हम एक ऐसे समाज में रहते है जिसमे एक ही तरह की यौनिकता को मान्यता दी जाती है --शादी के रिश्ते में बंधे हुए औरत और मर्द की । एक मात्र उसी को 'प्राकृतिक' और 'सामान्य' बताया जाता है । इसमे भी मर्द की यौनिकता निर्णायक और प्रधान है । औरत की यौनिकता तो वंश चलाने का एक जरिया भर है । यहाँ तक की औरत और मर्द का क्या मतलब है, दोनों के बीच क्या रिश्ता हो, उनकी भूमिकाएं क्या हों और इनके मुताबिक परिवार का स्वरूप क्या हो--इन सबका सामाजिक ताकतें ऐसा रूप तय करती है जिससे की समाज में गैरबराबरी बनी रहे । इन सामाजिक ताकतों में महत्वपूर्ण है पित्रसत्ता, जिसे बरकरार रखने के लिए विषमलैंगिकता ( यौनिकता का वो रूप जिसमे केवल औरत और मर्द के बीच आकर्षण हो ) और जेंडर की एक संकीर्ण परिभाषा की जरुरत होती है । अगर औरत में औरतों से अपेक्षित गुण न हों, मर्द में मर्दों से जुड़े गुण न हों, और ये शादी में बंध कर अपनी तय भूमिकाएं निभाते हुए परिवार न बनाएँ, तो पित्रसत्ता की व्यवस्था चलेगी कैसे ? वे सभी जो इस 'आदर्श संरचना' के बाहर जीने की हिम्मत रखते है, उन्हें नैतिकता और समाज के लिए खतरा मन जाता है । इस खतरे के कारण सामाजिक व्यवस्था या तो इस 'आदर्श संरचना' से अलग जाने वालों के अस्तित्व को पुरी तरह नकार देती है या उन्हें यह कह कर अस्वीकार कर देती है कि वे पश्चिमी सभ्यता की उपज है । जैसे कहा जाता है कि 'हमारे समाज में लेस्बियन औरतें है ही नही' या 'पश्चिमी रंग में रंगे हुए उच्च वर्ग के मुठ्ठी भर शहरी युवक ही गे है । ' जब उनकी उपस्थिति को अनदेखा करना मुश्किल हो जाता है, तो उन्हें इस तरह दण्डित किया जाता है कि उनके लिए स्वतंत्र व गरिमामय जीवन जीना दूभर हो जाता है ।
पिछले कुछ दशकों में समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों, जिसमें लेस्बियन ( औरत जो औरत के प्रति आकर्षित है ), गे ( मर्द जो मर्द के प्रति आकर्षित है ), बाईसेक्स्युअल ( औरत और मर्द दोनों के प्रति आकर्षित है ), ट्रांसजेंडरर्ड ( औरत और मर्द कि परिभाषा में नहीं बंधे हुए ), हिजडा आदि सामिल है, की ओर से हिंसामुक्त और भयमुक्त, गरिमामय जीवन के संवैधानिक मानव अधिकार की मांग भारत के अलग-अलग कोनों से उठ रही है । यह आन्दोलन ऐसे लोगों के विरुद्ध हो रहे मानव अधिकारों के हनन का विरोध कर रहा है । उनके संघर्षों के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहा है । लोगों की आपबीती के माध्यम से टकराहट और सहयोग दोनों के अनुभवो को सामने ला रहा है । अन्य प्रगतिशील आन्दोलनों के साथ जुडाव बनाने की कोशिश भी जारी है । ताकि संगठित होकर उन सामाजिक ताकतों को चुनौती दी जा सके जो परिभाषित 'आदर्श संरचना' से बाहर रहने वालों को प्रताडित करती है।
इस आलेख का विषय भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ है जो 'प्राकृतिक नियम के विरुद्ध' माने जाने वाले स्वैच्छिक यौन संबंधों को आपराधिक मानती है । और आज यौनिक अधिकारों के आन्दोलन में एक मुख्य बाधा बनी हुई है । बिडम्बना यह है की दावा किया जाता है कि १८६० में पास हुआ औपनिवेशिक कानून आज भी हमारे समाज के लिए उपयुक्त है । यह कानून ऐसे सभी यौनिक व्यवहारों को आपराधिक करार करने के लिए बनाया गया था जो प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े नही है । इस कानून के अंतर्गत, दो वयस्कों के बीच समलैगिक यौनिक गतिविधियाँ या एक विषमलैंगिक शादीशुदा जोड़े के बीच मुख मैथुन से लेकर सभी 'अप्राकृतिक क्रियाएँ' अपराध है । फिर भी हमारे समाज में व्याप्त होमोफोबिया ( समलैगिकता के प्रति भय ) यह सुनिश्चित करता है कि केवल पहली स्थिति ( दो वयस्कों के बीच समलैंगिक व्यवहार) को ही दण्डित किया जाए ।
धारा ३७७ के बारे में हमारी मुख्य चिंताएँ क्या है ? यौनिक और जेंडर की विविधता पर धारा ३७७ एकरूपता थोपना चाहती है । क्या 'प्राकृतिक' है और क्या 'सामान्य है --इन अवधारणाओं को यह मान्यता देती है ताकि पित्रसत्ता और विषमलैगिकता से जुड़ी शादी एवं परिवार जैसी सामाजिक संस्थाएं और उनमे निहित गैर- बराबरी बनी रहे । यह समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों को दण्डित करने की अनुमति देती है । इनके मानव अधिकारों का उल्लंघन राज्य व पुलिस, परिवार, मिडिया और चिकित्सा जैसे विविध राजकीय एवं गैर राजकीय पात्रों द्वारा बार-बार होता है । पुलिस द्वारा यौनिक अत्याचार और शोषण, जबरदस्ती पैसे ऐठ्ना, मानसिक चिकित्सा संस्थाओं में विजली के झटके और तेज दवाये देकर 'मरीज' की यौनिकता को बदलने की कोशिश करना और हर रोज होने वाले सामाजिक लांछन और भेदभाव-- ऐसे मानव अधिकार उल्लंघनों का दस्तावेजीकरण कई तथ्य-जांच की रिपोर्ट और अध्ययन करते है । लेकिन बार-बार घटने वाले इन गंभीर उल्लंघनों को समाज ने अभी तक नही समझा है । व्यक्तिगत जिंदगी के अनुभव भी हमे बताते है कि यह कानून मित्रों, परिवार वालों, सहकर्मियों आदि द्वारा खुले रूप से भिन्न यौनिक प्रवित्तियों को स्वीकार करने में एक मुख्य बाधा है । जो सामाजिक कार्यकर्ता इन उपेक्षित लोगों के बीच, शिक्षा सहयोग और पैरवी करने के लिए प्रतिबद्ध है । उन्हें भी कानूनी रूप से अपराधी ठहराए जाने का खतरा है ।
इसके अलावा धारा ३७७ और बाल यौन उत्पीडन के मामले में इसके उपयोग ने बाल अधिकार कार्यकर्ताओं को हताश किया है । उनका तर्क यह है कि धारा ३७७ बाल यौन उत्पीडन से निपटने के लिए नही बनाया गया था । इसलिए वह बाल यौन उत्पीडन के मामलों की जटिलता और जरूरतों को समझने में पूरी तरह असमर्थ है । डर यह है कि जबतक धारा ३७७ बनी रहेगी, बाल यौन उत्पीडन पर अलग से कोई विशेष उपयुक्त कानून नही बन पाएगा ।
धारा ३७७ के विरुद्ध सबसे पहली याचिका सन १९९४ में एड्स भेदभाव विरोधी आन्दोलन (ए.बी.वी.ए. ) द्वारा दायर की गई थी । सन २००१ में नांज फाउन्डेशन इंडिया ने लायर्स कलेक्टिव के माध्यम से दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पी.आई.एल.) दायर की सन २००३ में सरकार ने न्यायालय को जो जवाब दिया, उससे जाहिर है कि धारा ३७७ को चुनौती देना आसान नही होगा । सरकार का तर्क था कि आम तौर पर भारतीय समाज समलैगिकता को अनुचित मानता है । और इसे अपराध करार देना के लिए यही कारण काफी है । इसके अलावा बाल यौन उत्पीडन के मामलों में कानूनी कार्यवाही करने के लिए और समाज को नैतिक गिरावट से बचाने के लिए सरकार धारा ३७७ को सही करार देती है ।
सितम्बर २००४ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिका रद्द की , यह कहते हुए कि याचिका उस समुदाय द्वारा दर्ज कीजा सकती है, जो इस् कानून से सीधे रूप से प्रभावित है । नाज ने इस फैसले पर पुनः विचार के लिए उच्च न्यायालय में एक रिव्यू पेटिशन दर्ज किया । पेटिशन में नाज ने तर्क दिया कि नांज को धारा ३७७ से प्रभावित समुदाय की ओर से याचिका दर्ज करनी पडी क्योकि धारा ३७७ के रहते अपने पहचान के खुलासे और पुलिस उत्पीडन के डर की वजह से समलैंगिक समाज ख़ुद सीधे अदालत नहीं जा सकता । लेकिन उच्च न्यायालय ने रिव्यू पेटिशन खारिज कर दिया । कई समूहों की राय लेते हुए नाज ने सर्वोच्च न्यायालय से उच्च न्यायालय के याचिका खारिज करने के सीमित बिन्दु पर अपील की । मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह एक सार्वजनिक हित का मामला है और एक ऐसा मसला है जिसपर दुनिया भर में चर्चा चल रही है अदालत ने सरकार को निर्धारित समय के अन्दर इस बात पर जवाब देने के लिए कहा कि जनहित याचिका वैध है है या नहीं ।
धारा ३७७ के मूलभूत संदर्भ में, यह देखना बाकी है कि सरकार सामाजिक मूल्यों के नाम पर अपने नजरिये को लागु करने का अधिकार हथियाएगी ? क्या वो इस अधिकार को समलैगिक इच्छा रखने वाले लोगों की आजादी, सम्मान और अधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण ठहराएगी ?
लेकिन सार्वजनिक नैतिकता का फौजदारी कानून से क्या रिश्ता है ? कौन तय करता है कि 'नैतिक' क्या है और 'प्राकृतिक' क्या है ? अकेले भारत में ही समलैगिक इच्छा रखने वाले लोग, विधवाऐ, ......आगे जारी....................