अब तो पुलिस और जांच एजेंसियों का शिर्फ़ एक ही मकसद रह गया है कि वे किसी तरह से राजनैतिक नेताओं का विश्वास हासिल कर लें आज निर्धन एवं सम्पन्न लोगों के लिए पुलिस अलग अलग दृष्टिकोण अपनाए हुए है अगर कोई साधन हीन गरीब व्यक्ति थाने जाता है तो उसका (एफ आई आर ) प्रथम सूचना रिपोर्ट तक नही लिखी जाती । उसे डाट कर थाने से भगा दिया जाता है और यदि किसी तरह (एफ आई आर ) लिख भी लिया जाता है तो भी मामले की जांच कार्रवाई नही होती । वही दूसरी तरफ़ यदि कोई साधन सम्पन्न व्यक्ति थाने जाता है तो पुलिस का दृष्टिकोण अचानक बदल जाता है । स्वाधीनता के बासठ वर्ष बीत चुके है लेकिन अब तक न तो पुलिस को मानवीय बनाया गया, और न ही उसे एहसास कराया गया कि उसके लिए सभी नागरिक समान है ।
पुलिस को आम भाषा में "वर्दी वाला गुंडा" तक कहा जाता है, फ़िर भी पुलिस के आचरण में कोई अन्तर नही आ रहा है पुलिस चाहे पंजाब की हो, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, अथवा दिल्ली की पुलिस पुलिस के बारे में आम नागरिकों की राय अच्छी नही है अब भी लोग पुलिस को उसी दृष्टिकोण से देखते है जैसे अंग्रेजों के समय पुलिस को निर्दयी मानते थे । पुलिस अत्याचार की जो कहानियाँ प्रायः प्रकाशित होती रहती है उसके कारण आम लोगों और पुलिस में अब भी उसी तरह की दुरी बनी हुई है पुलिस और जनता के दुरी के कई कारण है उसमे एक पुलिस हिरासत में होने वाली मौतें भी है, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार २००४-२००५ में हिरासतीय मौतों के अकडों में पुलिस हिरासत में १३६ मौतें तथा न्यायिक हिरासत में १३५७ मौतें अर्थात हिरासत में कुल १४९३ मौतों की रिपोर्ट दी है ।
देश की आम जनता के प्रति पुलिस का रवैया कभी भी दोस्ताना नही रहा, कोई भी ऐसा राज्य नही है जहाँ पुलिस पर ऊँगली न उठाई गई हो हालांकि दिल्ली की पुलिस को अपेक्षाकृत अधिक सतर्क और मानवीय माना जाता है लेकिन यहाँ भी पुलिस अत्याचारों, मानवाधिकार हनन की कहानियाँ अक्सर सामने आती रहतीं है । पैसों के लिए लोगों को प्रताडित करना, झूठे केसों में फ़साने की धमकी देकर पैसा ऐठ्ना, शिकायतकर्ता को उल्टे झूठे केस में फसा देना, पैसा लेकर आरोपियों को छोड़ देना पुलिस के लिए आम बात है । पुलिस कितनी निरंकुश एवं कितनी निर्भीक है उसके द्वारा किए जा रहे दमनात्मक कार्रवाईयों से पता चलता है । निचले स्तर के पुलिसकर्मी दूकानदारों तथा फुटपाथ पर धंधा करने वालों से हप्ता वसूली और न देने पर उनके साथ अत्याचार, पैसा लेकर अनैतिक कार्यों को प्रोत्साहन देना, असामाजिक तत्वों का संरक्षण, भोले-भाले आम नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार, किसी भी नागरिक पर बिना वजह डंडे बरसाना एवं थानें में लेजाकर पिटाई करने की धमकी, घिनौनी गालियों से लोगों का स्वागत इनके लिए साधारण बात है । इतना ही नही बल्कि पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी भी अमानवीय अत्याचार और अपराध करने के मामले में पीछे नही है उदाहरण के लिए पंजाब के पुलिस प्रमुख गिल के द्वारा की गई वरिष्ठ महिला अधिकारी के साथ छेड़खानी का हो, दिल्ली पुलिस आयुक्त जसपाल सिंह द्वारा किया गया हत्या का मामला अथवा अभी हाल में मुम्बई के मशहूर भवन निर्माता चतुर्वेदी को फर्जी मामले में फंसाये जाने का मामला लोगों के समक्ष है ।
मैंने एक समाचार पत्र में पुलिस के प्रति एक व्यंग पढा था की किसी देश में दुनिया के हर देशों की पुलिस के उत्कृष्टता हेतु या सर्वोच्च काविलियत के प्रदर्शन हेतु प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, उसमे विभिन्न देशों की पुलिस सामिल हुई । आयोजकों ने बड़े जंगल में एक शेर को छोड़ा और उपस्थित पुलिसवालों से कहा कि जिस देश की पुलिस सबसे पहले शेर को जंगल से पकड़ कर लाएगी उसे ही सर्वोच्च एवं उत्कृष्ट माना जाएगा । अन्य देशों की पुलिस अपने-अपने तरीकों से शेर को ढूढने में लग गई, मगर भारतीय पुलिस शेर को ढूढने जंगल में घुसी तथा जंगल में घुसते ही उसने एक भेडिये को पकड़ लिया और उसकी पिटाई शुरू कर दी कि कबूल कर कि तू भेडिया नही शेर है, विचारा भेडिया पिटाई से बचने के लिए अपने आप को शेर होना कबूल किया और तुरत-फुरत में भेडिये को शेर बनाकर आयोजकों के समक्ष पेश कर दिया भेद खुलने पर भले ही किरकिरी हुई तो ये है हमारी भारतीय पुलिस इसका अर्थ है कि हमारी पुलिस में इतना दम है कि वह जो भी चाहे किसी से कबूल करवा सकती है । यह अंग्रेजों की बनाई पुलिस सायद यह भूल गई किउस समय यदि उसे असीमित अधिकार प्राप्त थे तो नौकरी भी पल में चली जाती थी । देश आजाद हुआ तो पुलिस को चाहिए कि वह लोगों को एहसास भी कराए कि वह अंग्रेजों की नही आजाद भारत की पुलिस है ।
कहा जाता है कि वर्तमान पुलिस की बुनियाद व शैली अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई थी आजादी मिलने के बाद पुलिस व्यवस्था में कोई बदलाव न करते हुए गोरों का स्थान भारतीयों ने ले लिया वर्तमान सत्ता के दलालों या भ्रष्ट राजनीतिबाजों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नही आया अंग्रेजों के जमाने में तो पुलिस का मुख्य काम अंग्रेजों के सत्ता की रक्षा करना व भारतीयों के आन्दोलन को किसी भी प्रकार से कुचलना होता था, परन्तु यदि अन्य अपराधों से निपटने के बारे में आज की पुलिस से तब की कारगुजारियों की तुलना करें तो पायेगें कि उस समय की पुलिस काफी निष्पक्ष, कारगर, समर्थ, व दयालू थी जबकि आज उसकी इन्हीं कार्रवाईयों में भारी गिरावट आई है हालांकि तब छोटे पदों पर अधिकांश भारतीय ही थे यदि हम अंग्रेजों के सत्ता हितों की रक्षा को अलग रक्खे तो पुलिस में केस दर्ज करवाने से जांच तक प्रत्येक स्तर पर कानून का कठोरता से पालन होता था कई बार पक्षपात करने पर भारतीय पुलिस अधिकारियों को अंग्रेज अफसरों द्वारा दण्डित या अपमानित भी किया जाता था । हमारी कानून व्यवस्था इंग्लैंड के कानून प्रणाली पर आधारित है तथा अंग्रेज सामाजिक न्याय के लिए दुनिया भर में ऊँचा स्थान रखतें है, पर हम उनकी नक़ल करते हुए उनकी बुराइयों को तो अपना लिए, और अच्छाइयों को दरकिनार कर दिया ।
अंग्रेजों के समय में पुलिस व न्याय के मामले में आज की तरह राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था, हालांकि तब भी पुलिस को काफी अधिकार प्राप्त थे लेकिन आज जितना भ्रष्टाचार तब भी नहीं था, सायद इसी कारण देख या सुन कर यह सवाल जेहन में पैदा हो जाता है कि क्या हम स्वतंत्र भारत के नागरिक है ? अंग्रेजों ने अपने समय में पुलिस संस्था को इस् ढंग से व्यवस्थित किया था उस समय की पुलिस को काफी अधिकार देने के साथ एक और अच्छी बात यह थी कि भ्रष्ट पुलिस अधिकारी को नौकरी से तुरंत बर्खास्त करने के साथ-साथ उसकी जायजाद भी जप्त कर लेने का प्रावधान भी था, उस समय आज-कल के संविधान की धारा ३२२ नहीं थी अतः नौकरी तत्काल खोनी पड़ सकती थी बात भी सही थी रक्षक को भक्षक बनने का हक़ क्यों मिले ।
आजादी के बाद के पुलिस की छवि गालियाँ देने वाले व यातना देने वाले वहशी की बन चुकी है क्या कभी स्वयं पुलिस वाले या इसमें सबसे ज्यादा दोषी मौजूदा राजनीतिबाजों ने सोचा है ? आज पुलिस का अपराधीकरण होने के साथ-साथ साम्प्रदायीकरण भी हो चुका है जो देश के लिए अत्यन्त खतरनाक है । पिछले ३० वर्षों से हमारा समाज पहले से कही अधिक मानवीय मूल्यों से परे हो गया है देश की चुनावी राजनीति धर्म-जाति मतदाताओं पर बंटी हुई है, जिस क्षेत्र में जिस जाति या धर्म के लोग ज्यादा वोट हो उसी धर्म या जाति के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाता है फ़िर वही नेता विधायक या मंत्री बनकर अपनी ही जाति या धर्म के पुलिस अधिकारियों को उस क्षेत्र में तैनात करवाकर अपने विरोधियों से बदला लेने या अपने लोगों की स्वार्थ पूर्ति कराने हेतु उक्त पुलिस अधिकारियों का उपयोग करते है ।
विश्व के सबसे बडे प्रजातंत्र का संचालन व प्रबंध आज भी ब्रिटिशों द्वारा बनाये ढांचों व कानूनों से किया जा रहा है । समय बदला आवश्यकताए बदली लेकिन हमारा कानून व पुलिस का ढांचा विगड़ता चला गया, अंग्रेजों से विरासत में मिले इस कानून व प्रशासनिक ढांचे का एक दुखद पहलू यह भी है कि पुलिस सत्ताधारी शासकों व पूंजीपतियों की कठपुतली बन कर रह गई है, तथा इसमें क्रूर प्रवित्ति बढ़ती जा रही है अपने असीमित अधिकारों का पुलिस द्वारा भारी दुरूपयोग किया जाने लगा है, इन बातों से पुलिस संस्था को अपने छवि की कोई चिंता नही है, आज की पुलिस एक अत्याचारी संस्था का रूप ले चुकी है । और यही आज बडे पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन करती दिखाई दे रही है । पुलिस संस्था में सुधार या उसे पुरी तरह बदलने के लिए बडे-बडे सुझाव आए, पुलिस में सुधार के लिए धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन भी किया गया लेकिन सायद हमारे राजनीतिक ही नही चाहते कि पुलिस संस्था को सुधार कर उसे जनानुकूल बनाया जाए ।
पुलिस सुधार के लिए कुछ आवश्यक सुझाव :
(१) पुलिस प्रक्रिया पर राजनैतिक हस्तक्षेप से बचाव हो ।
(२) राज्य सुरक्षा आयोग जैसी स्वतंत्र इकाई का गठन किया जाय ।
(३) पुलिस प्रमुख के चयन की प्रक्रिया पारदर्शी हो और उनका सुनिश्चित कार्यकाल हो ।
(४) आन्तरिक अनुशासन के लिए एक विशेष तंत्र की व्यवस्था हो ।
(५) पुलिस द्वारा किए गए ग़लत कार्यों हेतु सुनिश्चित दंड की व्यवस्था हो ।
(६) अनियमित कार्यो को परिभाषित कर सार्वजनिक किया जाय ।
(७) स्पष्ट, निष्पक्ष एवं पारदर्शी अनुशासनात्मक प्रक्रिया का अनुपालन हो ।
(८) पुलिस अपराधों की स्पष्ट व्याख्या हो ।
(९) जनता की शिकायतों के लिए स्वतंत्र इकाई बने जोकि पुलिस प्रभाव से मुक्त हो जो केवल पुलिस के विरुद्ध शिकायतों पर ही ध्यान दे ।
(१०) जनता के शिकायतों के लिए बनी इकाई में जनता के तरफ़ से अपने प्रतिनिधि चुन कर भेजे जाय तथा यह चुनाव प्रक्रिया पारदर्शी हो ।
(११) जिला और राज्य स्तर तक बनी इन इकाईयों तक आम आदमी आसानी से पहुँच सके ।
(१२) इन इकाईयों को अधिकार हो कि एफ आई आर दर्ज और विभागीय कार्यवाही कराने के लिए प्रभावी निर्देश दे सके तथा पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति राशि दिलाने में सक्षम हों ।
(१३) पुलिस के दिन प्रतिदिन के कार्यों कि गुणवत्ता में सुधार हो ।
(१४) पुलिस के कार्यों एवं कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या हो ।
(१५) कानून व्यवस्था बनाये रखने तथा अपराधिक जांच के कार्यों के लिए पृथक पुलिस दल हो ।