जिस तरह हर संपत्ति, साम्राज्य लूट ठगी और अपराध की बुनियाद पर टिका होता है ठीक उसी तरह परिवार का ताना-बाना स्त्री की गुलामी और अस्मिता विहीनता की बुनियाद पर खडा है-चाहे वह मध्य युगीन पितृसत्तात्मक ढांचे वाला सामंती संयुक्त परिवार हो या पूंजीवादी ढंग से संगठित परिवार । परिवार वर्ग निरपेक्ष संस्था नहीं है परिवार का प्यार मूल्य मुक्त प्यार होता ही नही यही कारण है कि पूर्ण समानता और स्वतंत्र अस्मिता की चाहत रखने वाली कोई भी स्त्री भला क्यो चाहेगी कि बचा रहे परिवार ।
मेरे द्वारा इन तथ्यों को उभारने से कृपया मुझे अराजकतावादी अथवा स्वच्छंदतावादी न समझें यह बुर्जुआओं और फिलिसटाईन बुद्धिजीवियों और अतीत की रागात्मकता के लिए विलाप करने वाले अतीतजीवियों का गुण है । इतिहास में पीछे की ओर चलें तो एक विवाह प्रथा की स्थापना के साथ ही एक ओर जहाँ मानव सभ्यता के उच्चतर, अधिक वैज्ञानिक नैतिक मूल्यों का जन्म हुआ, पुरूष द्वारा स्त्री को दास बनाये जाने की शुरुआत भी यहीं से हुई धीरे-धीरे स्त्री एक सजीव पारिवारिक संपत्ति के रूप में रूपांतरित होती चली गई । संपत्ति संचय और कानूनी वारिसों को उसका हस्तांतरण परिवार का मुख्य उद्देश्य बन गया ।
सामंती समाज के पित्रसत्तात्मक पारिवारिक ढांचे में ऊपर से जो रागात्मकता, स्त्री के प्रति उदार संरक्षण भाव, यदा-कदा श्रद्धा भाव और उसके सौंदर्य के प्रति सूक्ष्म जागरूकता दिखाई देती है वह सब उपरी चीज है "खांटी पुरूष दृष्टि" को यह सब बहुत भाता है धुंधली पर्त को भेद कर रहस्य तक पहुंचने पर पता चलता है कि स्त्री सामंती समाज में विलासिता और निजी उपभोग की वस्तु मात्र थी और साथ ही वंश चलाने का जरूरी साधन । अपनी प्रजा, हांथी, घोडे, नौकर आदि के प्रति संरक्षण भाव रखने वाले सामंत स्त्रियों के प्रति भी संरक्षण भाव रखते थे ।
पूजीवाद ने अपनी जरूरतों से स्त्रियों को रसोई घर से उठाकर तथा गुलामी से आंशिक मुक्ति दिलाने के नाम पर दोयम दर्जे की नागरिकता देने के साथ उसे निकृष्टतम कोटी की उजरती गुलाम बनाकर सड़कों पर धकेल दिया पूजीवाद की विकसित अवस्था की उपभोक्ता संस्कृति में सूचना तंत्र, प्रचार तंत्र, और नये मनोरंजन उद्योग के अंतर्गत स्त्री ख़ुद में एक उपभोक्ता सामाग्री बनकर रह गई, पुराने सामंती परिवार के राग अनुराग को तोड़ कर पूंजी ने घटिया उपयोगितावाद को जन्म दिया और पूंजी पर निजी लाभ के आधार पर खडे पूजीवादी परिवार में बेगानापन पोर-पोर में रच-बस गया मध्य युगीन प्यार के स्वप्न लोक में विचरण करती दुखी आत्माओं को लगने लगा कि परिवार टूट रहा है, प्रलय आ रहा है, लेकिन यह परिवार का टूटना नहीं बल्कि उसका पूजीवादी रूपांतरण था ।
आज भारत में जिसे परिवारों का टूटना विखरना कहा जा रहा है वह क्या है ? इसका उत्तर है- औपनिवेशिक भारतीय समाज भूमि संबंधों के "जूकर" टाइप रूपांतरण और उद्योगों के विकास के साथ ही एक अर्ध औद्योगिक कृत समाज में क्रमशः रूपांतरित होता चला गया यहाँ साम्राज्यवाद पर निर्भर एक बौना, बीमार, विकलांग पूजीवाद विकसित हुआ है । अठारहवीं, उन्नीसवी सदी के यूरोपीय पूजीवाद से भिन्न उपनिवेशवाद के गर्भ से जन्मा साम्राज्यवादी विश्व परिवेश में पला यह पूजीवाद जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों मान्यताओं से समझौता किए हुए है, उन्हें "एडाप्ट" किए हुए है और स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों और तर्क परता से रिक्त है इस संक्रमण कालीन भारतीय समाज में स्त्रीयों की पीड़ा दोहरी है । संयुक्त परिवारों के ढांचे टूटने, नाभिक परिवारों के बढ़ते जाने और आंशिक सामाजिक आजादी के बावजूद मुल्क मान्यताओं के धरातल पर वह पित्रसत्तात्मक स्वेछाचारिता को भुगत रही है, और उपभोक्ता संस्कृति के नई नग्न निरंकुशता को भी, पति उसे शिक्षित और आधुनिक देखना चाहता है । अपनी मित्र मंडली को प्रभावित करना और जलाना चाहता है पर यह नहीं चाहता कि वह उसकी इच्छाओं की सीमा-रेखा लांघकर किसी पुरुष से (यहाँ तक कि किसी स्त्री से स्वतंत्र सम्बन्ध बनाये) वह यह तो चाहता है कि घर का बोझ हल्का करने के लिए कमाए पर वह यह नहीं चाहता कि अपने दफ्तर या कारखाने में स्वतंत्र रिश्ते बनाये वह यह जरूर चाहता है कि स्त्री यन्त्र मानव की तरह बस पैसे कमाए, और आज्ञाकारी शुशील पत्नी की तरह वह समय से घर आ जाए । उच्च से लेकर उच्च मध्यवर्ग तक में किटीपार्टियों, लायंस, रोटरी पार्टियों में जाने की आजादी है और पत्नियों की अदला-बदली और स्वच्छंद यौनोपभोग का खुला गुप्त चलन भी बढ़ रहा है । मध्य वर्ग से लेकर कामगार वर्गों तक की काम-काजू स्त्रियों का शारीरिक मानसिक श्रम सबसे सस्ता है । बाहरी काम-काज या नौकरी में पुरूष से अधिक श्रम करने के बावजूद उसे घर का काम-काज और बच्चों का लालन-पालन भी करना है कुछ उदार पति इसमें हाँथ बटाकर उसे उपकृत जरूर करते रहते है । प्यार को बचाने के लिए परिवार को बचाना जरूरी नही है समाज के नैतिक आत्मिक सौन्दर्यात्मक मूल्यों और भौतिक जरूरतों की एक अभिव्यक्ति समाज के इस नाभिक के रूप में हुई जो निजी दैनंदिन जीवन के संगठन का सबसे महत्वपूर्ण रूप थी पर मानवीय सारतत्व और प्यार की अभिव्यक्ति भविष्य के लिए समाज में किसी और संगठन के रूप में होगी यदि उसे परिवार की संज्ञा दी भी जाए तो कम से कम यह जरूरी कहना होगा कि उसका ढांचा मौजूदा पारिवारिक ढांचे से गुणात्मक रूप से भिन्न होगा उत्पादन एवं विनिमय प्रक्रिया के सामाजीकरण के साथ रसोई घर की गुलामी से पूर्णतः मुक्त होगी, स्त्री-पुरूष का प्यार तब पूर्ण समानता और स्वतंत्रता के आधार पर होंगे उसमें बाध्यता और विवशता का कोई तत्व नहीं होगा ।
भारत में जिस तरह पूरे सामाजिक राजनीतिक तंत्र में, ठीक उसी तरह आत्मिक- निजी जीवन में एक पुरानी बुराई का स्थान नई बुराई ने ले लिया है पित्रसत्तात्मक सामंती पारिवारिक ढांचे की स्वेच्छाचारिता, कूपमंडूकिय रागात्मकता स्त्रियों के पाथक्य आदि का स्थान आज बाजार उपनिवेशवाद के दौर में पूजीवादी पारिवारिक ढांचे की निरंकुशता, नग्न यौन उत्पीडन, उपभोक्ता संस्कृति और बेगानापन ने ले लिया है । और यह नया ढांचा अभी से क्षरणशील है, विघटनोंन्मुख है । साथ ही सकारात्मक पहलू यह है कि स्त्री के भीतर अपनी अस्मिता की नई पहचान, और नई मुक्ति चेतना पैदा हुई है । अभी वह हजारों साल पुराने संस्कारों से मुक्त नहीं हो सकी है पर अब वह दिन दूर भी नहीं कि वह सच्ची समानता व स्वतंत्र इच्छा पर आधारित नैतिक प्यार की उद्दातता व गरिमा को हासिल करने के लिए परिवार की मौजूदा संस्था, इसके व्यभिचारी, उत्पीड़क, शोषक, निरंकुश स्वरूप को ध्वस्त कर देगी इसे बचाने की कोशिश बेकार है वर्तमान की दुर्दशा का समाधान अतीत में नहीं बल्कि भविष्य में देखना होगा, सवाल सौन्दर्यात्मक उद्दात्त धरातल पर मानवीय प्रेम की प्राण प्रतिष्ठा का हैं एक ऐसी सामाजिक संरचना के निर्माण का है, जिसमें स्त्री पूर्ण समानता, स्वावलंबन और स्वतंत्र अस्मिता के आधार पर स्वयं अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने में सक्षम हो ।