सोमवार, 7 सितंबर 2009

मानव अधिकार आयोगों द्वारा किये जा रहे मानव अधिकारों के हनन का कड़वा सच




भारत सरकार नें वर्ष १९९३ में अंतर्राष्ट्रीय एवं संयुक्तराष्ट्र संघ के निर्देशों को ध्यान में रख कर मानव अधिकार सुरक्षा अधिनियम १९९३ पारित किया इस अधिनियम के उद्देश्य कितने मानवीय थे या कितने तकनीकी यह अलग बहस का विषय है । बहरहाल अधिनियम को संसद से पारित करने के पश्चात राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया गया । उस समय भी तमाम वरिष्ठ मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की तरफ से सरकार द्वारा पारित किये गये अधिनियम के नियम व उपनियम तथा आयोगों में नियुक्तियों को लेकर तरह-तरह के सवाल खडे किये गये किन्तु इसके पश्चात भी मानव अधिकार कार्यकताओं को यह लगा कि कम से कम सरकार नें अधिनियम तो पारित किया ! आयोग तो बनाया ! ।
इन आयोगों को मानव अधिकार कार्यकर्ताओं नें मानव अधिकार हनन के शिकायतों के निपटारे के लिए बनाये गये एक फोरम के रूप में देखा और राज्य स्तरीय मानव अधिकार आयोगों के गठन हेतु अपने आंदोलनों को सक्रिय बनाये रखा परिणाम स्वरूप देश के तमाम राज्यों में मानव अधिकार आयोगों का गठन हो गया जिसमें आंध्रप्रदेश, आसाम, हिमांचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, केरल, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उडीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, गुजरात, एवं बिहार आदि का समावेश है ।
खेद जनक बात यह है कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग सहित तमाम राज्य मानव अधिकार आयोग विषय पर कार्यरत मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, सिविल सोसायटियों, संस्थाओं को समय-समय पर पीड़ित प्रताडित करने से बाज नहीं आते इनका मकसद मानव अधिकार हनन के मामलों पर नजर रखने तथा उसे रोकने के बजाय मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, सिविल सोसायटियों, संस्थाओं, को नष्ट करना हो गया है जोकि काफी गंभीर बात है दरअसल जिस दिन इन आयोगों की कमान नौकरशाहों के हाँथ में दी गयी उसी दिन यह तय हो गया कि आने वाले दिनों में ये आयोग ही मानव अधिकार आंदोलनों को कुचलने में अग्रणी भूमिका निभाएंगे इस समय वे स्थितियां बनती नजर आ रहीं है ।
मानव अधिकार आंदोलनों, संगठनों, संस्थाओं, को कुचलने के पीछे सरकारों की मंसा को जानने के लिए हमें यह समझना पडेगा कि इन आंदोलनों से सरकारों एवं सत्ताधारियों के किन हितों पर चोट पहुँचती है ! मसलन सरकारों एवं उसमें बैठे नौकरशाहों की जनविरोधी नीतियों का विरोध एवं उसका खुलासा करने, भ्रष्टाचार के मामले उजागर करने, नौकरशाहों के मनमानियों को रोकने का प्रयत्न करने, हिरासत में मौतों, फर्जी मुठभेडों, एवं पुलिस के अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने, जैसे मामले शामिल है इतना ही नही मानव अधिकार संगठनों की आयोगों के क्रिया कलापों के सम्बन्ध में उंगली उठाने से भी आयोगों में बैठाये गये नौकरशाह एवं पुलिस अधिकारी चिढ़ कर मानव अधिकार आंदोलनों को कुचलने की साजिशें रच रहें है ।
अब जरूरत इस बात की है कि मानव अधिकार एवं तमाम जनआंदोलनों से जुड़े हुए कार्यकर्ता एक मंच पर आयें और मानव अधिकार आयोगों एवं सरकारों द्वारा संगठनों एवं संस्थाओं को कुचलने के कुचक्र का कड़ाई से मुकाबला करें । क्योंकि इन निरंकुश पुलिस अधिकारियों एवं नौकरशाहों को अंकुश संतुलन की परिधि में बनाये रखने की जिम्मेदारी अंततः मानव अधिकार कार्यकर्ताओं पर ही है ।

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