीड़न, मानसिक प्रताड़ना और बलात्कार जैसे दानवों से घिरी आधी दुनिया मानवाधिकारोंकी जरूरत को रेखांकित करते करते अक्सर थक सी जाती है। इन सारी समस्याओं से आगे बढ़ते हुए आदिवासियों के भू अधिकारों की समस्या और वनवासियों को उजाड़े जाने की दास्तां भी मानवाधिकारोंकी चर्चा को आवश्यक और प्रासंगिक बनाती है। तमाम आदिवसी और वनवासी सैकड़ों वर्षों से वनों और उनके आसपास के इलाकों में निवास कर रहे है। इनके परंपरागत अधिकारों और मानवाधिकारोंकी समुचित पहचान अभी तक नहीं की जा सकी है, और आज तक उन्हें चकबंदी, सीलिंग, पट्टे, भू अभिलेख या भूमि आबंटन का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाया है। हैरत की बात यह है कि सभी को समान मानने वाली इस व्यवस्था की सरकार इस बात को आसानी से स्वीकार कर लेती है। इन वर्गों को अब तक वास्तविक लाभ से वंचित ही रखा गया है।


मानवाधिकारऔर वर्तमान में उनकी दशा पर इतनी व्यापक चर्चा किये जाने के बाद भी यह विषय अधूरा ही रह गया है। कारण यह कि मानव समाज में जो समस्याएं उपस्थित है उनसे निपटना ही मानवाधिकारकी संकल्पना का लक्ष्य है। सूखा, बाढ़, गरीबी, अकाल, सुनामी, भूकंप, युद्ध या दुर्घटनाओं के चलते जो लोग शिकार हो रहे है, पीड़ित या परेशान चल रहे है उनके मानवाधिकारोंका ध्यान रखा जाना अपेक्षित जान पड़ रहा है। इन सारे मामलों में कानून को भी सक्रिय भूमिका का निर्वहन करना होगा। विकास के साथ मानवता के आपसी रिश्तों को भी रेखांकित करना होगी न कि विकास के नाम पर किये जा रहे निर्माण के बाद लोगों को बे-घर बार कर दिया जाये? अनुकूल पर्यावरणीय स्थितियों की भी महती आवश्यकता है। मानवाधिकारसंबंधी घोषणाओं को जमीनी सच्चाईयों में बदलना होगा। जिससे ऐसी घोषणाएं महज दस्तावेजी बनकर न रह जाये। शायद इन्हीं सब बातों में मानवाधिकारदिवस की सार्थकता भी निहित है। दुर्भाग्य वस हमारे देश की सरकार मानवाधिकारको लेकर बिलकुल सजग नहीं है, बल्कि वह मौजूदा समय में मानव अधिकारों की उपेक्षा करती हुई नजर आ रही हैं इसलिए अगर मानव अधिकारों के विषय पर मौजूदा सरकार को सजग बनाना है तो मानव अधिकारों से संबंधित संगठनों द्वारा संचालित जनांदोलनों में अधिक तेजी एवं धार लाने की जरूरत है।

बुधवार, 5 नवंबर 2014


मानव अधिकारों की विवेचना 

मनुष्य योनि में जन्म लेने के साथ मिलने वाला प्रत्येक अधिकार 'मानवाधिकार' का श्रेणी में आता है। संविधान में बनाये गये अधिकारों से कहीं बढ़कर महत्व 'मानवाधिकारों' का माना जा सकता है।
 कारण यह कि ये ऐसे अधिकार है जो सीधे सीधे प्रकृति से संबंध रखते है। मसलन जीने का अधिकार, कोई कानून सम्मत अधिकार नहीं, वरन समाज के हर वर्ग को प्रकृति द्वारा समान रूप से प्रदान किया गया है। दूसरे रूप में हम यह भी कह सकते है कि प्रकृति के अलावा मनुष्यों द्वारा बनाये गये विधि सम्मत कानून का भी यही कर्तव्य है कि वह 'मानवाधिकारों' की रक्षा करें। हम यह देख रहे है कि हमारे इसी मानवीय समाज में 'मानवाधिकारों' का भय आम लोगों पर विशेष रूप से दिखाई नहीं पड़ रही है। प्रत्यक्ष उदाहरण के तौर पर हम आये दिन होने वाले महिला प्रताड़ना मामलों को ले सकते है। हमारे सांस्कृतिक सभ्यता वाले महान देश में प्रतिदिन हजारों कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं हमारी संस्कृति को तार-तार कर रही है। इतना ही नहीं इस मानवीय समाज को रचने वाली नारियां भी लाखों की संख्या में दहेज की बलिवेदी पर चढ़ायी जा रही है। महिलाओं के यौन शोषण मामलों में वृद्धि के साथ ही साथ कम उम्र की बालिकाओं को समय से पूर्व अवैध मातृत्व के कारण आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ रहा है। इतना कुछ होने के बाद भी हम 'मानवाधिकार' कानून की दुहाई देते नहीं थक रहे है। सच्चाई की धरातल पर खड़े हम ऐसे ही अपराधों पर नियंत्रण के लिए 'मानवाधिकार' के रक्षकों से केवल गुहार ही लगा पा रहे है। 
10 दिसंबर सन् 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा अस्तित्व में लाये गये 'मानवाधिकार' ने अब तक 63 वर्ष की यात्रा पूरी कर ली है। इन अधिकारों के जन्म लेने के साथ ही इसमें शामिल सदस्यों का यह कर्तव्य बन गया है कि वे 'मानवाधिकारों' का संरक्षण और उनकी देखभाल करें। वास्तव में देखा जाये तो मानवीय जीवन और अधिकाराें की रक्षा उस देश के 'मानवाधिकार' कानूनों के लिए गौरवान्वित करने वाली बात होती है। वर्तमान में हमारे देश में 'मानवाधिकारों' की स्थिति वास्तव में जटिलता में देखी जा रही है। 'मानवाधिकारों' की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसका हनन राजनैतिक कारणों के अतिरिक्त धार्मिक मुद्दों पर भी किया जा रहा है। धर्म एक ऐसा मार्ग है जो प्रत्येक जाति वर्ग को प्रेम और स्नेह से रहना सिखाता है। आज उसी धर्म के नाम पर कट्टरता का प्रचार प्रसार करते हुए हिंसा के कारण लोग बेवजह मारे जा रहे है। 'मानवाधिकारों' से भारतवर्ष का नाता बहुत पुराना है। हम 'वसुधैव कुटुम्बकम' को अपना सूत्र वाक्य मानते है। संपूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है जिसने दुनिया को 'जीयो और जीने दो' का आदर्श वाक्य देते हुए आपसी प्रेम स्नेह का संचार करने में बड़ी भूमिका का निर्वहन किया है। 
आज के परिप्रेक्ष्य में 'मानवाधिकार' और उसकी रक्षा प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बनकर सार्वभौमिक सत्यता को जन्म दे रहा है। मानव समाज के प्रत्येक सदस्य को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दिया गया यह अधिकार अब अपने ही संरक्षण के लिए हम सभी से सहयोग की अपील करता दिखायी पड़ रहा है। समयांतर के दृष्टिकोण से 'मानवाधिकारों' का सम्मान एक गंभीर चिंतन का विषय बना हुआ है। परस्पर सद्भाव के द्वारा ही हम मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अपनी ओर से गारंटी दे सकते है। संपूर्ण मानवीय प्रजाति को प्रदान किये गये इस अधिकार की गहराई में जाकर चिंतन करें तो आतंकवाद और नक्सलवाद ही 'मानवाधिकार' के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में दिखाई पड़ रहे है। इसका दूसरा पक्ष अशिक्षा के रूप में भी समाज के समक्ष आ रहा है। भारतवर्ष के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अभाव अभी भी हमें साल रहा है। यही कारण है कि लोग शिक्षित न होने के कारण 'मानवाधिकारों' के हनन किये जाने पर उसका विरोध भी नहीं कर पा रहे है। अक्षर ज्ञान का अभाव ग्राम्यजनों को अधिकारों से अवगत भी नहीं होने दे रहा है। समय-समय पर 'मानवाधिकारों' की सुरक्षा के लिए प्रयास किये जाते रहे है। इसी तारतम्य में सन् 1975 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव पारित कर किसी भी प्रकार के उत्पीड़न की निंदा करते हुए उसे अमानवीय करार दिया गया। सन् 1993 से 2003 तक के दशक को इसी कारण नस्लवाद विरोध दशक के रूप में मनाने का निर्णय भी लिया गया। 
महिला अधिकारों के संरक्षण को तवाो देते हुए सन् 1993 में एक प्रस्ताव के माध्यम से उन्हें मजबूती दी गयी। शिशु अधिकारों को बल प्रदान करने के लिए सन् 1959 तथा सन् 1989 में विशेष प्रबंध बनाये गये। जिसमें विशेष रूप से शिशु के जीवन यापन के अधिकार से लेकर उसके संरक्षण के अधिकार तक की विस्तृत चर्चा की गयी। इसी प्रकार अल्प संख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए भी महासभा ने समय-समय पर चिंतन किया है। इसके अतिरिक्त मजदूरों तथा उनके परिवारों की सुरक्षा के प्रावधान भी 'मानवाधिकारों' में शामिल किये गये। भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, यौन शोषण, शारीरिक उत्पीड़न, मानसिक प्रताड़ना और बलात्कार जैसे दानवों से घिरी आधी दुनिया 'मानवाधिकारों' की जरूरत को रेखांकित करते करते अक्सर थक सी जाती है। इन सारी समस्याओं से आगे बढ़ते हुए आदिवासियों के भू अधिकारों की समस्या और वनवासियों को उजाड़े जाने की दास्तां भी 'मानवाधिकारों' की चर्चा को आवश्यक और प्रासंगिक बनाती है। तमाम आदिवसी और वनवासी सैकड़ों वर्षों से वनों और उनके आसपास के इलाकों में निवास कर रहे है। इनके परंपरागत अधिकारों और 'मानवाधिकारों' की समुचित पहचान अभी तक नहीं की जा सकी है, और आज तक उन्हें चकबंदी, सीलिंग, पट्टे, भू अभिलेख या भूमि आबंटन का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाया है। हैरत की बात यह है कि सभी को समान मानने वाली इस व्यवस्था की सरकार इस बात को आसानी से स्वीकार कर लेती है। इन वर्गों को अब तक वास्तविक लाभ से वंचित ही रखा गया है। 
'मानवाधिकार' और वर्तमान में उनकी दशा पर इतनी व्यापक चर्चा किये जाने के बाद भी यह विषय अधूरा ही रह गया है। कारण यह कि मानव समाज में जो समस्याएं उपस्थित है उनसे निपटना ही 'मानवाधिकार' की संकल्पना का लक्ष्य है। सूखा, बाढ़, गरीबी, अकाल, सुनामी, भूकंप, युद्ध या दुर्घटनाओं के चलते जो लोग शिकार हो रहे है, पीड़ित या परेशान चल रहे है उनके 'मानवाधिकारों' का ध्यान रखा जाना अपेक्षित जान पड़ रहा है। इन सारे मामलों में कानून को भी सक्रिय भूमिका का निर्वहन करना होगा। विकास के साथ मानवता के आपसी रिश्तों को भी रेखांकित करना होगी न कि विकास के नाम पर किये जा रहे निर्माण के बाद लोगों को बे-घर बार कर दिया जाये? अनुकूल पर्यावरणीय स्थितियों की भी महती आवश्यकता है। 'मानवाधिकार' संबंधी घोषणाओं को जमीनी सच्चाईयों में बदलना होगा। जिससे ऐसी घोषणाएं महज दस्तावेजी बनकर न रह जाये। शायद इन्हीं सब बातों में 'मानवाधिकार' दिवस की सार्थकता भी निहित है। हमारे देश की सरकार 'मानवाधिकार' को लेकर सजग है, किंतु इस सजगता में और अधिक धार लाने की जरूरत है।
 डा. सूर्यकांत मिश्रा 
समाचार पत्र 'देशबंधु' से साभार 

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

तकनीकी चुनने की आजादी पर सरकारी हमला


भारत सरकार नें डिजिटाईजेशन के बहाने देश के आम आदमी के तकनीक चुनने की आजादी पर हमला करते हुए आज से टीवी प्रसारण को रोक देने की धमकी विभिन्न समाचार चैनलों और समाचार पत्रों के माध्यम से दी है वस्तुतः यह सरकार के द्वारा किया जा रहा मानव अधिकारों का गंभीर उलंघन और संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकारों पर हमला है. भले ही इसे कानूनी जामा पहनाया गया हो. तकनीकी चुनने की आजादी देश के नागरिक का संवैधानिक अधिकार है 


यह उसे तय करना है कि वह डिजिटल टीवी देखेगा या मौजूदा सादा टीवी. अगर देश के किसी महानगर का एक नागरिक इस डिजिटाईजेशन में शामिल नहीं होना चाहता तो यह सरकारी बलजबरी है. सरकार द्वारा आम जनता के ऊपर थोपी गई इस महंगाई के दौर में टीवी के सेटअप बाक्स लगाने के नाम पर 800 रूपये की जेबतरासी की जा रही है. आज टीवी पर धमकी भरे एड चल रहे है कि अगर आपने अपने टीवी में सेटअप बाक्स नहीं लगवाया तो आपकी टीवी आज रात से बंद हो जायेगी. ज्ञात हो कि इस संबंध में ट्राई के माध्यम से अप्रैल में ही नियम पास करा लिया गया था.

वस्तुतः यह जबरन डिजिटाईजेशन के पीछे सरकार और इलेक्ट्रानिक मिडिया का आम आदमी से इंटरटेनमेंट के नाम जबरन उगाही का षड्यंत्र भी है. सरकार और उन पूंजीपतियों द्वारा डिजिटलाईजेशन के बहाने सेटअप बाक्स लगाए जाने के बाद फ्री एयर टीवी चैनल को पे चैनल के दायरे में लाने की की योजना है जो टीवी चैनल उद्योग से जुड़े है. वैसे भी केबल नेटवर्क के माध्यम से जिन शहरी उपभोक्ताओं को 300 रूपये मासिक शुल्क पर कनक्शन उपलब्ध था उसे डिजिटलाईजेशन के नाम पर 500 रूपये मासिक शुल्क देना ही होगा. जानकार बताते है कि यह सब टीवी चैनल उद्योग से जुड़े उद्योगपतियों को दोहरा मुनाफा कमाने का अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार द्वारा इस जबरन डिजिटाईजेशन को अंजाम दिया जा रहा है. जिससे टीवी चैनल उद्योग से जुडी कंपनियां एडवर्टाइज के माध्यम से मुनाफा कमाने के साथ-साथ दर्शकों को अपने टीवी चैनल दिखाने की किंमत वसूल सकें.

मेरा मानना है कि तकनीकी विकास, और तकनीक के इस्तेमाल के लिए जागरूकता दोनों जरूरी है किन्तु निःशुल्क, अगर सरकार को शुल्क लगाना है तो उपभोक्ता को तकनीक चुनने के आजादी का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए साथ ही उसके द्वारा किसी तकनीकी के इस्तेमाल को अनिवार्य और कानूनी जामा पहनाकर उसके इस्तेमाल के लिए मजबूर करना सरासर गैरकानूनी है. यह डिजिटाईजेशन देश की जनता के लिए नहीं बल्कि टीवी चैनल चलाने वाली कंपनियों के मुनाफा कमाने केबल आपरेटरों को इस व्यवसाय से बाहर करने और देश के प्रत्येक टीवी उपभोक्ता के सिर पर इंटरटेनमेंट टेक्स का बोझ डालने की सोची-समझी रणनीति है. डिजिटाईजेशन के नाम पर 800 रूपये प्रति सेटअप बाक्स हिसाब से दिल्ली में पिछले शुक्रवार को केवल एक दिन में 82,000 सेटअप बाक्स लगाए गए इस जबरन डिजिटाईजेशन के सरकारी और टीवी चैनल मालिकों के संयुक्त कयावद में सेटअप बाक्स बनाने वाली कंपनियों के प्रतिदिन करोड़ों के वारे-न्यारे हो रहे है साथ ही टीवी चैनलों द्वारा एड के बहाने उपभोक्ताओं को धमकाया जा रहा है कि अगर आपने सेटअप बाक्स नहीं लगाया तो आज से आपके टीवी पर प्रसारण रोक दिया जाएगा.

हम मान लेते है कि सरकार को हमारे हितों की चिंता है सरकार चाहती है कि हम मौजूदा टीवी के बजाय डिजिटल टीवी के दर्शक बनें किन्तु और दूसरे मामलों में सरकार यह चिंता क्यों नहीं दिखाती उन चार महानगरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में जितने तेजी से टीवी के डिजिटाईजेशन को अनिवार्य करने में लगी है उतनी तेजी शहरी गरीबी उन्मूलन में क्यों नहीं दिखाती, उतनी ही तेजी जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिन्यूवल मिशन में चल रहे व्यापक भ्रष्टाचार को रोकने में क्यों नहीं दिखाती, सूचना और शिक्षा के अधिकार, स्वास्थ्य और चिकित्सा के अधिकार को लागू करनें में क्यों दिखाती, सड़क, बिजली और पानी के साथ उन चार महानगरों के बुनियादी सुविधाओं और बुनियादी ढांचे के विस्तार और उसे सुधारनें में क्यों नहीं दिखाती सरकार के टीवी के डिजिटाईजेशन को अनिवार्यता के मद्दे नजर ऐसा प्रतीत होता है कि देश के आम नागरिको की जेबतरासी के लिए बकायदा कानून बनाकर बारी-बारी से उद्योगपतियों के समक्ष परोसा जा रहा है. 

पहले जब यह कहा जाता था कि मौजूदा दौर में सरकार हमें और आपको देश के नागरिक से उपभोक्ता बनाने का प्रयास कर रही है तो यह महसूस होता था कि सरकार हमें उपभोक्ता बनाने के लिए लाख प्रयास करे किन्तु अंततः यह तो हमें ही तय करना है कि हम देश के नागरिक बने रहे या उपभोक्ता बन जाए. किन्तु अब स्थितियां इससे उलट है अब जोर-जबरदस्ती और क़ानून के माध्यम से हमें उपभोक्ता बनाया जा रहा है. अतः देश के सुधीजन को अब यह समझना होगा कि आज देश के नागरिकों के ऊपर इस जबरन डिजिटलाईजेशन थोप रही सरकार को अगर रोका नहीं गया तो कल फिर यही सरकार तकनीकी विकास, और तकनीक के इस्तेमाल के लिए जागरूकता के नाम पर जोर-जबरदस्ती और क़ानून के माध्यम से साधारण टीवी की जगह एलसीडी टीवी अनिवार्य करेगी, होम थियेटर अनिवार्य करेगी, एयरकंडीशन अनिवार्य करेगी और ऐसा न् करने पर टीवी प्रसारण रोकने और बिजली काटने की डेड लाइन देगी महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा और मुफलिसी से त्रस्त देश का आम नागरिक आखिर कब तक इस सरकारी उत्पीडन बर्दास्त करेगा.

राजेश रा. सिंह

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

दलों के दलदल में अन्ना का दल


अन्ना द्वारा जंतर-मंतर पर नये राजनीतिक दल के गठन के ऐलान के साथ ही अब अन्ना और टीम अन्ना का अनशन खत्म हो जाएगा. लेकिन वैकल्पिक राजनैतिक दल के निर्माण के इस ऐलान से एक सवाल उभरा है कि क्या इस देश की सार्वजनिक समस्याओं का निराकरण और एक नूतन वैकल्पिक राजनीति की अवधारणा का उदय अन्ना और उनकी टीम द्वारा एक राजनैतिक दल के गठन से हो जाएगा? नागनाथों और सांपनाथों के इस युग में संसदीय राजनीति के विकल्प वस्तुतः किसी 'विकल्प' को नहीं केवल तदर्थ मानसिक राहतों को ही प्रस्तावित करते है.
अन्ना और उनकी टीम को यह ध्यान रखना होगा कि वैकल्पिक राजनीति के निर्माण तत्काल एक नए राजनीतिक दल के गठन से हो जायेगा ऐसा कदापि नहीं है. पहले एक परिपूर्ण वैकल्पिक राजनीति की अवधारणा का उदय हो इसके पश्चात ही नए राजनीति दल का गठन भी अपरिहार्य होगा. क्योकि भारत में जब तक संसदीय लोकतंत्र की विद्यमान दलीय पद्धति जारी रहेगी तब तक अपने विचारों, अवधारणाओं और सामर्थ्य के अनुरूप व्यवस्था में समूल परिवर्तन की बात या प्रस्ताव भी वस्तुतः एक सुविचारित राजनैतिक प्रस्ताव ही है. जिसे जनांदोलनों का समूह ही सामने रख सकता है मगर यह वस्तुतः सामाजिक शल्यक्रिया का अंतिम अपरिहार्य चरण है आरंभिक शर्त नहीं.

इसलिए जो लोग यह मान बैठे है कि हर अच्छे उद्देश्य की पूर्ति के लिए तत्काल एक राजनैतिक दल की स्थापना करने से ही आरम्भ होती है उन्हें आत्ममंथन और पुनर्विचार करना चाहिए. कहीं ऐसा तो नहीं कि वैकल्पिक राजनीति का अर्थ उनके लिए विधानमंडलीय या लोकसभाई सदस्यता है? यदि ऐसा कुछ है तो फिर वैकल्पिक राजनीति का मूल उद्देश्य या ध्येय ही नष्ट हो जाने का खतरा है. इसलिए इस दिशा में सचेष्ट लोगों को अपने गंतव्य और मन्तव्य एक बार फिर निहार लेना चाहिए. यह दरअसल राजनीति में होते हुए भी राजनीति के उस अर्थ से दूर रहने की पवित्र कोशिश होनी चाहिए जिस अर्थ में राजनीति को आज लिया जाता है. मगर इसी के साथ उस अर्थ में राजनीति से दूर न् रहने की भी एक विवेकपूर्ण चेष्ठा भी होनी चाहिए जिस अर्थ में विशुद्धतावादी राजनीति को एक गंदा कार्यक्षेत्र मानते है इसमें शामिल होने से कतराते हैं. दूसरे शब्दों में कहा जाय तो हां आज जरूरत इस बात की अवश्य है कि भले और विचारवान लोग राजनीति की ओर आये और अन्याय, अंधेरवादी व्यक्तियों, प्रवित्तियों और शक्तियों को पछाड़ने का बीडा उठायें, देश को उनकी प्रतीक्षा है. अन्ना और उनकी टीम के माध्यम से यदि ऐसा संभव हो सका तो एक कालांतर के बाद शिर्फ उन्हें ही नहीं पूरे देश को यह प्रतीत होगा कि इस वैकल्पिक राजनीति के संवाहकों के हाथ में ही शासन व्यवस्था के सूत्र होने चाहिए.

एक बात और इस तरह से किसी वैकल्पिक राजनीति के संभावनापूर्ण सृजन के कार्य को महज राजनीति में प्रवेश करने जैसी प्रचलित अर्थों में जाना जाने वाला राजनैतिक कर्म नहीं मान लेना चाहिए क्योकि यह कार्य प्रारंभिक और सतही दृष्टि से देखे जाने पर तो ऐसा प्रतीत होगा मगर वस्तुतः व्यापक अर्थ में यह एक लोकनीति और लोककर्म है. यह तय है कि इस अर्थ में किसी वैकल्पिक राजनीति का उदय तब तक विल्कुल संभव नहीं है. जब तक कि समाज और देश के वे भले लोग जिनके पास विचार है, प्रतिभा है और मन में कुछ कर गुजरने की आग भी, इस वांछित और प्रतीक्षित राजनीति की साधना के लिए आगे नहीं बढ़ेंगे. क्योकि हमारे समाज का सामाजिक राजनैतिक यथार्थ इतना विद्रूपमय है और परिवेश इतना कलुषित है कि इसे विलोपित करने के लिए अंततः समझदार लोकनीतिकारों को आगे आना ही होगा. ठीक इसी अर्थ में कि यदि कीचड साफ करना है तो कीचड में उतरना ही होगा केवल आंदोलनों, विचारों, संवादों और आलेखों या छूट-पुट प्रयासों से हम समाज या देश का अधिक भला नहीं कर सकेंगे. अतः यह हमारे सामयिक राष्ट्रीय दायित्व की मांग भी है कि देश के तमाम किस्म के भले लोग जो अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार प्राण-प्रण से जुटे हुए है, एक सार्थक पहलकारी कदम उठाये परस्पर मिलें और किसी साझा सहमती और साझी समझ के विकास को संभव बनाते हुए किसी राष्ट्रीय पहल से एक भावी लोकनीति और लोककर्म की पूर्व पीठिका का रूप सृजित करें.

हमे यह समझ लेना चाहिए कि यह महती कार्य बहुत कठिन है और सरल भी. कठिन इसलिए कि बहुधा देखा गया है कि समझदार लोग संकोचशील प्रवित्ति के होते है और किसी हद तक भीरू भी. ये कोई महत्वपूर्ण बीडा उठाने के लिए सहज तैयार नहीं होते है. इन्हें एक विशेष पहल और तैयार वातावरण की जरूरत होती है. वास्तव में यही इन राष्ट्रप्रेमियों की विडंबना भी है. क्योकि ए समाज को भ्रष्टाचार/कालेधन/भूख/गरीबी/बेरोजगारी से मुक्त तो करना चाहते है किन्तु इस विषय पर आन्दोलित होकर किसी भी आंदोलन का हिस्सा नहीं बनना चाहते ये अँधेरा तो छाटना चाहते है मगर इनमें अधिकांश तो ऐसे है कि दीपक भी नहीं जलाना चाहते और जो अधिक संवेदनशील लोग दीपक जला-जला कर या स्वयं अपने आत्मोत्सर्ग द्वारा अपनें जुझारूपन का प्रमाण दे रहे है वे सभी प्रायः इस कडवे सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते कि वे अच्छे और सद्भावी होने के बावजूद भी प्रकारांतर से वे अर्थहीन हाराकिरी के मार्ग पर ही आगे बढ़ रहे है. क्योकि वे यह नहीं समझ रहे है कि “एकला चलो रे” का मार्ग दरसल मोक्ष और मुक्ति के कामियों के लिए है, राष्ट्रप्रेमियों तथा क्रांतिकारियों के लिए नहीं है, आत्मोत्सर्ग के पथ पर आप दिया तो जला सकते है मगर सूर्य नहीं... लेकिन इस महादेश भारत में छाए इस महा अँधेरे के लिए तो सूर्य की जरूरत है अतः कठिनाई सिर्फ यही है कि इस विखरे विद्युत तरंगों को एकजुट कर एक पूर्ण परिपथ की रचना करनी होगी. क्या अन्ना और उनकी टीम इस विखरे विद्युत तरंगों को एकजुट कर पूर्ण परिपथ की रचना कर पायेगी क्योकि बगैर परिपथ को पूर्ण हुए किसी भी विद्युत आवेश को प्रकाश में रूपांतरित नहीं किया जा सकता. कहना यह है कि कठिन होते हुए भी यह कार्य शुरू तो करना ही होगा, क्योकि बगैर शुरू किये तो किसी कार्य की स्थितियां सरल भी नहीं बनाई जा सकती. इसलिए अभी यह मान बैठना गलत होगा अन्ना के आन्दोलन की मौत हो गई.

दूसरी दृष्टी से लोकनीति रचने का यह महत्वपूर्ण कार्य एक सरल सहज संभव कार्य भी हो सकता है जरूरत सिर्फ देश के उन तमाम भले लोगों को एक मंच पर इकट्ठा करने की है. यह कोई जटिल कार्य नहीं है व्यापक पत्राचार और संवाद के बाद बड़े ही सुगम तरीके से इस आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है. देश की सारी राजनैतिक पार्टियां जो कि शुद्ध रूप से भ्रष्टाचार से पोषित है ये अगर भ्रष्टाचार खत्म करेंगी तो स्वयं खत्म हो जायेंगी इसलिए इससे इतर अन्ना और उनकी टीम को भावी लोकनीति और लोककर्म के लिए संसाधन इकट्ठा करने हेतु एक वैकल्पिक रास्ता भी बनाना होगा. कहा जाता है कि पवित्र उद्देश्यों और महान लक्ष्यों के मार्ग में अक्सर आड़े आने वाले संसाधनों के आभाव की बाधा सर्वथा अलंघ्य भी नहीं होती है. आरंभिक कतिपय असुविधाओं और कठिनाईयों के बाद अंततः समर्पित भामाशाह भी मिल ही जाया करते है जो हर देश-काल में सर्वदा पाए जाते है. दरअसल भामाशाहों को भी देशभक्त प्रतापियों की खोज रहती है. और सर्वदा और सर्वथा जरूरी न् होते हुए भी आशाप्रद तो है ही और इतना तो निश्चित ही है कि वैकल्पिक राजनीति या लोकनीति रचने का यह कार्य कठिन हो अथवा सरल, सामयिक और वांछनीय तो है ही. अब देखना यह है कि अन्ना और उनकी टीम इस भावी लोकनीति और लोककर्म को रचने में कितना सफल हो पाती है ?

शनिवार, 26 नवंबर 2011

मनमोहन सरकार का जनविरोधी फैसला

भारत में पिछले दो सालों से जब लगातार खाद्य पदार्थों के दाम बढाये जा रहे थे तब भी शायद कुछ लोगों को मालूम था कि रणनीतिक रूप से नए-नए कीर्तिमान स्थापित करती इस कृत्रिम महंगाई के पीछे कौन है. देश के आम जन के सामने इसका खुलासा २४/११/२०११ गुरुवार रात ९. बजे उस समय हो गया जब खबर आयी कि सरकार में बैठे लोगों नें एक खतरनाक और जन विरोधी फैसला ले लिया है. गुरुवार को भारत के खुदरा बाजार में एफडीआई को कैबिनेट की मंजूरी मिल गई. कैबिनेट के इस फैसले नें खुदरा बाजार में विदेशी कंपनियों को मल्टी ब्रांड रिटेल में ५१ % की हिस्सेदारी और सिंगल ब्रांड रिटेल में १००% हिस्सेदारी के लिए छूट दे दी. इसी के साथ वर्षों से भारत के इस सघन खुदरा बाजार पर गिद्ध दृष्टी गडाए वालमार्ट (अमेरिका) केयरफोर (फ्रांस), टेस्को (ब्रिटेन) व मेट्रो (जर्मनी) जैसी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत में अपने मेगा रिटेल स्टोर श्रृंखला खोलने के रास्ते खुल गए.

वैसे तो मनमोहन सरकार नें वर्ष २००६ में ही एक ‘प्रेसनोट’ जारी कर निम्नलिखित शर्तों के साथ ‘सिंगल ब्रांड’ उत्पादों के खुदरा बाजार में ५१% तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत दे दी थी जिसमें कहा गया था कि (१) बिक्रय उत्पाद केवल सिंगल ब्राण्ड होना चाहिए, (२) उत्पादों को अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर उसी ब्राण्ड के तहत बेचा जाना चाहिए, (३) सिंगल ब्राण्ड उत्पाद रिटेलिंग में केवल वे ही उत्पाद शामिल होंगे, जिन्हें निर्माण के दौरान ही ब्राण्डेड किये जाते हैं. और अब कैबिनेट द्वारा एफडीआई को दी गई मंजूरी के नोट में खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के लिए निम्नलिखित शर्तों को शामिल किया है वे हैं (१) विदेशी कंपनियों के निवेश का ५० फीसदी आधारभूत सरंचना जैसे कोल्ड स्टोरेज, स्टोर जैसे इंतजामों पर खर्च करना होगा. (२) ३० फीसदी खरीददारी छोटे और मझौले आकार के उद्योगों से होगी. (३) १० लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में ही ऐसे स्टोर खोले जाएंगे.(४) ब्रांडेड और गैर ब्रांड की चीजों की भी बिक्री करनी होगी.(५) एक प्रोजेक्ट में कम से कम ५०० करोड़ रुपये का निवेश करना होगा.

सरकार के इस फैसले के साथ एक सवाल उभरता है कि उन करोड़ों खुदरा व्यापारियों का क्या होगा जो अपनी छोटी-छोटी पूंजी के साथ किराना का व्यवसाय कर अपनी आजीविका चला रहें है. एफडीआई के माध्यम से इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारतीय बाजारों में प्रवेश कराकर चाहे भारत सरकार जितने भी सब्जबाग दिखाये, खुदरा व्यापार में भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश से हमारे देश के आतंरिक व्यापार, बल्कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था के ताने-बाने को गंभीर खतरा पैदा हो जायेगा. बताते है कि भारतीय बाजार में मोनसेंटो नें पिछले ५ वर्षों में किसानों के उपयोग के लिए कीटनाशक और सीड्स बेच कर ५०० गुना मुनाफा कमाया है और वही पिछले ५ वर्षों में देश में ५५ हजार किसानों नें आत्महत्या की. मनमोहन सरकार द्वारा इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारतीय खुदरा बाजार के दरवाजे खोलने के उतावलेपन के बरक्स देखा जाय तो किसानों और कृषि के लिए हमारी सरकार की नीति क्या है ? देश में किसानों से उनकी जमीनें छिनी जा रही है आंकड़े बताते है कि एसीजेड और विकास के नाम पर किसानों से अब तक १०% उपजाऊ जमीन छीन ली गई है ऊपर से तुर्रा यह कि इससे किसानों को फायदा होगा. किसानों और कृषि नीति पर सरकार की अनदेखी किसी से छिपी नहीं है. किसानों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्या इसका ज्वलंत उदाहरण है.

यहाँ करीब डेढ़ दशक पहले की पंजाब की उस घटना की चर्चा जरूरी है जब पंजाब सरकार ने एक विदेशी कंपनी से समझौते के बाद राज्य के किसानों को टमाटर बोने के लिए प्रोत्साहित किया था. उस समय कंपनी ने वादा किया था कि वह किसानों से उचित मूल्य पर टमाटर खऱीदेगी और अपनी प्रोसेसिंग यूनिट में उससे केचप और दूसरी चीजें तैयार करेगी, लेकिन जब टमाटर का रिकार्ड उत्पादन होने लगा तो कंपनी तीस पैसे प्रति किलो की दर से टमाटर मांगने लगी. जिससे क्रुद्ध होकर किसानों ने कंपनी को टमाटर बेचने की बजाय सड़कों पर ही फैला दिए थे यानी किसानों को वाजिब हक कहां मिल पाया था. किसानों और उपभोक्ताओं को फायदा होने का तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि देश में जिन करोड़ों लोगों की जीविका गली-मुहल्ले में रेहड़ी-पटरी लगाकर सब्जी-भाजी बेचकर चलती है या गली के मुहाने की दुकान के सहारे रोजी-रोटी चल रही है, रिटेल चेन बढ़ने के बाद उन ४.५ से ५ करोड लोगों का क्या होगा.

मनमोहन जी आपके इमानदारी और काबिलियत पर मुग्ध होकर आपको इस देश नें बहुत कुछ दिया है आपसे लिया कुछ नहीं. आप पर भरोसा कर इस देश नें आपको रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया, विदेशी संस्थानों में आपको सम्मानित पदों पर बिठाया, आपके अर्थशास्त्रिय ज्ञान पर भरोसा करते हुए वित्त मंत्रालय की बागडोर दी, और अंततः इस देश के सर्वोच्च पद पर आपको पदासीन किया किन्तु आपने इस देश को क्या दिया. आपने इस देश को पूंजीवाद के अंधे कुंए में धकेलने की कोशिश की, आपने अपने कैबिनेट के लुटेरे सहयोगियों को भ्रष्टाचार के बड़े बड़े कीर्तिमान कायम करने की खुली छूट दी, आपने महंगाई को चरम पर पहुंचाया, आप लगातार देश के आम आदमी और गरीबों की उपेक्षा करते हुए धन पिपासुओं और पूंजीपतियों के हक में तमाम फैसले लेते रहे.

लेकिन अब खुदरा बाजार में एफडीआई को कैबिनेट की मंजूरी दिलवाने और उसे लागू करने के आपके फैसले के कारण इस देश की ३३% आबादी जिसका जीवन यापन इसी खुदरा कारोबार के भरोसे है, बुरी तरह प्रभावित होगी क्योकि इस खुदरा कारोबार में ४.५ से ५ करोड लोग प्रत्यक्ष रूप से, १० करोड लोग अप्रत्यक्ष रूप से शामिल है और इसी खुदरा कारोबार के वजह से ४० करोड लोगों का जीवन यापन हो रहा है. इन सभी से इनका रोजगार बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक झटके में छीन लेंगी और ये बेरोजगारी के शिकार होकर भुखमरी के कगार पर पहुंच जायेंगे. इसलिए मनमोहन सिंह जी आपको समझना चाहिए कि यह युद्ध-अपराध से भी बड़ा अपराध है. आपके इस जनविरोधी फैसले को यह देश कभी माफ नहीं करेगा और जब कभी इतिहास में आपको याद किया जायेगा तो “पूंजीवाद के दलाल” के रूप में ही याद किया जायेगा देश के एक सम्मानित नेता के रूप में नहीं. मनमोहन सिंह अगर देश के प्रधानमंत्री के रूप में आम आदमी के भले के लिए नहीं सोच सकते तो कम से कम राजनीतिक रूप से कांग्रेस के भले के लिेए तो सोचें ही क्योंकि इसका सबसे अधिक राजनीतिक नुकसान कांग्रेस को होगा.

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

सूचना अधिकार कानून को कमजोर करने की कयावद


देश के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह चाहते है कि सूचना के अधिकार कानून और इसके दायरे पर पुनर्विचार हो. श्री सिंह नें यह बात केन्द्रीय सूचना आयुक्तों के दो दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि इस कानून का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सरकार में विचार विमर्श की प्रक्रिया पर इसका कोई उल्टा असर हो या इससे ईमानदार और सही ढंग से काम करने वाले लोग अपनी बात से हतोत्साहित हों हालाँकि अपनें संबोधन में उन्होंने यह भी जोड़ा कि , "हम प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए सूचना के अधिकार को और ज़्यादा प्रभावी बनाना चाहते हैं." साथ में उन्होंने यह भी कहा कि निर्धारित समय में सूचना जारी करने और सार्वजनिक कार्यों में लगे अधिकारियों को मुहैया संसाधनों के बीच एक संतुलन बनाना ज़रूरी है. सवालों के जवाब में उन्होंने यह भी कहा कि "सूचना के अधिकार से सरकार में विचार-विमर्श की प्रक्रिया पर उल्टा असर नहीं होना चाहिए. हमें इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा.

डॉ. मनमोहन सिंह के अनुसार यह ऐसी चिंताएँ हैं जिस पर चर्चा होनी चाहिए और जिसका निबटारा किया जाना चाहिए." उन्होंने सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं के सुरक्षा से संबंधित विधेयक को अगले कुछ महीने में लाने की बात कही इस तरह लोक प्रशासन में गड़बड़ियाँ करने वालों को सामने लाने की कोशिश करने वालों के विरुद्ध हिंसा रोकने में आसानी होगी. प्रधानमंत्री का कहना है कि, "सूचना के अधिकार से जिन विभागों को अलग रखा गया है उन पर भी फिर से विचार करने की ज़रूरत है जिससे ये देखा जा सके कि वो व्यापक हित में हैं या उसमें बदलाव करना चाहिए." उन्होंने कहा कि 'निजता से जुड़े मुद्दों' पर विचार होना चाहिए. डॉ मनमोहन सिंह के इन वक्तव्यों से पता चलता है कि सूचना के अधिकार कानून से सरकार कहीं न कहीं त्रस्त जरूर है. और सूचना के अधिकार कानून की आलोचनात्मक दृष्टि से समीक्षा करके उसे कमजोर करना चाहती हैं.

आपको याद होगा तो बता दें कि सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से विवेक गर्ग नें प्रधानमंत्री कार्यालय से एक चिट्ठी प्राप्त किया था. जो कि 2जी स्पेक्ट्रम पर केन्द्रीय वित्त मंत्रालय की ओर से प्रधानमंत्री को भेजी गई थी इस चिट्ठी को वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की जानकारी में उनके मंत्रालय नें लिखा था. उस पत्र में प्रधानमंत्री को जानकारी दी गई थी कि 30 जनवरी 2008 को तत्कालीन संचारमंत्री ए. राजा से मीटिंग के दौरान तत्कालीन वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम नें पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम की नीलामी की इजाजत दी. जबकि स्पेक्ट्रम की नीलामी ज्यादा कींमत पर की जा सकती थी. दरसल वित्तमंत्रालय के अधिकारियों नें ग्रोथ के अनुपात में फीस तय करने की बात की थी. मंत्रालय 4.4 मेगाहड्स से ऊपर के स्पेक्ट्रम बाजार भाव से बेचना चाहता था किन्तु ए. राजा इससे सहमत नहीं थे और उन्होंने स्पेक्ट्रम की सीमा 6.2 मेगाहड्स कर दी और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम उस पर मान गए. वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की चिट्ठी में प्रधानमंत्री को यह बताया गया था कि अगर श्री पी. चिदंबरम चाहते तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को अपने अंजाम तक पहुंचने से रोका जा सकता था

इस चिट्ठी को लेकर श्री प्रणव मुखर्जी एवं श्री पी. चिदंबरम में काफी तनातनी देखने को मिली थी. जब इस चिट्ठी को लेकर कांग्रेस में घमासान चल रहा था ठीक उस समय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी अमेरिका की यात्रा पर थे वहां से वापस आने पर मनमोहन सिंह ने 2जी मसले पर आरोपों से घिरे पी चिदंबरम के साथ प्रणव मुखर्जी के साथ प्रधानमंत्री आवास पर बैठक की. प्रधानमंत्री के साथ बैठक के बाद प्रणब और चिदंबरम मे प्रेस को साझा नोट पढ़कर सुनाया गया इस नोट में प्रणब की तरफ से कहा गया कि 2जी मामले के बारे में उनके राय निजी नहीं हैं. उस समय प्रणब मुखर्जी ने चिदंबरम का बचाव करते हुए कहा कि 2008 में जो टेलीकॉम पॉलिसी सरकार ने अपनाई वो 2003 की ही पॉलिसी है जिसे एनडीए सरकार ने लाया था. प्रणब के इस बयान को पी चिदंबरम ने सहमति दिखाते हुए कहा था कि यह संकट अब टल गया है. इस पूरे मामले में कांग्रेस और सरकार की काफी किरकिरी हुई और यह सब आरटीआई के तहत विवेक गर्ग द्वारा पीएमओ से प्राप्त किये गए उस पत्र के कारण हुई थी जिसे वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी के मंत्रालय नें प्रधानमंत्री को भेजा था.

लेकिन लगता है कि सरकार द्वारा इस कानून में संशोधन कर इसे कमजोर करने की पृष्ठभूमि तैयार की जाने लगी है इसी क्रम में शुक्रवार को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा सूचना के अधिकार कानून के विषय में दिए गए वक्तव्य को बारीकी से देखने पर पता चलता है कि सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से पीएमओ से निकले वित्तमंत्रालय का पत्र जिसके कारण सरकार की किरकिरी हुई के आलावा एक से बढ़कर एक कामनवेल्थ से लेकर २जी स्पेक्ट्रम सरीखे घोटालों का लगातार खुलासा सूचना के अधिकार कानून की मदद हो रहा है. दरअसल सूचना के अधिकार अधिनियम को लागू हुए छ: साल हो गए और अब सरकार को इस कानून से रोजमर्रा के राजकाज में बड़ी बाधा का सामना करना पड रहा है. कानून लागू होने से लेकर लगभग चार सालों तक सरकार को फायदा हुआ. क्योंकि कानून के लागू होने के बाद से जनमत यह बना कि एक जवाबदेह सरकार अपने रोजमर्रा के राजकाज में पारदर्शिता लाने के लिए प्रतिबद्ध है. किन्तु दिल्ली में हुए कामनवेल्थ खेलों के लिए कराए गए निर्माणकार्य तथा खरीद पर हुए घोटाला एवं २जी स्पेक्ट्रम सरीखे घोटालों का खुलासा जब सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से होने लगा तो तभी से सरकार इस कानून को लेकर सकते में है. इन खुलासों से घबरायी सरकार सूचना के अधिकार कानून का पर कतरना चाहती है.

सूचना का अधि‍कार कानून देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सशक्त हथियार के रूप में तब प्राप्त हुआ जब संसद द्वारा सूचना का अधि‍कार अधि‍नि‍यम, 2005 पारि‍त कि‍या गया. और 15 जून, 2005 माननीय राष्ट्र पति‍ जी से सूचना का अधि‍कार कानून को स्वीकृति‍ प्राप्त हुई. अधि‍नि‍यम का उद्देश्य प्रत्येक सार्वजनि‍क अधि‍करण, केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग के गठन और उनसे संबद्ध या उनसे अनुषांगि‍क मामलों के कार्यों में पारदर्शि‍ता और जि‍म्मेदारी में संवर्धन करने के लि‍ए सार्वजनि‍क अधि‍करणों के नि‍यंत्रण के अंतर्गत नागरि‍कों को सूचना प्राप्ति सुनि‍श्चित करने के लि‍ए सूचना के अधि‍कार का व्यवहारि‍क वि‍धान स्थापि‍त कि‍ये जाने का प्रावधान किया गया. यह अधि‍नि‍यम जम्मू‍ एवं कश्मीयर राज्य को छोड़कर समस्तथ भारत में लागू है. समस्त अधि‍नि‍यम 12 अक्तूबर, 2005 से लागू होता है उक्त अधि‍नि‍यम के प्रावधान के अंतर्गत रा.स.वि.नि. सार्वजनि‍क अधि‍करण होने के नाते अधि‍नि‍यम के भाग 4(1) (ख) के अंतर्गत यथापेक्षि‍त वि‍शि‍ष्ट जानकारी प्रकाशि‍त कि‍ये जाने का दायि‍त्वा है.

अन्ना के जन लोकपाल से संबंधित आंदोलन को अलग करदें तो भारत में वास्तविक जमीनी और दूरदर्शी स्वतः स्फूर्त जनांदोलनों का अभाव है जो कि पूरी व्यवस्था को बदलने के लिए उत्पन्न हुये हों. आजादी के बाद से साल दर साल भारत का आम आदमी लगातार कमजोर हुआ है और भारतीय व्यवस्था तंत्र अधिक अमानवीय, असामाजिक तथा गैर जवाबदेह होता जा रहा है. ऐसी कमजोर हालत में सूचना के अधिकार जैसे कानून को जिस गंभीरता और दूरदर्शिता से संभालते और मजबूत करते जाने की अहम जरूरत थी, जिससे कि समय के साथ साथ धीरे धीरे इसी कानून से और भी बड़े तरीके विकसित करके सत्तातंत्रों को आम आदमी के प्रति जिम्मेदार बनने को विवश करके लोकतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों को संविधान के पन्नों में छापते रहने की बजाय यथार्थ में और जमीनी धरातल पर जीवंत उतार कर ले आया जाता. अब अगर प्रधानमंत्री सूचना के अधिकार कानून को हतोत्साहित कर रहे है तो इसमें कोई बड़ी बात नही क्योकि आजादी के बाद से ही हमारी सरकारें और अफसरशाही ने जरुरत से अधिक अधिकार पाये और वे खुद को मालिक और जनता को गुलाम माना, तो यदि आज आम जनता उनसे कुछ पूछे तो यह बात सरकार और अफसरशाही को कैसे बर्दाश्त होगी. इससे उनकी ‘निजता से जुड़े मुद्दों' पर सवाल जो खड़े होंगे? अतः यदि नेता व अफसर इस कानून को नुकसान पहुंचाते हैं या हतोत्साहित करते हैं तो यह कोई अचरज वाली बात नहीं क्योकि देश की आम जनता को मजबूत न होने देना और खुद को आम जनता का मालिक बनाये रखने के लिये तरह-तरह के हथकंडे अपनाना तो इनके मूल चरित्र में है.

चरम पर चरमराता मनमोहन का पूंजीवाद


दास्तोएव्स्की की डायरी ( द डायरी ऑफ ए राइटर) में उसनें पश्चिमी पूंजीवाद के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “हमारी सदी में एक भयानक क्रांति हुई इसमें बुर्जुआ वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) विजयी हुआ. बुर्जुआ वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) के उदय के साथ-साथ वहां भयानक शहर बनें जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता था. इन शहरों में आलीशान महल थे, अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियां थी, बैंक, बजट, प्रदूषित नदियाँ (नालों के रूप में) रेलवे प्लेटफार्म और कई तरह की संस्थाएं थी और इनके चारों ओर थे कारखानें. लेकिन इस समय लोग एक तीसरे चरण की प्रतीक्षा कर रहे है जिसमें बुर्जुआ वर्ग (पूजीवादी वर्ग) का अंत होगा, आम जनता जागेगी और वह सारी भूमी को कम्यूनों में वितरित करके बाग-बगीचों में रहने लगेगी. बाग-बगीचे ही नई सभ्यता को लायेंगे. जिस प्रकार सामंती युग के किलों की जगह शहरों ने ले ली उसी तरह शहरों की जगह बाग-बगीचे ले लेंगे यही सभ्यता के विकास की दिशा होगी. क्या दास्तोएव्स्की की पूंजीवाद के बारे में की गई टिप्पणी को पूंजीवाद पर गहराता मौजूदा संकट सच की तरफ ले जाता नहीं दिख रहा है?

हम कुछ सिद्धांतों से पूंजीवाद के इतिहास में घटित संकटों को समझाने की कोशिश करते है. इनमें से एक आपदा सिद्धांत है, इस सिद्धांत के तहत मानता है कि जिस समय पूंजीवाद के विरोधाभास अपने उच्चतम बिंदु पर पहुंचेंगें, पूंजीवाद स्वयं ढह जाएगा और स्वर्ग की एक नई सहस्राब्दी के लिए रास्ता बनाएगा. इस सर्वनाशवादी या अति अराजकतावादी विचार ने पूंजीवादी उत्पीड़न और शोषण से सर्वहारा की पीड़ा को समझने की राह में भ्रम तथा गलतफहमियां पैदा की हैं. बहुत से लोग इस तरह के एक गैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्रमित हुए हैं. एक और सिद्धांत है आशावाद, जिसे पूँजीपति वर्ग हमेशा समाज को अपना उपभोक्ता बनाते हुए उसमें फैलाता है. इस सिद्धांत के अनुसार, पूँजीवाद में अपने विरोधाभासों से उबरने के साधन मौजूद हैं और असल अर्थव्यवस्था सट्टेबाज़ी को नष्ट करके ठीक काम करती है. पूंजीवादी प्रतियोगिता की पद्धति की अराजकता पूंजीवादी संकट का एक अन्य कारण है. यह केवल आभासी वक्तव्य नहीं बल्कि चरितार्थ होता दिख रहा है कि पूंजीवाद पतन पर है यह आकस्मिक विनाश की ओर नहीं बल्कि व्यवस्था के एक नए पतन, पूंजीवाद के अंत होते इतिहास की आखिरी मंजिल की ओर बढ़ रहा है. यह केवल और केवल पूंजीवाद की देन है कि रोज़ दुनिया में एक लाख लोग भूख से मरते हैं, हर 5 सेकण्ड में पांच साल का एक बच्चा भूख से मर जाता है. 84 करोड लोग स्थायी कुपोषण के शिकार हैं और विश्व की 600 करोड की आबादी का एक तिहाई हर रोज़ बढ़ती कीमतों के चलते जीने के लिए संघर्ष कर रहा है.

दुनिया के दखते-देखते ३०-४० सालों में पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया. कहते है कि कोई जब अपने अंतिम चरम पर पहुंच जाता है तो उसके सामने ढलान की तरफ धीरे-धीरे आने के आलावा एक रास्ता और बचता है कि बिना किसी सहारे के तेजी से निचे आते हुए अपने आप को ध्वस्त कर ले. क्या पूंजीवाद की स्थिती इससे अलग है? क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि पूंजीवाद मौजूदा समय में गहरे संकट में है. दरअसल पूंजीवाद की इस विफलता की की हकीकत को समझने के लिए हमें पूंजीवाद के दो मुख्य सिद्धांतों को समझना होगा जिसमें पहला “मनुष्य अक्लमंद होते हैं, और बाजार का बर्ताव दोषपूर्ण” दूसरा “बाजार स्वयं अपने दाम निर्धारित करता है” पूंजीवाद के ये दोनों सिद्धांत ही गलत हैं. ओईसीडी के महासचिव खोसे अंखेल गूरिया अभी हाल ही में पूंजीवादी व्यवस्था के फेल हो जाने संबंधी कुछ बातों को स्वीकार करते हुए कहा है कि “मुझे लगता है कि नियामक के तौर पर हम असफल रहे, निरीक्षक के तौर पर असफल रहे और कार्पोरेट व्यवस्थापक के तौर पर असफल रहे, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की भूमिका और जिम्मेदारियां बाटनें में भी हम असफल रहे, हमारी वित्तीय असफलता तुरंत ही असल अर्थ व्यवस्था में फ़ैल गई, वित्तीय संकट से हम सीधे आर्थिक अपंगता और उसके बाद सीधे बेरोज़गारी के संकट तक पहुँच गए हैं.

पूंजीवाद के पैरोंकारों की इस स्वीकारोक्ति से क्या हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को कुछ सीख लेनी चाहिए या फिर वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ की नीतियों का अंधानुकरण ? दरसल देश का आम आदमी वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ द्वारा निर्देशित और बहुप्रचारित मौजूदा मनमोहनोंमिक्स अर्थनीति के पेचीदगियों से नावाकिफ है. उसे न केवल महंगाई, बेकारी, भ्रष्टाचार, आदि से निजाद चाहिए बल्कि उसे चाहिए पर्याप्त भोजन, आवास, चिकित्सा और शिक्षा. उसे मनमोहनोंमिक्स के भौतिक विकास से भी शायद कोई मतलब नहीं है. नब्बे के दशक में इक्कीसवी सदी के आगमन का हवाला देते हुए जिस वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण को अपनाया गया और इसके विषय में देश की आम जनता को चिकनी-चुपड़ी बातों से बरगलाते हुए वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ की नीतियों को जबरन थोपा गया तथा वैश्वीकरण उदारीकरण और निजीकरण के फायदे गिनाते हुए इसकी शान में जो कसीदे पढे गए. मॉरिशस ट्रीटी के रास्ते आवारा पूंजी के आगमन के साथ देश में विकृत विकास कार्यों की झड़ी लगाई गई. कहा जाने लगा कि मनमोहन के आर्थिक नीतियों के मद्देनजर भारत का कायाकल्प हो रहा है. मॉरिशस तथा अन्य रास्तों से देश में आयी आवारा पूंजी के बल पर फिजूलखर्ची के बड़े-बड़े रिकार्ड कायम करते हुए जहां एक तरफ सुपर एक्सप्रेस हायवे, मीलों लंबे फ्लाईओवर, ऊँचे-ऊँचे बांध, लम्बे टनल, अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे, जम्बो साईज क्रीडा स्थल और पर्यटन के लिए ऐशगाह निर्माण कराया गया वही दुसरी तरफ राज्य टिप्स समझौते, व्यापार घाटे, कर्ज के भार, मूल्यवृद्धि, सरकारी कोषों के दिवालिएपन और भ्रष्टाचार जैसे अपराधों के मकडजाल में फसता गया.

‘कार्पोरेट और मध्यवर्ग भारत’ के लिए इस मनमोहनी अर्थशास्त्र नें एक स्वर्ग सा निर्मित कर दिया था लुटेरों घोटालेबाजों दलालों दरबारियों और गुटबाजों से बना यह कार्पोरेट और मध्यवर्ग खूब मजे लूटा. मजे पश्चिमोन्मुख पांच सितारा किस्म के जीवन के, चहुमुखी व्याप्त वीआयपी मार्का शानों शौकत के मंत्रियों के लिए ऐशों आराम के असीमित साधनों के, माफियाओं को दी जा रही खुली छूट के, सर्वत्र व्याप्त और सब पर हावी भ्रष्टाचार के और ‘दरिद्र भारत’ का क्या हाल रहा? वह भूख से तड़पने, आत्महत्या का खौफनाक रास्ता अपनाने, बीमारी से कराहने, इलाज और भोजन के आभाव में मरने, किसानो ग्रामीणों जनजातियों सर्वहाराओं की ९० करोड से भी अधिक की तादात खून-पसीना बहाकर हाडतोड मेहनत करके भी आंसू पीकर गुजारा करती रही तथा निरक्षरता और कंगाली को ढोने को अभिशप्त रही. ये शर्मनाक अंतर्विरोध देश के लिए क्या भयानक बीमारी के लक्षण नहीं थे? क्या शुरुआती दौर में ही इसकी पडताल नहीं होनी चाहिए थी? लेकिन पूंजीवाद के पैरोकारों नें ऐसा नहीं किया. सत्ता के शिखर पर रीढ़ विहीन नायक विराजमान थे जो आज मौजूद है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक की तिकड़ी के दलाल के रूप में शासन कर रहे हैं. पूंजीवाद के समक्ष घुटने टेककर साष्टांग दंडवत कर प्रार्थनाओं का दौर चल रहा है गांधी के देश में सत्ता पर काबिज लोग जो गांधी को सत्ता का प्रतीक मानते है उनकी नजर में समाजवादी होना वैचारिक जुर्म मान लिया गया है, इतना ही नहीं समाजवाद को विकास के मार्ग में रोडे अटकानेवाला जानी दुश्मन भी करार दिया गया है.

महंगाई, पेट्रोल-डीजल के दाम बढाने और गरीबों, किसानों को दी जा रही सब्सिडी को घटाने के संबंध में अड़ियल रवैया अपनाना-इन सबसे जाहिर होता है कि देश के शासकों के मन में एक साम्राज्यवादी मानसिकता जोर मार रही थी लेकिन अब जब दुनिया मंदी की चपेट में हैं और इस मंदी की मार से ‘मध्यवर्ग भारत’ भी नहीं बच पाया है. ऐसे में वह भी मनमोहन के आर्थिक नीतियों के विरुद्ध खड़ा होता दिखाई दे रहा है. मनमोहन की उदारवादी नीतियों का रास्ता पूंजीपतियों के घर तक तो जाता है लेकिन आम आदमी के घरों को बाईपास करते हुए निकलता है. अब यह कांग्रेस को सोचना है कि अगले चुनावो में सत्ता का स्वाद उन पूंजीपतियों के वजह से चखने को मिलेगा या उस आम आदमी के वजह से जिसे मनमोहन और उनकी मंडली बचकर निकलने के लिए बाईपास का रास्ता अख्तियार कर चुकी है. अगर कांग्रेस यह खुशफहमी पाल बैठी है कि ‘अगले चुनाव तक मतदाता सरकार की जनविरोधी नीतियों को भूल कर उसे ही वोट करेंगे’ तो यह उसकी गलतफहमी है. मनमोहन के पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार के नए-नए कीर्तिमान कायम हो रहे है किन्तु देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए किसी एक पार्टी या नेता को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं होगा. क्योकि इसमें सभी शामिल हैं. यह अलग बात है कि सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार डॉ मनमोहन सिंह और उनकी आर्थिक नीतियाँ हैं जो पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था के लूट के अर्थशास्त्र की पोषक हैं. अब समय आ गया है जब कांग्रेस को यह तय करना है कि देश और आम आदमी का विकास समाजवादी अर्थव्यवस्था जिसे पंडित नेहरु नें अपनाया था, के माध्यम से होगा या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के माध्यम से जो कि पश्चिमी पूंजीवाद के नाम से जाना जाता है और जिसका खेल अब लगभग खत्म होने को है.