संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा ने "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा करते समय उसकी उद्देशिका लिखने के बाद उसके अनुच्छेद ४ में लिखा था---किसी भी व्यक्ति को दास या गुलाम बनाकर नही रखा जाएगा, सभी प्रकार की दासता और दास व्यापार निषिद्ध होगा,१ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ऐसा उदघोषित कर मानव जाति में शताब्दियों से चली आ रही एक बडी बुराई के विरुद्ध जंग छेड़ी है । दरसल दास प्रथा में मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण एवं उत्पीडन होता है तथा दास व्यापार में मनुष्य द्वारा मनुष्य पर भारी अत्याचार होता है । उपरोक्त महासभा ने इस् रक्षा उपाय मे यह चेतावनी भी दी थी कि यदि मनुष्य के इन अधिकारों की कानूनों के माध्यम से प्राप्ति नही कराई गई तो इसके भयावह परिणाम हो सकते है ।
महासभा ने इन "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" की उद्देशिका मे लिखा है ---यदि मनुष्य के अत्याचार और उत्पीडन अंतिम अस्त्र के रूप मे विद्रोह का अवलंब लेने के लिए विवस नही किया जाना है तो यह आवश्यक है की मानव अधिकारों का संरक्षण विधि सम्मत शासन द्वारा किया जाना चाहिए २ । इसके साथ ही महासभा ने मानव अधिकार अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा मे अपने संकल्प को अंगीकृत करते हुए तथा उसमे आथिक-सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का उपबंध जोड़ते हुए उसकी उद्देशिका मे इसका तर्क बताया था कि इस् प्रसंविदा के पक्षकार राज्य यह मानकर कि ये अधिकार मानव देह की अन्तरनिहित गरिमा से व्युत्पन्न है ३ । इन अनुच्छेदों का करार करते है । देखा जा सकता है कि "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" के अनुच्छेद ४ के नजदीक भारत के संविधान मूल अधिकार वाले अध्याय के अनुच्छेद २३ (१) में इसी प्रकार का प्रावधान रखा गया है--मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस् उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा ।
हुआ यों था कि तबतक दास प्रथा और दास व्यापार विश्व की समस्या बन चुके थे । विश्व की कई मानव नस्लें और राष्ट्र दास प्रथा के विरोध मे लड़ रहे थे अमेरिका मे इस् प्रथा को समाप्त करने के लिए गृहयुद्ध लड़ा जा चुका था । इस पृष्ठभूमि और उसकी जानकारी के कारण मानव समाज का यह एक खास मुद्दा था । लेकिन भारतीय समाज मे एक इससे भी ज्यादा घिनौनी प्रथा कायम थी, परन्तु उसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नही हो सकी थी । यहाँ जो स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चला रहे थे वह अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए था, उस समय तक विश्व समुदाय को यही पता था कि भारत ब्रिटेन से अपनी आजादी की लडाई लड़ रहा है उस समय के मानव चिंतकों को यह पता नही था कि भारत में ब्रिटेन की गुलामी से स्वतंत्र होने के बाद भी एक और सामाजिक गुलामी बची रह सकती है जो दास प्रथा अथवा दास व्यापर से भी ज्यादा खतरनाक एवं भयावह है ।
तत्कालीन भारतीय हिंदू राजनीतिक और वेदांत के दार्शनिक विद्वान् विदेशी मंचों पर अपनी इस् भयावह बुराई को छिपाया करते थे वे विदेशों में अपनी स्वतंत्रता की लडाई पर क्रांतिकारी एवं गंभीर भाषण दिया करते लेकिन मन में इस बात से डरे रहते थे कि कोई उनसे हिन्दुओं में फैली अस्पृश्यता के बारे में सवाल न पूछ बैठे । इस सवाल के पूछे जाने पर उन्हें बेहद बेचैनी महसूस होती थी क्योंकि इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था एक केवल डा० आम्बेडकर थे जिन्होंने अवसर मिलने पर इस समस्या को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाया था । संयोग से उन्हें १९४२ में इंस्टीट्यूट आफ पैसिफिक रिलेशन के चेयरमैन के तरफ़ से भारत के अछूतों की समस्या पर कनाडा के क्यूबेक के मांट ट्रमबलेंट में होने वाली कांफ्रेंस में एक पेपर पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया था । बाद में उन्होंने अपना यह पेपर "मिस्टर गाँधी एंड द एमोंसिपेशन आफ द अनटचेबल्स" शीर्षक से पुस्तिका के रूप में अलग से छपवाया था । इसमे डा अम्बेडकर ने विश्व समुदाय को बताया था कि भारत में अछूतों की मुसीबतें विश्व में अन्यत्र नीग्रो और यहूदियों की मुसीबतों से कम कठिन नहीं है उन्होंने चाहा था कि साम्राज्यवाद और नस्लवाद से लड़ते समय विश्व के चिन्तक अस्पृश्यता से लड़ना न भूलें ।५ इधर डा अम्बेडकर ने भारत में भी अस्पृश्यता की इस समस्या को पूरे राजनीतिक स्तर पर उठा दिया था उन्होंने एक तरह से अस्पृश्यता के खिलाफ पूरी शक्ति से आवाज उठाई थी । उनकी आवाज दबाने के लिए उस समय के कट्टरपंथी एवं उदारवादी हिन्दुओं के दोनों वर्गों ने पूरी कोशिश की थी लेकिन डा अम्बेडकर ने अपने काम में सफलता हासिल कर ली । उनके इसी दबाव के कारण भारत के संविधान के अनुच्छेद १७ में "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" से अधिक और अलग तथा उसमे एक नया आयाम जोड़ते हुए लिखा गया कि-"अस्पृश्यता" का अंत किया जाता है । आगे जारी.........