
इस् ब्लॉग के माध्यम से मैं कोशिश करूँगा कि एकत्र किए गये आलेखों से लोगों के समक्ष मानव अधिकारों से जुड़ी हुई बातें एवं हनन के मामलों को ला सकूं
शुक्रवार, 14 नवंबर 2008
शनिवार, 18 अक्टूबर 2008
जरूरी है सूचना के अधिकारों का इस्तेमाल
3. अधिकारियों और कर्मचारियों के अधिकार और कर्त्तव्य
4. अपने निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनाई गई विधि, पर्यवेक्षण और ज़िम्मेदारी की प्रक्रिया सहित
5. अपने क्रियाकलापों का निर्वाह करने के लिए इनके द्वारा निर्धारित मापदण्ड
6. अपने क्रियाकलापों का निर्वाह करने के लिए इनके कर्मचारियों द्वारा उपयोग किए गए नियम, विनियम, अनुदेश, मापदण्ड और रिकार्ड
7. इनके द्वारा धारित या इनके नियंत्रण के अंतर्गत दस्तावेज़ों की कोटियों का विवरण
8. इनके द्वारा गठित दो या अधिक व्यक्तियों से युक्त बोर्ड, परिषद्, समिति और अन्य निकायों के विवरण। इसके अतिरिक्त, ऐसे निकायों में होने वाली बैठक की ज़ानकारी आम जनता की पहुँच में है या नहीं
9. इसके अधिकारियों और कर्मचारियों की निर्देशिका
10. इसके प्रत्येक अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा प्राप्त की जाने वाली मासिक वेतन, इसके विनियमों के अंतर्गत दी जाने वाली मुआवज़े की पद्धति सहित
11. इसके द्वारा संपादित सभी योजनाएँ, प्रस्तावित व्यय और प्रतिवेदन सहित सभी का उल्लेख करते हुए प्रत्येक अभिकरण को आवंटित बज़ट विवरण
12. सब्सिडी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की विधि, आवंटित राशि और ऐसे कार्यक्रमों के विवरण और लाभान्वितों की संख्या को मिलाकर
13. इसके द्वारा दी जाने वाली रियायत, अनुमतियों या प्राधिकारियों को प्राप्त करने वालों का विवरण,
14. इनके पास उपलब्ध या इनके द्वारा धारित सूचनाओं का विवरण, जिसे इलेक्ट्रॉनिक रूप में छोटा रूप दिया गया हो
15. सूचना प्राप्त करने के लिए नागरिकों के पास उपलब्ध सुविधाओं का विवरण, जनता के उपयोग के लिए पुस्तकालय या पठन कक्ष की कार्यावधि का विवरण, जिसकी व्यवस्था आम जनता के लिए की गई हो
16। जन सूचना अधिकारियों के नाम, पदनाम और अन्य विवरण (एस. 4 (1)(बी))
* संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून द्वारा
* राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी अन्य कानून के द्वारा
2. उक्त सरकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धन ग्रहण करता हो
शनिवार, 27 सितंबर 2008
भारत को डर के कारोबारियों बचाओं
रविवार, 22 जून 2008
आम आदमी के साथ की गयी धोखाधडी
वर्षों पहले भारत वासियों ने एक ऐतिहासिक सपथ ली थी-घोर गरीबी और आभाव के बीच मुस्किल से गुजारा कर रही जनता के दुःख दर्द दूर करने की सपथ । लेकिन अफ़सोस, उस पवित्र निश्चय को लगातार भुलाया जा रहा है खुले-आम वादा खिलाफी की जा रही है । हम भारत के लोग...संविधान की प्रस्तावना में जो देशभक्ति पूर्ण संकल्प दर्ज किया गया था, सर्वोच्च राजाज्ञा का वह संकल्प जिसे भारत के संसद की सर्वोच्च सम्मति से भी नहीं बदला जा सकता उसे उलट दिए जाने की त्रासदी हम आज देख रहे है । और संसद ? उसका वजूद ही क्या रह गया है, जब संसद में किसी प्रकार की बहस किए बगैर ही वित्त मंत्रालय में गैट और डब्ल्यू० टी० ओ० का पालन करने की होड़ मची हो- शासन चाहे किसी भी पार्टी का हो, अविश्वास प्रस्ताव ही क्यो न पारित हुआ हो, आम चुनाव ही क्यो न सर पर हो और गिरगीट की तरह रंग बदलने वालों की गठबंधन सरकारें ही क्यो न स्थापित हुई हो । और दोष निवारण के विशेष अधिकारों से लैश दुसरी प्रमुख संवैधानिक संस्था सर्वोच्च न्यायालय की क्या स्थिति है ? कभी तो यह एक बुत की तरह रहस्यमय चुप्पी साधे रहता है और कभी कम महत्व के मुद्दों पर व्यवस्थाए देते हुए राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर राय देने से कतरा जाता है ।
ऐसे में कार्यपालिका वस्तुतः एक जंगली घोडे पर सवार होकर भारतीय जनता को मन मुताविक हांकती जा रही है इस पर लगाम लगाना न तो संसद के बस में है न न्यायपालिका के और न प्रेस के ।
अंकुश संतुलन की व्यवस्था स्थापित करने की बातें महज एक भ्रम साबित हुई है एक अरब से भी अधिक जनता की आवाज जो शिर्फ़ मतदान के समय तथा वह भी अत्यन्त धीमी सुनाई देती है का कोई मायने नहीं रह गया है । सत्ता चंद मंत्रियों से कैबिनेट के हाँथ में है, राष्टपति शीर्ष पर विराजमान है, विधायिका में मछली बाजार जैसा शोर है और राजनैतिक पार्टियाँ सौदेबाजी में मशगुल है इन सबसे त्रस्त आम जनता संदिग्ध प्रशासन की ओर खौफजदा निगाहों से देख रही है ।
बर्लिन की दीवार ढह चुकी है चीन की महान दीवार फांदी जा रही है । हिमालय भी एक चुनौती न रह कर कब्जा जमाने वाले विदेशी निवेशकों को न्योता दे रहा है । चुनाव एक नकली मुखौटा है मताधिकार प्राप्त आबादी का मात्र दस या बीस फीसदी हिस्सा चुनावी गणित के सहारे सत्ता पर कब्जा दिला सकता है और वह बहुमत का शासन कहला सकता है कैबिनेट एक षड्यंत्रकारी दल बन चुका है देश की प्रमुख पार्टीयाँ तुच्छ मतभेदों को लेकर हो हल्ला मचाती है उसमे चाहे कोई भी चुनाव जीत जाए राज्य साम्राज्यवाद के अलंबरदार पैक्स अमेरिकाना का ही होता है । संविधान की प्रस्तावना जैसे आधारभूत दस्तावेजों के उद्देश्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता, बावजूद इसके १९८० के दशक के उत्तरार्ध तक इसका पालन करने में कोताही बरती गई और बेईमानी भी की गई । हमारी आयात-निर्यात नीतियां विदेशी निवेश स्वीकार करने की तैयारी हमारा पूरा वित्तीय ढांचा और विदेश संवंधों में व्यवहारवाद यह सब गाँधी-नेहरू काल के अनुरूप हो रहे है आज तक विभिन्न पार्टियों और गठबंधनों के मंत्रिमंडल संविधान की बाकायदा सपथ लेते रहे है जिससे ऐसा लगता है कि एक शाब्दिक निरंतरता बनी रही है एक के बाद एक सभी मंत्रियों नें गांधीजी को राष्ट्रपिता और आंबेडकर और नेहरू को आधुनिक भारत के निर्माता ही माना है । मगर अचानक १९९१ में पीछे मुड का आदेश दिया गया । वास्तव में इस दिशा पलट की भूमिका १९८० के दशक के उत्तरार्ध में राजीव गांधी के विचारधारात्मक घोटाले और २१ वी शताब्दी के आगमन के बारे में दुअर्थी बयानबाजी ने तैयार कर दी थी नरसिंह राव नें संसद की राय लिए बिना जनता के बीच बहस-मुबाहिसा कराए बगैर और भारतीय संविधान की आज्ञा की परवाह किए बगैर एकाएक दिशा पलट दी , इस जबरन कार्रवाई के दौरान वैश्वीकरण, उदारीकरण, और निजीकरण, के ऐसे सगूफे छोडे गये कि संवैधानिक जगत में उथल-पुथल मच गयी इधर वैचारिक भ्रम फैलाने और चिकनी-चुपडी बातों से जनता को बरगलाने की कोशिश हुई और उधर हमारे देश के आर्थिक ढांचे पर विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की दुधारी तलवार ने वार किया ।
भारत पर रीगनी अर्थशास्त्र यानि रीगनोमिक्स का पालन करने की शतें थोपी गयी इसी नये नुस्खे को नाम दिया गया मनमोहनोंमिक्स, चिदम्बरोमिक्स के रूप में इसका नया संस्करण तैयार हुआ इसके पश्चात् स्वदेशी के समर्पित कार्यकर्ताओं, गरीबी की नब्ज टटोलने वालों और देश भक्ती के पुजारियों नें जन विरोधी और नस्लवादी दंभ के कड़वे घोल में उसी नुस्खे को मिलाकर एक नई दवा इजाद की - सिन्होमिक्स, अब मनमोहनोंमिक्स और चिदम्बरोमिक्स की जुगल जोड़ी दूसरी पारी डट कर खेल रही है ।
इन सब के निचोड़ के तौर पर देश में जो छुब्ध करने वाली तस्वीर उभर कर सामने आ रही है वह कुछ इस प्रकार है ।
कार्पोरेट कंपनियों के मालिक वर्ग के लिए और उसका पुछल्ला बन चुके मध्य वर्ग के लिए एक स्वर्ग सा निर्मित हुआ है । तमाम दरबारियों, गुटबाजों, शत्रु-सहयोगियों, संश्रयकारियों से बना है यह दस करोड़ से अधिक का मध्यवर्ग आज यह तबका खूब मजे लूट रहा है मजे पश्चिमोन्मुख पांच सितारा किस्म के जीवन के, चहुमुखी व्याप्त वी० आय० पी० मार्का शानों शौकत के, मंत्रियों के लिए ऐशो आराम के असीमित साधनों के, माफियाओं को दी जा रही खुली छुट के, सर्वत्र व्याप्त और सबपर हावी भ्रष्टाचार के, तथा विकृत विकास कार्यों के लिए राज्य द्वारा की गयी फिजूल खर्ची के जिससे एक ओर तो जहां-तहां फ्लाईओवरों, ऊँचें-ऊँचें बांधों, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों, जम्बो साइज क्रीडा स्थलों और पर्यटन के लिए ऐशगाहों का निर्माण हो रहा है तो दुसरी ओर राज्य व्यापार घाटे, कर्ज के भार मूल्यवृद्धि, सरकारी कोषों के दिवालिएपन, और उत्तरोत्तर अपराधों के बढ़ते मकड़जाल में फसता जा रहा है । और दरिद्र भारत का क्या हाल है ? वह भूख से तड़प रहा है, आत्महत्या का खौफनाक रास्ता अपनाने को विवस हो रहा है, बीमारी के कारण कराह रहा है, और इलाज व भोजन के अभाव में मर रहा है, किसानों, जनजातियों, ग्रामीणों, सर्वहाराओं, की एक बहुत बडी तादात खून-पसीना बहा कर हाड़-तोड़ मेहनत कर और आँसू पीकर गुजारा कर रही है । दुनिया में सबसे ज्यादा निरक्षर, कंगाल, एड्स के शिकार, बेघर परिवार, और गंदे, अस्त-व्यस्त, प्रदूषित, कोलाहल युक्त शहर हमारे भारत में ही है । गावों एवं कस्बों में पीने के पानी का भी अभाव है लेकिन स्काच विह्स्की, फास्ट-फ़ूड, पेप्सी, कोका-कोला, और काल-गर्ल संस्कृति को हर सरकार अपने शासन काल में प्रगती का पैमाना मानती रही है ।
ये शर्मनाक अंतर्विरोध भयानक बीमारी के लक्षण है जिसकी गहरी पड़ताल होनी चाहिए, यह काम कठिन नहीं है पर इसका अहसास कठिनाई पैदा करता है । सत्ता के शिखर पर ऐसे रीढ़ विहीन नायक विराजमान है जिनपर विकसित देश दबाव डालते है और जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, और विश्वबैंक की तिकडी के दलालों के रूप में शासन करते है । स्वदेशी मर चुका है, समाजवाद को जानी दुश्मन करार दिया गया है, अधर्मियों का राज है और मसीहाओं को सलीबों पर लटकाया जा चुका है, तथा बचे-खुचों को लटकाने का षड्यंत्र जारी है । विदेशी जीवनशैली की चका-चौंध में दृष्टिहीन हो चुका हमारा मध्यवर्ग देश को दुबारा उपनिवेश बनाने के संविधान विरोधी अभियान को सहयोग और समर्थन दे रहा है । अफसरशाहों और पार्टियों के पदाधिकारियों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चाटुकारिता करने की होड़ मची है । न्यायालय जुआ घर बन गये है, कानून के हांथ बांध दिए गये है और न्यायालयों के शरण में जाने वाले कंगाली के चपेट में आ रहे है । ऐसी स्थिति में किसी से कोई उम्मीद की जा सकती है ।
जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री हुए तो लगा कि वे हमें स्वराज्य की संकल्पना की ओर वापस ले चलेंगे लेकिन यह भोली आशावादिता ही साबित हुई वी० पी० सिंह पहले ही राजनीति के पटल से गायब हो चुके थे । फ़िर छमाही प्रधानमंत्रियों का ताँता लग गया इसके बाद स्वदेशी का दंभ भरने वालों और आज के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री- सब के सब स्वराज्य को ताक पर रख दिया और साम्राज्यवादी देवताओं को साष्टांग दंडवत कर उनकी ओर से आने वाले तमाम प्रस्ताव एक-एक करके स्वीकारते चले जा रहे है ।
बडे व्यवसायीयों और लुटेरों द्वारा संचालित वैश्विकरण के कारण महात्मा गाँधी के सपनों की हत्या ठीक उसी तरह हो रही है जिस तरह उनकी हत्या कर दी गयी । धनपिपासुओं के खातिर किए जा रहे उदारीकरण और निजीकरण के माध्यम से भारत की कृषि एवं उद्योग को विदेशी प्रभुत्व के नए नए अवतारों के हवाले किया जा रहा है ।
भारत के आर्थिक तंत्र पर आख़िर राज किसका है ? प्रचार चाहे कुछ भी किया जा रहा हो पेट्रौल -डीजल तथा रसोई घर के गैस का दाम बढाया जाना जनविरोधी कदम ही था और आयात करों में हेर-फेर राष्ट्रीय उद्योग के लिए हानिकारक ही होगा । सार्वजनिक निगमों को हलाल करना, विदेशी बैंकों और बीमा कंपनियों को प्रवेश की निर्बाध छुट देना, पेटेंट और ट्रिप्स-ट्रिप्स, परमाणु समझौते आदि को लागु करने के प्रति अड़ियल रवैया अपनाना -इन सबसे जाहिर है कि एक साम्राज्य परस्त मानसिकता जोर मार रही है । वित्तमंत्री पी० चिदंबरम ने कहा है कि अभी और सख्त फैसले किए जाने है इसका अर्थ है कि उन भारतीयों की टूटी अर्थ व्यवस्थाएं जिन्हें इन्सान तक नही समझा जाता, बर्फीली हवाओं के चपेट में आने वाली है । आख़िर वे देश के उन गरीबों के हित में सख्त फैसले क्यो नहीं लेते जिनके मतों से सत्ताशीन हुए है ? उनके मतदाता कौन थे ? अमेरिकी कंपनिया या भारत की आम जनता ? गैट-असुर के सामने आत्मसमर्पण करने के सवाल पर विपक्ष की सत्ता पक्ष के साथ एकता है । स्वतंत्रता प्राप्ति के ४० साल बाद तक भारतीय आवाम ने अपने बेहतरी के लिए न कभी भीख मांगी न उधार लिया और न कभी घुटने टेके । देश का संकठ अल्पावधि ऋण लेने के गैर जिम्मेदार फैसलों, विदेश से खर्चीले सामानों की खरीद तथा निवेश और साथ-साथ जनमानस के प्रति उदासीनता के कारण पैदा हुआ है । उधर विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के शूरमाओं नें इस संकठ का लाभ उठाने की कोशिश शुरू की, इधर हमारी सरकार चलाने वाले उसका शिकार बनने के लिए तैयार बैठे थे । क्या कोई वैकल्पिक रास्ता भी था इसपर सायद ही संदेह होगा कि जब विकासशील देश धनी देशों के साथ सीधा संवंध बनाते है तो वे आधुनिक तकनीक पर आधारित नये उद्योग एवं सेवा क्षेत्रों की आवश्यकता महसूस करते है । सवाल उस मान्यता पर उठाया जाना चाहिए जिसके अनुसार इस आधुनिक क्षेत्रों का इतना व्यापक विस्तार किया जा सकता है कि उसके लाभ आम आदमी तक पहुंचनें लगेंगे और यह कि ऐसा जल्दी ही संभव बना दिया जाएगा ।
हमारे वक्तव्य का प्रस्थान बिन्दु या यों कहें कि इस हद तक की गरीबी है । जो दुःख तकलीफ पैदा करती है, मनुष्य को छरित करती है और उसकी छमताओं को कुंद कर देती है हमारा पहला दायित्व यह जानने और समझने का है कि यह गरीबी किस तरह की सीमांए और बाधाएं खडी करती है साथ ही यह भी कि विकास का भौतिकवादी दर्शन हमें शिर्फ़ भौतिक अवसरों का दर्शन कराता है । अन्य कम महत्वपूर्ण लगने वाले कारकों पर कोई प्रकाश नहीं डालता । आशय यह है कि दरसल मानव विकास की शूरूआत वस्तुओं से होती ही नहीं है, उनकी शिक्षा से होती है, उनके संगठन से होती है, एवं उनके अनुशासन से होती है । इन तत्वों के बिना सारे संसाधन महज अन्तर्निहित क्षमता और सुप्त संभावना ही बने रहते है ।
आज की मौजूदा स्थिति यह है कि देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रीगण, सांसदगण, तथा अन्य वी० आय० पी० ख़ुद को जनता से काटते जा रहे है किंतु यह निश्चित है कि यदि वे अपना रास्ता नही बदले तो उनको इसकी किंमत आवश्यक रूप से चुकानी पडेगी । वैश्वीकरण के प्रति जो भय व्याप्त हो रहा है वह एक न एक दिन लावा बनकर अवस्य फूटेगा । उदाहरण के लिए बास्तील का वह किला जिसपर प्रहार के साथ फ्रांसीसी क्रांति की शुरूवात हुई थी आज भी प्रतीक के रूप में खडा है । वस्तुतः फ्रांस की क्रांति के पश्चात मैग्नाकार्टा की उदघोषणा मानव अधिकारों की आवश्यकता को जिस तरह उल्लिखित किया बिलकूल ठीक वही स्थिति आज हमारे भारत देश की है ।
बुधवार, 18 जून 2008
मानव अधिकारों का सामाजिक स्वरूप
सोमवार, 16 जून 2008
महिला अधिकारों की विवेचना
जिस तरह हर संपत्ति, साम्राज्य लूट ठगी और अपराध की बुनियाद पर टिका होता है ठीक उसी तरह परिवार का ताना-बाना स्त्री की गुलामी और अस्मिता विहीनता की बुनियाद पर खडा है-चाहे वह मध्य युगीन पितृसत्तात्मक ढांचे वाला सामंती संयुक्त परिवार हो या पूंजीवादी ढंग से संगठित परिवार । परिवार वर्ग निरपेक्ष संस्था नहीं है परिवार का प्यार मूल्य मुक्त प्यार होता ही नही यही कारण है कि पूर्ण समानता और स्वतंत्र अस्मिता की चाहत रखने वाली कोई भी स्त्री भला क्यो चाहेगी कि बचा रहे परिवार ।
मेरे द्वारा इन तथ्यों को उभारने से कृपया मुझे अराजकतावादी अथवा स्वच्छंदतावादी न समझें यह बुर्जुआओं और फिलिसटाईन बुद्धिजीवियों और अतीत की रागात्मकता के लिए विलाप करने वाले अतीतजीवियों का गुण है । इतिहास में पीछे की ओर चलें तो एक विवाह प्रथा की स्थापना के साथ ही एक ओर जहाँ मानव सभ्यता के उच्चतर, अधिक वैज्ञानिक नैतिक मूल्यों का जन्म हुआ, पुरूष द्वारा स्त्री को दास बनाये जाने की शुरुआत भी यहीं से हुई धीरे-धीरे स्त्री एक सजीव पारिवारिक संपत्ति के रूप में रूपांतरित होती चली गई । संपत्ति संचय और कानूनी वारिसों को उसका हस्तांतरण परिवार का मुख्य उद्देश्य बन गया ।
सामंती समाज के पित्रसत्तात्मक पारिवारिक ढांचे में ऊपर से जो रागात्मकता, स्त्री के प्रति उदार संरक्षण भाव, यदा-कदा श्रद्धा भाव और उसके सौंदर्य के प्रति सूक्ष्म जागरूकता दिखाई देती है वह सब उपरी चीज है "खांटी पुरूष दृष्टि" को यह सब बहुत भाता है धुंधली पर्त को भेद कर रहस्य तक पहुंचने पर पता चलता है कि स्त्री सामंती समाज में विलासिता और निजी उपभोग की वस्तु मात्र थी और साथ ही वंश चलाने का जरूरी साधन । अपनी प्रजा, हांथी, घोडे, नौकर आदि के प्रति संरक्षण भाव रखने वाले सामंत स्त्रियों के प्रति भी संरक्षण भाव रखते थे ।
पूजीवाद ने अपनी जरूरतों से स्त्रियों को रसोई घर से उठाकर तथा गुलामी से आंशिक मुक्ति दिलाने के नाम पर दोयम दर्जे की नागरिकता देने के साथ उसे निकृष्टतम कोटी की उजरती गुलाम बनाकर सड़कों पर धकेल दिया पूजीवाद की विकसित अवस्था की उपभोक्ता संस्कृति में सूचना तंत्र, प्रचार तंत्र, और नये मनोरंजन उद्योग के अंतर्गत स्त्री ख़ुद में एक उपभोक्ता सामाग्री बनकर रह गई, पुराने सामंती परिवार के राग अनुराग को तोड़ कर पूंजी ने घटिया उपयोगितावाद को जन्म दिया और पूंजी पर निजी लाभ के आधार पर खडे पूजीवादी परिवार में बेगानापन पोर-पोर में रच-बस गया मध्य युगीन प्यार के स्वप्न लोक में विचरण करती दुखी आत्माओं को लगने लगा कि परिवार टूट रहा है, प्रलय आ रहा है, लेकिन यह परिवार का टूटना नहीं बल्कि उसका पूजीवादी रूपांतरण था ।
आज भारत में जिसे परिवारों का टूटना विखरना कहा जा रहा है वह क्या है ? इसका उत्तर है- औपनिवेशिक भारतीय समाज भूमि संबंधों के "जूकर" टाइप रूपांतरण और उद्योगों के विकास के साथ ही एक अर्ध औद्योगिक कृत समाज में क्रमशः रूपांतरित होता चला गया यहाँ साम्राज्यवाद पर निर्भर एक बौना, बीमार, विकलांग पूजीवाद विकसित हुआ है । अठारहवीं, उन्नीसवी सदी के यूरोपीय पूजीवाद से भिन्न उपनिवेशवाद के गर्भ से जन्मा साम्राज्यवादी विश्व परिवेश में पला यह पूजीवाद जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों मान्यताओं से समझौता किए हुए है, उन्हें "एडाप्ट" किए हुए है और स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों और तर्क परता से रिक्त है इस संक्रमण कालीन भारतीय समाज में स्त्रीयों की पीड़ा दोहरी है । संयुक्त परिवारों के ढांचे टूटने, नाभिक परिवारों के बढ़ते जाने और आंशिक सामाजिक आजादी के बावजूद मुल्क मान्यताओं के धरातल पर वह पित्रसत्तात्मक स्वेछाचारिता को भुगत रही है, और उपभोक्ता संस्कृति के नई नग्न निरंकुशता को भी, पति उसे शिक्षित और आधुनिक देखना चाहता है । अपनी मित्र मंडली को प्रभावित करना और जलाना चाहता है पर यह नहीं चाहता कि वह उसकी इच्छाओं की सीमा-रेखा लांघकर किसी पुरुष से (यहाँ तक कि किसी स्त्री से स्वतंत्र सम्बन्ध बनाये) वह यह तो चाहता है कि घर का बोझ हल्का करने के लिए कमाए पर वह यह नहीं चाहता कि अपने दफ्तर या कारखाने में स्वतंत्र रिश्ते बनाये वह यह जरूर चाहता है कि स्त्री यन्त्र मानव की तरह बस पैसे कमाए, और आज्ञाकारी शुशील पत्नी की तरह वह समय से घर आ जाए । उच्च से लेकर उच्च मध्यवर्ग तक में किटीपार्टियों, लायंस, रोटरी पार्टियों में जाने की आजादी है और पत्नियों की अदला-बदली और स्वच्छंद यौनोपभोग का खुला गुप्त चलन भी बढ़ रहा है । मध्य वर्ग से लेकर कामगार वर्गों तक की काम-काजू स्त्रियों का शारीरिक मानसिक श्रम सबसे सस्ता है । बाहरी काम-काज या नौकरी में पुरूष से अधिक श्रम करने के बावजूद उसे घर का काम-काज और बच्चों का लालन-पालन भी करना है कुछ उदार पति इसमें हाँथ बटाकर उसे उपकृत जरूर करते रहते है । प्यार को बचाने के लिए परिवार को बचाना जरूरी नही है समाज के नैतिक आत्मिक सौन्दर्यात्मक मूल्यों और भौतिक जरूरतों की एक अभिव्यक्ति समाज के इस नाभिक के रूप में हुई जो निजी दैनंदिन जीवन के संगठन का सबसे महत्वपूर्ण रूप थी पर मानवीय सारतत्व और प्यार की अभिव्यक्ति भविष्य के लिए समाज में किसी और संगठन के रूप में होगी यदि उसे परिवार की संज्ञा दी भी जाए तो कम से कम यह जरूरी कहना होगा कि उसका ढांचा मौजूदा पारिवारिक ढांचे से गुणात्मक रूप से भिन्न होगा उत्पादन एवं विनिमय प्रक्रिया के सामाजीकरण के साथ रसोई घर की गुलामी से पूर्णतः मुक्त होगी, स्त्री-पुरूष का प्यार तब पूर्ण समानता और स्वतंत्रता के आधार पर होंगे उसमें बाध्यता और विवशता का कोई तत्व नहीं होगा ।
भारत में जिस तरह पूरे सामाजिक राजनीतिक तंत्र में, ठीक उसी तरह आत्मिक- निजी जीवन में एक पुरानी बुराई का स्थान नई बुराई ने ले लिया है पित्रसत्तात्मक सामंती पारिवारिक ढांचे की स्वेच्छाचारिता, कूपमंडूकिय रागात्मकता स्त्रियों के पाथक्य आदि का स्थान आज बाजार उपनिवेशवाद के दौर में पूजीवादी पारिवारिक ढांचे की निरंकुशता, नग्न यौन उत्पीडन, उपभोक्ता संस्कृति और बेगानापन ने ले लिया है । और यह नया ढांचा अभी से क्षरणशील है, विघटनोंन्मुख है । साथ ही सकारात्मक पहलू यह है कि स्त्री के भीतर अपनी अस्मिता की नई पहचान, और नई मुक्ति चेतना पैदा हुई है । अभी वह हजारों साल पुराने संस्कारों से मुक्त नहीं हो सकी है पर अब वह दिन दूर भी नहीं कि वह सच्ची समानता व स्वतंत्र इच्छा पर आधारित नैतिक प्यार की उद्दातता व गरिमा को हासिल करने के लिए परिवार की मौजूदा संस्था, इसके व्यभिचारी, उत्पीड़क, शोषक, निरंकुश स्वरूप को ध्वस्त कर देगी इसे बचाने की कोशिश बेकार है वर्तमान की दुर्दशा का समाधान अतीत में नहीं बल्कि भविष्य में देखना होगा, सवाल सौन्दर्यात्मक उद्दात्त धरातल पर मानवीय प्रेम की प्राण प्रतिष्ठा का हैं एक ऐसी सामाजिक संरचना के निर्माण का है, जिसमें स्त्री पूर्ण समानता, स्वावलंबन और स्वतंत्र अस्मिता के आधार पर स्वयं अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने में सक्षम हो ।
गुरुवार, 12 जून 2008
धारा ३७७ और मानव अधिकारों का उल्लंघन
शुक्रवार, 6 जून 2008
संभाव्य एवं सुदृढ़ विकास बनाम पर्यावरण एक संतुलित अवधारणा
गुरुवार, 5 जून 2008
पर्यावरण दिवस पर पर्यावरणीय चिंता
सोमवार, 2 जून 2008
अपराध कानून और मानवाधिकार
रविवार, 1 जून 2008
परमात्मा की दानशीलता
उसने मुझे दी कठिनाइयां,
हिम्मत बढाने के लिए ।
मैंने भगवान से मांगी बुद्धि,
उसने मुझे दी उलझनें,
सुलझाने के लिए ।
मैंने भगवान से मांगी संवृद्धि
उसने मुझे दी समझ,
काम करने के लिए ।
मैंने भगवान से माँगा प्यार,
उसने मुझे दिए दुखी लोग,
मदद करने के लिए ।
मैंने भगवान से मांगी हिम्मत,
उसने मुझे दी परेशानियाँ,
उबर पाने के लिए ।
मैंने भगवान से मांगे वरदान,
उसने मुझे दिए अवसर,
उन्हें पाने के लिए ।
वो मुझे नही मिला जो मैंने माँगा था ,
मुझे वो मिल गया जो मुझे चाहिए था
शुक्रवार, 30 मई 2008
विश्व तम्बाकू रोधी दिवस ( जिन्दगी चुनें तम्बाकू नहीं )
बुधवार, 28 मई 2008
पुलिस की निरंकुशता मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन
अब तो पुलिस और जांच एजेंसियों का शिर्फ़ एक ही मकसद रह गया है कि वे किसी तरह से राजनैतिक नेताओं का विश्वास हासिल कर लें आज निर्धन एवं सम्पन्न लोगों के लिए पुलिस अलग अलग दृष्टिकोण अपनाए हुए है अगर कोई साधन हीन गरीब व्यक्ति थाने जाता है तो उसका (एफ आई आर ) प्रथम सूचना रिपोर्ट तक नही लिखी जाती । उसे डाट कर थाने से भगा दिया जाता है और यदि किसी तरह (एफ आई आर ) लिख भी लिया जाता है तो भी मामले की जांच कार्रवाई नही होती । वही दूसरी तरफ़ यदि कोई साधन सम्पन्न व्यक्ति थाने जाता है तो पुलिस का दृष्टिकोण अचानक बदल जाता है । स्वाधीनता के बासठ वर्ष बीत चुके है लेकिन अब तक न तो पुलिस को मानवीय बनाया गया, और न ही उसे एहसास कराया गया कि उसके लिए सभी नागरिक समान है ।
पुलिस को आम भाषा में "वर्दी वाला गुंडा" तक कहा जाता है, फ़िर भी पुलिस के आचरण में कोई अन्तर नही आ रहा है पुलिस चाहे पंजाब की हो, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, अथवा दिल्ली की पुलिस पुलिस के बारे में आम नागरिकों की राय अच्छी नही है अब भी लोग पुलिस को उसी दृष्टिकोण से देखते है जैसे अंग्रेजों के समय पुलिस को निर्दयी मानते थे । पुलिस अत्याचार की जो कहानियाँ प्रायः प्रकाशित होती रहती है उसके कारण आम लोगों और पुलिस में अब भी उसी तरह की दुरी बनी हुई है पुलिस और जनता के दुरी के कई कारण है उसमे एक पुलिस हिरासत में होने वाली मौतें भी है, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार २००४-२००५ में हिरासतीय मौतों के अकडों में पुलिस हिरासत में १३६ मौतें तथा न्यायिक हिरासत में १३५७ मौतें अर्थात हिरासत में कुल १४९३ मौतों की रिपोर्ट दी है ।
देश की आम जनता के प्रति पुलिस का रवैया कभी भी दोस्ताना नही रहा, कोई भी ऐसा राज्य नही है जहाँ पुलिस पर ऊँगली न उठाई गई हो हालांकि दिल्ली की पुलिस को अपेक्षाकृत अधिक सतर्क और मानवीय माना जाता है लेकिन यहाँ भी पुलिस अत्याचारों, मानवाधिकार हनन की कहानियाँ अक्सर सामने आती रहतीं है । पैसों के लिए लोगों को प्रताडित करना, झूठे केसों में फ़साने की धमकी देकर पैसा ऐठ्ना, शिकायतकर्ता को उल्टे झूठे केस में फसा देना, पैसा लेकर आरोपियों को छोड़ देना पुलिस के लिए आम बात है । पुलिस कितनी निरंकुश एवं कितनी निर्भीक है उसके द्वारा किए जा रहे दमनात्मक कार्रवाईयों से पता चलता है । निचले स्तर के पुलिसकर्मी दूकानदारों तथा फुटपाथ पर धंधा करने वालों से हप्ता वसूली और न देने पर उनके साथ अत्याचार, पैसा लेकर अनैतिक कार्यों को प्रोत्साहन देना, असामाजिक तत्वों का संरक्षण, भोले-भाले आम नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार, किसी भी नागरिक पर बिना वजह डंडे बरसाना एवं थानें में लेजाकर पिटाई करने की धमकी, घिनौनी गालियों से लोगों का स्वागत इनके लिए साधारण बात है । इतना ही नही बल्कि पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी भी अमानवीय अत्याचार और अपराध करने के मामले में पीछे नही है उदाहरण के लिए पंजाब के पुलिस प्रमुख गिल के द्वारा की गई वरिष्ठ महिला अधिकारी के साथ छेड़खानी का हो, दिल्ली पुलिस आयुक्त जसपाल सिंह द्वारा किया गया हत्या का मामला अथवा अभी हाल में मुम्बई के मशहूर भवन निर्माता चतुर्वेदी को फर्जी मामले में फंसाये जाने का मामला लोगों के समक्ष है ।
मैंने एक समाचार पत्र में पुलिस के प्रति एक व्यंग पढा था की किसी देश में दुनिया के हर देशों की पुलिस के उत्कृष्टता हेतु या सर्वोच्च काविलियत के प्रदर्शन हेतु प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, उसमे विभिन्न देशों की पुलिस सामिल हुई । आयोजकों ने बड़े जंगल में एक शेर को छोड़ा और उपस्थित पुलिसवालों से कहा कि जिस देश की पुलिस सबसे पहले शेर को जंगल से पकड़ कर लाएगी उसे ही सर्वोच्च एवं उत्कृष्ट माना जाएगा । अन्य देशों की पुलिस अपने-अपने तरीकों से शेर को ढूढने में लग गई, मगर भारतीय पुलिस शेर को ढूढने जंगल में घुसी तथा जंगल में घुसते ही उसने एक भेडिये को पकड़ लिया और उसकी पिटाई शुरू कर दी कि कबूल कर कि तू भेडिया नही शेर है, विचारा भेडिया पिटाई से बचने के लिए अपने आप को शेर होना कबूल किया और तुरत-फुरत में भेडिये को शेर बनाकर आयोजकों के समक्ष पेश कर दिया भेद खुलने पर भले ही किरकिरी हुई तो ये है हमारी भारतीय पुलिस इसका अर्थ है कि हमारी पुलिस में इतना दम है कि वह जो भी चाहे किसी से कबूल करवा सकती है । यह अंग्रेजों की बनाई पुलिस सायद यह भूल गई किउस समय यदि उसे असीमित अधिकार प्राप्त थे तो नौकरी भी पल में चली जाती थी । देश आजाद हुआ तो पुलिस को चाहिए कि वह लोगों को एहसास भी कराए कि वह अंग्रेजों की नही आजाद भारत की पुलिस है ।
कहा जाता है कि वर्तमान पुलिस की बुनियाद व शैली अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई थी आजादी मिलने के बाद पुलिस व्यवस्था में कोई बदलाव न करते हुए गोरों का स्थान भारतीयों ने ले लिया वर्तमान सत्ता के दलालों या भ्रष्ट राजनीतिबाजों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नही आया अंग्रेजों के जमाने में तो पुलिस का मुख्य काम अंग्रेजों के सत्ता की रक्षा करना व भारतीयों के आन्दोलन को किसी भी प्रकार से कुचलना होता था, परन्तु यदि अन्य अपराधों से निपटने के बारे में आज की पुलिस से तब की कारगुजारियों की तुलना करें तो पायेगें कि उस समय की पुलिस काफी निष्पक्ष, कारगर, समर्थ, व दयालू थी जबकि आज उसकी इन्हीं कार्रवाईयों में भारी गिरावट आई है हालांकि तब छोटे पदों पर अधिकांश भारतीय ही थे यदि हम अंग्रेजों के सत्ता हितों की रक्षा को अलग रक्खे तो पुलिस में केस दर्ज करवाने से जांच तक प्रत्येक स्तर पर कानून का कठोरता से पालन होता था कई बार पक्षपात करने पर भारतीय पुलिस अधिकारियों को अंग्रेज अफसरों द्वारा दण्डित या अपमानित भी किया जाता था । हमारी कानून व्यवस्था इंग्लैंड के कानून प्रणाली पर आधारित है तथा अंग्रेज सामाजिक न्याय के लिए दुनिया भर में ऊँचा स्थान रखतें है, पर हम उनकी नक़ल करते हुए उनकी बुराइयों को तो अपना लिए, और अच्छाइयों को दरकिनार कर दिया ।
अंग्रेजों के समय में पुलिस व न्याय के मामले में आज की तरह राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था, हालांकि तब भी पुलिस को काफी अधिकार प्राप्त थे लेकिन आज जितना भ्रष्टाचार तब भी नहीं था, सायद इसी कारण देख या सुन कर यह सवाल जेहन में पैदा हो जाता है कि क्या हम स्वतंत्र भारत के नागरिक है ? अंग्रेजों ने अपने समय में पुलिस संस्था को इस् ढंग से व्यवस्थित किया था उस समय की पुलिस को काफी अधिकार देने के साथ एक और अच्छी बात यह थी कि भ्रष्ट पुलिस अधिकारी को नौकरी से तुरंत बर्खास्त करने के साथ-साथ उसकी जायजाद भी जप्त कर लेने का प्रावधान भी था, उस समय आज-कल के संविधान की धारा ३२२ नहीं थी अतः नौकरी तत्काल खोनी पड़ सकती थी बात भी सही थी रक्षक को भक्षक बनने का हक़ क्यों मिले ।
आजादी के बाद के पुलिस की छवि गालियाँ देने वाले व यातना देने वाले वहशी की बन चुकी है क्या कभी स्वयं पुलिस वाले या इसमें सबसे ज्यादा दोषी मौजूदा राजनीतिबाजों ने सोचा है ? आज पुलिस का अपराधीकरण होने के साथ-साथ साम्प्रदायीकरण भी हो चुका है जो देश के लिए अत्यन्त खतरनाक है । पिछले ३० वर्षों से हमारा समाज पहले से कही अधिक मानवीय मूल्यों से परे हो गया है देश की चुनावी राजनीति धर्म-जाति मतदाताओं पर बंटी हुई है, जिस क्षेत्र में जिस जाति या धर्म के लोग ज्यादा वोट हो उसी धर्म या जाति के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाता है फ़िर वही नेता विधायक या मंत्री बनकर अपनी ही जाति या धर्म के पुलिस अधिकारियों को उस क्षेत्र में तैनात करवाकर अपने विरोधियों से बदला लेने या अपने लोगों की स्वार्थ पूर्ति कराने हेतु उक्त पुलिस अधिकारियों का उपयोग करते है ।
विश्व के सबसे बडे प्रजातंत्र का संचालन व प्रबंध आज भी ब्रिटिशों द्वारा बनाये ढांचों व कानूनों से किया जा रहा है । समय बदला आवश्यकताए बदली लेकिन हमारा कानून व पुलिस का ढांचा विगड़ता चला गया, अंग्रेजों से विरासत में मिले इस कानून व प्रशासनिक ढांचे का एक दुखद पहलू यह भी है कि पुलिस सत्ताधारी शासकों व पूंजीपतियों की कठपुतली बन कर रह गई है, तथा इसमें क्रूर प्रवित्ति बढ़ती जा रही है अपने असीमित अधिकारों का पुलिस द्वारा भारी दुरूपयोग किया जाने लगा है, इन बातों से पुलिस संस्था को अपने छवि की कोई चिंता नही है, आज की पुलिस एक अत्याचारी संस्था का रूप ले चुकी है । और यही आज बडे पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन करती दिखाई दे रही है । पुलिस संस्था में सुधार या उसे पुरी तरह बदलने के लिए बडे-बडे सुझाव आए, पुलिस में सुधार के लिए धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन भी किया गया लेकिन सायद हमारे राजनीतिक ही नही चाहते कि पुलिस संस्था को सुधार कर उसे जनानुकूल बनाया जाए ।
पुलिस सुधार के लिए कुछ आवश्यक सुझाव :
(१) पुलिस प्रक्रिया पर राजनैतिक हस्तक्षेप से बचाव हो ।
(२) राज्य सुरक्षा आयोग जैसी स्वतंत्र इकाई का गठन किया जाय ।
(३) पुलिस प्रमुख के चयन की प्रक्रिया पारदर्शी हो और उनका सुनिश्चित कार्यकाल हो ।
(४) आन्तरिक अनुशासन के लिए एक विशेष तंत्र की व्यवस्था हो ।
(५) पुलिस द्वारा किए गए ग़लत कार्यों हेतु सुनिश्चित दंड की व्यवस्था हो ।
(६) अनियमित कार्यो को परिभाषित कर सार्वजनिक किया जाय ।
(७) स्पष्ट, निष्पक्ष एवं पारदर्शी अनुशासनात्मक प्रक्रिया का अनुपालन हो ।
(८) पुलिस अपराधों की स्पष्ट व्याख्या हो ।
(९) जनता की शिकायतों के लिए स्वतंत्र इकाई बने जोकि पुलिस प्रभाव से मुक्त हो जो केवल पुलिस के विरुद्ध शिकायतों पर ही ध्यान दे ।
(१०) जनता के शिकायतों के लिए बनी इकाई में जनता के तरफ़ से अपने प्रतिनिधि चुन कर भेजे जाय तथा यह चुनाव प्रक्रिया पारदर्शी हो ।
(११) जिला और राज्य स्तर तक बनी इन इकाईयों तक आम आदमी आसानी से पहुँच सके ।
(१२) इन इकाईयों को अधिकार हो कि एफ आई आर दर्ज और विभागीय कार्यवाही कराने के लिए प्रभावी निर्देश दे सके तथा पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति राशि दिलाने में सक्षम हों ।
(१३) पुलिस के दिन प्रतिदिन के कार्यों कि गुणवत्ता में सुधार हो ।
(१४) पुलिस के कार्यों एवं कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या हो ।
(१५) कानून व्यवस्था बनाये रखने तथा अपराधिक जांच के कार्यों के लिए पृथक पुलिस दल हो ।
रविवार, 25 मई 2008
स्वास्थ्य के अधिकार (रोड दुर्घटना )
शनिवार, 24 मई 2008
अधिकार हों सबके लिए
बुधवार, 21 मई 2008
नंदीग्राम और सिंगुर की जनता ने माकपा को दिया करारा जवाब
सिंगुर की तीन जिला परिषद सीटों पर वाम मोर्चे के उम्मीदवारों को तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों के हाथों हार का मुह देखना पडा है इन चुनाओं में उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की नीति की परीक्षा के तौर पर देखा जा रहा है ।
इस पंचायती चुनावों में पश्चिम बंगाल पुलिस के अनुसार चुनाव के दौरान हिंसा में ८ लोगों की मौत हुई तथा १३ लोग घायल हुए पुलिस का कहना है की पश्चिम बंगाल के सत्तारूढ़ वाम मोर्चे के समर्थकों और कार्यकर्ताओं नें दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर हथियारों से हमले किए ।
दरसल नंदीग्राम और सिगुर में विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस ई जेड़ ) खास करके हुगली जिले के सिंगुर में टाटा मोटर्स की एक लाख रूपये की ड्रीम कार परियोजना हेतु राज्य सरकार ने ९९७ एकड़ जमीन टाटा समूह को सौपने का निर्णय लिया था इसके अलावा हल्दिया और नंदीग्राम में बनने वाले एस ई जेड़ को इण्डोनेशियाई कम्पनी को सौपने की तैयारी चल रही थी, वस्तुतः पश्चिम बंगाल सरकार बडे औद्योगिक घरानों को खुश करने के लिए किसानों से उनकी उपजाऊ जमीन छीन रही थी । जमीन बचाने के लिए आन्दोलन कर रहे नंदीग्राम के किसानों पर १४ मार्च २००७ को पुलिस ने गोलियां चलाई थी जिसमे कम से कम १४ आन्दोलनकारी मारे गए थे ।
यही कारण है कि साल २००३ में हुए पंचायती चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को जिला परिषद में केवल २ सीटें मिली थी किंतु २००८ के अभी तक घोषित ५३ सीटों के परिणाम में ३२ सीटों को वहाँ के लोगों ने तृणमूल की झोली में डाल दिया है । बतादें कि जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी किसानों के हितों के लिए आन्दोलनरत थी ।
आशय यह है कि जन विरोधी नीतियों का खामियाजा तो वाम मोर्चे को भुगतना ही होगा, उम्मीद की जानी चाहिए की वाम मोर्चा इस् चुनाव से सबक लेगी और अपनी गलतियों को सुधारने की कोशिश करेगी ।