भारत में आज लोकतंत्र के मायने क्या हैं कहने को तो यह छह दशक पुराना और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है किन्तु क्या जन सामान्य को इस लोकतंत्र का लाभ मिल रहा है । आखिर भारत के लोकतान्त्रिक सरकारों की दिशा क्या है ? भारत विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र होने के कगार पर खड़ा है किन्तु किसका विकास हुआ क्या यह राष्ट्रीय संपत्ति का विकास है या कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों का या फिर जन सामान्य का यह गहन अध्ययन का विषय है । सरसरी तौर पर देखने से विकास तो अब केवल राजनैतिक घटनाओं तक ही सीमित हो गया लगता है । देश में युवा बेरोजगारों की फेहरिस्त लगातार लंबी होती चली जा रही है । बेरोजगार रोजगार न मिलने के कारण आत्महत्या करने को विवश है । विकास के नाम पर सरकारी पैसे का दुरूपयोग, ठेकेदारों को लाभ पहुचाने एवं कमीशन हेतु अनाप-सनाप परियोजनाओं को मंजूरी देना और आम जनता से वसूले गये टैक्स के पैसे को उन परियोजनाओं में झोकना जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों का मुख्य लक्ष्य हो गया है ।
आखिर स्पेशल इकोनामिक ज़ोन किसके लिए है ? स्पेशल इकोनामिक ज़ोन अधिनियम २००५ को लागू कर किसका भला किया जा रहा है और किसको बेदखल किया जा रहा है किसी से छुपा नहीं है । इस अधिनियम की आड़ लेकर किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल करने का षड्यंत्र जारी है । इन्ही कारणों से कृषि का संकट और भी गहरा हो रहा है । क्या कृषि को हाशिये पर रख कर उद्योगों को उन्नत बनाया जा सकता है वह भी ऐसे उद्योगों को जिससे गिने-चुने उद्योगपतियों को लाभ हो । स्पेशल इकोनामिक ज़ोन को विकसित करने के नाम पर उद्योगपतियों को भारी पैमाने पर करों में छूट दी जा रही है इतना ही नहीं जनता से वसूले गए टैक्स का हजारों करोड़ रूपये सब्सिडी के नाम पर उद्योगपतियों के हवाले किया जा रहा है साथ ही इन स्पेशल इकोनामिक ज़ोन से श्रम कानूनों को दूर रखने की पुरजोर कोशिशें हो रहीं है जिससे निरंकुश उद्योगपति श्रमिकों का शोषण कर सकें । मनमोहन, चिदंबरम और मोंटेक डेढ़ से दो दशक पहले (ट्रिकल डाउन थ्योरी) के बारे में कहा था कि समाज के शिखरों पर समृद्धी आयेगी तो वह नीचे तक पहुंच जायेगी किन्तु नतीजों की दिशा इन दावों से एकदम उलट दिखती है । अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गालब्रेथ ने "ट्रिकल डाउन थ्योरी" का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि घोड़े को चाहे कुछ भी खिलाओ पीछे से वह लीद ही निकलेगा यानि ट्रिकल डाउन थ्योरी की आड़ में उद्योगपतियों को चाहे जितना भी छूट और मुनाफा कूटने के अवसर दिए जाय तो भी वे श्रमिकों को उतना ही देंगे जिससे वे कारखाने में अपनी हड्डियाँ गला सकें ।
देश के नागरिकों के लिए लोकतंत्र को बड़ी सफाई से "ये जनता का, जनता से, जनता के लिए शासन है" का नारा दिया जाता है यह नारा आमजन को भ्रमित करने के लिए गढ़ा गया लगता है । अभी तक लोकसभा या विधानसभा के चुनावों में ऐसा कहीं भी नज़र नहीं आया कि चुनाव जनता के लिए हो रहे है । नेताओं और उनकी तथाकथित पार्टियों द्वारा सत्ता हथियाने के उद्देश्य से अपनाए जा रहे हथकंडों को देख कर यही लगता है कि चुनाव सत्ता सुख की प्राप्ति के लिए हो रहे है इन चुनावों के पश्चात विजेता अपने कार्यकाल में जनता के हित कम और अपने हित अधिक साधते है । विख्यात गांधीवादी व दर्शनशास्त्री प्रोफ़ेसर रामजी सिंह नें एक व्याख्यानमाला में कहा कि भारत में दलगत राजनीति का दीया बुझ चुका है । दलगत राजनीति व सत्ता पर दलपतियों का कब्जा है और संसदीय प्रणाली महज औपचारिक लोकतंत्र बन गयी है । भारतीय लोकतंत्र पर परिवारवाद हावी है । ध्यान से देखें तो आज आधी संसद ही परिवारवाद का नमूना है । भारतीय राजनीति में परिवारवाद की मौजूदा स्थिती को देखकर सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले ५ से १० वर्षों में भारतीय संसद पर केवल ५०० परिवारों का कब्जा होगा और उन्ही का शासन भी ।
इन सबके बीच आम आदमी की स्थिती क्या है ? अभाव और गरीबी से त्रस्त मंहगाई की मार झेलने को मजबूर, मंहगाई की मार का सीधा असर आम आदमी पर पड़ रहा है । दिन भर मेहनत करके भी मुश्किल से दो जून की रोटी पूरे परिवार को नसीब हो रही है । लगभग ३५ करोड़ लोग भूखा सोने को विवश हैं । राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की जनवरी २००८ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार २००५-०६ में लगभग १९ % आबादी मात्र १२ रूपये प्रतिदिन से कम में गुजारा कर रही थी । इसी तरह २२% शहरी आबादी ५८० रूपये मासिक से भी कम में जीवनयापन करने को मजबूर है । देश की लगभग एक अरब दस करोड़ की आबादी में से शासक वर्ग और उसके नाभिनाल से जुड़े उच्च मध्य वर्ग और मध्यम मध्यवर्ग लगभग १५ से २० करोड़ के बीच है, इसमें पूंजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, शेयर दलालों, कमीशन एजेंटों, कार्पोरेट प्रबंधकों, सरकारी नौकरशाहों, नेताओं, डाक्टरों, इंजीनियरों, उच्च वेतनभोगी प्रोफेसरों, मिडिया प्रबंधकों, अच्छी प्रक्टिस करने वाले वकीलों को गिना जा सकता है । इन्ही के लिए लोकतंत्र के मायने हो सकते हैं बाकी के लगभग ८८ से ९० करोड़ की आबादी के लिए आज भी लोकतंत्र के मायने नहीं हैं । "अमर्त्य सेन के शब्दों में कहें तो मानव एक उदर के साथ दो हांथ और एक मस्तिष्क लेकर पैदा होता है और यह सत्ता और व्यवस्था की सफलता, असफलता होती है कि वह उसका किस तरह प्रयोग कराती है या तो उसके हांथ व मस्तिष्क से मानव समाज के विकास की ओर बढ़ा जा सकता है और व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सकता है अन्यथा वह इसे व्यवस्था परिवर्तन के हथियार के रूप में प्रयोग करेगा जहां उसे सम्पूर्ण रोजगार, सम्पूर्ण सुविधाए, और समानता की उम्मीद होगी" ।
1 टिप्पणी:
dear rajesh ji,
ur thoughts are very good please keep writing coz i m also a human rights activist, very little, plz continue ringing and awake these sleeping Indias.
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